कहानियाँ

पंचतंत्र की कथाएँ

देववर्मा

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एक गाँव में देववर्मा नाम का एक व्यक्ति अपनी पत्नी के साथ रहता था. आजीविका का कोई निश्चित साधन न होने से दोनों का जीवन कष्टमय था.

एक दिन उनके घर कुछ अतिथि पधारे. उनके आने से गृहणी अत्यंत चिंतित हो गई. उसने अपने पति को अलग से बुलाकर कहा, 'घर पर कुछ भी नहीं है जो पकाकर मैं उन्हें खिलाऊँ. जब से तुमसे ब्याह हुआ है, मेरा जीवन दुःखों से भर गया है. गहने-जेवर तो सपने हैं, कभी ढंग के कपड़े भी ना पहना सके तुम मुझे. प्रतिदिन यह चिंता कि आज भोजन मिलेगा भी कि नहीं. कैसा जीवन तुमने दिया है.'

ऐसा कह कर वह अत्यंत दुखी हो गई.

देववर्मा ने उसे सांत्वना देते हुए कहा, 'तुम्हारा वचन यद्यपि सत्य है देवी, किंतु भोजन का कुछ-न-कुछ प्रबंध तो हो ही जाता है. समय सदा एक सा नहीं रहेगा. धीरज रखो. हम सदैव यत्न कर रहे हैं. एक दिन हम अभावों से अवश्य ही मुक्त होंगे.'

'आज क्या करूँ?' देववर्मा की पत्नी ने पूछा.

'आज गाँव के महाजन के यहाँ कोई उत्सव है. सुना है कि वे इस अवसर पर बहुत दान कर रहे हैं. वहीं जाकर कुछ प्राप्त करता हूँ. कुछ दिन तो चैन से बीत जाएँगे. जितना उपलब्ध हो जाए, उसका उपयोग करना और संतुष्ट रहना किंतु प्रयत्न करते रहना ही बुद्धिमानी है. अधिक लालसा करने पर ललाट पर शिखा उग आती है.'

यह कह कर देववर्मा हँसने लगा.

उनकी पत्नी ने कहा, 'ऐसे में भी तुम विनोद करते हो. भला ललाट पर भी कभी चोटी उग सकती है, यह क्या बात हुई?'

देववर्मा ने कहा, 'सुनो! वह कथा तुम्हें सुनाता हूँ.'

'एक बार एक शिकारी अपना धनुष - बाण लिए शिकार ढूँढ़ते हुए वन में घूम रहा था. अचानक ही उसने काजल के पहाड़ की भाँति विशालकाय काले वन-शूकर को देखा. थोड़ी दूर पर ही वह अपने पैने दाँतों से भूमि को खोदकर कंद निकाल रहा था. शिकारी ने अपने धनुष का संधान किया और उसकी डोरी को अपने कानों तक खींचकर बाण छोड़ दिया. वह तीक्ष्ण बाण पल भर में ही उस शूकर के कंठ के आर-पार हो गया.

किंतु इस पर भी वह शूकर गिरा नहीं. उसने शिकारी को देख लिया और तीव्र गति से उसकी और दौड़ा. शिकारी संभल पाता इसके पहले ही उसने अपने बलशाली थूथन से उस पर वार किया. शिकारी दूर जा गिरा. उसका पेट फट चुका था. थोड़ी ही देर में शिकारी और शूकर दोनों के प्राण निकल गए.

यह सारा दृश्य एक सियार छुप कर देख रहा था. वह धीरे-धीरे निश्चेष्ट पड़े उन दोनों के मृत शरीरों के पास आया. बहुत दिनों से वह सियार भूखा था किन्तु आज वह अत्यंत आनंदित था. वह सोच रहा था, आज भाग्य से इतना अधिक भोजन मिल गया कि आने वाले कई दिनों तक अब भटकना नहीं पड़ेगा.

एक पल उसके मन में विचार आया, आज जी भर कर भोजन कर लूँ. किंतु अगले ही पल वह यह सोचने लगा, थोड़ा-थोड़ा उपयोग करुँ तो यह भोजन बहुत दिनों तक बचा रहेगा.

उस अभागे और दरिद्र सियार ने इतना कुछ होने पर भी उसका उपयोग नहीं किया. धनुष में लगी आँतों से बनी डोरी को उस स्थान पर चबाने लगा जहाँ वह कमान से बंधी हुई थी. उसके दुर्भाग्य से डोरी के कटते ही कमान खींचकर सीधा हो गया और उसके कपाल को चीरता हुआ उसके आँखों के बीच से बाहर निकल आया. ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो उसके ललाट पर शिखा उग आ गई है.

