वापस जायें / Back
संविधान की प्रस्तावना
कानूनी दस्तावेज़ के आदर्शों और लक्ष्यों की बेहतर समझ के लिए एक प्रस्तावना शामिल की जाती है. प्रस्तावना को संविधान की शुरुआत माना जा सकता है जो संविधान के आधार पर प्रकाश डालती है. ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी के अनुसार ‘प्रस्तावना’ शब्द किसी क़ानून के उद्देश्य को स्पष्ट करता है. ब्लैक लॉ डिक्शनरी के अनुसार प्रस्तावना संविधान की शुरुआत में मौजूद होती है, जिसमें उसके उद्देश्यों के बारे में स्पष्टीकरण होता है. प्रस्तावना क़ानून बनाने वालों के अंत:करण में झांकने का साधन है और कानून के इरादों को दर्शाता है. यह क़ानून को समझने की कुंजी है. प्रस्तावना संविधान के प्रावधानों की व्याख्या करने में मदद करती है. सर अल्लादी कृष्णास्वामी ने संविधान सभा की बहस में कहा था कि प्रस्तावना व्यक्त करती है कि “हमने इतने लंबे समय तक क्या सोचा या सपना देखा”. केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973) में न्यायमूर्ति शेलट और न्यायमूर्ति ग्रोवर ने था कहा कि भारत के संविधान की प्रस्तावना उन सभी आदर्शों और उद्देश्यों को ईमानदारी से प्रस्तुत करती है जिनके लिए भारत ने इतने लंबे समय से सपना देखा है और पूरे औपनिवेशिक काल के दौरान संघर्ष किया.
आगे बढ़ने के पहले आइये हम भारत के संविधान की प्रस्तावना का वाचन कर लें. वाचन का यह वीडियो यूट्यूब की चैनल
UNITED INDIAN पर Creative Commons Attribution license (reuse allowed) के अंर्तगत उपलब्ध है.
सन् 1946 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा एक विशेषज्ञ समिति नियुक्त की गई जिसने 22 जुलाई की अपनी बैठक में एक ‘घोषणा’ का मसौदा तैयार किया. इस घोषणा के मसौदे में संविधान के उद्देश्य शामिल थे. इस मसौदे के आधार पर, नेहरू ने 13 दिसंबर 1946 को संविधान सभा के समक्ष प्रस्ताव प्रस्तुत किया. लंबी बहस के बाद इस प्रस्ताव को 22 जनवरी, 1947 को सभा द्वारा स्वीकार किया गया. इसके बाद, बी.एन. राव ने प्रस्तावना का एक मसौदा तैयार किया. बी.एन. राव द्वारा तय किए गए मसौदे को 4 जुलाई, 1947 को संविधान सभा के समक्ष दोबारा प्रस्तुत किया गया. संविधान को अंतिम रूप देने के बाद प्रस्तावना के प्रारूप को अंतिम रूप दिया गया ताकि यह संविधान के अनुरूप हो सके.
भारतीय संविधान की प्रस्तावना के निम्नलिखित घटक हैं:
- हम भारत के लोग - इन शब्दों का अर्थ है कि, भारत के लोग ही सत्ता का स्रोत हैं. संविधान भारत के लोगों की इच्छा का परिणाम है. प्रतिनिधियों को चुनने की शक्ति नागरिकों के पास है. उन्हें अपने प्रतिनिधियों की आलोचना करने का भी अधिकार है. भारत संघ बनाम मदन गोपाल काबरा (1954) में, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि जैसा प्रस्तावना में लिखा गया है, भारत के लोग ही भारतीय संविधान के स्रोत हैं.
- संप्रभु - इस शब्द का अर्थ है, कि राज्य का हर विषय पर नियंत्रण है और किसी अन्य प्राधिकारी या बाहरी शक्ति का उस पर नियंत्रण नहीं है. सिंथेटिक एंड केमिकल्स लिमिटेड बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (1989) में, सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि ‘संप्रभु’ शब्द का अर्थ है, कि - राज्य को संविधान द्वारा दिए गए प्रतिबंधों के भीतर सब कुछ नियंत्रित करने का अधिकार है. किसी भी देश का अपना संविधान तब तक नहीं हो सकता जब तक वह संप्रभु न हो.
