लेख

हमारे पौराणिक पात्र- महर्षि सुश्रुत

प्लास्टिक सर्जरी का नाम आपने अवश्य सुना होगा. यह चिकित्सा की ऐसी विधि है जिसमें शरीर में होने वाले जन्मजात विकार, दुर्घटना से शरीर के किसी अंग में आई विकृति अथवा जलने से खराब हुई त्वचा को ठीक किया जाता है. कुछ लोग सुंदरता बढ़ाने या बढ़ती उम्र का प्रभाव छिपाने के लिए भी प्लास्टिक सर्जरी का सहारा लेते हैं. वैसे प्लास्टिक सर्जरी को चिकित्सा के क्षेत्र में नया माना जाता है पर यदि हम कहें कि भारत में महर्षि सुश्रुत ने आज से लगभग 2500 साल पहले प्लास्टिक सर्जरी की थी तो शायद आप चौंक जाएँगे. लेकिन यह बात प्रमाणित है. तो आइए इस लेख में हम महर्षि सुश्रुत के विषय में जानकारी प्राप्त करते हैं.

महर्षि सुश्रुत एक महान चिकित्साशास्त्री और शल्य चिकित्सक थे.उन्होंने चिकित्सा के क्षेत्र में अनेक ऐसे उल्लेखनीय कार्य किए जिनकी नींव पर आज का चिकित्सा विज्ञान सुदृढ़ता से खड़ा है.

महर्षि सुश्रुत द्वारा लिखी गई पुस्तक- 'सुश्रुत संहिता' का भारतीय चिकित्सा शास्त्र में विशिष्ट स्थान है. सुश्रुत संहिता में प्रमाण मिलता है कि इनका जन्म छठी शताब्दी ईसा पूर्व काशी में विश्वामित्र के कुल में हुआ था. इन्होंने धन्वन्तरि से चिकित्सा शास्त्र की शिक्षा ली.

उस काल में अक्सर युद्ध हुआ करते थे. युद्ध में घायलों को चिकित्सा के समय बहुत पीड़ा सहनी पड़ती थी, बहुत कठिनाई से चुभे हुए तीर आदि को निकाला जाता था. इस प्रकार की चिकित्सा को शल्य चिकित्सा कहा गया. शल्य चिकित्सा में होने वाली असहनीय पीड़ा को कम करने के लिए औषधियों का प्रयोग किया जाता था.

आचार्य सुश्रुत ने अपनी साधना और परिश्रम से शल्य चिकित्सा में निपुणता हासिल की. उन्होंने शल्यचिकित्सा के लिये अनेक यंत्र एवं उपकरण भी विकसित किए. आचार्य सुश्रुत ने शल्यचिकित्सा के परिष्कृत ज्ञान को अपनी एक सौ बीस अध्यायों वाली पुस्तक में कलमबद्ध किया.

सुश्रुत संहिता में शल्य चिकित्सा के विभिन्न पहलुओं को विस्तार से समझाया गया है. शल्य क्रिया के लिए सुश्रुत 125 तरह के उपकरणों का प्रयोग करते थे. इन उपकरणों में विशेष प्रकार के चाकू, सुइयाँ, चिमटियाँ आदि हैं. सुश्रुत ने 300 प्रकार की ऑपरेशन प्रक्रियाओं की खोज की. इन्होंने शल्यचिकित्सा के बाद शरीर को सीने की तकनीक भी विकसित की थी.

कॉस्मेटिक सर्जरी में सुश्रुत ने विशेष निपुणता हासिल की थी. वे नेत्र की शल्य चिकित्सा भी करते थे. सुश्रुत संहिता में मोतियाबिंद के ऑपरेशन करने की विधि का विस्तृत विवरण है. उन्हें शल्य क्रिया द्वारा प्रसव कराने का भी ज्ञान था. सुश्रुत को टूटी हुई हड्डियों का पता लगाने और उनको जोड़ऩे में विशेषज्ञता प्राप्त थी. शल्य क्रिया के दौरान होने वाले दर्द को कम करने के लिए वे मद्यपान या विशेष औषधियाँ देते थे. मद्य निश्चेतक का कार्य करता इसलिए सुश्रुत को निश्चेतना शास्त्र का पितामह भी कहा जाता है.

सुश्रुत को मधुमेह व मोटापे के रोग की भी विशेष जानकारी थी. इन्होंने शल्य चिकित्सा के साथ-साथ आयुर्वेद के अन्य पक्षों जैसे शरीर संरचना, काय चिकित्सा, बाल रोग, स्त्री रोग, मनोरोग आदि की जानकारी भी दी.

'सुश्रुत संहिता में 1100 बीमारियों, सैकड़ों औषधीय पौधों और सर्जरी करने के तरीकों के बारे में लिखा है. इसमें तीन तरह की त्वचा और नाक की सर्जरी के बारे में भी लिखा है.'त्वचा की सर्जरी का अर्थ शरीर के किसी एक हिस्से की त्वचा को दूसरे हिस्से पर लगाने से है. सुश्रुत के ग्रंथ में माथे की 'फ्लैप राइनोप्लास्टी' का पहला लिखित रेकॉर्ड है. इस प्रक्रिया में माथे की मोटी त्वचा की परत को कम करके उसे नाक पर इस्तेमाल किया जाता है. यह प्रक्रिया प्लास्टिक सर्जरी के लिए आज भी इस्तेमाल की जाती है.

सुश्रुत संहिता में उल्लिखित एक घटना है कि एक रात महर्षि सुश्रुत के आश्रम में एक व्यक्ति आया. उसकी नाक कट गई थी और रक्त बह रहा था.महर्षि सुश्रुत ने उसे अंदर बुलाया. उन्होंने उस व्यक्ति के गाल से माँस की एक परत ली और उससे कटी नाक को ठीक कर दिया.आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि लगभग यही प्रक्रिया (फ्लैप राइनोप्लास्टी) आज भी अपनाई जा रही है.

सुश्रुत श्रेष्ठ शल्य चिकित्सक होने के साथ-साथ श्रेष्ठ शिक्षक भी थे. उन्होंने अपने शिष्यों को शल्य चिकित्सा के सिद्धांत बताए और शल्य क्रिया का अभ्यास कराया. शल्य क्रिया के अभ्यास के लिए वे फलों, सब्जियों और मोम के पुतलों का उपयोग करते थे. मानव शरीर की अंदरूनी रचना को समझाने के लिए सुश्रुत शव पर शल्य क्रिया करके अपने शिष्यों को समझाते थे.

आचार्य सुश्रुत के द्वारा लिखी गई सुश्रुत संहिता को आयुर्वेद की नींव भी कहा जाता है. उन्होंने इस पुस्तक में आठ प्रकार की शल्य क्रिया के बारे में वर्णन किया है –छेद्य
भेद्य
लेख्य
वेध्य
ऐष्य
अहार्य
विश्रव्य
सीव्य
इस ग्रन्थ में उन्होंने चौबीस प्रकार के स्वस्तिकों, दो प्रकार के संदसों, अट्ठाइस प्रकार की शलाकाओं तथा बीस प्रकार की नाड़ियों का विस्तृत वर्णन किया है.

सुश्रुत संहिता का कई विदेशी भाषाओं में अनुवाद भी किया गया है.विश्वविख्यात कोलंबिया विश्वविद्यालय ने सुश्रुत को प्लास्टिक सर्जरी का प्रणेता माना है. मेलबोर्न के रॉयल ऑस्ट्रेलिया कॉलेज ऑफ सर्जरी में सुश्रुत की एक प्रतिमा स्थापित की गई है.

वे अपने शिष्यों से कहा करते थे 'अच्छा वैद्य वही है जो सिद्धांत और अभ्यास दोनों में पारंगत हो.'

चिकित्सा के क्षेत्र में पथप्रदर्शक महान चिकित्सक व गुरु महर्षि सुश्रुत पर हमें गर्व है.

बच्चों के साथ गणित पर कैसे काम करें?

लेखक- डॉ. सुधीर श्रीवास्तव

इस सवाल का ठीक-ठीक जवाब देना तो मेरे लिए मुश्किल है पर एक शिक्षक के रूप में मैंने यह पाया है कि कुछ बातें बच्चों के गणित सीखने को निश्चित रूप से प्रभावित करती हैं.