पल भर में सियार के प्राण-पखेरू उड़ गए. प्राप्त का उपयोग न कर उसे बचाए रखने की लालसा ने उसके प्राण ले लिए. तब से यह कहते हैं कि अत्यधिक लालसा से ललाट पर शिखा उग आती है.'

देववर्मा की पत्नी ने हँसकर कहा, 'अच्छा ! अब जाओ, अतिथियों के भोजन की व्यवस्था करो. मैं अच्छा समय आने की प्रतीक्षा करुँगी.'



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कर्म का फल

रचनाकार- मनोज कश्यप

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एक राजा था जो बड़ा न्यायप्रिय था. वह अपनी प्रजा के दुःख-दर्द में बराबर काम आता था. प्रजा भी उसका बहुत आदर करती थी.

एक दिन राजा वेश बदल कर अपने राज्य में घूमने निकला. रास्ते में उसने देखा कि एक वृद्ध आदमी एक छोटा-सा पौधा लगा रहा है. राजा कोतूहल वश उसके पास गया और बोला- “यह आप किस चीज का पौधा लगा रहे हो. ”वृद्ध ने धीमे स्वर में कहा- “आम का. ”राजा ने हिसाब लगाया कि उसके बड़े होने और उस पर फल आने में कितना समय लगेगा. हिसाब लगाकर उसने अचरज से वृद्ध की ओर देखा और कहा- सुनो दादा, इस पौधे के बड़े होने और उस पर फल आने में कई वर्ष लग जाएंगे. तब तक आप क्या जीवित रहोगे?” वृद्ध ने राजा की ओर देखा. राजा की आँखों में मायूसी थी. उसे लग रहा था कि वृद्ध ऐसा काम कर रहा है जिसका फल उसे नहीं मिलेगा. यह देखकर वृद्ध ने कहा- “आप सोच रहे होंगे कि मैं पागलपन का काम कर रहा हूँ. जिस चीज से आदमी को फायदा नहीं पहुंचता उस पर मेहनत करना बेकार है. लेकिन यह भी तो सोचिए कि इस बूढ़े ने दूसरों की मेहनत का कितना फायदा उठाया है? दूसरों के लगाए कितने फल अपनी जिंदगी में खाए हैं. क्या उस कर्ज को उतारने के लिए मुझे कुछ नहीं करना चाहिए? क्या मुझे इस भावना से पेड़ नहीं लगाने चाहिए कि उनके फल दूसरे लोग खा सकें? जो केवल अपने लाभ के लिए ही कार्य करता है वह तो स्वार्थी वृत्ति का मनुष्य होता है.”

वृद्ध की यह बात सुनकर राजा बहुत ख़ुश हुआ क्योंकि आज उसे भी कुछ बड़ा सीखने को मिला था.


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गीताली और गिल्लू

रचनाकार- प्रीतम कुमार साहू

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मास्टरजी की बिटिया गीताली अपनी मम्मी जैसी ही थी. गीताली सुबह जल्दी उठकर अपने पापा के साथ टहलने जाती मैदान का एक चक्कर लगाकर वापस आती फिर अपना होम वर्क करती. गीताली के तैयार होने तक मम्मी उसके लिए रोटी बनाती. गिताली रोज चार रोटी लेकर स्कूल जाती और खाने की छुट्टी में अपनी दोस्त परी के साथ स्कूल के बगीचे में अशोक के पेड़ के नीचे भोजन करती. एक दिन गीताली की नजर पेड़ के नीचे उछल-कूद करती गिलहरी पर पड़ी. गीताली को गिलहरी बहुत अच्छी लगी और वह गिलहरी को पकड़ने की कोशिश करने लगी, पर गिलहरी झट से पेड़ पर चढ़ गई.

स्कूल की छुट्टी होने पर गीताली ने घर आकर अपनी ड्राइंग बुक में गिलहरी का सुंदर चित्र बनाया और उसका नाम गिल्लू रख दिया.

अब गिताली रोज खाने की छुट्टी में एक रोटी गिल्लू को भी दे देती.

एक दिन गिताली गिल्लू को रोटी देना भूल गई तब गिल्लू गीताली के पास आकर उछल-कूद करने लगी. गीताली ने गिल्लू को रोटी दी और उसे पकड़कर घर ले आई. अब गीताली गिल्लू के साथ खेलती और उसे खाना देती.

