बालगीत

पर्व आजा़द भारत का

रचनाकार- प्रमोद सोनवानी पुष्प

पर्व यह आजा़द भारत का.
विश्व में मशहूर है..

सारे हिंदुस्तानी दिल से,
झंडे को देते सलामी.
प्रण करते हैं मर मिटने का,
याद करके दिन गुलामी..

इतिहास के पन्नों में यह दिन.
एक गज़ब का नूर है..

देश सजा है दूल्हे-सा,
बाजे - गाजे बज रहे.
चहुँओर हैं ढेरों खुशियाँ,
बच्चे - बूढ़े नाच रहे..

नया गीत है - नये रंग हैं
और निराले सुर हैं..

चिट्ठी हुई पुरानी

रचनाकार- नरेन्द्र सिंह नीहार, नई दिल्ली

कभी कबूतर ले जाते थे,
उड़ - उड़कर संदेश.
कालीदास ने मेघदूत को,
भेजा दूर विदेश.
तोता - मैना और पतंग से,
खूब दिए पैगाम.
चिट्ठी -पत्री पोस्टकार्ड,
आए सबके काम.
नीले - पीले रंग वाले,
पत्रों का आया मौसम.
रजिस्टर्ड पत्र के ऊपर,
टिकिट लगाए हरदम.
इंटरनेट ई मेल की,
दुनिया हुई दीवानी.
मोबाइल के दौर में,
चिट्ठी हुई पुरानी..

इलायची दाना

रचनाकार- पुखराज सोलंकी, बीकानेर, राजस्थान

मैं इलायची का एक दाना,
जब चाहो तुम मुझे चबाना.

हरे-हरे खोल के अंदर,
कोने में बैठा मैं काला.
सबके लिए हूँ उपयोगी,
स्वाद अनोखा देने वाला.

कभी न मेरे रंग पे जाना,
मैं इलायची का एक दाना.

हलवे को लजीज बनाऊँ,
चाय का भी स्वाद बढ़ाऊँ.
छोटा हूं पर बड़े काम का,
काढ़े में दवा बन जाऊँ.

रसोई में रख भूल न जाना.
मैं इलायची का एक दाना

लप्चु-घप्चु

रचनाकार- पुखराज सोलंकी, बीकानेर, राजस्थान

लप्चु-घप्चु दो थे भाई,
मिल दोनों ने पतंग उड़ाई.
लप्चु ने जब पकड़ी चरखी,
घप्चु ने फिर पतंग बढ़ाई.

हवा का झोंका ऐसा आया,
पतंग उड़ चली फर-फर-फर.
बोला घप्चु ढील दो भइया,
पतंग जा रही सर-सर-सर.

लप्चु बोला पेंच लड़ाओ,
पतंग को आगे और बढ़ाओ.
बात में आकर छोटा भाई,
घप्चु ने भी पेंच लड़ाई.

चार पतंगें जब काटीं,
लप्चु ने बजाई ताली.
पतंग डोर संग छूट गई,
अजी हो गई चरखी खाली.

तीन रंगो का प्यारा झंडा

रचनाकार-स्व. महेन्द्र देवांगन 'माटी'

आजादी का पर्व मनाने, गाँव गली तक जायेंगे.
तीन रंगों का प्यारा झंडा, शान से हम लहरायेंगे..

नहीं भूलेंगे उन वीरों को,देश को जो आजाद किये.
भारत माँ की रक्षा के खातिर, जान अपनी कुर्बान किये..

आज उसी की याद में हम सब, नये तराने गायेंगे.
तीन रंगों का प्यारा झंडा, शान से हम लहरायेंगे..

चन्द्रशेखर आजाद भगतसिंह, भारत के ये शेर हुए.
इनकी ताकत के आगे, अंग्रेजी सत्ता ढेर हुए..

बिगुल बज गया आजादी का, वंदे मातरम गायेंगे.
तीन रंगों का प्यारा झंडा, शान से हम लहरायेंगे..

मिली आजादी कुर्बानी से, अब तो नहीं जाने देंगे.
चाहे कुछ हो जाये फिर भी,आँच नहीं आने देंगे..

संभल जाओ ओ चाटुकार तुम,अब तो शोर मचाएँगे.
तीन रंगों का प्यारा झंडा, शान से हम लहरायेंगे..

हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई, सबको आगे आना होगा.
स्कूल हो या मदरसा सब पर, तिरंगा फहराना होगा..

देशभक्ति का जज्बा है ये, मिलकर साथ मनायेंगे.
तीन रंगों का प्यारा झंडा, शान से हम लहरायेंगे..

आया रक्षाबंधन

रचनाकार- सीमांचल त्रिपाठी

सावन मास का आखिरी त्यौहार.
देखो जी आया राखी का त्यौहार..

भाई-बहन के पवित्र प्यार का त्यौहार.
देखो जी आया श्रावणी त्यौहार..

बहना भाई का जीवन भर साथ निभाती.
बहना भाई की रक्षा खातिर दुआ माँगती..

रक्षा सूत्र बाँध भाई से शपथ कराती.
जीवन भर रक्षा करने का वादा लेती..

संसार के सभी दुखों से बचाने की बलायें लेती.
जन्म से मृत्यु पर्यंत जीवन रक्षा है करती..

संकट पड़े जो भाई का हौसला बढ़ाती.
प्यारे भाई पर दुलार व स्नेह लुटाती..

भाई की लंबी उम्र की दुआ माँगती.
भाई के सुखी जीवन की कामना है करती..

भाई के सुखी जीवन की खातिर.
उसके दुखों को आगे बढ़ लेती हर..

बहना भाई की होती है शान.
एक पल ना देखे तो होती परेशान..
होता परेशान...

ब्रम्हलीन महेन्द्र देवाँगन 'माटी ' जी के आकस्मिक देहावसान साहित्य जगतके लिए अपूर्णीय क्षति है. किलोल पत्रिका के लिए वे सतत् लिखते थे. किलोल पत्रिका समूह की ओर से विनम्र श्रद्धांजलि.

नैतिक मूल्य

रचनाकार- वीरेन्द्र कुमार साहू

हो रहा ह्रास आज नैतिकता का,
पश्चिमी सभ्यता पहचान आधुनिकता की.
न बेटा देता मान माँ-बाप को,
न बेटी करती सम्मान है.
हर तरफ छाई चकाचौंध,
खुद को सब समझें सबल सुजन हैं.
हमारी सभ्यता संस्कृति,
कीचड़ से लथपथ पड़ी हुई.
न कोई गंगाजल मिलता,
न दिखती अब ये धुली हुई.
अपना हित साधे सब चले हुए,
अपने स्वार्थ की परिभाषा से बँधे हुए,
पर असली थाती पहचानो तुम.
पारस से भी ये हैं कीमती, इसका मोल जानो तुम.
सब खोकर जब तुम जागोगे,
उस दिन खूब पछताओगे.
नैतिक मूल्यों और संस्कृति को अपना लो,
खुद का जीवन और देश दोनों बचा लो.

आम

रचनाकार- बलदाऊ राम साहू

गरमी में जब आता आम,
हमें बहुत ललचाता आम.

तोतापरी और दशहरी,
तरह-तरह के इसके नाम.

कुछ होते हैं बहुत महँगे,
कुछ के होते सस्ते दाम.

सोनू, मोनू, आओ भैया,
मीठे-मीठे खाओ आम.

फलों का राजा कहलाता,
दुनिया में है इसका नाम.

स्वच्छता अभियान

रचनाकार- प्रिया देवांगन 'प्रियू'

चल पड़ी है टोली आज,
नया कर दिखाने की.
छोटे बच्चों की कोशिश है,
बड़ों को समझाने..
चिंटू-मिंटू झाड़ू लाए,
रिंकू लाए कूड़ा दान.
साफ- सफाई करें सभी,
जैसे आने वाले हैं भगवान.
बच्चे देखकर बड़े भी आए,
अपने हाथ बँटाने को..
सभी लोगो ने की कोशिश,
भारत को स्वच्छ बनाने को..
हाथों में झाड़ू लेकर,
मीर काका भी आया.
कचरे को इकट्टा करके,
गड्ढे में उसने दफनाया.
पूरे मोहल्ले हो गए साफ,
शहर में खबर यह छाई.
सभी बच्चों को बधाई देने,
राधा दीदी भी आई..
साथ में सन्देश लिए,
खड़े हैं बच्चे आज.
स्वच्छता को अपनाओ सब,
पूरे कर लो काज..

वो दौर चाहिए

रचनाकार- आयुष सोनी, उमरिया, म. प्र

वो बचपन-लड़कपन, वो लड़ना-झगड़ना.
खड़ी दोपहरी बेफिक्र सा फिरना.
वो आपस में लड़कर रोना मचलना.
वो पापा के कंधों पर मस्ती से चढ़ना.