मुझे ऐसा लगता है कि जब हम एक शिक्षक, माता- पिता या किसी और रूप में बच्चों के साथ गणित पर काम कर रहे हों तो हमें इन बातों को आजमा कर देखना चाहिए -

धीरज रखना:-

जी हां, पहली और जरूरी शर्त है कि हम धीरज रखें. जो कुछ भी बच्चा आज सीख रहा है उसे हम पहले से जानते हैं. इसलिए उसके सोचने तथा काम करने की गति और तरीका निश्चित रूप से हमसे अलग ही होगा. उसे इस नए काम को करने में कुछ ज़्यादा वक्त लगेगा. यह बहुत स्वाभाविक है. यह बात याद रखें और उसे अपना समय लेने दें.

जब आप बचपन में साइकिल चलाना सीख रहे थे तो आपने भी पहले दिन ही सफलता हासिल नहीं की थी. कुछ भी नया सीखना समय लेता है. बच्चे को भी समय चाहिए.

यह विश्वास रखना कि हर बच्चा गणित सीख सकता है:-

एक काम कीजिए. किसी खुली जगह पर एक चम्मच शक्कर रख दीजिए. पांच - सात मिनट बाद जाकर देखिए. आप पाएंगे चींटियों ने अपना काम करना शुरू कर दिया है.(मैं जब यह पंक्तियां लिख रहा था तब मैंने भी यह किया.)
सोचिए, कितनी छोटी चींटी! कितना छोटा उसका सिर! और उस छोटे से सिर में छोटा सा दिमाग.... लेकिन उसने भी अपनी जरूरत के काम सीख लिए हैं.

इसी प्रकार इंसान के बच्चे का दिमाग भी पूरी तरह समर्थ होता है कुछ भी नया सीखने के लिए. इस बात पर भरोसा करने की जरूरत है.
दुनिया में अभी तक जितने भी आविष्कार हुए हैं, किसी इंसान के बच्चे ने ही किए हैं. गणित के सिद्धांत और उनकी संक्रियाएं तो बहुत छोटी चीजें हैं किसी इंसानी दिमाग के लिए. आपके सामने बैठी हुई बच्ची भी सीखेगी ही यह विश्वास कीजिए.

गणित सीखना यानी बांस की सीढ़ी पर चढ़ना :-

आपने ऐसी सीढ़ी सचमुच में या चित्रों में जरूर देखी होगी जो बांस या बल्लियों से बनी होती है. हो सकता है आपको इससे ऊपर चढ़ने का अनुभव भी हो.

कैसे चढ़ते हैं इस पर?... आजू-बाजू की दोनों बल्लियों पर ऊपर की ओर हाथ जमाते हैं ताकि संतुलन बना रहे. एक पैर पहले पायदान पर रखते हैं फिर दूसरा पैर भी. और इसी तरह धीरे-धीरे एक - एक पायदान ऊपर चढ़ते जाते हैं. अब कल्पना कीजिए इस सीढ़ी के कुछ पायदान हटा दिए जाएं तो क्या आप ऊपर चढ़ पाएंगे? शायद नहीं.

गणित सीखना भी ऐसा ही है. गणित की प्रत्येक अवधारणा उसके पहले की कुछ अवधारणाओं पर टिकी होती है. यदि बच्चे को किसी एक अवधारणा की स्पष्ट समझ नहीं बन पाई है तो वह इसके आगे की चीजें ठीक से नहीं सीख पाएगा. यदि कोई बच्चा उधार लेकर घटाने का काम ठीक तरह से नहीं कर पा रहा है तो यह हो सकता है कि उसने संख्याओं का बनना या घटाने का अर्थ भी अभी ठीक से नहीं समझा है. हमें अभी उसके साथ इन अवधारणाओं पर काम करने की जरूरत है. यहां पहले की ये दोनों अवधारणाएं दो ऐसे पायदान हैं जो उसकी सीखने की सीढ़ी में नहीं हैं. वह हमें पहले लगाने पड़ेंगे.

वहां से सफर शुरू करना जहां पर अभी हैं :-

कोई अभी जहां खड़ा है उसका सफर वहीं से तो शुरू होगा ना, कितनी सहज बात है. पर गणित की कक्षा में ऐसा नहीं होता. हम मान लेते हैं कि सभी बच्चे समान रूप से समान चीजें सीख चुके हैं और समझ के एक ही धरातल पर खड़े हुए हैं.

वास्तव में ऐसा नहीं होता. कक्षा का प्रत्येक बच्चा अलग-अलग समझ के साथ अलग-अलग जगह पर हो सकता है.

हम समूह के साथ काम कर रहे हों या किसी अकेले बच्चे के साथ, हमें पहले यह पता करना होगा कि बच्चा क्या-क्या जानता है. वह जो - जो और जितना जानता है उसकी पक्की समझ बनाने के बाद ही हम उसे आगे बढ़ने में मदद कर सकेंगे. ऐसी परिस्थितियों में धीरे-धीरे यह भी संभव हो सकेगा कि बिना किसी बाहरी सहायता के भी बच्चा खुद-ब-खुद सीखने लगे.

तो गणित पर काम की शुरुआत हमारे यह जानने से होगी कि बच्चा क्या-क्या जानता है.

गलतियां स्वाभाविक हैं और सीखने में मददगार भी:-

-क्या आपकी निगाह में कोई ऐसा व्यक्ति है जिसने गलतियां ना की हों?
-क्या आपको कोई ऐसा काम याद है जिसे आपने बिना गलती किए सीख लिया हो? नहीं न?
गलतियां, सीखने की प्रक्रिया का एक स्वाभाविक हिस्सा हैं. सीखने वाला अपनी गलतियों से यह समझता है कि मुझे कोई दूसरा रास्ता चुनना चाहिए. काम में होने वाली ये गलतियां न केवल बच्चे को रास्ता दिखाती हैं बल्कि शिक्षक को भी महत्वपूर्ण संकेत देती हैं. गणित सीखने के दौरान होने वाली गलतियां इस बात की ओर भी इशारा करती हैं कि बच्चे के दिमाग में क्या चल रहा है, उसकी सोच किस दिशा में जा रही है. ऐसी गलतियों का विश्लेषण कर सीखने की प्रक्रिया में जरूरी बदलाव किए जा सकते हैं.

एक उदाहरण पर गौर करें. एक बच्ची ने जोड़ का एक सवाल इस प्रकार हल किया -

दहाई     इकाई
___________
1             3
+       #160;     9
___________
1             12
___________

हो सकता है कुछ अध्यापक जांचते समय इसे गलत कहें. उनका तर्क होगा -

' 12 की एक दहाई को हासिल लेकर दहाई के योगफल को 2 करना चाहिए था. इस प्रकार उत्तर 22 आना चाहिए था, ना कि 112. '

इस पर आप क्या टिप्पणी देंगे?

अब इसे बच्चे के दृष्टिकोण से समझें. बच्चे ने 3 और 9 इकाइयों को जोड़कर 12 इकाइयां प्राप्त की और एक दहाई को अलग से लिखा. उसका उत्तर हुआ, एक दहाई और बारह इकाइयां.

सोचिए इसमें गलत क्या है?

अब आइए इस उदाहरण के दूसरे पहलू पर विचार करें. यह हमें इस बात को समझने में मदद करता है कि बच्चे को क्या-क्या आता है? बच्चे ने जिस तरह इसे हल किया उससे पता चलता है कि

- बच्चा संख्यांकों को उनके सही अर्थों के साथ पहचानता है.

- उसे एक अंक की संख्याओं को जोड़ना आता है.

- उसे यह भी समझ है कि इकाई को इकाई और दहाई को दहाई से जोड़ा जाता है.

तीसरी महत्वपूर्ण बात जो इस उदाहरण से निकल कर आती है वह यह है कि एक जिम्मेदार शिक्षक के मन में यह विचार जन्म ले सकता है -

' अभी बच्चे को क्या सीखना है ? '

( यदि इकाइयां 9 से अधिक हो जाएं तो उसे दहाई और इकाई के नए समूहों में लिखा जा सकता है.)

यदि कोई शिक्षक यहां तक सोच ले तो वह आगे इस बात पर भी ज़रूर विचार कर सकता है कि अब क्या गतिविधि की जा सकती है?