पर मम्मी को यह सब अच्छा नही लग रहा था. एक दिन गीताली की मम्मी गीताली को बिना बताये अपने मायके चली गई. गीताली जब स्कूल से घर आई तब घर मे मम्मी को न पाकर रोने लगी.

दो दिन बाद मम्मी घर लौट आई. मम्मी को देख गीताली बहुत खुश हो गई. गीताली ने मम्मी से कहा कि मम्मी आप मुझे बिना बताये अकेली क्यों चली गई थी. आपके बिना मुझे अच्छा नही लग रहा था मुझे रोना आ रहा था.

तब मम्मी कहने लगीं कि तुम भी तो गिल्लू गिलहरी को उसके माता-पिता से दूर अकेले ले आई हो. क्या उन्हें अच्छा लग रहा होगा?

गिल्लू को भी अपने माता-पिता की याद आती होगी न? गीताली को मम्मी की बात समझ मे आने लगी और उसे अपनी भूल का एहसास होने लगा.

अगले दिन गीताली ने जैसे ही गिल्लू को उसके घर अशोक के पेड़ के पास छोड़ा,गिल्लू गिलहरी फिर से उछल-कूद करने लगी और पेड़ पर चढ़ गई. यह दृश्य देखकर गीताली बहुत खुश हो गई.



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सोना का पायल

रचनाकार- प्रीतम कुमार साहू

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कलेक्टर दफ्तर में काम करने वाली अंजली के पास धन दौलत बहुत थी. पर परिवार में बेटी सोना के सिवाय कोई भी न था. अंजली सुबह दफ्तर के लिए निकलती तो शाम को घर वापस आती. घर का सारा काम नौकरानी शीला करती थी.

दो दिन बाद सोना का जन्मदिन था. ऐसे में मम्मी ने सोना के लिए एक अच्छी-सी पायल लेने की सोची. अगले ही दिन अंजली अपने नौकरानी शीला के साथ पप्पू सेठ की दुकान से सुन्दर-सा पायल ले कर आई. पायल को देखकर शीला मन ही मन सोचने लगी कि “काश !मैं भी अपने बेटी टीना के लिए ऐसा ही सुंदर पायल ले पाती. ”

अगले दिन शीला सोना के जन्मदिन की खुशियों में शामिल हुई. सोना को पायल बहुत पसंद आया और वह बहुत खुश थी. सोना पायल को पहन कर रोज स्कूल जाती और स्कूल से आने की बाद खूब खेल भी खेलती. सोना अपने दोस्तों के साथ पास के गार्डन में खूब खेलती-कूदती और शाम को घर वापस आती.

एक रात सोना अपने मम्मी के साथ सोई थी ऐसे में मम्मी की नजर सोना के पैरों पर पड़ी. पैरों पर पायल ना होने से पायल के गुम जाने का शक हुआ. माँ ने सोना से पूछा कि पायल कहाँ गई?अपने पैरों पर पायल ना देख सोना रोने लगी. और पायल के बारे में सोच ठीक से सो नहीं पाई. सुबह शीला के आने पर अंजली ने शीला से कहा कि सोना की पायल कहीं गुम हो गई है ज़रा ढूँढना तो. शीला घर का कोना-कोना ढूँढी पर पायल कहीं नहीं मिली. शीला जब शाम को घर आई तब अपनी बेटी टीना के पैरों में पायल देख चौंक गई. शीला पायल को पहचान गई उसने टीना से पूछा यह तो सोना की पायल है तुम्हें कहा मिली? तब टीना कहती है कि कल मैं गार्डन गयी थी. वहीं घास में पड़ी हुई मुझे यह पायल मिली और आस-पास कोई न था तो पायल मैंने रख ली.

अब शीला चाहती तो यह पायल अपने बेटी के लिए रख सकती थी लेकिन शीला ने ऐसा नहीं किया और ईमानदारी का परिचय देते हुए अपने मालकिन अंजली को पायल वापस कर दी. मालकिन शीला कि ईमानदारी से खुश हो गई और वह पायल ईनाम में शीला को वापस दे दी और उनका पगार भी बढ़ा दी. शीला का चेहरा खिल उठा. शीला ने अपनी मालकिन का शुक्रिया अदा किया और रोज की तरह घर के कामों में लग गई.



