छत्तीसगढ़ी कहानियाँ
डोकरी दाई के जोरन
रचनाकार- अशोक पटेल 'आशु'
मंझन के बेरा म डोकरी दाई ओईरछा तीर ल खनत अपने अपन बड़बड़ात रहय. ठीक अतके बेरा ओकर बेटा बुधारू ह किंजर के आईस. ओकर बड़बड़ाए ल सुनके ओकर नाती सुखाऊ हर कुरिया ले आगे.
बुधारु अपन बेटा सुखाऊ ल कथे-
'कस रे सुखाऊ घर के पाछु कोला
मंझन के बेरा म कोन हर काय खनत हावे?'
त बुधारु के बेटा हर कथे-
'डोकरी दाई हर तो आय ददा!'
अतका ल सुनके बुधारू ह धरा-रप्टा घर के पाछु कती गिस.
बुधारु ह आपन दाई ल कथे-
'कस ओ दाई झिटका सही तोर देह ह निच्चट सुखागे हे,अउ ऊपर ले ठाड़ मंझन के बेरा म तय हर एकरा काय करत हच'
त बुधारु के दाई ह कथे-
'अरे!!चुप्पे र रे!!चटरहा!!चटर-चटर मारे ल छोड़.अउ मोर तीर म आके देख मेहर काय चीज ल खनत हावाँ.'
ले बता तीर म आगे हँव.बुधारू ह कथे.
ओखर दाई फेर कथे-
'देख रे बुधारु! ये सब्बो ल तुमन ये धरती म गड़िया दे ह.एला देख के मोला अईसे लागत हे जइसे, तुमन हमर पुरखा के चिन्हारी हमर पुरखा के पूँजी, अउ हमर कुल-खूंट के चाल-चलन ल धरती म गड़िया दे ह.
ए सब के बिना हमर जिनगी हर अंधियार अउ अद्धर आय.'
देख रे बुधारु!आज ए सब ल धरती के भीतर माटी म सनात देखेंव त मोर जी हर कलप गे. अउ आजकल कलजुग के चाल-चलन ल देख के मोर जी रखमक्खा जाथे. मोर छाती म भुर्री बर जाथे. एमन ल माटी म गड़े देख के मेहर निकाले ल भीड़ गय ह. कई दिन ल कहे फेर मोर गोट ल कोनो नई चेत करिस. त मेहर खुद भिड़े हाँव.'
ए करा के किलिल-बिलील ल सुनके घर-भर के सब्बो माई-पिला ओ मेर आ गे
डोकरी दाई ह किथे-
'बने करे हावा सबो झिन आ गे व .अब तुमन मोर एक-एक ठँन गोठ ल सुनिहा अउ एला गंठिया के धर लिहा.
तइहा के जमाना ल अब बइहा लेगे!'
अब तो कलजुग आगे हे!
जेला देखा उही हर अपन धरम-करम, नेंग-बड़ई अउ पुरखा के रिवाज ल भुला गे हे. कोन-जानी अब ये मनखे अउ जग के का होही!!'
उही करा डोकरी दाई के नाती सुखारु हर कान गड़िया के गोठ ल सुनत रहय.
त ओहर असकट्टा गे अउ फेर कथे-
कस ओ डोकरी दाई तेहर काय-काय गोठियात हस!हमन ल कछु समझ नई आत हे, थोरकुन फरी-फरी बात ल बता!!'
अतका सुन के डोकरी दाई भन्ना गे. अउ किटकिटा के किथे-
'चुप्पे र रे लपरहा!!
कुछु ल जानस न समझस!!
त सब्बो झन सुन लेवा-
मोर बिहाव ह ननपन म हो गे रिसे.'
अउ जे बरस म मोर गवन-पठौनी होइस,त मोर दाई-ददा ह,कोउनो दहेज म तुमन कस कलजुगहा चीज नई दे रिसे. दे रिसे त गिन-गिन के जोरन-भारन. जे जोरन-भारन हर हमर पुरखा के चिन्हारी,पुरखा के पूंजी, हमर संस्कृति के चिन्हा आय.इही हर हमर जिनगी के आधार आय.जेला तुमन कलजुग के फेर मे सफा-सफा भुला देहा. आज मोर सब्बो जोरन-भारन ला तिरिया दे ह.सब ल भुइँया म गड़िया दे हा. मोला अइसे लागत हे जइसे मोर पुरखा के पूंजी ल गड़िया देहा.मोर ददा ह मोला जाँतां,ढेंकी-बहना, सील, सिलौटी, कोटना, चरिहा,
झउहा, सुपा, बाहरी, जोरे रिसे. तुमन जे दिन म अवतरे नई रहा, अउ अवतरें के बाद म इही सब जोरन-भारन के भरोसा म तुमन ल पाले-पोंसे हव.इही जोरन के भरोसा म ये धरती दाई के सेवा करे हन, अउ ये धरती ह हमन ल धन-धान्य ले भर दिस. जेला घर म ही रही के एक झूल- झुलहा, पहाती टेम ले, बोरा भर धान ल कूट दारन. अउ काठा भर चाउर ल जांतां म पीस के अंगाकर-चीला बनाके, सील म चटनी पीस के खवा-पिया के बुता रेंग देवन.
