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संवि‍धान के अंतर्गत मौलिक अधिकार भाग - 4 - अनुच्‍छेद 22 से 24

अनुच्‍छेद 22. कुछ दशाओं मे गि‍रफ्तार और नि‍रोध से संरक्षण

(1) कि‍सी व्यक्ति को जो गि‍रफ्तार कि‍या गया है, ऐसी गि‍रफ्तारी के कारणों से यथाशीघ्र अवगत कराए बि‍ना अभि‍रक्षा मे नि‍रुद्ध नहीं रखा जाएगा या अपनी रुचि के वि‍धि व्यवसायी से परामर्श करने और प्रति‍रक्षा कराने के अधि‍कार से वंचि‍त नहीं रखा जाएगा.

(2) प्रत्येक व्यक्ति को, जो गि‍रफ्तार कि‍या गया है और अभि‍रक्षा मे नि‍रुद्ध रखा गया है, गि‍रफ्तारी के स्थान से मजि‍स्ट्रेट के न्यायालय तक यात्रा के लि‍ए आवश्यक समय को छोड़कर ऐसी गि‍रफ्तारी से चौबीस घंटे की अवधि मे नि‍कटतम मजि‍स्ट्रेट के समक्ष पेश कि‍या जाएगा और ऐसे कि‍सी व्यक्ति को मिजस्ट्रेट के प्राधि‍कार के बि‍ना उक्त अवधि से अधि‍क अवधि के लि‍ए अभि‍रक्षा मे नि‍रुद्ध नहीं रखा जाएगा.

(3) खंड (1) और खंड (2) की कोई बात कि‍सी ऐसे व्यक्ति को लागू नहीं होगी जो–

(क) तत्समय शत्रु अन्यदेशीय है ; या

(ख) नि‍वारक नि‍रोध का उपबंध करने वाली कि‍सी विधि के अधीन गि‍रफ्तार या नि‍रुद्ध कि‍या गया है.

∗(4) नि‍वारक नि‍रोध का उपबंध करने वाली कोई विधि कि‍सी व्यक्ति का तीन मास से अधि‍क अवधि के लि‍ए तब तक नि‍रुद्ध कि‍या जाना प्राधि‍कृत नहीं करेगी जब तक कि –

(क) ऐसे व्यक्तियों से, जो उच्च न्यायालय के न्यायाधीश हैं या न्यायाधीश रहे हैं या न्यायाधीश नि‍युक्त होने के लि‍ए अहि‍र्त हो, मि‍लकर बने सलाहकार बोर्ड ने तीन मास की उक्त अवधि की समाप्ति से पहले यह प्रति‍वेदन नहीं दि‍या है कि उसकी राय में ऐसे नि‍रोध के लि‍ए पर्याप्‍त कारण हैं:

परंतु इस उपखंड की कोई बात कि‍सी व्यक्ति का उस अधि‍कतम अवधि से अधि‍क अवधि के लि‍ए नि‍रुद्ध कि‍या जाना प्राधि‍कृत नहीं करेगी जो खंड (7) के उपखंड (ख) के अधीन संसद द्वारा बनाई गई विधि द्वारा विहि‍त की गई है ; या

(ख) ऐसे व्यक्ति को खंड (7) के उपखंड (क) और उपखंड (ख) के अधीन संसद द्वारा बनाई गई विधि के उपबंधों के अनुसार निरुद्ध नहीं कि‍या जाता है .

(5) नि‍वारक नि‍रोध का उपबंध करने वाली कि‍सी विधि के अधीन कि‍ए गए आदेश के अनुसरण मे जब कि‍सी व्यक्ति को निरुद्ध कि‍या जाता है तब आदेश करने वाला प्राधि‍कारी यथाशक्य शीघ्र उस व्यक्ति को यह संसूचि‍त करेगा कि वह आदेश कि‍न आधारों पर किया गया है और उस आदेश के विरुद्ध अभ्यावेदन करने के लि‍ए उसे शीघ्राति‍शीघ्र अवसर देगा.

(6) खंड (5) की कि‍सी बात से ऐसा आदेश, जो उस खंड में निर्दिष्‍ट है, करने वाले प्राधि‍कारी के लि‍ए ऐसे तथ्यों को प्रकट करना आवश्यक नहीं होगा जि‍न्हे प्रकट करना ऐसा प्राधि‍कारी लोकहि‍त के वि‍रुद्ध समझता है.

