कहानियाँ

पञ्चतन्त्र की कथा- साँप और कौवा

एक जंगल में बरगद का एक बहुत बड़ा और पुराना वृक्ष था. उस वृक्ष पर एक कौवा अपनी पत्नी के साथ आनंद पूर्वक रहता था. कुछ दिनों बाद एक काला साँप बरगद के कोटर में आकर रहने लगा.

यह साँप वृक्ष पर घूमता और कौवे के छोटे बच्चों को खा जाता था. ऐसा बार - बार होता था. इससे कौवा और उसकी पत्नी को बहुत दुख होता था.

एक दिन कौवे की पत्नी ने कौवे से कहा, अब हमें कहीं और जाकर रहना चाहिए. कौवे ने अपनी पत्नी को ढाढस देते हुए कहा कि हम बरसों से यहां रह रहे हैं. इस वृक्ष को छोड़कर जाना उचित नहीं होगा. और क्या नए स्थान पर कोई संकट नहीं आएगा? हमें कोई उपाय करना चाहिए.

संकट के समय मित्रों की सहायता अवश्य लेनी चाहिए ऐसा विचार कर दोनों अपने पुराने मित्र सियार के पास गए और उससे अपनी व्यथा कही. सियार ने उन्हें समझाते हुए कहा विपत्ति के समय धीरज नहीं खोना चाहिए.

कौवे ने कहा, जिस की खेती नदी किनारे हो, जिसका घर साँपों से घिरा हुआ हो भला वह कैसे धीरज रख सकता है.

सियार ने उनसे कहा, मित्र! सभी समस्याओं को उपायों से हल किया जा सकता है. जब कोई कार्य बल और शक्ति से ना हो तो उसे युक्ति पूर्वक करना चाहिए.यदि दुर्बल और असहाय व्यक्ति युक्ति से काम ले तो शूरवीर भी उससे जीत नहीं सकता.

कौवे ने कहा, इन परिस्थितियों में हमें क्या करना चाहिए मित्र, यह बताओ.

सियार ने उन्हें एक युक्ति बताई. इसे सुनकर दोनों पति -पत्नी बहुत प्रसन्न हुए. वे उड़ते हुए नगर की ओर चले गए. वहाँ वे राजमहल के निकट एक सरोवर के पास पहुँचे.उन्होंने देखा, राजा और उनके कुछ मित्र सरोवर में स्नान कर रहे थे.उनके मूल्यवान वस्त्र और आभूषण सरोवर के किनारे रखे हुए थे. अवसर मिलते ही कौवे की पत्नी ने एक स्वर्णहार अपनी चोंच में उठा लिया और पास ही एक वृक्ष पर जा बैठी. कौवा काँव - काँव चिल्लाने लगा.

इससे पहरेदारों का ध्यान उनकी तरफ गया.हार को देखते ही वे कौवे की ओर दौड़ पड़े. उन्हें आता देखकर कौवा और उसकी पत्नी जंगल की ओर उड़ चले. पहरेदार उनके पीछे -पीछे दौड़ने लगे. कौवा और उसकी पत्नी उड़ते-उड़ते उसी बरगद के वृक्ष के पास पहुंचे. वह हार उन्होंने साँप के कोटर में डाल दिया.फिर वे वृक्ष की ऊँची शाखा पर जाकर बैठ गए.

पहरेदारों ने हार को कोटर में गिराते देख लिया था. वे उसे लेने के लिए जैसे ही कोटर के पास पहुँचे, वहाँ उन्होंने साँप को अपना फन फैलाए बैठे देखा. उन सब ने मिलकर लाठियों से साँप को मार डाला.

कौवे और उसकी पत्नी को दुष्ट साँप से मुक्ति मिल गई.

शापित सोना

रचनाकार- दिलकेश मधुकर

मधुपुर नाम का एक गाँव था. वहाँ के लोग धन धान्य और संपदा से धनी थे. एक बार लगातार बारिश के कारण पूरा गाँव बाढ़ में बह गया. धनीराम नाम का महाजन भी बाढ़ के कारण कंगाल हो गया और गाँव छोड़कर अन्यत्र काम की तलाश में निकल पड़ा.