फिर वैसा ही कंधों पर जोर चाहिए.
मुझे चिट्ठियों वाला दौर चाहिए.

वो साइकल से चलना, छिप-छिप कर मिलना.
वो कुर्ते की जेबों को कई बार सिलना.
वो यारों की टोली, वो फिल्में पुरानी.
वो खुशबू हवा की, कलियों का खिलना.

वो महकती कलियाँ हर ओर चाहिए.
मुझे चिट्ठियों वाला दौर चाहिये.

ना फ़ोन था कोई, न कोई पिटारा.
बस रातों को दिखता चमकता सितारा.
वो खेल पुराने, हमारे जमाने.
फिर से मिलेंगे क्या हमको दोबारा.

मुझे फिर से सुनहरी सी भोर चाहिए.
मुझे चिट्ठियों वाला दौर चाहिए.

वो बागों के पेड़ों से जामुन चुराना.
वो खेलों में नदियों के उस पार जाना.
शाम के अंधेरों में सबको डराना.
जो गुल होती बिजली तो शोर मचाना.

फिर से उन बच्चों का शोर चाहिए.
मुझे चिट्ठियों वाला दौर चाहिए.

वो अपना जमाना हम मस्त सही थे.
काम थे सभी को पर व्यस्त नहीं थे.
वो खाना, खिलाना, अल्हड़ सा जीना.
वो बारिश की बूंदें, भीगा सा बचपन.

मुझे फिर से बादल घनघोर चाहिए.
मुझे चिट्ठियों वाला दौर चाहिए.

आलसी राम

रचनाकार- सुशीला साहू 'विद्या'

मुझे आलस अब खूब सताता,
आदत में जब ये पड़ जाता.

पिज्जा बर्गर रोज -रोज खाता,
बैठे- बैठे सबकी हँसी उड़ाता.

पढ़ाई से मेरा मन उब जाता,
आलस पढ़ाई से दूर भगाता.

कोई न बनो आलसी राम,
सुबह-शाम करो अपना काम.

खूब पढ़ेंगे और मेहनत करेंगे,
आलस को हम दूर भगाएँगे.

मेरी बगिया

रचनाकार- सुशीला साहू 'शीला'

मेरी बगिया है बहुत सुंदर,
फूल खिले हैं इसके अंदर.
लाल, पीले, हरे, गुलाबी,
गोल-गोल गुच्छों वाली.
सेवती,गेंदा,चंपा,चमेली,
ये सब मेरी सखी-सहेली.
पक्षी गाते हैं नवरागों में,
झूमते भौंरे हैं इन बागों में.
कोयल की तान सुरीली है,
उड़ रही मतवाली तितली है.
फैल रहा फूलों का उजास,
मुकुलों के उर मंदिर वास.
सुषमा का साकार सुमन,
नष्ट न करना यह जीवन.

बादल दादा

रचनाकार- प्रतिभा सिंह, सॉल्टलेक, कोलकाता

मम्मी देखो, बादल दादा, कितने रूप बनाते.
कभी सिपाही जैसे लगते,
कभी दिखें ये जोकर.
कभी रूप लगता है ऐसा,
मानो हों ये बंदर.
रूप बदलकर भाँति-भाँति के, मुझको खूब हँसाते.
मम्मी देखो, बादल दादा, कितने रूप बनाते.
कभी भूत जैसे दिखते हैं,
कभी शेर बन जाते.
लगता कभी पकड़ने मुझको,
साधु वेश में आते.
लंबी -दाढ़ी वाले योगी, बनकर मुझे डराते.
मम्मी देखो, बादल दादा, कितने रूप बनाते.
लगता है, ये जादूगर हैं,
हर पल रूप बदलते.
जादू के सब राज़ पूछता,
अगर कभी ये मिलते.
मम्मी उन्हें बुला लेती तो, जादू मुझे सिखाते.
मम्मी देखो, बादल दादा, कितने रूप बनाते.

बेटी उन्मुक गगन की

रचनाकार- उषा साहू

मैं बेटी उन्मुक्त गगन की,
आसमान तक जाऊँगी.
अभी तो उड़ना सीखा है,
आसमान को छूकर दिखलाऊँगी.

मैं पढूँगी-लिखूँगी,
सबका नाम रोशन कर जाऊँगी.
घर -आँगन में पेड़ लगाकर,
फुलवारी -सा सजाऊँगी.

सावन की फुहारों में,
अपनी नाव चलाऊँगी.
पतंग आसमान में उड़ती है,
मैं अपने सपनों की उड़ान भरकर दिखलाऊँगी.

बड़ों का सदा सम्मान करूँगी,
कभी किसी का दिल नहीं दुखाऊँगी.
माँ- पापा के संस्कारों को अपनाकर,
आगे ही बढ़ती जाऊँगी..

शिक्षा जीवन को संवारती

रचनाकार- डॉ. त्रिलोकी सिंह प्रयागराज

शिक्षा जीवन को सँवारती,
शिक्षा से मिलता सम्मान.
जिसने अच्छी शिक्षा पाई,
आदर पाता वह विद्वान..

शिक्षा से ही उन्नति होती,
शिक्षा से मिलती सद्बुद्धि.
शिक्षा सबको सभ्य बनाती,
शिक्षा करती मन की शुद्धि..

जिसे प्राप्त है शिक्षा का धन,
उसका हुआ जीवन सफल.
पर, जो शिक्षा से वंचित है,
जीवन उसका है निष्फल..

यह विचारकर प्यारे बच्चो,
मेहनत से पढ़ना-लिखना.
गुरुओं से शिक्षा अर्जित कर,
उन्नति के पथ पर बढ़ना..

पेड़-पौधे

रचनाकार- श्लेष चन्द्राकर

क्यों काटते हो पेड़ पौधे, याद रखो यह भूल है.
देते हमें फल, गोंद औषध, और लकड़ी फूल हैं..
ताज़ी हवा, छाया सुखद भी, पेड़ पौधों से मिले.
मन मोहते हैं देखते जब, पुष्प उपवन में खिले..

जग में हमारे पेड़ -पौधे, होते सच्चे मीत हैं.
हालात अब उनके लिए क्यों, बन रहे विपरीत हैं..
इस कार्य को इन मानवों की, मूर्खता ही हम कहें.
जब पेड़ पौधे बेतहाशा, नित्य काटे जा रहे..

जलवृष्टि में भी पेड़-पौधे, हैं सहायक जान लो.
अब भूलकर इनको नहीं है, काटना यह ठान लो..
पर्यावरण के अंग होते, ये बहुत ही खास हैं.
इनकी बदौलत हम सभी ही, आज लेते श्वास हैं.

करो भलाई

रचनाकार-महेंद्र कुमार वर्मा

काहे करते हो चतुराई,
इससे क्या पाते हो भाई.

सीधा-सादा जीवन जीयो,
इसी में है तुम्हारी भलाई.

चतुर काग को देखा होगा,
उसने सदा मात ही खाई.

सीधी - सादी कोयल प्यारी,
उसका जीवन है सुखदाई.

जो करते हैं तिकड़मबाजी,
उन्होंने हवा जेल की खाई.

चलो 'धीर' कुछ अच्छा करते,
बाँटें सबको आज मिठाई.

शूल बनेंगे हम

रचनाकार- गीता गुप्ता 'मन'

हम छोटे छोटे बच्चे हैं, पर नहीं किसी से कम,
जो तूफानों में जलता है, वो दीप बनेंगे हम.

हम फूलों जैसे कोमल, निश्छल, सदा सुगंध फैलाते,
जिसने है पीड़ा दी हमको, शूल बनेंगे हम.

अंबर से ऊँची उड़ान है, हम उन्मुक्त परिंदे,
पंखों पर जो आँच है आई, बाज बनेंगे हम.

मन मैं भरी तरंगें इतनी, सागर लगता छोटा,
जिसने डगर बीच में रोकी, ज्वार बनेंगे हम.

हम बच्चे माँ के चरणों में, अपना शीश झुकाते,
माँ देती आशीष यही, नित उच्च बनेंगे हम.

बचपन

रचनाकार- अजय कुमार यादव

प्यार से पुचकारी मिलती है, सबको अपने बचपन में.
गोदी में उठा के सबको दुलारी मिलती बचपन में.
किस्से और कहानी दादा- दादी, सुनाते हैं बचपन में.
चॉकलेट और बिस्किट जुबानी, मिलती हैं बचपन में..

पापा आते गोदी में उठा के मेरा मुन्ना राजा कहते हैं.
मम्मी बात -बात में पुचकारी करती हैं मुझको.
सारे मोहल्ले वाले प्यार से गोलू कहते हैं मुझको.
पल- पल की जिंदगी मेरी उनकी जिंदगानी बनती है..