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दिवाली के दिये

रचनाकार- अशोक पटेल

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रोज की तरह आज भी मैं ऑफिस के लिए निकला और जैसे ही अपने ऑफिस के नजदीक पहुँचा, कहीं से- 'बाबू जी !बाबू जी!'की आवाज आती है.

मैं हड़बड़ी में था ऑफिस के लिए लेट हो रहा था, मैंने बिना विलम्ब किये, अगल-बगल को देखा और मेरे कदम ठिठक गए.

मेरी नजर सड़क के बायीं ओर बैठे एक दस साल का बच्चे पर पड़ी जो मिट्टी के दिये बेच रहा था.हर किसी आने-जाने वालों को उत्सुकता भरी निगाह में देखता और आवाज लगाता की- बाबू जी! बाबू जी! दिये ले लो! दिये लेलो!

असल में दिवाली का पर्व बहुत नजदीक था और वह बच्चा मिट्टी के दिये बेचना शुरू कर दिया था.ताकि वह भी पाइ-पाइ को इकट्ठा कर दिवाली का त्योहार धूमधाम से मना सके.

मैं उसके पास गया और बोला- 'बेटा अभी दिवाली त्योहार आने में विलंब है, मैं अभी से तुम्हारे दिये नही ले जाऊँगा जब पर्व आएगा तो मैं तुमसे ही मिट्टी के दिये खरीदूंगा.'

बच्चा एक मीठी मुस्कान के साथ अपने आप को आश्वस्त कर अपने काम मे पुनः लग जाता.

'दिये ले लो दिये!'

व्यस्तता के कारण दिवाली का पर्व कब आ गया मुझे पता ही नही चला.आज आफिस के लिए सोचते हुए चला जा रहा था. बाजार, गली, चौक चौराहों पर काफी चहल-पहल है.लोग जम के दिवाली के सामान खरीद रहे हैं.तभी मुझे अचानक उस बच्चे का ख्याल आया, जिसको मैने दिये खरीदने का वादा जो किया है था.

लेकिन ये क्या?

ओ तो वहां पर कही दिखाई नही दिया, मैंने अपनी नजर इधर-उधर फैलायी, लेकिन वह बच्चा कही नजर ही नहीं आया.

और उदास मन से यह सोंचते-सोंचते ऑफिस पहुच गया की चलो कोई और मिलेगा उससे दिये खरीद लूँगा.

आज ऑफिस से जल्दी काम निपटाने के बाद मैं पूजा का सामान लेने के लिए बाजार की तरफ रवाना हुआ.बाजार काफी भीड़ थी, खूब कोलाहल हो रही थी, सब अपने-अपने सामान को बेचने के लिए आतुर हो रहे थे.

तभी मेरी नजर सड़क किनारे दिये बेचने वालों पर पड़ी.मुझे सहसा याद आई- 'अरे!कहीं ओ बच्चा यहां दिये बेचने बाजार तो नही आया होगा. 'और फिर मैं अपने वादे को पूरा करने के लिए उस बच्चे को यहां-वहां खूब तलाशा, लेकिन वह कहीं दिखाई नही दिया.

मुझको घर जाने के लिए देरी हो रही थी क्योकि मेरे घर में बच्चे मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे और फिर मैने आनन-फानन में, खिल-बताशे, फलफूल, मिठाईयां और फुलझड़ियाँ लेकर वहां से रवाना हो गया.तब तक काफी देर हो चुकी थी थोड़ी भीड़ कम सी हो गई थी और मैं जल्दी-जल्दी आगे बढ़ने लगा.

तभी सहसा किसी ने मुझे देखा और आवाज लगाई- 'बाबू जी! बाबू जी! दिये ले लो! 'दिये ले लो न!

मुझे लगा जैसे कोई अपना सा जाना-पहचाना मुझे आवाज लगाई हो. मेरे कदम वहां पर जड़ स्थिर हो जाते हैं, और फिर मैं खड़े होकर पीछे मुड़ने ही वाला था तभी वह बालक आकर मेरे हाथ को पकड़ लिए.मैंने उस बच्चे को झट से पहचान लिया.उसे पाकर मेरे मन मे एक आत्मिक शांति मिली.यह वही बच्चा था जिसने मुझे ऑफिस आते-जाते हमेशा 'दिये ले लो न बाबू जी' कहकर हमेशा पुकारा करता था.

तभी वह बच्चा हाथ को झिंझोड़ते हुए- 'चलिए न बाबू जी दिये.'