पैदल चलते चलते अत्यंत थकान से धनीराम का गला सूखने लगा. प्यास के कारण उसका बुरा हाल हो रहा था. तभी उसे एक छोटा सा तालाब नजर आया. तालाब का पानी स्वच्छ था. वह अपनी प्यास बुझाने लगा तभी उसे तालाब में चमकती हुई सुनहरे रंग की वस्तु नजर आई. उत्सुक होकर वह थोड़ा गहरे पानी में गया और डुबकी लगाकर उस सुनहरी वस्तु को उठाया. यह क्या? सोने का सिक्का ! उसने पुनः डूबकी लगाई और सोने का एक और सिक्का निकाल लिया ऐसा करते करते उसने ढेर सारे सिक्के निकाल लिए.

धनीराम सिक्कों की थैली लेकर वापस अपने गाँव की ओर चल दिया. रास्ते में जंगल में छुपे हुए चोरों ने धनी राम को रोक लिया और सिक्कों की थैली लूटकर भाग गए.

भागते हुए चोरों को रास्ते में पुलिस ने सोने की थैली के साथ पकड़ लिया. पुलिस का दल जब चोरों को थाने ले जा रहा था तब रास्ते में उनकी गाड़ी दुर्घटनाग्रस्त हो गई और सभी घायल हो गए. वे सभी अस्पताल पहुँचे. उन्हें अस्पताल में भर्ती कर लिया गया. डाँक्टर की नजर सोने की थैली पर पड़ी और लालच में आकर डाँक्टर थैली को अपने घर ले गया.

घर पहुँचकर डाँक्टर ने पूरी बात अपनी पत्नी को बताई. उन्होंने सिक्कों की थैली को आलमारी में सुरक्षित रख दिया. उसी रात उनके सो जाने के बाद घर में एक चोर घुस आया और सोने की थैली चुराकर भाग गया.

भागते हुए वह चोर उसी तालाब के पास पहुँचा. चोर को तालाब के बीचों-बीच एक भूत नजर आया जो पानी पर चल रहा था.चोर डरकर वहीं बेहोश हो गया. भूत ने सिक्कों की पोटली उठा ली और तालाब के अंदर चला गया.

अगले दिन यह पूरी घटना की खबर गाँव में फैल गई. तब से लोग उस तालाब को शापित सोना कहने लगे.

फ़ौजी या वैज्ञानिक

रचनाकार- उपांशु एवं पल्लवी साहू

श्यामपुर गाँव में राम नामक आठ वर्ष का एक बच्चा रहता था.वह बहुत होशियार, साहसी और निडर था. वह प्रतिदिन विद्यालय जाता था,अपने माता-पिता एवं गुरुजनों का सम्मान करता था और प्रतिवर्ष कक्षा में प्रथम आता था.

एक दिन शिक्षक ने कक्षा में सभी से पूछा कि वे भविष्य में क्या बनना चाहते हैं और देश के लिए क्या करना चाहते हैं? राम ने अभी तक अपना लक्ष्य तय नहीं किया था.उसने घर आकर इस विषय पर अपने माता-पिता से सलाह ली कि भविष्य में उसे क्या बनना चाहिए और देश के लिए क्या करना चाहिए? राम के माता-पिता ने उससे पूछा कि वह क्या बनना चाहता है?राम ने जवाब दिया कि फ़ौजी और वैज्ञानिक दोनों ही देश की सेवा करते हैं और मुझे इन दोनों में से ही एक बनना है.

उसके माता-पिता ने कहा कि वे उसका भविष्य तो नहीं निर्धारित कर सकते परन्तु उसे फ़ौजी और वैज्ञानिक के बारे में कुछ न कुछ तो बता ही सकते हैं. फ़ौजी अपना सब कुछ छोड़कर देश की सीमा पर तैनात रहते हैं और जरूरत पड़ने पर देश के लिए अपने जीवन का त्याग भी कर देते हैं.