धड़कन हूँ मैं उनकी, मुझसे है उनकी जिंदगानी.
बहुत मिन्नतों के बाद पापा, मम्मी ने मुझे पाया है.
मेरी खातिर पलकें बिछाए रहते हैं.सभी मेरे अपने.
अपनी आँखों में कितने सपने, सजाएँ बैठे मेरे अपने..

आम तोड़ने जाऊँ जब खूब ऊधम मचाऊँ मैं.
स्कूल से थक हारकर जब शाम को घर आऊँ मैं.
खाना ना खाने के कितने बहाने जब बनाऊँ मैं.
ना जाने कितनी ही शरारतें, करके सबको सताऊँ मैं..

पंतग

रचनाकार- शुभम पांडेय 'गगन', अयोध्या

चूमे अंबर भागे तेज,
करतब दिखाती है.
पंतग कितनी सुंदर है,
मन के सबको भाती है.

कोई लाल कोई है पीली,
छोटू लाया उसकी नीली.
सब मिलकर खींचें डोर,
पल भर में उड़कर दूर मिली.

ज़रा -सा चूक जाओगे जो,
कट कर उड़ जाती है
कभी कभी टकराकर,
पेड़ो पर फँस जाती है.

मेरी पंतग चली हवा में,
आसमान छू कर आएगी.
वापस आने के समय पर,
चाँद- सितारे लाएगी.

हर कोई छत पर देख रहा,
घूर- घूर कर पंतगों को.
बच्चे सब लड़ा रहे हैं,
अपने- अपने मंझों को.

मेरी गुड़िया

रचनाकार- उषा साहू

मेरी गुड़िया बड़ी निराली है.
उसकी कोमल -मधुर वाणी है.
उसकी आँखें कजरारी हैं.
घर में पायल की झंकारों से,
गुंजित करती सुकुमारी है.
मेरी गुड़िया बड़ी निराली है.

गुड़िया की शरारतों से होती,
दादा-दादी को परेशानी है.
मम्मी-पापा की वह दुलारी है.
चाचा की कहानी की दीवानी है.
मेरी गुड़िया बड़ी निराली है.

खाने में करती आना -कानी है.
मगर रसगुल्लों की दीवानी है.
मेरी गुड़िया बड़ी सयानी है.
मेरी गुड़िया बड़ी निराली है.

भाई को रोज सुनाती कहानी है.
सबका सम्मान करती संस्कारी है.
मेरे आँगन की सुंदर फुलवारी है.
ख़ुशबू फैलाती वह फूलों की रानी है.

चिड़िया

रचनाकार- डिजेन्द्र कुर्रे 'कोहिनूर'

चिड़िया चहकी है फुदक, जब-जब अमुआ ठाँव.
तिनका-तिनका चुन रही, बना रही निज ठाँव..

बैठी है निज घोंसला, चूजों का कर ध्यान.
ध्यान लगाकर जाँच लो, यही है प्रेम विधान..

फुदक -फुदक कर नाचती, होती बहुत प्रसन्न.
दिख जाता है जब कहीं, इक -दो दाना अन्न..

कोमल पंख पसारकर, उड़ती नभ की ओर.
दाना -पानी के लिए, नाप रही नभ छोर..

चिड़ियों से भी प्यार कर, द्वेष, कपट रख दूर.
बनने देना घोंसला, खुशी मिले भरपूर..

सावन आया

रचनाकार- आयुष सोनी, उमरिया, म. प्र

चारों दिशाएँ हरितवर्ण,
चमक उठा है कण- कण.
तरुवर संग नभचर डोल रहे,
फूलों संग भँवरे बोल रहे.
बूंदों ने है मार्ग सजाया,
देखो- देखो सावन आया.

मेघों ने जग को घेरा है,
सूरज ने भी मुँह फेरा है.
सूखे सरवर छलक उठे,
ख़िरमन भी अब दमक उठे.
नदियों ने है गीत सुनाया.
देखो-देखो सावन आया.


कोयल हुई दीवानी है,
जिसकी मीठी वाणी है.
मोरों ने नर्तन शुरू किया,
तृण ने तुहिन शृंगार किया.
धरा ने प्रेमगीत है गाया,
देखो-देखो सावन आया.

सौर मंडल

रचनाकार- कामिनी जोशी

सूर्य
मैं हूँ एक तारा,
लगता हूँ सबको प्यारा.
गर्मी देना मेरा काम,
सूरज है मेरा नाम.
मेरे चक्कर लगाते ग्रह,
मुझको बहुत भाते ग्रह.

बुध
सूर्य के बाद मैं आता हूँ,
बुध ग्रह मैं कहलाता हूँ.
सूर्य के हूँ सबसे पास,
ग्रहों में हूँ सबसे खास.

शुक्र
मुझे खुद पर होता फ़क्र,
क्योंकि मैं हूँ चमकीला शुक्र.
बुध के बाद मैं आता हूँ,
भोर का तारा कहलाता हूँ.
साँझ को मैं जल्दी आता,
इसलिए साँझ का तारा, कहलाता हूँ.

पृथ्वी
जहाँ से मिलता तुमको ज्ञान,
सुन लो भाई पृथ्वी मेरा नाम.
केवल मुझमें ही तो जीवन है,
सूर्य से है मेरा तीसरा स्थान.

मंगल
लाल-लाल दिखलाई देता,
इसलिए लाल ग्रह कहलाता हूँ.
मंगल ग्रह नाम है मेरा,
पृथ्वी के बाद मेरा स्थान.

बृहस्पति
मंगल के बाद मैं आता हूँ,
बृहस्पति कहलाता हूँ.
नाम में हूँ सबसे बड़ा,
ग्रह भी बड़ा कहलाता हूँ.

शनि
तीन वलयों वाला ग्रह हूँ मैं,
इसलिए बहुत सुंदर हूँ मैं.
मेरे नाम से लोग डरते हैं,
सभी मुझे शनि कहते हैं.

वरुण
जल का वाहक मुझे समझते,
देव समझकर लोग पूजते.
मैं वरुण कहलाता हूँ,
ठंडा हूँ, सबको भाता हूँ.

मैं महसूस कर रही हु

रचनाकार- कु. ‎सोनम, कक्षा आठवीं, ‎KGBV दुल्लापुर बाजार, पंडरिया, कबीरधाम

आएगी कोई ऐसी महामारी,
जो लाएगी इतनी लाचारी.
स्कूल से इतना प्यार है,
फिर भी बन गई स्कूल से दूरी.
‎फिर मन में उम्मीदों की लहर जागी,
ऑनलाइन क्लास की गाड़ी भागी.
‎घर बैठे शिक्षा ले रहे हैं.
स्कूल कब खुलेगा?
उम्मीदों के बीज बो रहे हैं.
पढ़ाई के साथ- साथ' ई गपशप 'पढ़कर,
जीवन कौशल की शिक्षा ले रहे हैं.
बेटियों के संघर्ष की कहानी,
‎अपने मन में गढ़ रहे हैं.
हमको इस दौर में भी आगे बढ़ना है,
शिक्षा के साथ-साथ,
‎जीवन कौशल को भी गढ़ना है.
‎मैं कई सवालों से जूझ रही हूँ,
हो जाएगा सब ठीक,
‎मैं महसूस कर रही हूँ.
‎मैं महसूस कर रही हूँ.

विवेक

रचनाकार- गीता गुप्ता 'मन'

कामचोर ये है बड़े,
पड़े है मुँह को टेक.
बुद्धि जरा सी है नहीं,
कहते सभी विवेक.

दिवास्वप्न में देखते,
राजा बन गए आज.
बाँट रहे थे खूब धन,
आया शत्रु एक.

होकर गुस्सा खूब ही,
मारा जोर से पैर.
टूट गए बर्तन सभी,
टुकड़े हुए अनेक.

खूब पड़ी फिर मार है,
घर से गए है भाग.
खाने के लाले पड़े,
तब जागा विवेक.

आँसू

रचनाकार- सन्तोष कुमार तारक

रख सको तो एक निशानी हूँ मैं,
खो दो तो सिर्फ एक कहानी हूँ मैं,
रोक ना पाए जिसको ये सारी दुनिया,
वो एक बूँद आँख का पानी हूँ मैं..

सबको प्यार देने की आदत है हमें,
अलग पहचान बनाने की आदत है हमें,
कितना भी गहरा जख्म दे दे कोई,
उतना ही ज्यादा मुस्कुराने की आदत है हमें..

इस अजनबी दुनिया में अकेला ख्वाब हूँ मैं,
सवालों से खफा छोटा सा जवाब हूँ मैं,
जो समझ ना सके मुझे, उनके लिए कौन,
जो समझ गए, उनके लिए खुली किताब हूँ मैं..