कहते हुए चुप हो जाता है और अपने दिये के पास ले जाता है.जहां पर वह अपनी बूढ़ी दादी के साथ. मिट्टी के दिये बेच रहा था. जिनको देखकर लोग अनदेखा कर आगे बढ़ जा रहे थे.

मुझे देखकर उसकी दादी बोल पड़ी- 'साहब मेरा यह पोता आपकी सुबह से प्रतीक्षा कर रहा था और बार-बार यह कहता रहा बाबू जी जरूर आएंगे, हमारे दिये जरूर बिकेंगे, आज हम लोग भी दिवाली मनाएंगे. 'इतना कहते हुए उसकी दादी का गला रुंध जाता है और आंखों में आंसू आ जाते हैं.

तभी मैंने उस बच्चे को उसके सारे दिये मेरे झोले में पैक करने को कहा, बच्चा उछल कर झट से सारे दिये पैक कर दिए. फिर मैंने उसे कुछ रुपये, फुलझड़ियाँ और मिठाईयां दी.

बच्चे के चेहरे पर रौनकता आ जाती है, वह अपनी दादी को बता-बता कर फुला नही समा रहा था.



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पिचील-पिचील पैरा

रचनाकार- रजनी शर्मा

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आज सोनू बहुत खुश थी. वह अपने माता-पिता के साथ गाँव जा रही थी. उसका गाँव बस्तर में था. जहाँ उसका गाँव था वहाँ ज़्यादातर लोग गोंडी भाषा बोलने वाले थे. गाँव पहुँचते ही सोनू का मन खिल गया. घर के पास ही खलिहान से उड़ती सौंधी महक धान की. वह अपना सिर ऊपर करके देखने लगी पैरावट की ढ़ेर को. इतने में वहाँ गाँव के कुछ बच्चे भी आ गये.

बिना किसी भूमिका के उनसे सोनू की दोस्ती हो गई. सोनू ने पैरावट को दिखा कर उनसे पूछा कि ये क्या है? एक ने कहा 'खड़'. हल्बी में पैरावट को खड़ ही तो कहते हैं ना. कुछ अन्य बच्चे 'गोंडी' में कहने लगे 'पिचील-पिचील'. सोनू को उन सभी बच्चों के साथ पैरावट में फिसलने में और खेलने में बड़ा मज़ा आया. अब वह यह भी जान गई थी कि पैरावट को गोंडी में पिचील कहा जाता है. सब गा-गा कर खेलने लगे 'पिचील-पिचील पैरा'.



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सुबह हुई

रचनाकार- दिपेश पुरोहित 'बिहारी'

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सुबह हुई, पूर्व की लालिमा नये उत्साह और उमंग लेकर आई पर रितिका के जीवन में ऐसा कुछ नहीं था. वह जीवन के ऐसे मोड़ पर खड़ी थी कि लग रहा था मानो सब खत्म हो गया. पलकों पर आँसुओं की लड़ियाँ थमने का नाम नहीं ले रहीं थीं.पिता की बातों को याद करने लगी.

वह 7-8 साल की रही होगी. उसके पिता विद्यालय में चपरासी थे. प्रतिदिन 8 बजे से उनका दिन शुरू होता. 9 बजे स्कूल पहुँचकर साफ सफाई करना, बच्चों का खयाल रखना, स्कूल के बगीचे में पौधों की देखभाल, उनकी दिनचर्या में शामिल था. रितिका को भी अब इसी दिनचर्या में शामिल होना था, क्योंकि उसका दाखिला उसी स्कूल में हुआ था. शाम को 5 बजे दोनों बाप बेटी स्कूल के बारे में बातें करते सायकल से लौटते थे. उनकी छोटी सी आमदनी में रितिका के लिए कुछ भी नहीं था, माँ बीमार थी, उनकी दवा और घर के खर्चे के बाद छोटी सी बचत हो पाती थी. कभी कभी बचत वाले डिब्बे से उसे चिढ़ होती थी, उसके शौक के बदले पैसे उसमें डाल दिये जाते थे.

पिता के प्रेम और अनुशासन से धीरे धीरे उसने न्यूनतम आवश्यकता को ही आदत बना लिया.