वैज्ञानिक भी देश के लिए नए नए आविष्कार करने में लगे रहते हैं और देश का विकास करते हैं.अपने माता-पिता की बात सुनकर राम ने मन ही मन अपना लक्ष्य तय कर लिया.अपनी पढ़ाई पूरी कर राम अपने लक्ष्य की ओर बढ़ने लगा और फिर एक दिन उसका चयन फ़ौज के लिए हो गया.

वह बहुत ही साहसी और निडर था. अफनी मेहनत और लगन से उसे फौज में तरक्की मिलती गई. सेवानिवृत्ति के समय तक उसे अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया गया. उसने सेवानिवृत्त होने के बाद भी देशसेवा करने का संकल्प किया. राम के माता-पिता को उन्हें गर्व है कि उन्हें ऐसा पुत्र मिला.

चर्मकार की चतुराई

रचनाकार- श्वेता तिवारी

बहुत पहले की बात है बहादुर सिंह नाम का एक राजा था और उसका एक मंत्री था टेकचंद. एक दिन राजा बहादुर सिंह ने टेकचंद से कहा-'कल जब हम राज्य में घूमने निकले तो हमारे पैरों में धूल लग गई. धूल की इतनी मजाल कि वह हमारे पैरों में लगे. तुम लोग इस धूल का कुछ उपाय करो नहीं तो तुम्हारी खैर नहीं.'

राजा की बात सुनकर मंत्री टेकचंद घबरा गया और हाथ जोड़कर बोला- 'महाराज आप हमारे अन्नदाता हैं अगर आपके चरणों पर धूल नहीं लगेगी तो हम लोगों को आप की चरण धूलि कैसे मिलेगी.'

मंत्री की यह बात सुनकर राजा खुश तो हो गया पर फिर भी अकड़ कर बोला-'जो भी हो हमें धूल से नफरत है तुम इस धूल को पूरे राज्य से हटवा दो नहीं तो तुम्हारे लिए बहुत बुरा होगा.'

राजा का ऐसा आदेश सुनकर टेकचंद बहुत परेशान हो गया. उसने देश विदेश के विद्वानों से धूल हटाने का उपाय पूछा लेकिन कोई भी उसे उपाय नहीं बता पाया.मंत्री टेकचंद को राजा को खुश करने के लिए एक उपाय सूझा.

उसने कई लाख झाड़ू खरीदकर राज्य भर में बँटवा दिया और नागरिकों को आदेश दिया कि सारी धूल हटा दी जाए. राजा के आदेश का पालन करने के लिए राज्य के सभी लोग गली मोहल्लों में झाड़ू लगाने लगे. झाड़ू लगाने से इतनी धूल उड़ी कि राजा खाँसते-खाँसते परेशान हो गया.

राजा ने फिर टेकचंद को बुलाया और कहा- 'तुम्हारी व्यवस्था तो बहुत ही बेकार है. धूल हटाने की जगह तुमने चारों ओर धूल ही धूल कर दी. अगर दो दिनों में यह धूल नहीं हटी तो तुम्हें जेल की हवा खानी पड़ेगी.'

राजा की यह बात सुनकर टेकचंद ने सभी नागरिकों को धूल पर पानी छिड़कने की आज्ञा दी. इस काम में इतना पानी खर्च हो गया कि कुओं और तालाबों का सारा पानी ही खत्म हो गया. चारों ओर कीचड़ ही कीचड़ हो गया वह अलग. राज्य के लोग प्यास के मारे परेशान होने लगे.

अब राजा ने टेकचंद को डाँटा- 'तुमने तो हमें बर्बाद ही कर दिया तुम जैसों को तो सूली पर ही चढ़ा देना चाहिए सारे राज्य में यह क्या कीचड़ कीचड़ कर रखा है.'

घबराए हुए मंत्री टेकचंद ने तुरंत योग्य मंत्रियों की एक बैठक बुलाई मंत्रियों ने टेकचंद को सलाह दी कि अगर राज्य की पूरी धरती को चमड़े से मढ़ दिया जाए तो धूल से बचा जा सकता है यह सलाह राजा को बताइए. राजा को यह सलाह ठीक लगी और उसने देश के सभी चर्मकारों को बुलवाया.