शिक्षक दिवस

रचनाकार- तेजेश साहू

इस दुनिया में महान हैं शिक्षक,
जो हमें सभी विषय पढ़ाते हैं.
शिक्षक कड़ी मेहनत कर,
बच्चों का भविष्य बनाते हैं..

शिक्षक होते हैं बहुत महान,
इसलिए तो इनके सम्मान में.
प्रतिवर्ष पाँच सितंबर को,
हम शिक्षक दिवस मनाते हैं..

शिक्षक होतें हैं ऐसे दीपक,
जो खुद जलकर
ज्ञान का दीप जलाते हैं.
इसलिए इनके सम्मान में,
हम शिक्षक दिवस मनाते हैं..

इस दिन जन्मे थे एक महान शिक्षक,
सर्वपल्ली डॉक्टर राधाकृष्णन कहलाते हैं,
इसलिए तो इनकी याद में हम,
शिक्षक दिवस मनाते हैं..

एहसास

रचनाकार- पेशवर राम यादव

सौम्य सी नादान सी,
नटखट सी मस्ताना सी.
वो तेरा चहकना,
मासूमियत लिए वो मुस्काना.
वो किलकारियाँ
कभी दौड़ते- हाँफते हाथ हिलाते.
खेलते फुदकते आना,
और कहना सर !
वो शिकवा शिकायत का पल,
हमे याद है !
वो प्रभात फेरी,
देशभक्ति का वह नारा,
जय जवान जय किसान.
वन्देमातरम का जयकारा,
राष्ट्रगान, राष्ट्रगीत !
लयबद्ध सुमधुर स्वर से,
चहुं ओर गुंजायमान होती,
हमे याद है!
वो मुस्कान भरी गीत कविता,
शायराना अंदाज में वो ओजस्वी भाषण,
हाथ में लहराते तिरंगे झंडे.
मुँह मीठा करते वो मिठाई,
हमें याद है!
यूँ तो ऐसा लगता है कि,
ये कुछ ही दिनों की बात है.
तुमसे बिताये वह हरपल ख़ास है,
एक सुखद एहसास है,
वो ज्ञान का मंदिर,
जिनकी कक्षाओं में,
अविरल ज्ञान की गूंज,
गुंजायमान होती.
आज सूना सा,वीरान सा खामोश है,
निराश है, लेकिन देर ही सही,
फिर भी उसे खुलने का आस है.

मैं छोटी सी बच्ची हूँ

रचनाकार- उषा साहू

मैं छोटी सी बच्ची हूँ.
दिल की मैं सच्ची हूँ.
चोट लगे तो रोती हूँ.
माँ के आँचल में सोती हूँ.
अपने सुकोमल नयनों में,
प्यारे-प्यारे सपने सँजोती हूँ.
सुबह-सुबह जल्दी जगती हूँ.
माँ दुर्गा के लिए माला पिरोती हूँ.
प्यारी बातों से मन मोह लेती हूँ.
बरसातों में नाव को खेती हूँ.
फूलों को देख हँसती हूँ.
सूरज के उजाले सँजोती हूँ.
प्यारी सी मैं बेटी हूँ.

मित्र

रचनाकार- अनन्या तिवारी, कक्षा पांचवी, शासकीय उत्कृष्ट विद्यालय प्रतापपुर

घनघोर अंधेरे में आशाओं का प्रकाश है
मित्र है जिसके पास तो अमावस में उजास है
मित्र सबन्धों में विश्वास
डगमगाती नैया की पतवार है
चुन लें जो राहों के शूलों को
मित्र होते वो ख़ास हैं
मित्र है बन्धु सा जो करता खबरदार
गलत रास्तों से बचाता
वही तो सच्चा यार है
अपनो सा स्नेह और दुलार देता.
मित्र से ही पूरा होता संसार है.

मेरा शहर

रचनाकार- अलका राठौर

अपना गाँव अपना शहर, सबको प्यारा लगता है,
यहाँ की मिट्टी, दिल की धड़कन में बसा होता है.
कच्ची गलियाँ बचपन में ले जाती है,
वो पक्की सड़के,फिर घर की ओर ले आती है.
यहाँ के कुएँ का पानी, सबसे मीठा लगता है,
अपनी बगिया का फूल, सबसे सुगंधित लगता है.

धीमें आँच में बनी, वो नरम रोटियाँ
दादी-नानी की बनाई, बालों की चोटियाँ.
लगते हैं प्यारे, अपने शहर के मेले-बाज़ार,
मातृभूमि में ही, जमाना चाहते हैं सब व्यापार.
कोई अपना गाँव -शहर,छोड़ना नहीं चाहता,
मजबूरी में परदेश की ओर रुख है करता.

रोटी की तलाश,व्यापार विस्तार बन जाती है,
पर दिल में हमेशा,अपने शहर की याद रह जाती है.
किसी ग्राहक को देख,पड़ोस के काका याद आते हैं,
तो किसी मुसाफ़िर को देख बूढ़े दादा याद आते हैं.
हम जहाँ भी रहें,अपना शहर दिल में बसता है,
हवाएँ जो यहाँ आयी है,वो वहाँ को भी तो छूकर अाता है.

पिता

रचनाकार- अविनाश तिवारी

जिसने न कभी किया विश्राम
स्वेद बहाकर हमें दिया पहचान
दिखाया नहीं कभी अपना दुलार
पर दिल में छुपा के रखा प्यार
हर दर्द को सीने में छुपाये
जमाने के झंझावतों से हमें बचाये
आँखों में गुस्सा, ह्रदय में अनुराग
ऐसा है मेरे पिता का प्यार
ऊँगली पकड़कर चलना सिखाया
ज़माने में हमें जीना सिखाया
हसरतें अपनी भुलाकर
हमारी ख्वाइशों को पर लगाया
अपने सपनों को हममें जिन्दा देखा
उस पिता को आज पिता बनकर समझ पाया
अपनी यादों में वही कठोर सीना लाया हूँ
जो था तो कठोर पर मुलायम
मेरे निर्माण के लिए
आज सर झुका है मेरा
उस निर्माता मेरे भगवान के लिए
इस जन्म में तेरा पुत्र बना
हर कर्तव्य को निभाऊँगा
संस्कारों से आपके
अपने संतानों को सजाऊँगा

स्वतंत्रता

रचनाकार- योगेश ध्रुव 'भीम'

वर्षो की गुलामी के संघर्ष जिसने झेले है,
इस स्वतंत्रता का मोल वे ही समझते हैं,

दुख भरे बादलों में सुख निहारे जो,
आज वर्षा के मोल समझते वे ही हैं,

चाबुक की मार और चीत्कार सुनी जिसने,
इस माँ भारती के पीड़ा वे ही समझते हैं,

कालापानी,कालकोठरी की सजा जिसे मिली,
इस स्वतंत्रता की पीड़ा बयाँ वे ही करते हैं,

भरी दोपहरी में तन से जिसके पसीना टपके,
अन्न है अनमोल ये पीड़ा किसान ही समझे है,

लाज बचाने माँ ये तेरे लाल सैकड़ों मील चलें,
चूम फंदे को नवयुवा वंदेमातरम बोल रहें हैं,

यज्ञ की बलिवेदी में सैकड़ों आहुतियाँ दिये
इस तिरंगे की बानाधर कूद वे ही साक्षी बने हैं,

पिंजरे की पीड़ा को वे खग ही तो जाने है,
खीर,पूरी, फल आज मुक्त की न सुहाए है,

सहजता से नहीं मिली यह स्वतंत्रता है,
हर जन को यह आज समझना जरूरी है,

तिरंगा भारत की शान

रचनाकार- अतुल पाठक 'धैर्य'

तिरंगा भारत की शान है,
माँ भारती की अमिट पहचान है.

हमारे दिलों की धड़कन,
यही हमारी जान है.

हिम शिखर पर लहराता,
गौरव राष्ट्र का बतलाता.

हर हिन्दुस्तानी के दिल का,
बढ़ाता ये सम्मान है.

इसकी खातिर हर सैनिक,
दे देते अपनी जान है.

हर देशभक्त का सपना,
तिरंगे का बढ़े मान है.

जो शौर्य की गाथा रचता,
वो दहाड़ता हिन्दुस्तान है.

हर हिन्दवासी की जान,
और वतन का अभिमान है.

तिरंगा भारत की शान है,
माँ भारती की अमिट पहचान है.