साथियो, और भी कई बातें हैं जो गणित पर बच्चे के साथ काम करते हुए हमें ध्यान में रखनी चाहिए. किंतु मुझे लगता है कि जितनी बातें ऊपर की गईं हैं उन्हें अपनी कक्षा में या किसी बच्चे के साथ काम करते हुए आजमा कर जरूर देखना चाहिए.

अभियंता शिरोमणि डॉ मोक्षगुण्डम विश्वेश्वैरैया

लेखक -नीलेश वर्मा

भारत-रत्न डॉ मोक्षगुण्डम विश्वेश्वरैया आधुनिक भारत के विश्वकर्मा के नाम से विख्यात हैं. डॉ. एम. विश्‍वेश्‍वरैया का जन्म 15 सितम्‍बर 1861 को, कर्नाटक के कोलार जिले के मुदेनाहल्‍ली गाँव में हुआ था. उनके पिता पं. श्रीनिवास शास्‍त्री संस्कृत के विद्वान थे तथा माँ का नाम वेंकचम्‍मा था. कुशाग्र बुद्धि के विश्वेश्वरैया प्राथमिक शिक्षा प्राप्त करते समय अपने अध्‍यापकों के प्रिय छात्र रहे. विश्वेश्वरैया जब 14 वर्ष के थे तभी उनके पिता की मृत्‍यु हो गयी.आगे की शिक्षा प्राप्‍त करने के लिए वे अपने मामा रमैया के पास बँगलौर चले गए. मामा की आर्थिक स्थिति भी अच्‍छी नहीं थी. विश्‍वेश्‍वरैया ने कुछ बच्चों को पढ़ाने का कार्य करते हुए अपनी पढ़ाई जारी रखी.

सन 1875 में उन्होंने बँगलौर के सेन्‍ट्रल कॉलेज में प्रवेश लिया. सन 1880 में बी.ए. की परीक्षा विशेष योग्‍यता के साथ उत्‍तीर्ण की.आगे इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने की इच्छा थी,पर आर्थिक स्थिति एक बड़ी समस्या थी. मैसूर के तत्‍कालीन दीवान रंगाचारलू ने विश्‍वेश्‍वरैया की लगन को देखकर उनके लिए छात्रवृत्ति की व्‍यवस्‍था कर दी. इसके बाद विश्‍वेश्‍वरैया ने पूना के ‘साइंस कॉलेज’ में प्रवेश लिया.‘सिविल इंजीनियरिंग’ श्रेणी में बम्‍बई विश्‍वविद्यालय से सर्वोच्‍च अंक प्राप्‍त करते हुए 1883 में डिग्री प्राप्त की.

इंजीनियरिंग की डिग्री प्राप्‍त करते ही विश्‍वेश्‍वरैया को बम्‍बई के लोक निर्माण विभाग में सहायक अभियन्‍ता के रूप में नौकरी मिल गई. इस पद पर काम करते हुए विश्‍वेश्‍वरैया ने प्राकृतिक जल स्रोतों से एकत्र होने वाले पानी को घरों तक पहुँचाने और घरों के गंदे पानी को निकालने के लिए समुचित व्‍यवस्‍था की. उन्‍होंने खानदेश जिले की एक नहर में पाइप-साइफन के कार्य को भलीभाँति सम्‍पन्‍न करके अपनी योग्यता से सभी को प्रभावित किया.

विश्‍वेश्‍वरैया को सन 1894-95 में सिन्ध के सक्खर क्षेत्र में पीने के पानी की परियोजना सौंपी गई. वहाँ का पानी पीने लायक ही नहीं था.अनेक तकनीकों का अध्‍ययन करने के बाद नदी के पानी को साफ करने के लिए उन्‍होंने नदी के तल में एक गहरा कुआँ बनाया. उस कुएँ में रेत की कई परतें बिछाई गईं. रेत की उन परतों से गुजरकर नदी का पानी पीने योग्य हो जाता थ. इस परियोजना के सफलतापूर्वक सम्‍पन्‍न होने से विश्‍वेश्‍वरैया की प्रतिभा और योग्यता की ख्याति फैल गई.

विश्‍वेश्‍वरैया ने अपनी मौलिक सोच से बाढ़ के पानी को नियंत्रित करने के लिए खड़गवासला बाँध पर स्वचालित जलद्वारों का प्रयोग किया. इन जलद्वारों की विशेषता यह थी कि बाँध में पानी को तब तक रोक कर रखते थे, जब तक वह पिछली बाढ़ के स्‍तर तक नहीं पहुँच जाता. जैसे ही बाँध का पानी उस स्तर से ऊपर बढ़ता जलद्वार अपने आप ही खुल जाते और निर्धारित स्‍तर तक पानी पहुँचने पर स्‍वत: ही बंद हो जाते थे.

विश्‍वेश्‍वरैया ने सिंचाई के लिए बाँध का पानी नहरों के माध्यम से खेतों तक पहुँचाने की व्‍यवस्‍था की. विश्‍वेश्‍वरैया ने अपने कार्यों के द्वारा पूना, बँगलोर, मैसूर, बड़ौदा, कराची, हैदराबाद, कोल्हापुर, सूरत, नासिक, नागपुर, बीजापुर, धारवाड़, ग्वालियर, इंदौर सहित अनेक नगरों को जल संकट से मुक्ति दिला दी.

अपनी प्रतिभा, परिश्रम और लगन से विश्‍वेश्‍वरैया लोक निर्माण विभाग में तरक्‍की की सीढियाँ चढ़ते गए.1904 में विभाग के सुपरिंटेंडिंग इंजीनियर के पद पर नियुक्‍त हुए.1908 में उन्होंने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया.

त्‍यागपत्र देने के बाद विश्‍वेश्‍वरैया ने कई विदेश यात्राएँ कीं और अनेक इंजीनियरिंग संस्‍थानों में जाकर अनुभव अर्जित किया.विदेश यात्रा से लौटने पर हैदराबाद के निजाम ने उन्‍हें बाढ़ की समस्‍या का समाधान करने की जिम्‍मेदारी सौंप दी. विश्‍वेश्‍वरैया लगभग एक वर्ष तक हैदराबाद में रहे. वहाँ उन्‍होंने अनेक बाँधों और नहरों का निर्माण कराया, जिससे बाढ़ की समस्‍या नियंत्रित हो गई. मैसूर राज्‍य के तत्‍कालीन दीवान ने विश्‍वेश्‍वरैया से मैसूर राज्‍य के प्रमुख इंजीनियर की जिम्‍मेदारी संभालने का आग्रह किया. चूँकि विश्‍वेश्‍वरैया की शिक्षा में मैसूर राज्‍य की छात्रवृत्ति का बड़ा योगदान था, इसलिए वे यह आग्रह टाल न सके और 1909 में मैसूर आ गए.

कावेरी नदी की बाढ़ के कारण प्रतिवर्ष सैकड़ों गाँव तबाह हो जाते थे. विश्‍वेश्‍वरैया ने मैसूर को बाढ़ से मुक्ति दिलाने के लिए विस्‍तृत योजना तैयार की. अपनी सूझबूझ और अभियांत्रिकी कौशल का परिचय देते हुए कावेरी नदी पर कृष्‍णराज सागर बाँध का निर्माण कराया. लगभग 20 वर्ग मील में फैला 130 फिट ऊँचा और 8600 फिट लम्‍बा यह विशाल बाँध उस समय भारत का सबसे बड़ा बाँध था. बाँध से अनेक नहरें एवं उपनहरें भी निकाली गईं, जिन्‍हें ‘विश्‍वेश्‍वरैया चैनल’ नाम दिया गया. इस बाँध में 48,000 मिलियन घन फिट पानी एकत्रित किया जा सकता था, जिससे 1,50,000 एकड़ कृषि भूमि की सिंचाई की जा सकती थी और 6000 किलोवाट बिजली बनाई जा सकती थी. इस बहुउद्देशीय परियोजना के कारण मैसूर राज्‍य की कायापलट हो गई. वहाँ अनेक उद्योग-धंधे विकसित हुए, जिसमें भारत की विशालतम मैसूर शुगर मिल भी शामिल है.