चर्मकारों को जब यह पता चला कि उन्हें सारे राज्य की धरती को चमड़े से मढ़ना है तो वह बुरी तरह घबरा गए और राजा से बोले कि महाराज न तो हमारे पास इतना चमड़ा है और न ही इतनी शक्ति कि हम पूरे राज्य की धरती को मढ़ सकें.

तब एक बूढ़े चर्मकार ने कहा कि महाराज मैं एक उपाय बताऊँ? राजा बोला 'तुम क्या उपाय बताओगे विद्वानों की पूरी सभा तो इस समस्या का हल बता नहीं पाई.'

चर्मकार बोला आप आज्ञा तो दीजिए महाराज. राजा ने उस बूढ़े चर्मकार की बात मान ली. बूढ़े चर्मकार ने अपने थैले में से मुलायम चमड़े का एक टुकड़ा निकाला और उससे एक जोड़ा सुंदर सा जूता बनाकर राजा के पाँव में पहना दिया.

जूते पहनकर राजा ने कुछ दूरी तक चल कर देखा तो उसके पैरों में धूल का एक कण भी नहीं लगा. इस प्रकार राजा को अपनी समस्या का समाधान मिल गया. चर्मकार द्वारा अपनाए गए उपाय से मंत्री टेकचंद की जान बच गई और उस दिन से लोगों ने जूते पहनने प्रारंभ कर दिए.

असली ख़ुशी

रचनाकार- वल्लभ डोंगरे

पति के अपने व्यवसाय से सम्बंधित आवश्यक बैठक में व्यस्त होने से करुणा को अपने 5 साल के बेटे को स्कूल लाने टू-व्हीलर से जाना पड़ा. वापस आते समय अचानक बैलेंस बिगड़ने से वह बेटा सहित गाड़ी से गिर गई.

करुणा के शरीर पर कई खरोंचें आई पर बेटा एकदम सुरक्षित था. दोनों को गिरा देखकर आसपास के लोग मदद के लिए एकत्रित हो गए. तभी करुणा की कामवाली बाई कहीं से अचानक उपस्थित हो गई. उसने करुणा को सहारा देकर खड़ा किया और अपने एक परिचित की दुकान पर गाडी खड़ी करवा कर कंधे का सहारा देकर करुणा और उसके बेटे को पास ही स्थित अपने छोटे से घर ले गई.

बाई ने अपने पल्लू से बंधा हुआ 50 का नोट निकाला और अपने बेटे राजू को दूध, बैंडेज एवं एंटीसेप्टिक क्रीम लेने के लिए भेज दिया तथा अपनी बेटी रानी को पानी गर्म करने को कहा. उसने करुणा को कुर्सी पर बिठाया तथा मटके का ठंडा जल पिलाया. इतने में पानी गर्म हो गया था.

बाई करुणा को लेकर बाथरूम में गई और सारे जख्मों को गर्म पानी से धोकर साफ किये. वह उठकर बाहर गई और एक नया टावेल और नया गाउन ले आई. उसने टावेल से पूरा बदन पोंछा तथा जहां आवश्यक था वहां बैंडेज लगाया, जहां मामूली चोट थी वहां एंटीसेप्टिक क्रीम लगाया.अब करुणा को कुछ राहत महसूस हो रही थी.

बाई करुणा को पहनने के लिए नया गाउन देते हुए बोली 'यह गाउन मैंने कुछ दिन पहले ही खरीदा था लेकिन आज तक नहीं पहना है मैडम आप यही पहन लीजिए तथा थोड़ी देर रेस्ट कर लीजिए.''आपके कपड़े बहुत गंदे हो रहे हैं हम इन्हें धो कर सुखा देंगे फिर आप अपने कपड़े बदल लीजियेगा.'