गलतियाँ

रचनाकार- रीता गिरी

मानव और ग़लतियों का गहरा नाता है,
ग़लतियों से बहुत कुछ सिखा जाता है..
कभी-कभी नादानी में गलती हो जाती,
कभी -कभी ज़िद में गलती हो जाती.
बार-बार गलतियाँ जो दोहराता है,
एक दिन वो पछताता रह जाता है.
समय रहते जो गलतियाँ सुधार लेता है,
जीवन के हर क्षेत्र में आगे बढ़ता जाता है.
कुछ गलती जीवन में भारी पड़ जाती हैं,
कुछ गलती जीवन में सीख नई दे जाती हैं..

हम भारत के सैनिक

रचनाकार- श्याम सुन्दर श्रीवास्तव 'कोमल', भिंड

हम भारत के सैनिक हैं, यह देश हमें अति प्यारा है.
इसकी रक्षा करना सबसे पहला फर्ज हमारा है.

इसकी पावन मिट्टी में हम, खेलकूद कर बड़े हुये.
फल,औषधियाँ,अन्न-जल पा,स्वस्थ,पुष्ट हो खड़े हुये.
वृक्ष,पुष्प,पर्वत मालायें,प्रकृति ने रूप सँवारा है.
इसकी रक्षा करना सबसे,पहला फर्ज हमारा है..

मान और सम्मान देश का,कभी नहीं जाने देंगे.
अपने भारत की धरती पर,शत्रु को नहीं आने देंगे.
पर्वत की चोटी पर चढ़कर,दुश्मन को ललकारा है.
इसकी रक्षा करना सबसे,पहला फर्ज हमारा है.

पूर्व दिशा में सूरज उग कर,नई रोशनी भरता है.
देश गान गा मधुर लय में,झर-झर झरना झरता है.
जागो, उठो! चूम लो चोटी, रवि ने हमें पुकारा है.
इस भारत की रक्षा करना,पहला फर्ज हमारा है.

कोरबा नगरी

रचनाकार- वसुन्धरा कुर्रे

मिलता है काला पाउडर यहाँ
लगाकर जाना मेरे स्कूल से
चलें आना मेरे स्कूल में
मेरे स्कूल है काले हीरे की खान में.
रोज सुबह स्कूल खुलता तो फर्स और दीवारें ओढ़े रहती हैं काली चादर.
सफेद कपड़ा पहन के ना आना मेरे स्कूल में,
लगेगा धुला नहीं है जन्मों से
देखना हैं तो चले आना मेरे स्कूल में
मेरे स्कूल है काले हीरे की खान में.
जब होता है ब्लास्टिंग
तब होता है भूकंप का अहसास
अहसास लेना है भूकंप का तो
चले आना मेरे स्कूल में
मेरे स्कूल है काले हीरे की खान में.
काले जूते की जरूरत नहीं मेरे स्कूल के बच्चों को
दिन भर में पांव में बन जाते हैं काले जूते
चलती है हाइवा उड़ती है धूल देखना है हवा काले रंग में
तो चले आना मेरे स्कूल में
औद्योगिक नगरी घूमना है तो
चले आना मेरे जिला कोरबा नगरी
कहते हैं ऊर्जा नगरी इसे भारत में
यहाँ है बालको एल्यूमीनियम प्लान्ट थर्मल पावर
ताप विद्युत गृह, जल विद्युत गृह
चले आना ऊर्जा की नगरी में
सरईसिंगार पास में ही है बडा खदान
मेरे स्कूल है काले हीरे की खान में
देखना है काले हीरे तो
चले आना मेरे स्कूल में.

पिंजरे का जीवन

रचनाकार- वसुन्धरा कुर्रे

पिंजरे का जीवन उस पक्षी से पूछो,
जन्म के कुछ हफ्तों के बाद जो कैद हो गई.
जिसने ढंग से आँखे न खोलीं
अपनी जिंदगी को ढंग से न देखा.
स्वच्छंद वातावरण में पंख न फैलाए.
विचरण करने का ढंग न सीखा.
कीट- पतंगे खाने वाले,
उस पक्षी से पूछो,
जिसको हमने कैद कर दिया.
पिंजरे का जीवन उस पक्षी से पूछो,
कैसा उसका जीवन,
उसको भी लगता काश!
मैं भी पंख फैलाऊँ.
खुले वातावरण की सैर कर आऊँ.
पूछो उस पक्षी से उसको भी तो जीना है,
खुली गगन में स्वच्छंद पवन में उड़ना है.
हमने तो उसको कैद किया,
पिंजरे का जीवन जीने को मजबूर किया.
पिंजरे का जीवन उस पक्षी से पूछो,
जिसने अपना जीवन पिंजरे में कुर्बान किया.
आज इस महामारी से हमें अपना जीवन,
आज उस पक्षी से सीख मिला.
कैसे हमने उसको पिंजरे में कैद किया,
आज हम भी उसी की तरह अपने घर में कैद हैं

कालू बन्दर

रचनाकार- नीरज त्यागी

कालू बंदर है बहुत परेशान,
भारी गर्मी से वह हुआ हैरान.

बादल कभी-कभी हैं दिखते,
ना जाने फिर क्यों नहीं टिकते.

प्रभु से फिर करने लगा गुहार,
प्रभु कर दो बारिश की बौछार.

उमड़-घुमड़ कर बादल आए,
कालू झूम-झूम कर नाचे गाए.

तन-मन कालू के हो गए तृप्त,
बारिश जंगल में हुई ज़बरदस्त.

दूर हुई जंगल से गर्मी की मार,
कई दिन बरसे बादल बारम्बार.

योग

रचनाकार- खेमराज साहू

आओ प्रात : जल्दी जागे,
स्वस्थ जीवन हेतु भागे.

सुबह के वक़्त ताज़ी हवा,
बीमार काया के लिए बेहतर दवा.

योग करे और केवल योग करे,
प्राणशक्ति एवं शरीर का संयोग करे.

योग से होता शरीर भी अच्छा,
मन - परिवेश भी होता सच्चा.

अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस मनाएँगे,
सब मिलकर रोग भगाएँगे.

योग को जीवन में आत्मसात करें,
स्वस्थ जीवन जीने की कला सीखे.

संसार में योग से भारत परचम लहराएगा,
भारतीय संस्कृति को फिर विश्व अपनाएगा।

अपने मन - शरीर का योग करे,
अपार सफलता का अमृत चखे.

जीवन की हर श्वास है बहुमूल्य,
प्राणायाम है नवजीवन के समतुल्य.

बच्चे- बूढ़े सब मिल करे योग,
तन - मन अपना रखे निरोग.

शेरनी रानी

रचनाकार- नीरज त्यागी

शेरनी रानी बड़ी स्यानी,
अपनी करती है मनमानी.
राजा जी पर हुक्म चलाती,
अपनी बात सब मनवाती.

राजा शेर जंगल मे गुर्राते,
घर पर नजर झुकाकर आते.
बीवी का हर हुक्म बजाते,
खुश होकर रानी के पैर दबाते.

बड़े प्यार से रानी को समझाते,
घर की बात बाहर ना जाये,
किसी को ये पता ना चल जाये,
करता मैं घर के सारे काम,
हो जाऊँगा फिर मैं बदनाम,

मैं तो हूँ जंगल का राजा,
सब पर अपना हुक्म बजाता.
तुम बस मानो मेरी एक बात,
रखनी है घर मे घर की ये बात.

बेटी की चाह

रचनाकार- अशोक कुमार शाक्य

जब देखूं मैं दूर गगन में अनगिनत सितारों को
उड़न परी बन उड़ जाऊं मैं लगा कल्पना के पर
और भी एक दुनिया है क्या हमारी दुनिया से अलग
गुड्डी गुड़िया मेरे जैसी क्या वहां भी होती है
मां के आंचल में वहां क्या मुन्नी आराम से सोती है
चंदा मामा शीतल क्यों है क्यों सूरज चाचू आग बबूला
एक दिन जरूर पहुंचु‌गी मैं वहां पर बनाकर सपनों का झूला
कल्पना दीदी जैसी में भी अंतरिक्ष में उड़ान भरूंगी
अपने सपनों को जरूर मैं एक दिन पूरा करूंगी
पर यह संभव हो न सकेगा बिना ज्ञान के पंखों से
फैला रहे हैं सदा अंधेरा अज्ञानी बिच्छू के डंको से
नित नित मैं स्कूल जाऊंगी करने सपनों को साकार
ज्ञान से ही ले सकेगा भविष्य मेरा एक आकार
उड़न परी बन भारत की में करूं विश्व में अपना नाम
कलाम चाचा कल्पना दीदी जैसा कर जाऊं कुछ काम

शिक्षा जागरुकता

रचनाकार- शशि पाठक

जागो भैया बहना जागो
नई शिक्षा नीति आयी है,
सारे भेदभावों को मिटाकर
गुणवत्ता युक्त शिक्षा लायी है.