(7) संसद विधि द्वारा विहि‍त कर सकेगी कि –

* (क) कि‍न परिस्थि‍तयों के अधीन और कि‍स वर्ग या वर्गों के मामले मे कि‍सी व्यक्ति को नि‍वारक नि‍रोध का उपबंध करने वाली कि‍सी वि‍धि के अधीन तीन मास से अधि‍क अवधि के लि‍ए खंड (4) के उपखंड (क) के उपबंधों के अनुसार सलाहकार बोर्ड की राय प्राप्त कि‍ए बि‍ना नि‍रुद्ध कि‍या जा सकेगा;

∗∗(ख) कि‍सी वर्ग या वर्गों के मामले मे कि‍तनी अधि‍कतम अवधि के लि‍ए किसी व्यक्ति को नि‍वारक नि‍रोध का उपबंध करने वाली किसी विधि के अधीन नि‍रुद्ध कि‍या जा सकेगा; और

∗∗∗(ग) ∗∗∗∗[खंड (4) के उपखंड (क)] के अधीन की जाने वाली जांच मे सलाहकार बोर्ड द्वारा अनुसरण की जाने वाली प्रक्रि‍या क्या होगी.

अनुच्‍छेद 22 की व्‍याख्‍या

अनुच्‍छेद 21 जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार प्रदान करता है. अनुच्‍छेद 22 इस स्वतंत्रता की गारंटी का विरोधाभासी है. इस अनुच्‍छेद का मूल उद्देश्‍य शायद गिरफ्तारी आदि के खिलाफ सुरक्षा का था, परन्‍तु इसकी व्‍याख्‍या जनता की स्वतंत्रता को कम करने के लिये की जाती रही है.

ए.के. गोपालन विरुध्‍द मद्रास राज्‍य, 1950 में सर्वोच्‍च न्‍यायालय ने कहा कि संविधान का प्रत्येक अनुच्छेद एक-दूसरे से स्वतंत्र है. इस प्रकरण में याचिकाकर्ता ने अपनी गिरफ्तारी को अनुच्छेद 19 और 21 के चुनौती दी थी, परन्‍तु न्‍यायालय ने उसकी सभी दलीलों को इस आधार पर खारिज कर दिया कि उसे 'कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया' का पालन करके हिरासत में लिया गया था. इसलिए यह कहा जा सकता है कि सर्वोच्‍च न्‍यायालय की व्‍याख्‍या के अनुसार अनुच्छेद 22 अपने आप में एक अपूर्ण संहिता है, अर्थात् यह अनुच्छेद संविधान व्दारा प्रदत्‍त अन्‍य के मौलिक अधिकारों के अनुरूप नहीं है, और इसका परीक्षण अन्‍य अनुच्‍छेदों के साथ मिलाकर नही किया जा सकता.

डी.के. बसु विरुध्‍द पश्चिम बंगाल राज्‍य, 1996 में न्‍यायालय में अनुच्‍छेद 22 के अंतर्गत गिरफ्तार किये गये व्‍यक्ति के अधिकारों की व्‍याख्‍या करते हुये 11 गाइडलाइन जारी कीं. इसी के आधार पर दंड प्रक्रिया संहिता में धारा 50क जोड़ी गई जिसमें गिरफ्तारी के समय की प्रक्रिया निर्धारित की गई है.