इतनी कर्तव्यनिष्ठा से काम करने के बावजूद, उसके पिता को न तो विद्यालय से कोई पुरस्कार मिला न ही यथोचित सम्मान. एक बार कलेक्टर साहब का दौरा हुआ. स्कूल की साफ सफाई, समस्त व्यवस्था और बागवानी को देखकर वे बहुत प्रसन्न हुए. प्रार्थना सभा में सभी बच्चों के सामने उन्होंने हेडमास्टर साहब की प्रशंसा की. हेडमास्टर ने सबके सामने पुरस्कार भी ग्रहण किया, लेकिन श्रेय का एक कतरा भी रितिका के पिता के लिए देना उचित नहीं समझा. वह कहना चाहती थी, कलेक्टर साहब यह सारा नजारा उनके पिता के कार्यों का नतीजा है, हेडमास्टर साहब आराम से 11 बजे आते हैं और कभी कभी 4 बजने से पहले ही निकल जाते हैं.

शाम को सायकल के आगे सीट में वह मौन बैठी, तब पिता ने पूछ लिया 'बेटा आज चुप कैसे हो.बताओगी नहीं कलेक्टर साहब को देखकर कैसा लगा?'

रितिका थोड़ा गुस्सा करते बोली 'कल से आप भी 11 बजे आएँ और 4 बजे लौट जाएँगे.इतना काम करने का कोई मतलब नहीं. काम आपने किया और इनाम तो हेडमास्टर साहब ले गए. बताइये गलत है कि नहीं.'

'ओह! इस वजह से गुस्से में है बिटिया रानी!'

'हाँ! क्या कलेक्टर साहब को इनाम आपको नहीं देना था.' उसने प्रश्नवाचक निगाह से देखा.

'ये उनका निर्णय है वे किसे इनाम का अधिकारी समझते हैं.विद्यालय की सफाई के लिए हेडमास्टर ही जिम्मेदार होता है. इसलिए उनको इनाम मिला.'

'और आपको? क्या मिला ये सब करके? यहाँ तक कि हेडमास्टर साहब ने इतना भी नहीं कहा कि आप दिनरात मेहनत करते हैं तब ये स्कूल और ये बागबग़ीचे हैं.'

'ठीक है. नहीं कहा तो अच्छा हुआ.'

'कैसे?'

'बेटा. पहली बात हमें कोई काम इसलिये नहीं करना चाहिए कि हमारी प्रशंसा हो. अगर ऐसा हुआ तब वह कार्य उतने दिन तक हो पाएगा जब तक प्रशंसा होती रहे. प्रशंसा समाप्त फिर कार्य नहीं होगा.'

'लेकिन पापा.'

उसकी बात बीच में काटते हुए बोल उठे 'मैं यह सब करता हूँ कि मुझे खुशी होती है साफ सुथरा स्कूल देखकर, यहाँ के बच्चों को सफाई पसंद और बाग बगीचे की रखवाली करता देखकर. भले ही शुरुआत मैंने की लेकिन आज देखो सब बच्चे एक एक पौधे लगाकर उसकी देखभाल करते हैं न क्या इसके बदले मुझे इनाम चाहिए.'

स्वयं के आनन्द और खुशी के लिए काम, कितना अद्भुत विचार था. जिसके लिए रितिका निरूत्तर होकर चिंतन करने लगी. इसी दिन उसने निश्चित किया वह हेडमास्टर बनेगी, जो अपने मातहत कर्मचारियों को पुरा श्रेय और सम्मान देगी.

'मैम, दूध के लिए आज बर्तन नहीं रखा आपने.' दूधवाले की आवाज ने उसकी तंद्रा भंग की.

अनमने भाव से उसने दूध का बर्तन उठाया. दूधवाले ने उसका चेहरा देखकर पूछ लिया. आपकी तबीयत तो ठीक है न?

रितिका ने आँसू बड़ी मुश्किल से रोके और सिर हिलाया. दूध लेकर वापस लौट आयी.

पिता के संस्कारों और माँ की बीमारी में भी दृढ़ इच्छा-शक्ति ने उसके भीतर धैर्य और हिम्मत कूटकूटकर भर दी थी.

शिक्षा पूर्ण होने के उपरांत उसकी मेहनत रंग लाई. वह हेडमास्टर के पद पर दूरस्थ ग्रामीण अंचल में एक छोटे से विद्यालय में नियुक्त हुई.

महज 20 बच्चों से शुरू होने वाले स्कूल को रितिका ने अपने कार्यों और सीखने सिखाने के नए तरीकों से बदल डाला. स्कूल से 25 किमी दूर रहते हुए भी वह प्रतिदिन 9 बजे स्कूल पहुँच जाती, शाम को 5 बजे स्कूल से वापस निकलती.