- समाजवादी - समाजवादी शब्द आपातकाल के दौरान 42वें संशोधन, 1976 से जोड़ा गया था. इसका मतलब है कि भारत सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय प्रदान करने वाला राज्य है. परन्तु एक्सेल वेयर बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (1978) में, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि समाजवाद और सामाजिक न्याय का सिद्धांत निजी उद्योग मालिकों के हितों की अनदेखी नहीं कर सकता. डी.एस. नकारा बनाम भारत संघ (1982) में, न्यायालय ने कहा कि “समाजवाद का मूल उद्देश्य देश में रहने वाले लोगों को एक सभ्य जीवन स्तर प्रदान करना है और उनके जन्म के दिन से उनके मरने के दिन तक ही उनकी रक्षा करना है.”
- धर्मनिरपेक्ष - ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द भी आपातकाल के दौरान 42वें संशोधन अधिनियम, 1976 द्वारा जोड़ा गया था. राज्य का कोई भी अपना आधिकारिक धर्म नहीं है. नागरिक अपनी इच्छानुसार अपना धर्म चुन सकते हैं जिसमें नास्तिक होना भीशामिल है. राज्य सभी धर्मों के साथ समान व्यवहार करता है. धर्मनिरपेक्षता के संबंध में संविधान के प्रमुख प्रावधान इस प्रकार हैं -
- अनुच्छेद 14 समानता के अधिकार की गारंटी है.
- अनुच्छेद 15 और 16, धर्म, जाति आदि जैसे किसी भी आधार पर भेदभाव का निषेध करता है.
- संविधान के अनुच्छेद 19 और 21 नागरिकों की सभी स्वतंत्रताओं की चर्चा करते हैं, जिनमें बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी शामिल है.
- अनुच्छेद 24 से अनुच्छेद 28 तक धर्म का पालन करने से संबंधित अधिकार शामिल हैं.
- संविधान के अनुच्छेद 44 ने सभी नागरिकों को समान मानते हुए समान नागरिक कानून बनाने को राज्य का नीतिनिर्देशक तत्व बनाया है. एस.आर. बोम्मई बनाम भारत संघ (1994) में, सर्वोच्च न्यायालय की नौ-न्यायाधीशों की पीठ के द्वारा धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा को संविधान की मूल विशेषता कहा था. बाल पाटिल बनाम भारत संघ (2005) में, न्यायालय ने माना कि सभी धर्मों और धार्मिक समूहों के साथ बराबर रूप से और समान सम्मान के साथ व्यवहार किया जाना चाहिए. भारत एक धर्मनिरपेक्ष राज्य है जहां लोगों को अपना धर्म चुनने का अधिकार है, लेकिन राज्य का अपना कोई भी विशिष्ट धर्म नहीं होगा. एम. पी. गोपालकृष्णन नायर बनाम केरल राज्य (2005) में, न्यायालय ने कहा कि राज्य हर धर्म की अनुमति देता है परन्तु किसी का अनादर नहीं करता है.
- लोकतांत्रिक - डेमोक्रेटिक शब्द ग्रीक भाषा के ‘डेमोस’ और ‘क्रेटोस’ से मिल कर बना है. ‘डेमोस’ का अर्थ है ‘लोग’ और ‘क्रेटोस’ का अर्थ है ‘अधिकार’. अर्थात् लोगों को सरकार चुनने का अधिकार है. भारत संघ बनाम एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (2002) में, न्यायालय का कहना है कि एक सफल लोकतंत्र की बुनियादी आवश्यकता लोगों की जागरूकता है. सरकार का लोकतांत्रिक स्वरूप निष्पक्ष चुनाव के बिना जीवित नहीं रह सकता क्योंकि निष्पक्ष चुनाव लोकतंत्र की आत्मा हैं.
- गणतंत्र - गणतंत्र का अर्थ है कि राज्य का प्रमुख निर्वाचित होता है, वंशानुगत राजा नही होता. प्रस्तावना में यह शब्द दर्शाता है कि देश लोगों द्वारा चलाया जाएगा.