अनुच्‍छेद 22 से संबंधित कुछ महत्‍वपूर्ण प्रकरण हैं

  1. अनुच्‍छेद 21(1) के अंतर्गत गिरफ्तार व्‍यक्ति को गिरफ्तारी के आधार सूचित किये जाना अनिवार्य है. किसी को केवल इसलिये गिरफ्तार नही किया जायेगा कि कानून में गिरफ्तारी का प्रावधान है, बल्कि गिरफ्तारी के लिये उचित और पार्याप्‍त कारण भी होना चाहिये. जोगिंदर कुमार विरुध्‍द उत्‍तर प्रदेश राज्‍य, 1994 में न्‍यायालय ने कहा है कि गिरफ्तार व्‍यक्ति को न केवल गिरफ्तारी के आधार जानने का अधिकार है, बल्कि यह अधिकार भी है कि किसी जीसरे व्‍यक्ति सूचित किया जाये कि उसे निरोध में कहां पर रखा गया है.
  2. अपनी चॉइस के अधिवक्‍ता व्दारा बचाव का अधिकार भी अनुच्‍छेद 22 में शामिल है. हुसैनारा खातून और अन्य बनाम गृह सचिव, बिहार राज्य, 1979 में न्‍यायालय ने पाया कि बड़ी संख्या में गिरफ्तार लोग ट्रायल की प्रतीक्षा में ही बंद हैं. इन्‍हें मामूली आरोपों में गिरफ़्तार करके, उनकी आज़ादी छीन ली गई, जो कि अनुचित है. सुप्रीम कोर्ट ने चिंता जताते हुए कहा कि त्वरित सुनवाई एक संवैधानिक अधिकार है. यह भी कहा गया कि मामूली आरोपों के लिए गिरफ्तारी के मामलों में मुकदमा छह महीने के भीतर पूरा किया जाना चाहिए. न्‍यायालय ने मुफ्त कानूनी सहायता के अधिकार को मौलिक अधिकार माना.
  3. ए.एस. मोहम्‍मद रफी विरुध्‍द तामिल नाडु राज्‍य, 2010 में बार काउुसिल व्दारा अभुयक्‍त का बचाव नही करने के निर्णय को न्‍यायालय ने अभियुक्‍त के अनुच्‍छेद 22 के अंतर्गत मौलिक अधिकार का उल्‍लंघन माना.
  4. किसी गिरफ्तार व्‍यक्ति को गिरफ्तारी के 24 घंटे के भीतर मजिस्‍ट्रेट के समक्ष प्रस्तुत करना अनिवार्य है.

अनुच्‍छेद 22 में प्रदान की गई सुरक्षा के अपवाद - यह अनुच्‍छेद 22 के खंड 3, 6 एवं 7 में दिये गये हैं.

अनुच्‍देद 22 (3) के अंतर्गत अपवाद - यह अपवाद शत्रु अन्यदेशीय व्‍यक्ति के संबंध में और नि‍वारक नि‍रोध का उपबंध करने वाली कि‍सी विधि के के संबंध में हैं.

निवारक निरोध विधियों के प्रावधान नीचे दिये गये हैं -

  1. टेरोरिस्‍ट एंड डिस्‍रप्टिव एक्टिविटीज़ एक्‍ट, 1987 या टाडा - यह आतंकवाद विरोधी कानून था. इसमें किसी व्यक्ति को बिना औपचारिक आरोप या मुकदमे के 1 वर्ष तक हिरासत में रखा जा सकता था. बंदी को बिना मजिस्ट्रेट के सामने पेश किए 60 दिनों तक हिरासत में रखा जा सकता था. उसे न्‍यायिक मजिस्ट्रेट के स्‍थान पर कार्यकारी मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया जा सकता था, जो उच्च न्यायालय के प्रति जवाबदेह नहीं है. इस अधिनियम का दुरुपयोग हुआ और देश के लोकतंत्र पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा इसलिये इसे अब निरस्त कर दिया गया है.
  2. राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम, 1980 - यहअधिनियम अधिकारियों को यह शक्ति प्रदान करता है कि यदि वे मानते हें कि कोई व्‍यीक्‍त राष्ट्र की सुरक्षा के लिए खतरा पैदा कर रहा है तो उसे हिरासत में ले सकते हैं. वे किसी विदेशी को भी हिरासत में ले सकते हैं और देश में उनकी उपस्थिति को नियंत्रित कर सकते हैं. इस अधिनियम के तहत किसी व्यक्ति को बिना किसी आरोप के 12 महीने तक हिरासत में रखा जा सकता है. बंदी को हिरासत का आधार जानने के का अधिकार भी नहीं है और वकील प्राप्त करने का अधिकार भी नही है. पुलिस द्वारा इस अधिनियम में दुरुपयोग के आरोप लगातार लगते रहे हैं.
  3. आतंकवाद निरोधक अधिनियम (पोटा), 2002 - यह अधिनियम TADA के स्थान पर बनाया गया था. मानवाधिकारों के उल्लंघन को रोकने के लिये इसमें कुछ सुरक्षा उपाय रखे गए थे परन्‍तु अन्‍य सभी प्रावधान टाडा के समान थे. इस कानून का भी घोर दुरुपयोग किया गया, इसलिए इसे दो वर्ष बाद ही निरस्त कर दिया गया.
  4. गैरकानूनी गतिविधियाँ संरक्षण अधिनियम, 1967 (यूएपीए) - यह अधिनियम कठोर कार्यान्वयन के लिए कुख्यात है. भारत के मुख्‍य न्‍यायधीश जस्टिस चंद्रचूड़ जोर दिया कि यूएपीए सहित आपराधिक कानूनों का इस्तेमाल असहमति को दबाने या नागरिकों के उत्पीड़न के लिए नहीं किया जाना चाहिए. यूएपीए की धारा 15, आतंकवाद की असपष्‍ट परिभाषा करती है. यूएपीए की धारा 43(डी)(5) आरोपी को जमानत पर रिहा करने से रोकती है. एक बार आरोप लगने के बाद जमानत मिलना लगभग असंभव हो जाता है.