बागबग़ीचे लगाना, साफ सफाई उसे विरासत में मिली थी.

उसने दिन रात मेहनत की, छुट्टियों के दिनों में स्कूल जाती, खेतों में पालकों से बैठकर बातें करती, बड़ी लड़कियों को भी स्कूल आने के लिए प्रोत्साहित करती.

परिणाम यह हुआ की गाँव की लड़की बुधवारा जो 13 साल की थी उसने विद्यालय आना शुरू कर दिया. धीरे-धीरे चारों ओर स्कूल का प्रचार-प्रसार होने लगा. गाँव में बैठक आयोजित कर पालक समिति बनाई गई. उनके सहयोग से स्कूल भवन बनाने का काम शुरू हुआ. लेकिन बच्चों की बढ़ती संख्या से हर साल भवन छोटा पड़ जाता.

रितिका के विद्यालय आने की दसवीं वर्षगांठ थी, उसने कुछ मिठाई बच्चों में बाँटी और कुछ बच्चों के लिए जूते और कपड़े दिए. प्रतिवर्ष बहुत सारे बच्चों के एडमिशन इसी दिन किये जाते थे. अब संख्या बढ़ने लगी और संसाधन अपर्याप्त थे. धीरे धीरे बच्चों की छंटनी होने लगी. आवेदन में से कुछ स्थानीय बच्चों के लिए निर्धारित थे, उससे इतर बच्चों को उनके ज्ञान, सीखने की दक्षता आदि का टेस्ट दिलाना होता तब उनकी भर्ती हो पाती. ऐसे ही कई वर्षों तक क्रम चलता रहा.

इस वर्ष अन्य क्षेत्रों के बच्चों को स्थान देने के उद्देश्य से 100 सीट के बालकों एवं 50 सीट की बालिकाओं के हॉस्टल की सुविधा शुरू की गई.

विद्यालय को 4000 से अधिक आवेदन मिले. रितिका अपने स्टाफ के साथ दिन रात एक कर उनमें से पात्र बच्चों की सूची बनाने जुट गई थी. उसके मन में कोई दुविधा नहीं थी, जो पात्र हैं उन्हें स्थान मिलेगा.

तभी मोबाइल बजी.

रितिका ने कहा 'हैलो.'

'मैडम मेरी एक दरख्वास्त थी. मेरे बच्चे का एडमिशन आपके विद्यालय में करवाना है.' आवाज रौबदार और वजनी थी.

रितिका ने उसी सहजता से जवाब दिया 'कल आवेदन की आखिरी तारीख है. आप आवेदन करें हम पात्र होने पर जरूर एडमिशन देंगे.'

'वैसे नही मॅडम मुझे डायरेक्ट एडमिशन चाहिए. मैनेजमेंट कोटा या स्पेशल सीट कुछ तो होगा, आपके विद्यालय में.' उस रौब में अब झल्लाहट जुड़ गई.

'सॉरी सर. यह शासकीय विद्यालय है जहाँ सभी का समान अधिकार है. ऐसी कोई सुविधा नहीं है. थैंक यू.' रितिका ने फोन काट दिया.

बाद में कई बार उसने फोन करने की कोशिश की लेकिन रितिका ने फोन रिसीव नहीं किया.

एडमिशन की प्रक्रिया आगे बढ़ गई. रितिका अपने काम मे व्यस्त हो गई. 2 दिन पहले ही उसके साथी शिक्षक ने उसे फोन कर बताया.

'मैम आज तो गजब हो गया. मैम, हमारे स्कूल के बारे में अखबार में बहुत ही गलत तरीके से छापा गया है. सभी शिक्षकों को भ्रष्टाचार से लिप्त बताया गया है और भ्रामक तथ्यों के साथ धनाढ्य वर्ग के एडमिशन किये जा रहे हैं.ऐसी बातें छापी गई हैं.'

रितिका ने अखबार ढूंढा, वह बेहद संजीदगी से आर्टिकल पढ़ने लगी. उसके आंखों से आंसू बह रहे थे. जिस विद्यालय को खड़ा करने में उसने अपने जीवन के 10 साल खर्च कर दिए. उसके मेहनत और काम के प्रशंसा के स्थान पर इतना निम्नस्तर के आरोप मढ़े गए थे कि उसका धैर्य भी जवाब दे गया. वह ऐसे तैसे तैयार होकर स्कूल पहुँची ही थी कि खण्ड शिक्षा अधिकारी महोदय का फोन आ गया.