हम सबके बच्चे अब तो
स्कूलों में पढ़ने जाएँगे,
खेल-खेल में शिक्षा पाकर
राष्ट्र उत्थान कर पाएँगे.

मिड डे पर भोजन करके
सुपोषित हो जाना है,
भारत से अज्ञानता और
कुपोषण को दूर भगाना है.

अब तो यही संकल्प हमारा
नवसृजन व नवाचार अपनाएँगे,
शाला त्यागी और प्रवासी बच्चों को
फिर शाला में लाएँगे.

खेत और खलिहानों से

रचनाकार- डिजेन्द्र कुर्रे 'कोहिनूर'

सुरभित होती सौंधी मिट्टी,
अपनें सभी किसानों से.
जीवन कौशल सीखा मैंने,
खेत और खलिहानों से.
खेतों पर जो फसल उगाते,
ऐसी कृषक कहानी है.
कभी नहीं रुकते वह साथी,
जब तक दाना पानी है.
कर्म सतत ही जो करते हैं,
उनकी यहीं निशानी है.
बंजर भू को सुरभित करने,
जिसने मन में ठानी हैं.
दम्भ कपट छल भेद नही,
रहता इनके स्वभावों से.
जीवन कौशल सीखा मैंने,
खेत और खलिहानों से.

आओ कान्हा

रचनाकार- सीमांचल त्रिपाठी

मेरे देश की हालात बिगड़ रही,
एक बार तो आओ कान्हा.
हम सब तुम्हें पुकार रहें,
अपनी झलक दिखाओ कान्हा.

नहीं पूछते माखन-मिश्री,
गऊ माता है लाचार यहाँ.
मुरली की धुन सुरीली,
सुनने को करते मनुहार यहाँ.

लूटपाट, यौनाचार और
रिश्वतखोरी है व्याप्त जहाँ.
दुर्योधन, शकुनि, दुशासन,
जैसे कपटी शैतान बसे यहाँ

तेरे भक्तजन डरे सहमे से,
मानो नाग का घेरा हो.
आँखों पर बाँधे न्याय की पट्टी,
बन बैठी, मानो गांधारी हो.

जा पहुँचा है पाप चरम पर,
सत्ताधीस मद में चूर यहाँ.
गरीब जनता महँगाई से,
मरने को आतुर जहाँ.

एकबार आकर कान्हा,
सच्ची राह बता जाओ.
जनता अबला हो बैठी,
जीवन रक्षा कर जाओ.

कोरोना महामारी

रचनाकार- अल्का राठौर

कोरोना महामारी ने लोगो का कम रोका है,
प्रकृति तो अपना काम किए जा रही है,
लॉकडाउन ने तो हमें घर में बाँध रखा है,
सलिल नदी, निश्छल हवा तो बहे जा रही है

होली गयी, राखी आई,
चहुँ ओर हरियाली छाई.
फिका हुआ हर त्योहार,
कम हुआ प्रेम व्यवहार.

मास्क ने सबकी मुस्कान छुपाई,
सोशल डिस्टेंसिग ने दूरियाँ बढ़ाई.
अब तो वैक्सिन का है इंतज़ार,
सब कुछ ठीक करने का है ऐतबार!!

फिर प्रकृति के साथ मुस्कुराये हर चेहरा,
अब खुशहाली हरियाली छाय हर सेहरा!
मुस्कुराकर करें हम नये वर्ष का स्वागत,
अब फिर ना हो किसी महामारी से आहत!!

भालू की बगिया

रचनाकार- डॉ.त्रिलोकी सिंह

भालू की बगिया में एक,
आया बंदर काला.
उस उत्पाती ने बगिया को,
तहस-नहस कर डाला..

गुस्से में भालू ने जाकर,
उसकी रपट लिखाई.
गिरफ्तार करने बंदर को,
टीम शेर की आई..

गिरफ्तार करके बंदर को,
जंगल में ले आए.
चीते जी ने उस बंदर पर,
डंडे चार जमाए..

दूर हुई उसकी बदमाशी,
अकल ठिकाने आई.
बंदरिया ने अस्पताल में,
उसकी दवा कराई..

बच्चो!कभी नहीं करना तुम,
बंदर जैसी शैतानी.
मेहनत से तुम पढ़ना-लिखना,
पढ़ना गीत-कहानी..

गणेश वंदना

रचनाकार-महेत्तर लाल देवांगन

हे गौरी पुत्र गजानन,
तुम्हें हैं शत्-शत् नमन.
माता गौरी, पिता महादेव,
रिद्धि-सिद्धि के हो तुम देव.
पान, सुमन तुम्हें हैं अर्पण,
आओ स्वीकार करो वंदन..

हे गौरी पुत्र गजानन,
बाँझन को तुम देते सुत हो,
निर्धन को करते धनवान.
मूषक में होकर सवार,
करते हो तुम जग विचरण.

हे गौरी पुत्र गजानन,
नित्य पूजन करें जो तुमको
मन वांछित फल देते उनको.
हे सिद्ध विनायक शिवनंदन.

हे गौरी पुत्र गजानन,
अंधन को तुम ज्योति देते,
कोढ़िन को सुंदर तन देते,
भक्त जनों के तुम रखवारे,
हे लंबोदर विघ्न हरन.

हे गौरी पुत्र गजानन,
तुम्हें शत् शत् नमन.

वीर सपूत

रचनाकार- महेत्तर लाल देवांगन

हे! भारत के वीर सपूत
तुझे शत्-शत् नमन,
तेरे बलिदान पर
न्यौछावर है तन- मन- धन.
तेरी वीरता को देख आज
वसुंधरा भी रोई,
तुझे श्रद्धांजली देने
बादल भी नैन भिगोए
चाहती हूँ अगले जन्म में भी
बेटा तुझे पाऊँ,
वीर पुत्रों की माता बन
गर्वित मैं बन जाऊँ,
धरती माँ के रक्षा खातिर
बार-बार वो शीश कटाते हैं.
सीमा की रक्षा खातिर
शत्रुओं से लड़
अपना फर्ज निभाते हैं,
देकर अपने प्राण
माँ का कर्ज चुकाया है
अपने संग संग तूने
देश का मान बढ़ाया है
हे !भारत के वीर सपूत,
तुझे शत् शत् नमन
तुझे शत् शत् नमन..

मेरा भारत देश

रचनाकार- प्रेमचन्द साव'प्रेम'

पुण्य तिरंगा से हमें,मिलती है पहचान.
तीन रंग मन में भरे,देशभक्ति का भान..

भर देता मन प्राण में,अतुलित पावन गर्व.
जब आता है देश में, आजादी का पर्व..

लहर-लहर लहरा रहा, गर्वित हो आकाश.
आज तिरंगा भर रहा, मन में परम प्रकाश..

केसरिया बलिदान का, सत्य शांति का श्वेत.
हरा प्रकृति प्रतीक जहाँ, उर्वर पोषित खेत..

चक्र प्रतीक है धर्म का, सद्भावों के संग.
शोभित निज ध्वज को करे, तीनों पावन रंग..

नित-नित यह झण्डा भरे,तन-मन में विश्वास.
संप्रभुता का है सखा,जन-जन को आभास..

पुण्य तिरंगा दे रहा,जग को शुभ संदेश.
प्रेम भाव ही बाँटता,अपना भारत देश..

केसर की घाटी जहाँ,नित ही बाँटें प्यार.
और हिमालय से बहे,पावन गंगा धार..

वीरों की है वीरता,ज्ञानी का शुभ ज्ञान.
परिपाटी पावन जहाँ,भारत देश महान..

सर्वप्रथम निज देश है,बाकी सब कुछ बाद.
आजादी के पर्व को,रखो 'प्रेम' नित याद..

चंदा मामा

रचनाकार- वृंदा पंचभाई

चंदा मामा, चंदा मामा
प्यारे-प्यारे, चंदा मामा
पास नहीं मेरे आते हो
दूर बहुत तुम रहते हो.

अंगुल भर कभी होते हो
कभी आधी रोटी से दिखते
कभी गोल माँ की बिंदी सी
रोज रूप बदला करते हो.

माँ तुम्हारी पूजा करती
सजा थाली चंदन,रोली की
आशाओं के दीप जला कर
आरती नित उतारा करती.

मंगल कामना मन में रखती
तुमको जल भर अर्घ्य चढ़ाती
चौथ पुन्नी उपवास भी करती
रहे सौभाग्य कुशल माँगती.

भोग लगाती पकवानों के
मालपुआ, खीर, मिठाई
चंदा मामा संग में तुम्हारे
मुझको भी ये मिल जाते हैं.

भाईदूज पर चंदा मामा
हमको थोड़ा सताते हो
पहले तुम्हारी पूजा होती
फिर नम्बर मेरा लगाते हो.