यूट्यूब की चैनल NewsClickin पर Creative Commons Attribution license (reuse allowed) के अंतर्गत उपलब्‍ध इस वीडियो में वरिष्ठ पत्रकार निलांजन मुखोपाध्याय UAPA कानून और उससे जुड़े कई अन्य मुद्दों पर चर्चा कर रहे हैं.

निवारक निरोध कानूनों के संबंध में अनुच्छेद 22 में कुछ सुरक्षा के उपाय

  1. 3 महीने के भीतर उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के समान ही योग्यगा रखने वालो से बने सलाहकार बोर्ड द्वारा समीक्षा.
  2. हिरासत में लिये गये व्यक्ति को हिरासत के आधार के बारे में यथाशीघ्र सूचित करने का प्रावधान हैृ यद्यपि हिरासत में लेने के पहले हिरासत के आधार सूचित करना आवश्‍यक नही है. समस्या यह है कि सलाहकार बोर्ड के समक्ष प्रस्तुत करने के पहले यह जांचने का कोई तरीका नहीं है कि हिरासत का कारण उचित है या नहीं और
  3. सलाहकार बोर्ड के समक्ष प्रस्‍तुत करने के लिये 3 महीने का समय होता है.

अनुच्‍छेद 22(6) के अंतर्गत अपवाद - ऐसे तथ्यों को प्रकट करना आवश्यक नहीं है जिन्हे प्रकट करना कोई प्राधि‍कारी लोकहि‍त के वि‍रुद्ध समझता है. लोकहित के विरुध्‍द क्‍या है इसे जांचने का कोई पैमाना नही है, इसलिये यह प्रधिकारियों को मनमानी शक्ति देता है.

अनुच्‍छेद 22(7) के अंतर्गत अपवाद - यह अपवाद संसद को न केवल ऐसी विधि बनाने का अधिकार देता है जिसमें तीन मास से अधि‍क अवधि के लि‍ए सलाहकार बोर्ड की राय प्राप्त कि‍ए बि‍ना नि‍रुद्ध कि‍या जा सके, बल्कि ऐसी विधि बनाने का अधिकार भी देता है जिसमें इस प्रकार निरुध्‍द किये जाने की अधिकतम अवधि निर्धारित की जा सके. यह कार्यपालिक सरकार को पूरी तरह से मनमानी शक्तियां प्रदान करने की व्‍यवस्था है.

उपरोक्‍त से यह साफ है कि निवारक निरोध के कानूनों मे चेक एंड बैलेंस का अभाव है. यह प्रावधान अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार नीतियों के अनुरूप नही हैं. प्रमुख चिंता यह है कि यह प्राधिकारियों को असीम शक्ति प्रदान करता है, जिसका दुरुपयोग संभव है.

अनुच्‍छेद 23. मानव के दुर्व्‍यापार और बलातश्रम का प्रति‍षेध

(1) मानव का दुर्व्‍यापार और बेगार तथा इसी प्रकार का अन्य बलातश्रम प्रतिषि‍द्ध किया जाता है और इस उपबंध का कोई भी उल्लंघन अपराध होगा जो विधि के अनुसार दंडनीय होगा.

(2) इस अनुच्छेद की कोई बात राज्य को सावर्जनि‍क प्रयोजनों के लि‍ए अनि‍वार्य सेवा अधि‍रोपि‍त करने से नि‍वरि‍त नहीं करेगी. ऐसी सेवा अधि‍रोपित करने मे राज्य केवल धर्म, मूलवंश, जाति या वर्ग या इनमे से किसी के आधार पर कोई वि‍भेद नहीं करेगा.