करुणा के पास कोई विकल्प नहीं था. वह गाउन पहनकर बाथरुम से बाहर आई. बाई झटपट अलमारी से एक नया चद्दर निकाल और पलंग पर बिछाते हुए बोली आप थोड़ी देर यहीं आराम कीजिए.

इतने मैं बिटिया ने दूध भी गर्म कर दिया था.बाई ने दूध में हल्दी मिलाई और पीने को दिया और बड़े विश्वास से कहा मैडम आप यह दूध पी लीजिए आपके सारे जख्म भर जाएंगे.

लेकिन अब करुणा का ध्यान तन पर कम और अपने मन पर अधिक था. उसके मन के सारे जख्म एक-एक करके हरे हो रहे थे. वह सोच रही थी 'कहां मैं और कहां यह बाई ?' जिस बाई को वह फटे- पुराने कपड़े दिया करती थी, उसने आज उसे नया टावेल और नया गाउन दिया और नई बेडशीट लगाई. धन्य है यह बाई.

एक तरफ करुणा के दिमाग में यह सब चल रहा था तभी दूसरी तरफ बाई गरम गरम चपाती और आलू की सब्जी बना रही थी. थोड़ी देर मे वह थाली लगाकर ले आई. वह बोली 'आप और बेटा दोनों खाना खा लीजिए.' बाई को मालूम था कि मैडम का बेटा आलू की सब्जी ही पसंद करता है और उसे गरम- गरम रोटी पसंद है. इसलिए उसने रानी से तैयार करवा दी थी. रानी बड़े प्यार से करुणा के बेटे को आलू की सब्जी और रोटी खिला रही थी और करुणा इधर प्रायश्चित की आग में जल रही थी.

वह सोच रही थी कि जब भी इसका बेटा राजू मेरे घर आता था मैं उसे एक तरफ बिठाने का कह देती थी, उसको नफरत से देखती थी और इन लोगों के मन में हमारे प्रति कितना प्रेम है.

यह सब सोच- सोच कर करुणा आत्मग्लानि से भरी जा रही थी. उसका मन दुख और पश्चाताप से भर उठा था. तभी करुणा की नज़र राजू के पैरों पर गई जो लंगड़ कर चल रहा था. उसने बाई से पूछा ' इसके पैर को क्या हो गया तुमने इलाज नहीं करवाया ?' बाई ने बड़े दुखी मन से कहा 'मैडम इसके पैर का ऑपरेशन करवाना है जिसका खर्च करीबन ₹10000 रुपए है.', 'मैंने और राजू के पापा ने रात दिन मेहनत कर के ₹5000 तो जोड़ लिए हैं ₹5000 की और आवश्यकता है. हमने बहुत कोशिश की लेकिन कहीं से मिल नहीं सके.', ' ठीक है, भगवान का भरोसा है, जब आएंगे तब इलाज हो जाएगा. फिर हम लोग कर ही क्या सकते हैं?'

तभी करुणा को ख्याल आया कि बाई ने एक बार उससे ₹5000 अग्रिम मांगे थे और उसने बहाना बनाकर मना कर दिया था. आज वही बाई अपने पल्लू में बंधे सारे रुपए उस पर खर्च कर के खुश थी और मैं उसको, पैसे होते हुए भी मुकर गई थी और सोच रही थी कि बला टली.आज मुझे पता चला कि उस वक्त इन लोगों को पैसों की कितनी सख्त आवश्यकता थी.

करुणा अपनी ही नजरों में गिरती ही चली जा रही थी. अब करुणा को अपने शारीरिक जख्मों की चिंता बिल्कुल नहीं थी बल्कि उन जख्मों की चिंता थी जो उसकी आत्मा को उसने ही लगाए थे. उसने दृढ़ निश्चय किया कि जो हुआ सो हुआ लेकिन आगे जो होगा वह सर्वश्रेष्ठ ही होगा. उसने उसी वक्त बाई के घर में जिन- जिन चीजों का अभाव था उसकी एक लिस्ट अपने दिमाग में तैयार की.