सन 1909 में मैसूर राज्‍य के तत्‍कालीन दीवान (प्रधानमंत्री) की मृत्‍यु के बाद मैसूर के महाराजा ने डॉ. विश्‍वेश्‍वरैया को मैसूर का नया दीवान नियुक्‍त कर दिया. दीवान के रूप में अपने कार्यकाल में विश्वेश्वरैया ने शिक्षा के प्रचार-प्रसार पर बल दिया और अनेक तकनीकी संस्‍थानों की नींव रखी. उन्होंने 1913 में स्‍टेट बैंक ऑफ मैसूर की स्‍थापना की. व्‍यापार तथा जनपरिवहन को सुचारू बनाने के लिए उन्‍होंने राज्‍य में अनेक महत्‍वपूर्ण स्‍थानों पर रेलवे लाइन बनवाईं. उन्‍होंने इंजीनियरिंग कॉलेज, बंगलौर (1916) एवं मैसूर विश्वविद्यालय की स्‍थापना की. सन 1918 में ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने के लिए उन्‍होंने पॉवर स्टेशन की भी स्‍थापना की. सामाजिक विकास के लिए अनेक योजनाओं को संचालित किया, और औद्योगीकरण पर बल दिया.

सन 1919 में विश्‍वेश्‍वरैया ने अपने पद से त्‍यागपत्र दे दिया. उसके बाद वे कई महत्‍वपूर्ण समितियों के अध्‍यक्ष एवं सदस्‍य रहे. सिंचाई आयोग के सदस्‍य के रूप में अनेक योजनाओं को कार्यरूप में परिणत किया. बम्‍बई सरकार की औद्योगिक शिक्षा समिति के अध्‍यक्ष के रूप में कार्य किया. वे भारत सरकार द्वारा नियुक्‍त अर्थ जाँच समिति के भी अध्‍यक्ष रहे. उन्‍होंने बम्‍बई कार्पोरेशन में एक वर्ष परामर्शदाता के रूप में अपनी सेवाएँ प्रदान कीं.

विश्‍वेश्‍वरैया ने देश की अनेक विकास योजनाओं में महत्वपूर्ण योगदान किया. उन्‍होंने बंगलौर में ‘हिन्‍दुस्‍तान हवाई जहाज संयंत्र ’ एवं ‘विजाग पोत-कारखाना’ प्रारंभ करवाने में महत्‍वपूर्ण भूमिका निभाई. भ्रद्रावती इस्‍पात योजना को साकार करने के लिए भी उन्होंने काफी श्रम किया.

विश्‍वेश्‍वरैया ने सतत् कार्य करते हुए 100 वर्ष से अधिक का जीवन पाया और जीवन में वे कभी खाली नहीं बैठे. 14 अप्रैल सन 1962 को उनका देहान्‍त हुआ. विश्‍वेश्‍वरैया धुन के पक्‍के, लगनशील और विचारवान इंजीनियर थे. वे कठिन परिश्रम और ज्ञान के प्रति समर्पित थे. उन्‍होंने समाज में जो प्रतिष्‍ठा प्राप्‍त की, वह विरले लोगों को प्राप्त होती है. ब्रिटिश सरकार ने उन्‍हें ‘सर’ की उपाधि से सम्मानित किया. डॉ. विश्‍वेश्‍वरैया के योगदान के लिए जादवपुर विश्‍वविद्यालय, पटना विश्‍वविद्यालय एवं प्रयाग विश्‍वविद्यालय ने उन्हें डी.एस-सी. की मानद उपाधि प्रदान की. काशी विश्‍वविद्यालय ने डी.लिट तथा मैसूर विश्‍वविद्यालय एवं बम्‍बई विश्‍वविद्यालय ने एल.एल.डी की उपाधियों से सम्‍मानित किया. भारत सरकार ने उन्‍हें सन 1955 में भारत के सर्वोच्‍च नागरिक सम्‍मान 'भारत रत्‍न' से विभूषित किया.1961 में देशभर में उनका जन्मशताब्‍दी समारोह मनाया गया. इस अवसर पर भारत सरकार ने उनके सम्‍मान में एक डाक टिकट जारी किया.

डॉ. मोक्षगुण्‍डम् विश्‍वेश्‍वरैया ने भारत निर्माण के लिए इतने कार्य किए कि वे ‘आधुनिक भारत के विश्‍वकर्मा’ के रूप में हमेशा याद किए जाते रहेंगे.

सफलता की कहानी

मनुष्यअपने मज़बूत इरादों से ही अपने रास्ते स्वयं बना पाता है एवं अपने जीवन का सफ़र तय कर पाता है. अपने दृढ़ संकल्प से चमेली ने अपने जीवन को एक नई दिशा दी.चमेली की कहानी बता रही हैं उसकी शिक्षिका जो शाला में जीवन कौशल सत्रों का संचालन करती हैं.

चमेली कस्तूरबा गाँधी बालिका विद्यालय गरियाबंद में कक्षा आठवीं की छात्रा है. चमेली गरियाबंद से काफी दूर पतोरादादर नामक गाँव से आई है. पतोरादादर कमार भुंजिया समुदाय के लोगों की बस्ती है. विद्यालय की कक्षा छठवीं में जब चमेली ने प्रवेश किया तब वह काफी शांत रहती थी.चमेली के गाँव में बोली जाने वाली भाषा और विद्यालय में बोली जाने वाली भाषा एवं वातावरण में अंतर और अपने मन की झिझक के कारण वह अपनी बात अच्छे से व्यक्त नहीं कर पाती थी. कक्षा में जब शिक्षक उससे कोई प्रश्न करते तब भी वह संकोचवश कुछ नहीं कह पाती थी.

चमेली को कक्षा सातवीं से जीवन कौशल सत्रों में शामिल होने का मौका मिला. इन सत्रों के दौरान कराई जाने वाली गतिविधियों के माध्यम से चमेली की झिझक दूर हो गई और वह अपनी बातें अपने दोस्तों एवं शिक्षिकाओं से कहने लगी.अब वह अच्छी तरह से अपनी बात व्यक्त करने लगी.इस वर्ष चमेली कक्षा आठवीं में है.अच्छे व्यक्तित्व के कारण चमेली को शाला नायिका बनाया गया है.

जीवन कौशल के सत्रों से चमेली की तर्कपूर्ण सोच विकसित हुई और उसके व्यवहार में भी परिवर्तन आया. चमेली की शिक्षिका एक घटना बताते हुए कहती हैं कि दीवाली की छुट्टी में जब चमेली अपने घर गई थी तब उसको माहवारी हुई. भुंजिया जनजाति में माहवारी से संबंधित बहुत से नियम व धारणाएँ होती हैं जिनके अनुसार चमेली को घर से आठ दिनों तक बाहर नहीं निकलना था, किसी पुरुष के सामने नहीं आना था. चमेली पर इन सभी का पालन करने के लिए दबाव बनाया गया. लेकिन चमेली ने दृढ़तापूर्वक यह सब करने से मना कर दिया क्योंकि उसने जीवन कौशल के सत्रों के माध्यम से यह जाना था की माहवारी एक प्राकृतिक एवं सामान्य प्रक्रिया है. उसके माता–पिता इस बात को लेकर चमेली से नाराज हो गए पर चमेली अपनी बात पर अडिग रही एवं उसने अपने परिवार वालों को माहवारी के बारे में बताया कि यह सामान्य प्रक्रिया है इसको लेकर हमें भेदभाव नहीं करना चाहिए. चमेली ने अधीक्षिका मैडम की बात अपने माता पिता से करवाई और उसके माता पिता भी चमेली की बातों को समझकर यह मान गए कि माहवारी एक सामान्य प्राकृतिक प्रक्रिया है.उन्होंने चमेली को 8 दिन घर में बंद करके नहीं रखा व छुट्टी समाप्त होने पर उसे स्कूल भी भेज दिया. चमेली स्कूल आकर अपनी पढ़ाई में लग गई. चमेली के माता पिता ने यह भरोसा भी दिलाया कि वे अपने परिवार में माहवारी से संबंधित भेदभाव वाली परंपराओं का पालन नहीं करेंगे.

तो यह थी चमेली की कहानी जो स्वयं के साथ साथ औरों के जीवन में भी बदलाव लेकर आयी.

