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तुरबत का पत्थर रह गई
ज़िंदगी की शाम भी, कितनी.. हसीन हो गई...
तू चला आया तो यह फिजा रंगीन हो गई.
सोंच के रक्खी थीं हमने, जमाने की दास्तां...
जब मिले, ना कहा कुछ, आँखें नमकीन हो गईं.
छोड़ के जाना है सबको, इस जहां से मुसलसल...
बात सादी थी मगर, महफ़िल गमगीन हो गई.
हसरतों को पंख देने में लगा दी, उम्र सब...
जब चले तो बस यहाँ, दो- गज़ जमीन रह गई.
फिर मिलेंगे कह के निकले थे, तुम्हारे शहर से,
रास्ते में ही कहीं सांसें यह कामिल हो गईं.
ऐ खुदा तू इतनी ना, उमर दराज़ कर मेरी,
बातों से सहमकर यह बदहवासी कह गई.
ना कोई ख्वाहिश ‘अणिमा’ ना ही कोई तिशनगी,
ज़ीस्त ऐसी की फ़कत, तुरबत का पत्थर रह गई.