थोड़ी देर में करुणा लगभग ठीक महसूस कर रही थी. उसने अपने कपड़े बदले लेकिन वह गाउन उसने अपने पास ही रखा और बाई को बोला 'यह गाऊन अब तुम्हें कभी भी नहीं दूंगी यह गाऊन मेरी जिंदगी का सबसे अमूल्य तोहफा है.' बाई बोली 'मैडम यह तो बहुत हल्की रेंज का है.' बाई की बात का करुणा पर कोई असर नहीं हुआ.

करुणा घर आ गई लेकिन रात भर सो नहीं पाई. उसने अपनी सहेली के मिस्टर, जो हड्डी रोग विशेषज्ञ थे, उनसे राजू के लिए अगले दिन का अपॉइंटमेंट लिया. बाई की जरूरत का सारा सामान खरीदा और वह सामान लेकर में सीधे उसके घर पहुंच गई. बाई समझ ही नहीं पा रही थी कि इतना सारा सामान एक साथ मालकिन उसके घर में क्यों लेकर आई है.

करुणा ने धीरे से उसको पास में बिठाया और बोला 'मुझे मैडम मत कहो मुझे अपनी बहन ही समझो और हां कल सुबह 7:00 बजे राजू को दिखाने चलना है उसका ऑपरेशन जल्द से जल्द करवा लेंगे और तब राजू भी ठीक हो जाएगा'

खुशी से बाई रो पड़ी लेकिन यह भी कहती रही कि 'मैडम यह सब आप क्यों कर रही हो? हम बहुत छोटे लोग हैं हमारे यहां तो यह सब चलता ही रहता है.' वह करुणा के पैरों में झुकने लगी. यह सब सुनकर और देखकर करुणा का मन भी द्रवित हो उठा और आंखों से आंसुओं की धार बह निकली. उसने बाई को दोनों हाथों से ऊपर उठाया और गले लगा लिया. 'बहन रोने की जरूरत नहीं है अब यह घर भी मेरा घर है.'

करुणा ने मन ही मन कहा बाई तुम क्या जानो कि मैं कितनी छोटी हूं और तुम कितनी बड़ी. आज तुम लोगों के कारण मेरी आंखें खुल सकीं. मेरे पास इतना सब कुछ होते हुए भी मैं भगवान से और अधिक की भीख मांगती रही, मैंने कभी संतोष का अनुभव नहीं किया. लेकिन आज मैंने जाना कि असली खुशी पाने में नहीं,देने में है.

मिसाल बनो मजबूरी नही

रचनाकार- नीरज त्यागी, ग़ाज़ियाबाद

एक शहर की एक बड़ी सोसाइटी को सरकारी सोसाइटी कहा जाता था.यहाँ रहने वाले सभी लोग या तो बड़े-बड़े सरकारी पदों पर काम करने वाले थे या सरकारी नौकरियों से सेवानिवृत्त हुए व्यक्ति थे.

सोसाइटी में सुबह-सुबह ही कूड़ा बीनने वाले बच्चे आया करते थे और कुछ ऐसे भी बच्चे आते थे जो वहाँ रहने वाले लोगों से भीख माँगकर अपना पेट भरते थे.

लगभग सभी घरों से उन बच्चों को कुछ न कुछ खाने को मिल ही जाता था. लेकिन वर्माजी के घर से कभी किसी भी बच्चे को कुछ नही दिया जाता था. वर्माजी ऐसे बच्चों को देख कर भी अनदेखा कर देते थे.सोसाइटी के लोगों के बीच इसी वजह से उनके लिए बातें भी होती थीं कि इतना पैसा होने के बाद भी वर्माजी किसी गरीब बच्चे को कुछ भी नहीं देते. बल्कि वे अपनी कोठी के सामने दूसरे प्लॉट में एक और बड़ी सी बिल्डिंग बनाने में ही लगे हैं.

लोंगो की बातों को अनसुना करते हुए वर्माजी ने अपने दूसरे प्लॉट पर एक भव्य बिल्डिंग का निर्माण पूरा किया.