जल प्रकृति की धरोहर है

रचनाकार- तुलस चंद्राकर

धरती पर जल एक बहुमूल्य रत्न है. जल प्रकृति की ओर से मानवता के लिए उपहार है. जल प्रकृति की अनमोल धरोहर है.जल की वजह से ही इस धरती पर जीवन संभव है. जल ही जीवन है, जल है तो कल है. जीवन के लिए शुध्द जल अति आवश्यक है,स्वच्छ जल अच्छे स्वास्थ्य की कुञ्जी है.

धरती के दो तिहाई भाग पर जल है,पर उसमें से मात्र एक प्रतिशत जल ही पीने योग्य है, 97 प्रतिशत जल महासागरों में भरा हुआ है, शेष दो प्रतिशत जल बर्फ के रूप में जमा है.

जल है तो जीवन है,इस बात को हर व्यक्ति समझता है, लेकिन जल संरक्षण के प्रति लोग जागरूक नहीं हैं. इंसानों की लापरवाही तथा प्रकृति के साथ छेड़छाड़,वृर्क्षो की अंधाधुंध कटाई व वनों के लगातार घटने से वर्षा की अवधि व वर्षा की मात्रा में कमी होने के कारण प्रतिवर्ष भूजल स्तर तेजी से नीचे जा रहा है. कल कारखानों से निकलने वाले दूषित जल व शहरी क्षेत्रों के गटर एवं कूड़े कचरे ने भूजल स्रोतों को प्रदूषित कर दिया है. फलस्वरूप आजकल शहरों से लेकर गाँवों तक जल संकट उत्पन्न होने लगा है. यह स्थिति अनियंत्रित मानवीय गतिविधियों के कारण ही उत्पन्न हुई है. इस समस्या का निराकरण भी मानव ही कर सकता है.

आइये हम सब निम्नलिखित उपाय अपनाकर जल बचाने में अपना योगदान देने का संकल्प लें -

  1. पानी व्यर्थ न गँवाएँ,पानी का सदुपयोग करें.
  2. नलों को इस्तेमाल के बाद बंद रखें.
  3. मंजन करते समय नल बंद रखें तथा आवश्यकता होने पर ही खोलें.
  4. खाद्य सामग्री तथा कपड़े धोते समय नल खुला न छोड़ें.
  5. जल को व्यर्थ नाली में न बहाएँ बल्कि इस जल का अन्यत्र उपयोग करें,जैसे पौधों या बगीचे की सिंचाई में.
  6. नहाते समय अधिक जल व्यर्थ न बहाएँ.
  7. पानी में कूड़ा कचरा न डालें.
  8. जल स्रोत के आसपास सफाई रखें.
  9. वर्षा के पानी को संरक्षित करें.

मैडम भीकाजी कामा: विदेश में तिरंगा फहराने वाली प्रथम भारतीय

लेखक -प्रमोद दीक्षित 'मलय'

24 सितम्बर 1861 को मुम्बई के एक व्यापारी पारसी परिवार में पिता सोराबजी पटेल और माता जैजीबाई के यहाँ एक बच्ची का जन्म हुआ. नाम रखा गया भीकाजी. भीकाजी का बचपन अंग्रेजी रहन-सहन और शानो-शौकत में व्यतीत हुआ. पढ़ाई के लिए उन्हें मुम्बई के प्रसिद्ध 'अलेक्जेंडर नेटिव गर्ल्स इंग्लिश इंस्टीट्यूट' में भेजा गया. वहाँ भीकाजी ने अपनी गम्भीरता और परिश्रम से अंग्रेजी भाषा पर अच्छा अधिकार प्राप्त कर लिया और गणित में विशेष योग्यता हासिल की. 1885 में भीकाजी का विवाह व्यापारी रुस्तम जी कामा के साथ हुआ. रुस्तम जी ब्रिटिश सरकार के समर्थक और प्रशंसक थे जबकि भीकाजी अपने पति के स्वभाव से ठीक विपरीत प्रखर राष्ट्रभक्त और अंग्रेज सरकार की कटु आलोचक थीं.

1896 में मुम्बई और पुणे में प्लेग फैल गया जिसने महामारी का रूप ले लिया. भीकाजी स्वयं की परवाह किए बिना रोगियों की सेवा-सुश्रूषा में जुट गईं. लगातार रोगियों के सम्पर्क में रहने के कारण वह स्वयं भी प्लेग से संक्रमित हो गईं. सघन उपचार से वह ठीक तो हो गईं लेकिन बहुत कमजोर हो जाने के कारण चिकित्सकों की सलाह पर बेहतर इलाज और जलवायु परिवर्तन के लिए 1902 में लंदन के लिए रवाना हुईं. लंदन में उनकी मुलाकात प्रसिद्ध क्रान्तिकारी श्यामजी कृष्ण वर्मा से हुई. इस मुलाकात ने उनके भावी क्रान्तिकारी पथ की आधारशिला रख दी. भीकाजी कामा ने 1905 में श्यामजी कृष्ण वर्मा और वीर सावरकर के साथ मिलकर भारत के ध्वज का पहला डिजाइन बनाया. स्वस्थ हो जाने के बाद भी वे भारत नहीं लौटीं. वहीँ रहकर क्रान्तिकारियों को हर तरह से सहयोग करने लगीं जिससे भारत और शेष दुनिया में भारत के स्वतंत्रता संघर्ष की गाथा को सुना जाने लगा. वह कहती थीं, 'भारत को आजाद होना चाहिए, भारत एक गणतंत्र होना चाहिए, भारत में एकता होनी चाहिए.'

22 अगस्त 1907 को जर्मनी के स्टुटगार्ट शहर में विश्व भर के समाजवादी विचारधारा वाले लोगों का एक बड़ा सम्मेलन हुआ. भारत की आजादी के लिए, अंग्रेजों के विरुद्ध शंखनाद करने एवं ब्रिटिश शासकों के अमानवीय बर्बरतापर्ण व्यवहार एवं आम जन के साथ किए जा रहे हिंसक अत्याचार को विश्व के सम्मुख प्रस्तुत करने हेतु इसे एक उचित मंच समझकर वीर सावरकर और श्यामजी कृष्ण वर्मा ने भीकाजी कामा को जर्मनी भेजने का निश्चय किया. जब समारोह प्रारम्भ हुआ तो भीकाजी कामा ने देखा कि सम्मेलन में सम्मिलित हो रहे सभी प्रतिनिधियों के देशों के ध्वज कार्यक्रम स्थल पर सम्मान के साथ फहराए गए हैं. लेकिन भारत के ध्वज के रूप में यूनियन जैक को फहराता देखकर भीकाजी का खून खौल उठा और उन्होंने भारत का अपना ध्वज फहराने का निश्चय किया. उन्होंने अपने साथ लाये गये भारतीय ध्वज को फहराया और उपस्थित प्रतिनिधियों के सम्मुख ओजस्वी भाषण देते हुए कहा, 'यह भारतीय स्वतंत्रता का ध्वज है. इसका जन्म हो चुका है. हिन्दुस्तान के युवा वीर सपूतों के रक्त से यह पहले ही पवित्र हो चुका है.' सभी ने ध्वज का वंदन कर एक तरह से भारतीय स्वतंत्रता के ध्वज को मान्यता प्रदान कर दी. इस ध्वज में ऊपर से क्रमशः हरी, पीली और लाल क्षैतिज पट्टियां थीं. हरी पट्टी में कमल के खिले आठ पुष्प टँके हुए थे जो तत्कालीन भारत के आठ राज्यों के प्रतीक थे. बीच की पट्टी में देवनागरी लिपि में वंदेमातरम् अंकित था और लाल पट्टी में बाईं ओर सूरज एवं दाईं ओर चाँद के चित्र बने हुए थे. यह झण्डा वर्तमान में एक धरोहर के रूप में पुणे की मराठा केसरी लाईब्रेरी में सुरक्षित है.