- न्याय - इसमे शब्द में सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय शामिल है. सामाजिक न्याय का अर्थ है कि वंचित लोगों को समान सामाजिक स्थिति प्राप्त हो सके और शोषण खत्म हो. आर्थिक न्याय का अर्थ है कि प्रत्येक व्यक्ति को समान पद के लिए समान वेतन मिलना चाहिए और सभी लोगों को कमाने के समान अवसर मिलने चाहिए. राजनीतिक न्याय का अर्थ है सभी लोगों को बिना किसी भेदभाव के राजनीति में भाग लेने का समान अधिकार है.
- स्वतंत्रता - स्वतंत्रता शब्द में विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, और पूजा की स्वतंत्रता शामिल है.
- समानता - समानता शब्द का तात्पर्य प्रत्येक व्यक्ति के लिए समान स्थिति और अवसर से है.
- बंधुता - बंधुता शब्द का उद्देश्य प्रत्येक व्यक्ति की गरिमा की रक्षा करने की प्रतिज्ञा के साथ-साथ राष्ट्र की एकता और अखंडता को बनाए रखना है.
संविधान को अपनाने की तारीख प्रस्तावना में दी गई है, जो है 26 नवंबर, 1949. संविधान के अनुच्छेद 394 में कहा गया है कि अनुच्छेद 5, 6, 7, 8, 9, 60, 324, 367, 379 और 394, 26 नवंबर 1949 को संविधान को अपनाने के तत्काल बाद लागू हो गये. बाकी प्रावधान 26 जनवरी 1950 को लागू हुए.
प्रस्तावना संविधान की व्याख्या में सहायता करती है - सर्वोच्च न्यायालय ने यह स्पष्ट कर दिया है कि प्रस्तावना संविधान का एक हिस्सा है. यदि संविधान में उल्लिखित किसी अनुच्छेद में प्रयुक्त शब्दों के दो अर्थ हो सकते हैं या अर्थ अस्पष्ट हैं, तो प्रस्तावना उस प्रावधान के उद्देश्य की व्याख्या में सहायता करती है. न्यायमूर्ति सीकरी के द्वारा केशवानंद भारती के मामले में प्रस्तावना के महत्व पर जोर देते हुए कहा गया कि, “मुझे ऐसा लगता है कि हमारे संविधान की प्रस्तावना अत्यधिक महत्वपूर्ण है. संविधान को प्रस्तावना में व्यक्त महान दृष्टिकोण की भव्यता के आलोक में पढ़ा जाना चाहिए.” प्रस्तावना संविधान का हिस्सा है या नहीं, यह लंबे समय तक बहस का विषय था. बेरुबारी मामला संविधान के अनुच्छेद 143(1) के तहत राष्ट्रपति व्दारा सर्वोच्च न्यायालय को संदीर्भत किया गया था. यह मामला बेरुबारी संघ से संबंधित भारत-पाकिस्तान समझौते के कार्यान्वयन से संबंधित था. मुद्दा यहथा कि क्या संविधान का अनुच्छेद 3, संसद को देश के किसी भी हिस्से को किसी अन्य देश को देने की शक्ति देता है? इस मामले में न्यायालय ने कहा था कि ‘प्रस्तावना निर्माताओं के दिमाग को खोलने की कुंजी है’ लेकिन इसे संविधान का हिस्सा नहीं माना जा सकता. अदालत का यह निर्णय केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य और अन्य (1973) में पूरी तरह उलट गया. इस ऐतिहासिक मामले की सुनवाई 13 न्यायाधीशों की पीठ ने की. अदालत ने निर्णय दिया कि संविधान की प्रस्तावना संविधान का हिस्सा है. इसे संविधान के अनुच्छेद 368 के तहत संशोधित किया जा सकता है, लेकिन प्रस्तावना की मूल संरचना में संशोधन नहीं किया जा सकता, क्योंकि संविधान की संरचना प्रस्तावना के मूल तत्वों पर आधारित है. संसद की संविधान में संशोधन शक्ति, संवैधानिक नीति के बुनियादी सिद्धांतों और आवश्यक विशेषताओं को छीनने या बाधित करने का अधिकार नहीं देती है. ऐसा करने का परिणाम केवल संविधान को पूरी तरह से बर्बाद करना होगा.