पास पड़ोस के लोग इस सोच में थे कि अकेले वर्माजी दो-दो मकानों का क्या करेंगे. वर्माजी के दोनों बेटे विदेश में नौकरी करते हैं. पूरा मकान तैयार होने के बाद एक दिन लोगों ने देखा की वर्माजी ने अपने दूसरे मकान में बच्चों के लिए एक स्कूल की स्थापना की और स्कूल का नाम रखा' सबका स्कूल'.

वर्मा जी ने सोसाइटी के सभी निवासियों को बुलाया और अपने स्कूल के बारे में बताते हुए कहा कि हम सभी पैसों के मामले में संपन्न है.इन सभी गरीब बच्चों के लिए जो सुबह कूड़ा उठाते हैं या और भी ऐसे गरीब बच्चे जो पढ़ नहीं पाते, उनके लिए मैं इस स्कूल को बिल्कुल प्राइवेट स्कूल की तरह बनाना चाहता हूँ.इस काम में मुझे आप सभी का सहयोग चाहिए.यहाँ पर जो भी अध्यापक अध्यापिका पढ़ाने के लिए आएँगे उनकी तनख्वाह की जिम्मेदारी अगर हम सभी लोग मिलकर ले लें तो इन सभी बच्चो का भविष्य सुधर जाएगा.

वर्मा जी के इस प्रस्ताव से सभी लोग सहमत हो गए.अब सभी लोगों के मन से वर्मा जी के लिए गलतफहमी दूर हो चुकी थी.वर्मा जी ने आसपास के सभी लोगों के लिए एक बहुत बड़ी मिसाल प्रस्तुत की.

देश के गरीब बच्चों को भीख में खाना देने से ही काम नहीं चलेगा.अगर उनकी गरीबी दूर करनी है तो उन्हें पढ़ा लिखा कर इस काबिल बनाना होगा कि वह आगे कभी भी भीख ना माँगें.वर्मा जी की बात से सभी सहमत थे और सभी ने इस स्कूल के लिए अपनी ओर से सहयोग दिया. इस प्रकार सबका स्कूल सबके सहयोग से प्रारंभ हो गया.

माँ की याद

रचनाकार- सतीश चन्द्र भगत, दरभंगा

छोटा परिवार सुखी परिवार होता है. जीवन की गाड़ी अच्छी तरह चलती है. परंतु कब तक? जब तक सांसारिक गतिविधियाँ सही रूप से चलती रहें.

देवेन्द्र की ऐसी सोच को जानकर उसकी माँ ने कहा-' ऐसा नहीं है बेटा! मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है.उसे घर- परिवार के अन्य सदस्यों और अड़ोस-पड़ोस के लोगों के साथ मिलजुल कर रहने में ही खुशी मिलती है.'

देवेन्द्र की शादी हो गई.शादी के दो वर्ष बाद एक पुत्र सूरज और अगले तीन वर्ष बाद एक पुत्री सीमा का जन्म हुआ.

देवेन्द्र की माँ उसकी पत्नी शालिनी और उनके बच्चों का जीवन हँसी-खुशी में बीत रहा था.

समय बीतता गया. देवेन्द्र का बेटा सूरज इंजीनियर बन गया और बेटी सीमा की भी पढ़ाई पूरी हो गई.सीमा की शादी नजदीक के ही गाँव नवादा में एक मध्यम परिवार में हो गई.

सूरज की शादी भी बैंक में नौकरी करने वाली एक लड़की मृदुला से हो गई. देवेन्द्र की माँ गाँव के मकान में ही अकेले रह गईं. कुछ समय बाद देवेन्द्र की माँ की इच्छा हुई कि बेटे- पतोहू और पोते सूरज के साथ ही रहूँ. वह देवेन्द्र के दिल्ली निवास पर पहुँच गईं.

देवेन्द्र की पत्नी शालिनी अपनी सास की सेवा करने में कोताही नहीं करती परंतु पोते सूरज की पत्नी मृदुला अपनी बैंक की नौकरी से इतना थक जाती थी कि घर के कामों में अधिक समय नहीं दे पाती थी. खाना बनाने का काम भी शालिनी ही करती थी.