अंग्रेज भीकाजी को खतरनाक, अराजकतावादी क्रान्तिकारी एवं ब्रिटिश विरोधी मानते थे, इसीलिए उनके भारत प्रवेश पर रोक लगा रखी थी. इतना ही नहीं भारत में उनकी सारी सम्पति जब्त कर ली गई थी. अंग्रेजों में भीकाजी कामा का इतना खौफ था कि लन्दन प्रवास के समय उन्हे मारने की गुप्त योजना भी बनाई गई, लेकिन समय रहते जानकारी हो जाने से वह लंदन छोड़कर 1909 में पेरिस चली गईं और अंग्रेज हाथ मलते रह गये. पेरिस में भीकाजी कामा ने 'होमरूल लीग' की स्थापना की. जेनेवा से 1909 में लाला हरदयाल द्वारा प्रकाशित 'वंदेमारतम्' साप्ताहिक पत्र में सहयोग किया. यह पत्र प्रवासी भारतीयों में बहुत लोकप्रिय हुआ. उन्होंने बर्लिन से 1910 में 'तलवार' नाम से एक समाचारपत्र निकाला. वीर सावरकर की प्रसिद्ध पुस्तक '1857 का स्वतंत्रता संग्राम' के प्रकाशन एवं वितरण में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया. प्रथम विश्व युद्ध के समय उन्हें दो बार गिरफ्तार किया गया. वह लंदन प्रवास के समय दादा भाई नौरोजी की निजी सचिव रहीं. भारतीय क्रान्तिकारी उन्हें 'भारतीय क्रान्ति की माता' मानते थे. एक बार अखबारों में उनका चित्र जोन ऑफ आर्क के साथ छपा जिसे देखकर अंग्रेज सरकार चौकन्नी हो गई और भीकाजी कामा पर नजर रखने लगी.

तीस साल तक भारत से बाहर रहते हुए मैडम कामा ने यूरोप और अमेरिका में भाषण और समाचार पत्रों में अनेक लेख लिखकर अंग्रेजों की दमनकारी नीतियों एवं भारतीय जनता पर किये जा रहे अत्याचार का सच दुनिया के सामने रखा और भारत की आजादी की माँग रखी. भीकाजी कामा स्त्री-शिक्षा की प्रबल हिमायती थी और तमाम समस्याओं की जड़ महिलाओं की अशिक्षा को मानती थीं. वह महिला अधिकारों और उनके स्वावलम्बन की पैरोकार थीं. उनका यह रूप मिस्र में आयोजित एक सम्मेलन में देखने को मिला. वहाँ उपस्थित श्रोताओं के समक्ष उन्होंने गंभीर गर्जना की, 'याद रखिए जो हाथ पालना झुलाते हैं वही चरित्र निर्माण करते हैं.' अत्यधिक प्रवास एवं श्रम के चलते मैडम कामा का स्वास्थ्य लगातार गिर रहा था. वे अपना अंतिम समय भारत में बिताना चाहती थीं. अपने देश के प्रति इस उत्कट प्रेम के कारण वे भारत में प्रवेश करने की पाबंदी के बावजूद 1935 में स्वदेश आयीं. उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया. 13 अगस्त 1936 को बीमारी के कारण मैडम भीकाजी कामा ने भारत की पवित्र भूमि को अंतिम प्रणाम करते हुए नश्वर देह त्याग दी.

26 जनवरी 1962 को भारतीय डाक विभाग ने भीकाजी कामा के अविस्मरणीय योगदान को स्वीकारते हुए उन पर एक डाक टिकट जारी किया. भारतीय तटरक्षक दल ने 1997 में अपने एक युद्धक पोत का नामकरण भीकाजी के नाम पर किया. भारत के कई नगरों की सड़कों के नाम भीकाजी कामा पर रखे गये हैं ताकि भावी पीढ़ी उनके योगदान से परिचित हो सके.

हमारे प्रेरणास्रोत - सावित्री बाई फुले

हैलो बच्चो,

आज हम १९ वीं सदी की एक ऐसी महिला के बारे में बात करेंगे जिन्होंने उस दौर में महिला सशक्तिकरण, महिलाओं के मौलिक अधिकारों और उनकी शिक्षा के लिए काम किया. बच्चो,आज हम आपको सावित्री बाई फुले के बारे में बताने वाले हैं.

सावित्री बाई फुले का जन्म ३ जनवरी १८३१ को महाराष्ट्र के सतारा ज़िले में एक किसान परिवार में हुआ. उस समय लड़कियों की शिक्षा पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया जाता था. लड़कियों का विवाह बचपन में ही कर दिया जाता था. सावित्री बाई का विवाह भी ९ वर्ष की अवस्था में ज्योतिबा फुले से कर दिया गया. विवाह के बाद ज्योतिबा ने ही सावित्री बाई को पढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया क्योंकि वे स्वयं भी महिलाओं की शिक्षा के प्रबल समर्थक थे. ज्योतिबा ने सावित्री बाई को दो साल तक घर पर ही आरम्भिक शिक्षा दी. उसके बाद सावित्री बाई ने अहमदनगर से दो साल का शिक्षक प्रशिक्षण लिया और इस तरह वे एक शिक्षिका बनीं.

सावित्री बाई और उनके पति ने मिलकर सन १८४८ में पहला गर्ल्स स्कूल पुणे में खोला. एक महिला का शिक्षित होना कुछ दक़ियानूसी लोगों को रास नहीं आया. सावित्री बाई जब स्कूल पढ़ाने जातीं तो उन्हें कुछ लोग पत्थर मारते, कुछ अपनी छतों से उनके ऊपर कूड़ा फेंकते. इन सबसे सावित्रीबाई की हिम्मत कम नहीं हुई. वे एक साड़ी अपने थैले में लेकर जातीं और स्कूल जाकर कपड़े बदल लेतीं.

समाज के विरोध के बाद भी उन्होंने क़रीब १८स्कूल खोले. उनके स्कूलों की विशेषता थी, वहाँ का पाठ्यक्रम. उनके स्कूलों में गणित, विज्ञान और सामाजिक विज्ञान पढ़ाया जाता था. उनके पढ़ाने का तरीक़ा इतना अच्छा था कि अन्य स्कूलों में पढ़ने वाले लड़कों की अपेक्षा वहाँ पढ़ने वाली लड़कियों के परीक्षा परिणाम ज़्यादा अच्छे आते थे.

सावित्री बाई का मानना था कि एक माँ अपने बच्चे को जितनी अच्छी तरह से पढ़ा सकती है कोई और उस तरह नहीं पढ़ा सकता इसीलिए महिलाओं का शिक्षित होना बहुत ज़रूरी है.

सावित्री बाई फुले ने अपना सम्पूर्ण जीवन स्त्रियों को शिक्षा देने, उन्हें उनके अधिकारों के प्रति जागरूक करने और सभी तरह से उनका आत्मबल बढ़ाने के लिए समर्पित कर दिया.विधवा स्त्रियों का फिर से विवाह कराना, छुआछूत का भाव दूर करना और समाज की शोषित उपेक्षित स्त्रियों को शिक्षा का संबल देने का काम वे जीवन पर्यन्त करती रहीं. यह सब उन्होंने उन परिस्थितियों में किया जब एक स्त्री के लिए स्वयं शिक्षा प्राप्त करना भी बहुत कठिन हुआ करता था.

उनके बारे में कहा जाता है कि वे भारत की पहली महिला शिक्षिका थीं. वे मराठी में कविताएं भी लिखती थीं. उन्हें आधुनिक मराठी काव्य का अग्रदूत कहा जाता है.उनका जीवन महान और प्रेरणाप्रद है. आने वाली पीढ़ियाँ उनसे शक्ति और प्रेरणा पाती रहेंगी.

कोरोना - सब जगह है रोना

रचनाकार- प्रिया देवांगन 'प्रियू'

आजकल देश विदेश में कोरोना वायरस की ही चर्चा है.कोरोना वायरस चीन से निकल कर दुनिया के 122 देशों में फैल गया है.इस वायरस के प्रकोप से दुनिया भर में लाखों लोग अपनी जान गँवा चुके हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन {WHO}इसे महामारी घोषित कर चुका है.

कोरोना वायरस एक सूक्ष्म वायरस है जो मनुष्य के शरीर मे पहुंच कर अपना प्रभाव दिखाता है. यह वायरस चीन के वुहान शहर से शुरू हुआ है.

कोरोना वायरस के लक्षण सर्दी,खाँसी, बुखार, गले मे खराश, साँस लेने में तकलीफ होना आदि हैं.यह बीमारी एक दूसरे में बहुत तेजी से फैलती है. अगर किसी को सर्दी, खाँसी हो या बुखार आये तो तुरंत डॉक्टर के पास जाना चाहिये.