ईद, करवा चौथ, दिवाली
तुम बिन ये सब है अधूरी
यात्रा तुम्हरी अमावस पुन्नी
निस दिन यूँही चलती रहती.

नादान बच्चा

रचनाकार- नंदिनी राजपूत

मैं हूँ प्राइमरी क्लास का बच्चा,
मेरा दिल है 100℅ सच्चा.
मुझको पढ़ना लगता अच्छा,
पर मैं हूँ नादान बच्चा..

मम्मी का रोज सुबह उठाना,
ठंडे पानी से नहलाना.
मुझको रोना आता है
रोज जल्दी स्कूल जाना..

स्कूल जब जाता हूँ,
बहुत खुश हो जाता हूँ.
दोस्तों के साथ मस्ती करते हुए,
मैडम को बहुत सताता हूँ..

मैडम गा कर हमें पढ़ाती.
हम सबको वो खूब लुभाती
हम बच्चाें के साथ- साथ,
वे खुद बच्ची बन जाती.

साफ- सुथरे रखना सिखाती
बड़ो का आदर करना बतलाती
माँ के जैसे प्यारी डाँट लगाकर,
अनुशासन का पाठ पढ़ाती

जब क्लास वर्क नहीं करता हूँ,
वो मुझको डाँट लगाती हैं.
मुझे अच्छा नहीं लगता,
जब वो मुझसे रूठ जाती हैं..

लंच टाइम जब होता है,
रोज प्लेट चेक करती है.
लंच फिनिश नहीं करने पर,
हम सब को गुस्सा वो करती हैं..

माँ के जैसे दुलार करके,
हमारा ख्याल रखती हैं.
कैसे बताऊँ हमारी मैम,
हमसे कितना प्यार करती हैं..

घर जाने से पहले,
हमको गृहकार्य देती हैं.
घर से पढ़कर आए कि नहीं
यह खबर भी रोज़ लेती है

सुबह से लेकर शाम तक की,
यह है मेरी कहानी.
मैं हूँ प्राइमरी स्कूल का बच्चा,
यही है मेरी जिंदगानी..

बचपन के दिन

रचनाकार- कु. अदिति साहू, कक्षा नवमीं, जवाहर नवोदय विद्यालय बसदेई

बचपन के वो भी क्या दिन हुआ करते थे
जब चाक मिट्टी खाया करते थे.
मम्मी की डांट का असर ना होने पर
दूर उस बाड़ी में निकाल दिए जाते थे.
दादी जी का प्यार पाकर चुपके
से आकर सो जाया करते थे
बचपन के वह भी क्या दिन हुआ करते थे.

बहन से झगड़ा कर पापा के पास
आ कर छिप जाया करते थे
मम्मी की डांट लगाने पर हमेशा
दादाजी बचाया करते थे.
बचपन के वो भी क्या दिन हुआ करते थे.

भाई की चॉकलेट चुराकर
बहन के साथ खाया करते थे.
पढ़ाई के नाम से कोसों दूर भागा करते थे
बचपन के वह भी क्या दिन हुआ करते थे.

क्लास में लास्ट बेंच पर बैठकर
चुपके चुपके टिफिन खाया करते थे
टीचर से पकड़े जाने पर
सारे दोस्त मिल मार खाया करते थे
बचपन के वो भी क्या दिन हुआ करते थे.

संयुक्त परिवार

रचनाकार- प्रिया देवांगन 'प्रियू'

चूस चूस कर फूलों का रस,मधुमक्खियाँ शहद बनाती हैं.
दादा-दादी उसी तरह, संयुक्त परिवार बनातें हैं..

बच्चों की किलकारी, दादा/दादी का प्यार.
ऐसे ही मधुर है, मेरा सँयुक्त परिवार..

ताऊ जी की कहानी, चाचा जी का दुलार.
मीठे-मीठे शहद की तरह, है हमारा परिवार..

सब मिलकर साथ रहते, करते हँसी ठिठोली.
छोटे-छोटे बच्चों की, मीठी लगती है बोली..

एकांकी जीवन मे रह कर, बच्चे अपनापन भूल रहे.
अपने धुन में मगन हो गये, किसी की नहीं सुन रहें..

संयुक्त परिवार कहाँ हैं पाते, नहीं मिलता सब का साथ.
जिंदगी जीने की चाह में, भूल गयें है बढ़ाना हाथ..

कृष्णा

रचनाकार- योगेश ध्रुव 'भीम'

प्रेम सुधा रस बरसाने वाले,
पुत्र प्रेम के भाव हो कृष्णा.

गोप ग्वाले धेनु चराने सम मूरत,
कालिंदी तीरे बंसी बजाते कृष्णा.

दुखहर्ता पालनकर्ता भूख मिटाते,
दरिद्रता हर सम्मान दिलाते कृष्णा.

सखाओ में सखा तुम सहचर कहाते,
भेद न कर गले लगाते तुम हो कृष्णा.

विषधारी मर्दन कर सम प्रेम भाव के,
जीने का अधिकार दिलाते तुम कृष्णा.

प्रेम की प्रति मूरत राधे संग रास रचाते,
गिरधर गोपाल मीरा दीवानी तुम कृष्णा.

लाज बचाने चिर बढ़ाते द्रोपती के तुम,
भाई-बहन के रिश्ते निभाते तुम कृष्णा.

सारथियों के सारथी बन आगे बढ़ाते तुम,
संकट का सामना करना सीखाते तुम कृष्णा.

योगेश्वर हो तुम ज्ञानेश्वर सभी विधा समाये,
मूक वाचाल लंगड़ा चलना सिखाए तुम कृष्णा.

समरसता की राह बनाते हो गोवर्धन धारी,
मानवता कल्याणकारी समभाव हो कृष्ण मुरारी.

माँ की ममता

रचनाकार- लाल देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव

सब कुछ खरीद सके दौलत से,
पर माँ की ममता न कहीं बिके.
अनमोल सदैव ही माँ की ममता,
माँ की ममता न हम खरीद सके.

हम बच्चों से अपने आस लगाए,
वे जरूर बने जैसे श्रवण कुमार.
माँ जिसने हमको है जन्म दिया,
बूढ़ी होने पर हो जाती लाचार..

आधुनिकता के मोह बन्धन में,
माँ के प्रति हम होते लापरवाह.
माँ जैसी ममता कहीं न मिलती
सदियों से इतिहास रहा गवाह..

बूढ़ी माँ के टूटे चश्मे को हम,
बनवाने में लगा देते कई माह.
नई गाड़ी व मोबाइल लेने में,
हम बना लेते तुरंत नई राह..

धन्य ! बहुत वे हैं अच्छे इंसान,
जो वृद्धाश्रम को है खोल दिए.
सम्मान मैं मन से करना चाहूँ,
वृद्धों को आश्रम में शरण दिए..

बेटा कितना भी होता खराब,
माँ देती है आँचल का प्यार.
सब रिश्तों में अनमोल है माँ,
जीवन भर करती हमें दुलार..

मेरा फ़र्ज

रचनाकार- लाल देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव

माता पिता ने मुझे जन्म देकर,
अंगुली पकड़ चलना सिखाया.
लालन पालन में कष्ट सहकर,
जीवन के लिए योग्य बनाया..

वो अशक्त और अब वृद्ध हुए,
मैं अब उनका पूर्ण संबल बनूँ.
मेरा अब उनके प्रति कर्तव्य है,
गिन कर उनकी ख़ुशियाँ चुनूँ..

भाई बहिन को ख़ूब प्यार दूँ,
उनकी ख़ुशियों को संवार दूँ.
मित्र को दिखाऊँ सच रास्ते,
गुरू को मैं पूर्ण सत्कार दूँ..

जीवन संगिनी को प्यार कर,
यथोचित मैं उसे सम्मान दूँ.
बच्चों को गुण संस्कार देकर,
भविष्य उनका निखार दूँ..

भारत वासी बन कर मुझे,
महसूस होता बहुत गर्व है.
देश पर कोई कुदृष्टि डालें,
सर काटना मेरा फ़र्ज है..

देश पर दुश्मनों की हो नज़र,
हम एक बन उस पर टूट पड़े.
हिमालय की तरह हो एकता,
सरहद पर जा कर हम अड़े..

देशभक्तों के प्रति कर्तव्य मेरा,
बलिदान को उनके याद करें.
देश की संस्कृति से सीख लें,
ख़ुशियों से अपना जीवन भरें..

शहर की सैर

रचनाकार- लाल देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव

कई जानवर जंगल से यूँ,
इक दिन साथ चल पड़े.
हमें घूमना शहर में आज,
चौराहे पर आ हुए खड़े..