देवेन्द्र की माँ का वहाँ मन नहीं लगा. वह अपने गाँव के घर वापस आ गईं.

माँ के गाँव लौटने के दो दिन बाद ही देवेन्द्र का एक्सीडेंट हो गया. अस्पताल में बेड पर पड़ा देवेन्द्र कराहते हुए अपनी माँ की याद करता रहा. एक महीने तक देवेन्द्र अस्पताल में जीवन और मौत के बीच झूलता रहा: उसके साथ केवल उसकी पत्नी शालिनी ही थी. माँ की याद में ही देवेन्द्र के प्राण अटके हुए थे.

वह अपने बेटे सूरज से बार-बार कहता कि गाँव से माँ को बुलवा लो. बहुत कष्ट सहते हुए अंततः माँ-माँ रटते हुए देवेन्द्र की मृत्यु हो गई.

और इधर गाँव में माँ को जब सूचना मिली कि दिल्ली में माँ की याद करते हुए देवेन्द्र की मृत्यु हो गई तो सदमे के कारण देवेन्द्र की माँ की भी मृत्यु हो गई.

परिस्थितियों कुछ ऐसी बनीं कि परिवार का कोई भी सदस्य देवेन्द्र की माँ के दाह-संस्कार में शामिल नहीं हो पाया.उनका अंतिम संस्कार भी गाँव के लोगों द्वारा ही किया गया. परिवार के सदस्यों के होते हुए भी पास पड़ोस के लोग ही काम आए. आखिरकार माँ का कहना ही सत्य सिद्ध हुआ.

सकारात्मक सोच,सदा उन्नति का आधार

रचनाकार- संतोष कुमार कौशिक

एक राज्य में धर्मजीत नाम का राजा रहता था. वह धर्म के मार्ग पर चलते हुए प्रजा का ख्याल रखता था और उसकी प्रजा भी राजा का हमेशा सम्मान करती थी.

राजा धर्मजीत प्रजा के साथ पुत्रवत व्यवहार रखता था. जय और विजय राजा धर्मजीत के जुड़वां पुत्र थे. दोनों ही पढ़े-लिखे, योग्य और आज्ञाकारी थे.

राजा अक्सर सोचता था किस पुत्र को राजा बनाया जाय. एक दिन उनके मन में यह विचार आया कि क्यों न दोनों की परीक्षा ली जाय.

एक दिन जय-विजय को अपने पास बुलाकर राजा ने कहा,'मैं मंदिर जा रहा हूँ पास के बगीचे से फूल तोड़ कर वहाँ ले आना.दोनों पुत्र निकट के बगीचे में चले गए.

जय खाली हाथ लौट आया. जय को आता देख पिता धर्मजीत ने उनसे फूल माँगा.

जय ने कहा-'पिताजी जब भी फूल तोड़ने की कोशिश की, हाथ में कांटा चुभने लगा. क्षमा कीजिए मुझे मैं आपके आदेश का पालन नहीं कर पाया.'

राजा ने देखा उसे बगीचे के हर पौधे में फूल कम, कांटे अधिक नज़र आए.

इतने में ही थैले भर फूल लेकर विजय भी वहाँ पहुँच गया.

पिताजी ने आश्चर्य से पूछा, “तुम ये फूल कहाँ से ले आए?'

विजय ने कहा,'आपके आदेशानुसार पास के ही बगीचे से लाया हूँ पिताजी.'

राजा ने अब देखा विजय को बगीचे के हर पौधे में फूल ही फूल नजर आए कांटों पर उसकी निगाह ही नहीं पड़ी. दोनों पुत्र के दृष्टिकोण में अंतर था.

राजा को अपने प्रश्न का उत्तर मिल गया था. उसने विजय की सकारात्मक सोच को देखते हुए उसे हीअपना उत्तराधिकारी बनाया.

सकारात्मक सोच ही जीवन में उन्नति का है द्वार.
गांठ बांधकर रख लो यह है जीवन का आधार..

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