कोरोना वायरस से बचने के उपाय -

  1. हाथ, पैर, मुँह को अच्छी तरह से साबुन से धोना चाहिए.
  2. खाँसते या छींकते समय मुँह रुमाल से ढँकना चाहिये.
  3. भीड़ भाड़ वाली जगहों पर नहीं जाना चाहिये.

ये सभी सावधानियाँ सभी को रखना चाहिये. सावधानी ही इस वायरस के संक्रमण से बचने का प्रमुख उपाय है.

हरेली

रचनाकार- सीमांचल त्रिपाठी

हरेली त्योहार अच्छी फसल की कामना के साथ प्रकृति की पूजा का पर्व है. इसे छत्तीसगढ़ के किसानों का सबसे बड़ा और प्रथम पर्व माना जाता है. हरेली को सावन के कृष्णपक्ष की अमावस्या को मनाया जाता है. इस पर्व की धूम गाँव के साथ - साथ शहरों में भी नज़र आती है.

इस पर्व को किसान बड़ी धूमधाम से मनाते हैं. गाँव के बच्चे गेड़ी चढ़ते हैं, वहीं गेड़ी दौड़ व नृत्य आदि का भी जगह- जगह आयोजन होता है. हरेली के दिन गाँव में युवाओं की टोली नारियल फेंक कर नारियल जीतने का खेल खेलती है.

हरेली पर किसान अपने कुल देवी-देवताओं और ग्राम देवता की पूजा करते हैं. वे नागर, गैंती, कुदाली, फावड़ा समेत कृषि के काम आने वाले सभी तरह के औजारों की साफ-सफाई कर उन्हें एक स्थान पर रखते हैं और उनकी पूजा-अर्चना करते हैं. इस अवसर पर सभी घरों में गुड़ का चीला बनाया जाता है.

हरेली के दिन ग्रामीण क्षेत्रों में सुबह से शाम तक उत्सव जैसी धूम रहती है.आज के दिन यादव समाज के लोग बगरंडा की पत्तियाँ इकट्ठी कर गाय, भैंस व बैलों को बीमारी से बचाव की दृष्टि से खिलाते हैं. कुल मिलाकर अच्छी फसल की कामना के साथ प्रकृति की पूजा ही इस पर्व की विशेषता है.

मुंशी प्रेमचंद की कथा- साहित्य में सामाजिक चिंतन की झलक विषय पर वर्चुअल साहित्यिक संवाद कार्यक्रम का आयोजन

रचनाकार- हेमंत खूंटे

कथासम्राट मुंशी प्रेमचंद की 140 वी जयंती के विशेष अवसर पर श्री एन.पी. स्मृति फाउंडेशन पिथौरा द्वारा वर्चुअल साहित्यिक संवाद कार्यक्रम का आयोजन किया गया जिसका विषय था मुंशी प्रेमचंद की कथा साहित्य में सामाजिक चिंतन की झलक. कार्यक्रम का उद्घाटन कक्षा ग्यारहवीं की छात्रा तीस्ता खुटे ने मुंशी प्रेमचंद की छायाचित्र पर पुष्प अर्पण कर उनके जीवन परिचय पर आधारित साहित्यिक रचनाओं पर आलेख पठन किया.

कार्यक्रम की अध्यक्षता मंदसौर के संपादक नंद किशोर जोशी ने की. कार्यक्रम में बीजू पटनायक, हेमन्त खुटे, शैलेंद्र नायक,तबस्सुम, यशवंत चौधरी, मेघलत बंजारे ने अपने विचारों को साझा किया.

कार्यक्रम की शुरुआत करते हुए फाउंडेशन के फाउंडर एवं शिक्षाविद् बीजू पटनायक ने कहा कि प्रेमचंद कालजयी लेखक थे. उनका व्यक्तित्व और कृतित्व साहित्य जगत के लिए अनमोल धरोहर है. मुंशी प्रेमचंद इसलिए महान् है कि वह समय के साथ सत्य को उदघाटित करते थे और उस समय का सत्य उनका सामाजिक चिंतन है जो मानवता और मानवीय मूल्य शिक्षाओं का एक दृष्टांत है. प्रेमचंद के लेखन में भारतीय समाज खासतौर पर ग्रामीण समाज का चित्रण है.प्रेमचंद के साहित्य का मूल उद्देश्य सामाजिक संरचना में सामाजिक चेतना के जरिए समाज में सुंदर बदलाव लाना है. वे उच्च कोटि के विचारक ही नहीं अपितु समाज सुधारक और प्रखर सामाजिक चिंतक भी थे.

शासकीय उच्च प्रथमिक शाला कसहीबाहरा में कार्यरत शिक्षक हेमन्त खुटे ने कहा कि प्रेमचंद ने अपने युग का प्रतिनिधित्व किया है. मुंशी प्रेमचंद का साहित्य सामाजिक चिंतन के लिए ही जाना जाता है. उनका यथार्थवादी दृष्टिकोण सामाजिक पृष्ठभूमि पर आधारित रहा है. इसलिए उनके लेखन कार्य में पर्याप्त विविधता मौजूद है. मुंशी प्रेमचंद ने शोषण, अन्याय,विषमता के विरुद्ध आवाज उठायी और केवल उसे ही अपनी कलम का विषय बनाकर रेखंकित किया है.कर्मभूमि,प्रेमाश्रम,गबन,गोदान जैसी रचनाएं तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था का सुंदर चित्रण प्रस्तुत करती है. प्रेमचंद ने गोदान में लिखा है अन्याय ने मनुष्य जाति में विद्रोह की भावना उत्पन्न करके समाज का बड़ा उपकार किया है.

शासकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय केना (सराईपाली) के व्याख्याता शैलेंद्र कुमार नायक ने कहा कि प्रेमचंद का सपना हर तरह कि विषमता,सामाजिक कुरीतियों और संप्रदायिक वैमनस्य से परे होकर एक स्वस्थ समाज का निर्माण करना था जिसमें समता और सदभावना सर्वोपरि है. वे इस तथ्य को भलीभांति जानते थे कि भारतीय समाज में विद्यमान सामाजिक बुराइयों को दूर करके ही राष्ट्रीयता की भावना को पोषित कर सकते हैं. उन्होंने कहा कि हम ऐसे राष्ट्रीयता की परिकल्पना कर रहे हैं जिसमें जन्मगत वर्ण व्यवस्था और जाति प्रथा की गंध नहीं होगी.

शासकीय मिडिल स्कूल निमोरा (रायपुर) में पदस्थ शिक्षिका मेघलता बंजारे ने कहा कि मुंशी प्रेमचंद ने अपनी रचनाओं में सामाजिक कुरीतियों का डटकर विरोध किया है. उनकी कृतियां आज भी प्रासंगिक है. उन्होंने जिन चरित्रों का चित्रण किया है वह आज की वास्तविकता से परिपूर्ण है. ग्रामीण जीवन की यथार्थ चित्रण करने में मुंशी प्रेमचंद सिद्धहस्त थे. गोदान उपन्यास के पात्र होरी और धनिया का चरित्र आज भी हमारे लिए अनुकरणीय है.ग्रामीण जीवन में गाय की कितनी महत्ता है इसकी सुंदर झांकी गोदान में दिखाई पड़ती है प्रेमचंद की कृतियों में सामाजिक समस्याओं को उभार कर उसके निराकरण के लिए भी चेष्ठा की गई है. इसलिए उन्होंने चरित्र के माध्यम से उभारने का प्रयास किया है.प्रेमचंद के मन मे व्यथित समाज की पीड़ा थी.यह प्रेमचंद की सामाजिक चिंतन का एक नजरिया है.

शासकीय पूर्व माध्यमिक शाला लाती (सराईपाली) के नवाचारी शिक्षक यशवंत चौधरी ने कहा कि सामाजिक चेतना के लिए मुंशी प्रेमचंद के साहित्य को जाना जाता है. सामाजिक उत्पीड़न,शारिरिक शोषण, ग्रामीण जीवन की यथार्थता को लेखनी के माध्यम से प्रस्तुत किया है. तत्कालीन समय की सूदखोरी,भ्रष्टाचार, गरीबी,नारी मुक्ति,दलित उत्पीड़न विषय का चयन कर साहित्य को आधार प्रदान किया है.मुंशी प्रेमचंद के साहित्य में गरीब किसानों, संघर्षशील मजदूरों की त्रासदियों को उजागर किया है. उन्होंने उन लोगों का पक्ष लिया है जो दलित, पीड़ित और शोषित है. गरीबी मनुष्य के जीवन को कितना प्रभावित करती है इसका प्रभाव प्रेमचंद की रचनाओं में मिलता है. प्रेमचंद ने लिखा है खाने और सोने का नाम जीवन नहीं है. जीवन का नाम आगे बढ़ते रहने की लगन है. यह संदेश प्रेमचंद जैसे नामचीन लेखक ही दे सकते हैं.

