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बसता शिकायतों का

इक सपना मीठा-मीठा सा सबकी आँखों ने देखा है,
उस सपने में हँसते-गाते हमने अपनों को देखा है.
वो सूती कच्चे धागों के, रिश्ते थे, पर वो पक्के थे...
रंगीन रेशमी धागों में गांठें पड़ जाते देखा है.

जब तक दो सूखी रोटी थीं, सब मिल-बाँट कर खाते थे,
इक ही थाली होती घर में, पर फूले नहीं समाते थे.
हो आधा पेट भरा लेकिन, सबको मुसकाते देखा है...
इक सपना मीठा-मीठा सा सबकी आँखों ने देखा है.

अब रोज़, नई थाली घर में, और पकवानों का मेला है,
अपनों का साथ नहीं होता और मुंह का स्वाद कसैला है.
इन खाली सुंदर बर्तन को लड़ते-टकराते देखा है...
इक सपना मीठा-मीठा सा सबकी आँखों ने देखा है.

ना रोज़ मुलाकातें होतीं ना आपस में बातें होतीं,
ना दर्द किसी के बंटते हैं, ना आँखें ही अब नम होती.
बस दुनिया दीन-दिखावे को उन्हें गले लगाते देखा है...
इक सपना मीठा-मीठा सा सबकी आँखों ने देखा है.

दिल पर रखकर एक हाथ ज़रा, खुद से ही तुम, इतना पूछों,
क्या कभी किसीकी खुशियों में रत्ती भर भी है साथ दिया?
मन भर शिकायतों का बस्ता बस सदा खोलते देखा है...
इक सपना मीठा-मीठा सा सबकी आँखों ने देखा है.

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