अनुच्‍छेद 24. कारखाने आदि मे बालकों के नि‍योजन का प्रति‍षेध

चौदह वर्ष से कम आयु के कि‍सी बालक को कि‍सी कारखाने या खान मे काम करने के लिए नि‍योजि‍त नहीं कि‍या जाएगा या कि‍सी अन्य परि‍संकटमय नियोजन मे नहीं लगाया जाएगा.

अनुच्‍छेद 23 एवं 24 में शोषण के खिलाफ अधिकार संविधान द्वारा गारंटीकृत महत्वपूर्ण मौलिक अधिकार हैं, जो मानव तस्करी, जबरन श्रम जैसे शोषण से बचाते हैं.

भारत में बाल श्रम बहुत लंबे समय से चिंताजनक सामाजिक मुद्दा रहा है. सरकार के प्रयासों से इसमें कमी आई है. 2001 की जनगणना में बालश्रम में लगे बच्‍चों की संख्‍या 1.2 करोड़ थी जो 2011 की जनगणना में घट‍कर 43.5 लाख हो गई. बाल श्रम पर पहला कानून, बाल श्रम (निषेध और विनियमन) अधिनियम 1986 में बना. सर्वोच्च न्यायालय ने एम.सी. मेहता बनाम तमिलनाडु राज्य, 1996 में कहा है कि बालश्रम से एक राष्ट्रीय मुद्दे के रूप में व्यापक तरीके से निपटा जाना चाहिए.

अनुच्‍छेद 24 को अनुच्छेद 21क और अनुच्‍छेद 39 के साथ पढ़ा जाना चाहिये. अनुच्छेद 21क 14 वर्ष की आयु तक के बालकों के लिये नि:शुल्‍क एवं अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान करता है. स्‍पष्‍ट ही है कि इसके अनुसार बच्‍चों को श्रम नही करना चाहिये बलिक पढ़ना चाहिये. संविधान का अनुच्छेद 39 नागरिकों के आर्थिक कल्याण को सुरक्षित करने वाली नीतियां बनाने और लोगों को जीवन निर्वाह के पर्याप्त स्रोत प्रदान करने की नीतियों बनाने का निर्देश राज्‍य को देता है. यह एक महत्वपूर्ण प्रावधान है जो अनुच्छेद 24 को लागू करने में सहायता करता है.