शासकीय मिडिल स्कूल कसहीबाहारा में पदस्थ शिक्षिका तबस्सुम ने कहा कि प्रेमचंद जी एक ऐसे रचनाकार हुए जिन्होंने निर्भीक होकर सामाजिक व्यवस्था पर चिंतन मनन कर साहित्यिक रचना की. उनकी रचनायें तत्कालीन समस्याओं पर आधारित थी और मानवीय पीड़ा को कलम के माध्यम से उजागर किया है. मुंशी प्रेमचंद ने प्रतिज्ञा उपन्यास में एक विधवा जीवन का मार्मिक चित्रण किया है और वे यह बताना चाहते हैं कि कोई स्त्री स्वयं विधवा नहीं बन जाती है. प्रेमचंद की लेखनी विधवा पर समाज की क्रूरता आँकने में सक्षम है. प्रेमचंद नारी अधिकारों को लेकर भी बहुत सारे सामाजिकगत कार्य किए हैं. नारी उत्थान में जिन लोगों ने उन्हें सहायता पहुंचाई है परोक्ष रूप से उनका आभार भी माना है.उन्होंने महिला समानता और महिला शिक्षा पर जोर देकर उनके उत्थान के लिए भरसक प्रयत्न भी किये है.

गुरू शिष्य संबंध

रचनाकार- चानी ऐरी

एक बार एक व्यक्ति की उसके बचपन के शिक्षिका से मुलाकात होती है. वह उनके चरण स्पर्श कर अपना परिचय देता है.

वे बड़े प्यार से पुछती हैं, 'अरे वाह! आप मेरे विद्यार्थी रहे है, अभी क्या करते हो, क्या बन गए हो ?'

' मैं भी शिक्षक बन गया हूँ.' वह व्यक्ति बोला और इसकी प्रेरणा मुझे आपसे ही मिली थी,जब मैं 7 वर्ष का था.

उस शिक्षिका को बड़ा आश्चर्य हुआ और वे बोली "मुझे तो आपकी शक्ल भी याद नहीं आ रही है. उस उम्र में मुझसे कैसी प्रेरणा मिली थी ?'

वह व्यक्ति कहने लगा 'शायद आपको याद हो जब मैं चौथी कक्षा में पढ़ता था, तब एक दिन सुबह-सुबह मेरे सहपाठी ने उस दिन उसकी महंगी घड़ी चोरी होने की आपसे शिकायत की थी.

आपने कक्षा का दरवाज़ा बन्द करवाया और सभी बच्चों को कक्षा में पीछे एक साथ लाइन में खड़ा होने को कहा था. फिर आपने सभी बच्चों की जेबें टटोली थीं.मेरे जेब से आपको घड़ी मिल गई थी जो मैंने चुराई थी. पर चूँकि आपने सभी बच्चों को अपनी आँखें बंद रखने को कहा था तो किसी को पता नहीं चला कि घड़ी मैंने चुराई.

महोदया,उस दिन आपने मुझे लज्जा व शर्म से बचा लिया और इस घटना के बाद कभी भी आपने अपने व्यवहार से मुझे यह नहीं लगने दिया कि मैंने एक गलत कार्य किया था.

आपने बगै़र कुछ कहे मुझे क्षमा भी कर दिया और दूसरे बच्चे मेरा मज़ाक़ बनाते इससे भी बचा लिया था.'

ये सुनकर शिक्षिका बोली, 'मुझे भी नहीं पता था बेटा कि वो घड़ी किसने चुराई थी.'

वह व्यक्ति बोला,”नहीं टीचर, ये कैसे संभव है ? आपने स्वयं अपने हाथों से चोरी की गई घड़ी मेरे जेब से निकाली थी.'

शिक्षिका बोली' बेटा मैं जब सबके जेब चेक कर रही थी, उस समय मैंने कहा था कि सब अपनी आँखें बंद रखेंगे और वही मैंने भी किया मैंने स्वयं भी अपनी आँखे बंद रखी थी.'

सीख- यदि हमें किसी की कमजोरी मालूम पड़ जाए तो उसका मज़ाक़ नहीं बनाना चाहिए.

संस्मरण - रामेश्वरम धाम यात्रा

रचनाकार- डिजेन्द्र कुर्रे

रामेश्वरम धाम यात्रा का अविस्मरणीय पल. 2018 में डिजेन्द्र कुर्रे, मनोज, नीलम,अशोक टंडन,और धनंजय निराला चार साथी मिलकर यात्रा के लिए निकले.यात्रा का प्रारंभ लौहपथगामनी में बैठकर रायपुर से दिल्ली के लिए रवाना हुआ.गाड़ी की छुक-छुक की आवाज,खिड़की के पास बैठकर दिखाई देता प्रकति का अनमोल नजारा मनःपटल पर आज भी जीवन्त है.यात्रा की इस कड़ी में अनेक अनजान लोगों से बात कर मन बहुत ही प्रसन्न था.किसी पंछी की भांति पंख लगाकर कैसे उड़ती जा रही थी, आभास ही नही हुआ.बीच-बीच में मूंगफली और गरमा-गरम भुना हुआ चना खाना यात्रा को और भी आनंददायक बना रहा था.समय कैसे व्यतीत हुआ पता ही नही चला.कभी गाना गाने का मन करता तो हम सभी अंताक्षरी खेल लिया करते थे.हमारी लौहपथगामनी जब हजरतनिजामुद्दीन दिल्ली पहुँची,तब हम लोगों ने वहाँ विश्राम किया.फिर गाड़ी बदलकर दिल्ली से चेन्नई के लिए रवाना हुए.चेन्नई स्टेशन पहुँचने पर जिस किसी से भी बातें करना चाहा न तो हम उनकी बोली समझ पा रहे थे और न वे लोग हमारी बोली समझ पा रहे थे.बड़ी मुश्किल से एक हिंदी भाषी मिला.जिसे हिंदी का बहुत ही कम ज्ञान था.किसी तरह उनकी टूटी-फूटी बोली को समझने लगे.जब उसने चलने को कहाँ तब हम सब मित्र डर रहे थे.कहीं यह व्यक्ति कोई चोर उचक्का न हो.अंत में हम लोग एकमत होते हुए,हौसला करके उनके साथ हो लिए.उस व्यक्ति ने हमारे रहने के लिए होटल का इन्तजाम किया.और पूरे चेन्नई की सैर कराया.उस भले आदमी ने चेन्नई दर्शन कराने के बाद हम जहाँ-जहाँ यात्रा में जाते उनके आदमी हमें लेने आ जाते.इस तरह से मंगलमयी यात्रा मदुरई, केरल,रामेश्वरम धाम की पूरी हुई.यात्रा की इस कड़ी में रामेश्वरम धाम का दर्शन बहुत ही महत्वपूर्ण रहा.रामेश्वरम के चरण पखारने वाले सागर में कुछ दूर सैर करने के लिए मोटर वोट में सवार होकर सागर की लहरों को चीरते हुए सागर की गहराई नापने की कोशिश करने लगे.जो हम सबके लिए एक अविस्मरणीय पल था.तत्पश्चात भूतपूर्व महामहिम डॉ. ए. पी. जे. अब्दुल कलाम स्मारक का दर्शन करना बहुत ही सुखद अनुभूति रहा.स्मारक में आज भी उनके पोशाक,चप्पल,जूते एवँ उनकी किताबों को संजोकर रखा गया है.अंत में हमने भगवान तिरुपति बालाजी की विराट प्रतिमा का दर्शन किया तथा बाल विदान कर स्वयं को धन्य समझने लगे.सात दिनों की इस अनुपम यात्रा के बाद अब वापस जाने का समय हो चला था.मन में इस यात्रा की खट्टी-मीठी यादें लिए गृहग्राम वापस आए.

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