सबसे पहले पहुँचे वे मॉल,
आँखें फाड़े ये माल है टाल.
माल से ख़ूब सामान खरीदे,
फिर चले गए सिनेमा हॉल..

पिक्चर में गाना शुरू हुआ,
सब लगे झूम-झूम कर गाने.
सिनेमा हाल में किया हंगामा,
मालिक आया उन्हें मनाने..

दिन भर बीत गया सभी को,
अब लग गई सभी को भूख.
होटल में पहुँच खाना खाया,
फिर किया जंगल का रुख..

जंगल जब पहुँचे हो गई रात,
थक कर के हो गए सब चूर.
जम कर खर्राटे ले कर सोए,
नींद आज उन्हें आई भरपूर..

परीक्षा

रचनाकार- रीता गिरी

विषय, किताब, पाठ्यक्रम बहुत पढ़ा, बहुत दी परीक्षा.
अच्छे अंकों से उत्तीर्ण होकर, पूरी कर ली इच्छा.

अब समझा सबसे कठिन है, जीवन- रुपी परीक्षा.
हरपल परखती नजरें, करती रहती समीक्षा.

जीवन -रुपी परीक्षा में, सफल वही होता है.
धर धैर्य और साहस, चुनौतियों से जो लड़ता है.

जीवन में परीक्षा हमें, हर वक्त यही सिखाती है.
परीक्षा तो हमें कुंदन सा चमकाती है.

इस घड़ी में कोई बिखर, तो कोई निखर जाता है.
कोई अच्छे कर्म कर, जीवन सफल कर जाता है.

मुझे पसंद है

रचनाकार- यशवंत कुमार चौधरी

पढ़ने में कहानी
पीने में साफ़ पानी
भले आदमी की जुबानी
छत्तीसगढ़ी बानी
मुझे पसंद है.

प्रकृति में इंसान
खेतों में किसान
घरों में मेहमान
अनाजों में धान
मुझे पसंद है.

खेलों में कबड्डी
माता में चंडी
रास्तों की पगडंडी
दरवाजों की कुण्डी
मुझे पसंद है.

अपनों में माँ-बाप
लोगों से वार्तालाप
जीवन में संकल्प
काम में विकल्प
मुझे पसंद है.

इरादों में चमक
चरित्र में दमक
स्वभाव में नरम
चाय में गरम
मुझे पसंद है.

बचपन

रचनाकार- आरज़ू परवीन कक्षा- बारहवीं, शा. क. उ. मा. विद्यालय अघिना, सलका, भैयाथान, सूरजपुर

बचपन कितना सुहाना था.
ना जीतने की चाह थी
ना ही हार का डर,
ना मंजिल की फिकर थी
ना थी उस तक जाने वाली कोई डगर.
जब थक कर सो जाया करते थे जमीन पर,
और जब आँख खुले तो
खुद को पाते थे बिस्तर पर.
किताबों से भरे बस्ते थे,
उस वक़्त सपने कितने सस्ते थे.
वो बारिश की बूँदों वाली कश्ती
वो पुरे दिन चलने वाली मस्ती.
स्कूल से देर घर लौटने के बाद भी
खेलने बाहर जाना था,
बचपन भी कितना सुहाना था.
वो मिट्टी का घरौंदा था,
खुशियों का खजाना था.
कोई फिकर ना थी जिंदगी की
सारे फिकरों से बेफिकर थे,
जीवन के कठिनाइयों से बेखबर थे.
कभी आम के बगीचों पर,
तो कभी अमरूद के पेड़ पर ठिकाना था,
बचपन के खेल और खिलौने में
ही अपना आशियना था,
सच बचपन कितना सुहाना था.

मिट्टी

रचनाकार- वीरेन्द्र कुमार साहू

मिट्टी मिट्टी
मिट्टी के खिलौने
मिट्टी के घर
मिट्टी की मूरत
मिट्टी के मुखौटे
मिट्टी का घड़ा
मिट्टी के ईट
मिट्टी के दीये.
मिट्टी में अन्न
मिट्टी में जल
मिट्टी में जीवन
मिट्टी में ही अंत

रक्षाबंधन

रचनाकार- डिजेन्द्र कुर्रे 'कोहिनूर'

सावन के इस पुण्य पर्व ने,
मन में प्रीत जगाई है.
अक्षत कुमकुम दीप सुमन से,
थाली आज सजाई है.

टूट नहीं पाता वह बल है,
इस रेशम के बंधन में.
भाल सजा देती है बहना,
रोली कुमकुम चंदन में.
बहना को भाई से अतुलित,
इस राखी में प्यार मिले.
बचपन की यादें है जिसमें,
पावन वह संसार मिले.
जब वापस जाती हैं बहना,
नैना तब भर आई हैं.
अक्षत कुमकुम दीप सुमन से,
थाली आज सजाई है.

अगर बहन आ नहीं सके तो,
भाई को दुख होता है.
आँसू नहीं बहाता पर वह,
मन ही मन में रोता है.
बहना भी अपने भैया बिन,
सुखी कहाँ रह पाती है.
भैया के बारे में सोचती,
बहुत व्यथित हो जाती है.
यह दोनों ही इक दूजे के,
जीवन की परछाईं है.
अक्षत कुमकुम दीप सुमन से,
थाली आज सजाई है.

शिक्षा का अलख जगाओ

रचनाकार- डिजेन्द्र कुर्रे 'कोहिनूर'

अंधकार को दूर भगाकर,
उजियाला फैलाओ जी.
बच्चों में विश्वास जगाकर,
शिक्षा का अलख जगाओ जी.
नामुमकिन को मुमकिन कर,
काम सफल कर जाओ जी.
बच्चों को नई राह दिखाकर,
शिक्षा का अलख जगाओ जी.
अज्ञानी को ज्ञानी बनाकर,
शिक्षा का महत्व बताओ जी.
समाज को शिक्षित कराकर,
शिक्षा का अलख जगाओ जी.
असभ्य को सभ्य बनाकर,
जीने का ढंग बताओ जी
स्वच्छता का संदेश देकर,
शिक्षा का अलख जगाओ जी.
अंधविश्वास दूर भगाकर,
शिक्षा की चिंगारी जलाओ जी.
राष्ट्र का निर्माण कराकर,
शिक्षा का अलख जगाओ जी.

रक्षाबंधन

रचनाकार- स्व. महेन्द्र देवांगन 'माटी'

आया रक्षा बंधन भैया, लेकर सबका प्यार.
है अटूट नाता इसे दे अनुपम उपहार..

राखी बाँधे बहना प्यारी, रेशम की है डोर.
खड़ी आरती थाल लिये अब, होते ही वह भोर..

सबसे प्यारा मेरा भैया, सच्चे पहरेदार.
है अटूट नाता बहनों से, दे अनुपम उपहार..

हँसी ठिठोली करते दिनभर, माँ का राज दुलार.
रखते हैं हम ख्याल सभी का, अपना यह परिवार..

राखी के इस शुभ अवसर पर, सजे हुए हैं द्वार.
है अटूट नाता बहनों से, दे अनुपम उपहार..

तिलक लगाती है माथे पर, देकर के मुस्कान.
वचन निभाते भैया भी तो, देकर अपने प्राण..

आँच न आने दूँगा अब तो, है मेरा इकरार.
है अटूट नाता बहनों से, दे अनुपम उपहार..

कैसा है ये जीवन

रचनाकार-नीरज त्यागी

बारिश के रुके हुए पानी सा है जीवन,
हर अगले पल, धरा में धसता जीवन.

बारिश की दलदल सा बनता जीवन,
अपने सपनों के मकड़जाल में फँसता जीवन.

भारी बारिश के बाद,बाढ़ के रुके पानी सा जीवन,
अपनी मिटती सब इच्छाओं पर भी हँसता जीवन.

ना जाने किस ओर भटकता हर पल मेरा ये मन,
तेज हवाओं में बारिश सा दिशा बदलता मेरा जीवन.

बस यही दुआ है

रचनाकार- तबस्सुम

कोरोना काल में यह क्या हो गया है
शिक्षक अब विद्यार्थी से जुदा हो गया है
छूट गया है ब्लैक बोर्ड चॉक से अपना नाता
हमें घर में खाली रहना नहीं हर पल भाता
स्कूल की याद हमें सताती है
कोरोना बीमारी जल्दी से क्यों नहीं जाती है?
बच्चों को पढ़ाना होमवर्क देना
सब रह गया बस एक स्वप्न सलोना
बच्चों की याद हमें हर पल सताती है
ये कोरोना बीमारी जल्दी से क्यों नहीं जाती है?
कब खत्म होगा ये कोरोना का खेल
कब होगा हमारा अपने बच्चों से मेल
बस यही दुआ है अब तो अपनी
जल्दी से खुल जाए स्कूल अपनी

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