अनुच्‍छेद 23 एवं 24 के संबंध में सर्वोच्‍च न्‍यायालय के महत्‍वपूर्ण निर्णय

  1. Peoples Union for Democratic Rights v. Union of India, AIR 1982 SC 1943. इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 23 के दायरे की व्याख्या करते हुये माना कि इस अनुच्छेद में बल शब्द में शारीरिक बल, कानूनी बल और अन्य आर्थिक कारक शामिल हैं, जो किसी व्यक्ति को न्यूनतम मजदूरी से कम मजदूरी पर श्रम करने के लिए मजबूर करते हैं. यदि किसी व्यक्ति को केवल गरीबी, अभाव या भूख के कारण न्यूनतम मजदूरी से कम पर श्रम प्रदान करने के लिए मजबूर किया जाता है, तो इसे जबरन श्रम के रूप में माना जाएगा. न्‍यायालय ने यह भी कहा कि यदि किसी को उसे उसकी इच्छा के विरुद्ध श्रम के लिए मजबूर किया जाता है तो पारिश्रमिक दिया गया है या नहीं इससे फर्क नहीं पड़ता.
  2. संजीत रॉय बनाम राजस्थान राज्य, एआईआर 1983 एससी 328 में राज्य ने सूखे और अभाव की स्थिति से राहत प्रदान करने के लिए सड़क निर्माण के लिए बड़ी संख्या में श्रमिकों को नियुक्त किया था. न्यायालय ने माना कि राजस्थान अकाल राहत कार्य कर्मचारी (श्रम कानूनों से छूट) अधिनियम, 1964, न्यूनतम मजदूरी अधिनियम का पालन नहीं करने के कारण असंवैधानिक है. अकाल राहत कार्य के लिए राज्य द्वारा नियोजित सभी लोगों को न्यूनतम वेतन का भुगतान किया जाना चाहिए.
  3. दीना बनाम भारत संघ, एआईआर 1983 एससी 1155 में, यह माना गया था कि यदि किसी कैदी को बिना पारिश्रमिक श्रम करने के लिए मजबूर किया जाता है, तो इसे जबरन श्रम माना जाएगा और यह अनुच्छेद 23 का उल्लंघन है. भारतीय संविधान में कैदी भी अपने श्रम के लिए उचित वेतन पाने के हकदार हैं.
  4. बंधुआ मुक्ति मोर्चा बनाम भारत संघ, एआईआर 1984 एससी 802 में बंधुआ मुक्ति मोर्चा ने न्यायमूर्ति भगवती को एक पत्र भेजा और न्यायालय ने इसे एक जनहित याचिका के रूप में माना. पत्र में फ़रीदाबाद जिले में कुछ पत्थर खदानों के सर्वेक्षण के आधार पर बताया गया था कि बड़ी संख्या में श्रमिक अमानवीय और असहनीय परिस्थितियों में काम कर रहे थे. न्यायालय ने बंधुआ मजदूरों की पहचान के लिए दिशानिर्देश तय किए और यह भी प्रावधान किया कि राज्य सरकार को बंधुआ मजदूरों की पहचान, रिहाई और पुनर्वास करना चाहिए. यह माना गया कि बंधुआ मजदूर अपनी स्वतंत्रता से वंचित गुलाम बन जाता है और रोजगार के मामले में उसकी स्वतंत्रता पूरी तरह छीन ली जाती है.
  5. कहसन तांगखुल बनाम सिमतरी शैली, एआईआर 1961 में मणिपुर की उस परंपरा के संबंध में सुनवाई हुई जिसमें प्रत्येक घर के मालिक को गांव के मुखिया या खुल्लकपा को एक दिन का मुफ्त श्रम देना पड़ता था. न्यायालय ने इस प्रथा को संविधान के अनुच्छेद 23 का उल्लंघन माना.
  6. पीपुल्स यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स बनाम यूनियन ऑफ इंडिया, एआईआर 1983 एससी 1473 के मामले में, याचिकाकर्ता ने न्‍यायालय को बताया कि विभिन्न एशियाड परियोजनाओं में चौदह वर्ष से कम उम्र के बच्चों को नियोजित किया गया था. इसके लिये यह तर्क दिया गया कि यह रोज़गार बच्चों के रोजगार अधिनियम, 1938 में खतरनाक उद्योग के रूप में सूचीबद्ध नहीं था. कोर्ट ने कहा कि निर्माण कार्य खतरनाक रोजगार के क्षेत्र में आता है इसलिये चौदह वर्ष से कम उम्र के बच्चों को निर्माण कार्य में नियोजित नहीं किया जाना चाहिए. न्यायालय ने राज्य सरकार को अनुसूची में संशोधन करके निर्माण उद्योग को खतरनाक उद्योगों में शामिल करने की सलाह भी दी.
  7. एम.सी. मेहता बनाम तमिलनाडु राज्य, एआईआर 1997 एससी 699 में याचिकाकर्ता ने न्‍यायालय को बताया कि शिवकाशी में अनेक बाल श्रमिकों को माचिस और आतिशबाजी की निर्माण में नियोजित किया जा रहा था. न्यायालय ने इसे खतरनाक उद्योग माना और कहा कि इस उद्योग में 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चों को नियोजित करना प्रतिबंधित है. न्यायालय ने बच्चों को नियोजित करने के लिए 20000 रुपये मुआवजा देने का आदेश भी दिया.
  8. भारत में सरकार ने बालश्रम को समाप्‍त करने के लिये कई कदम उठाए हैं जिनके कारण इसमें काफी कमी आई है. यह समझना भी महत्वपूर्ण है कि गरीबी के कारण बाल श्रम का पूर्ण उन्मूलन आसान नहीं है. यूट्यूब की चैनल VideoVolunteers पर Creative Commons Attribution license (reuse allowed) के अंतर्गत उपलब्‍ध इस वीडियो में बालश्रम के कारणों पर प्रकाश डाला गया है.

    सर्वोच्च न्यायालय ने भी विभिन्न निर्णयों में कहा है कि गरीबी बाल श्रम का सबसे बड़ा कारण है. बाल श्रम का मुद्दा केवल विधायी प्रक्रिया द्वारा हल नहीं किया जा सकता. इसीलिये गरीबी उन्‍मूलन, शिक्षा और स्‍वास्‍थ्‍य तथा सशक्‍तीकरण बालश्रम विरोधी नितियों के अनिवार्य अंग हैं.

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