हमन कखरो भरोसा म नई रहेन.इही जिनगी के अधार ल तुमन गड़िया दे ह.
आज मोर दाई-ददा के जोरन अउ मोर डोकरा के चिन्हा ल सम्हाल के रख्हे ल लागही. तभे तुंहर भलाई अउ उन्नति हो पाही.अतका गोठ ल गोठीयात-गोठियात डोकरी दाई ह रो दारिस.
तहां ल काय बात कहिबे! घर-भर के सब्बो झन ल बात समझ म आगे. अउ डोकरी दाई के गोड़ तरी गिरगिन. अउ डोकरी दाई के जोरन-भारन ल सम्हाल के रखे खातिर भीड़ गिन. डोकरी दाई ह फेर कुलकुल्ला हो गे.
*****
आलसी कऊंआ
रचनाकार- सुरेखा नवरत्न
एक ठन पीपर के रूख म, एक ठन कऊंआ ह खोंधरा बनाय रहय. ओ कऊंआ ह अब्बड़ आलसी रहय. दिन भर खोंधरा म खुसरे रहय,अऊ मुड़ी ल अपन निकाल के रूख के ऊपर ल चारो मुड़ा ल देखत रहय.चारा के खोज म संगी मन संग करा एति ओती कोनो कोती घलो नइ जाय. भूख लागय त चट ले उठय अऊ सीधा चौकीदार कका के छानही म उड़त-उड़त जावय, काबर की चौकीदारिन काकी ह रोज के कुछु न कुछु बनाके छानही म सुखोवय. एक दिन काकी ह गिनके भकर्रा लाड़ु ल सुखोय रहिस, काबर कि रोज कऊंआ अपन चारा बार सुखोये जिनिस खा दय काकी ह मने मन म गुनय, का ह लेग जाथे. फेर आज ओहा दांव म रहय, भले घर भीतरी म रहय फेर ओकर चेत ह छानही डहर रहय. कंऊंआ ह दस बजती के बेरा कलेचुप आइस, अऊ नरियाईच घलो निहि, एक ठन भकर्रा लाड़ु ल चोंच म धरिस अऊ सर्रट ले उड़ घलिस. डेना के फड़फड़ के आवाज ल थोरकिन सुनाइच त काय आगे रे कइके काकी दौड़त आईस. त कौआ ह लाड़ु ल चोंच म धरके उड़त रहय. रा रे तैं कंऊंआ कालि तैं आबे त तोर जौंहर ल करहा मने मन सोचीस।
दूसर दिन काकी ह चार ठन कोतरी के सुस्की ल, छोटकन कागज़ म पुतकी बना के लाड़ु सुखोय रहय, तेकरे तीर म मढ़ा दिस. ललचहा कंऊंआ ह आईस, त ओकर नाक म सुस्कईन सुस्कईन माहके लागिस. एती ओती ल नजर दऊंड़ा के देखिस, खटबिलई म सुस्की ह दिखत रहय. कंऊंआ के लार चुह गे, खाहां कईके टप ले बिनिस, फट ले फांदा ह ओकर मुड़िच ल धर लिस. अब कंऊंआ ह फट फट फट फट फटफटाय लागिस. काकी ह पानी भरे बर कुंआ गय रहय. चौकीदार कका ह घर म रहय, कंऊंआ ल देखके अब्बड़ खुश होगे.झट ले कंऊंआ ल खाल्हे म उतारिस, चुल्हा म आगी ह रम रम रम रम बरत रहय.
डेना पंखरी ल निंद के भुंज डारिच, अऊ नून मिरची के बुकनी निकाल के कंऊंआ ल खा डारिस. किस्सा पुरगे आऊ ढेला घुरगे, संगवारी हो.
सीख - लईका हो सीख राखे रहा ओकरे बर आलसी अऊ लालची नई होना चाहिए, लालची मन के असने दसा हो जाथे.
*****