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कलम और स्याही

स्याही जब पिघलती है... शब्द बन निकलती है,
दोमुही तलवार बनकर, सत्य का दामन पकड़कर,
जिस पे भी आघात करती, उसकी है हालत बिगड़ती,
सरे आम बोलती है, भेद सबके खोलती है...
होंगे वो नासमझ कितने!! जो इसकी ताक़त ना समझे,
कलम शर से बींधती है, हर किसीको चीन्हती है,
जो डगर से है भटकता, वो कलम का ग्रास बनता,
ज़ब्त कैसे कर सकोगे, कफ़स में कैसे रखोगे?
यह नही है भाट-चारण, सदा दे तेरे उदाहरण...
यह जकड़ती भींचती है, बन के रस्सी खींचती है,
यह करती उसकी गुलामी, जो सुखनवर महाज्ञानी...
जो किसीकी नहीं सुनते, इबादत कलम की करते,
मुक्त लेखन लेखनी को... वो सदा प्रणाम करते,
स्याही की सरिता बहेगी, वो मुखर होकर रहेगी,
वो किसीसे ना डरेगी वो किसीकी ना सुनेगी,
झूठ को उखाड़कर वो सत्य का ही साथ देगी.

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