पेपर में छपी ख़बर के कारण जिले से जाँच दल आ रहा था. इस खबर ने उसे और हैरान कर दिया.

वह अपने कमरे में स्टाफ के साथ मौन बैठी थी. सब के भीतर तूफान उमड़ रहा था लेकिन बाहर से सभी शांत दिखने का प्रयत्न कर रहे थे.

कुछ ही देर में खण्ड शिक्षा अधिकारी, जिले के अधिकारियों के साथ विद्यालय पहुँचे. सबने उनका स्वागत किया. अधिकारियों ने चारों ओरघुमघामकरदेखा, बच्चों से मुखातिब भीहुए, एडमिशन प्रोसेस को देखा.

सब सही था. कहीं कोई समस्या नहीं थी. फिर भी महोदय रितिका से पूछ बैठे- सब तो ठीक लग रहा है फिर ऐसी शिकायत क्यों आई?

साहब का लहजा थोड़ा सख्त था.

रितिका ने अपना इस्तीफा टेबल पर रख दिया. जिस विद्यालय को मैंने 10 साल दिए, उन कार्यों का कोई मोल नहीं और किसी ऐसे व्यक्ति जिसने उस आर्टिकल को केवल दुष्प्रचार के उद्देश्य से लिखा हो उसकी बातों पर मेरे विभाग को भरोसा हो गया तो मेरा इस विद्यालय में आखिरी दिन ही होना चाहिए.

यह देखकर सब हैरान थे. सभी ने एक स्वर में कहा यदि रितिका यहाँ नहीं आएंगी तो हम सब अपना इस्तीफा सौंप देंगे.

अधिकारी महोदय नरम पड़ चुके थे. 'आप बिलकुल सही हैं रितिका. इस विद्यालय और समाज को आपकी जरूरत है.'

थोड़ा रुककर आगे बोले- 'हमारी सबसे बड़ी समस्या यही है, हमअच्छा काम करने वालों की कद्र नहीं करते. उन्हें श्रेय नहीं मिलता, बल्कि विरोध मिलता है. हर पालक चाहता है कि उसके बच्चे का एडमिशन इसी विद्यालय में हो. इससे अच्छा यह हो सकता था कि हम हर विद्यालय को इस विद्यालय जैसा बना पाते.'

खण्ड शिक्षा अधिकारी महोदय ने भी सहृदयता से कहा 'रितिका और उसका विद्यालय हमारे खण्ड की शान है. तुम चिंता न करो इस शिकायत का कोई अर्थ नहीं है. तुम निश्चिन्त होकर आगे बढ़ो.'

सभी की बातों से अभी भी रितिका सहज नहीं हो पाई. उसने खण्ड शिक्षा अधिकारी महोदय से पूछ लिया- कल की छुट्टी मिलेगी सर?

'छुट्टी लेकर क्या करोगी. देखो ऐसे मन को खराब न करो. सब ठीक ही होगा.'खण्ड अधिकारी समझाने लगे.

दिन बहुत थकावट भरा था. रितिका शाम होते होते घर पहुँची.ऐसा लग रहा था कोई बोझ उस पर रख दिया गया हो.

चारो ओर संकट के बादल ही नजर आ रहे थे. अनिर्णय की स्थिति थी, क्या उसके कार्यों का यह अपमान नहीं था. सब सोचते सोचते रात बीत गयी थी.

अभी भी सोफे पर लेटी हुई थी. स्कूल जाने का मन नहीं था. 8 बज चुके थे, आज तो नहाने का भी मन नहीं था.

मोबाइल की घण्टी बजी.

रितिका ने रुंधे गले से कहा ' हैलो पापा.'

पापा अब रिटायर हो चुके थे. आज सुबह उन्हें अखबार की बात का पता चला था.

'बेटा. तू दुखी हो रही है.'

'हाँ पापा.'

'लोग अच्छाई की कद्र नहीं करते यहाँ तक तो ठीक है. लेकिन अच्छे को अच्छा नहीं रहने देते. हर किसी को अपने मतलब की पड़ी है. अपने काम को पूरा करने के लिए इस हद तक चले जाते हैं. क्या मिला होगा मुझे बदनाम करके?'

'किसने कहा कोई तुम्हे बदनाम कर पायेगा. बेटा किसी एक व्यक्ति ने कुछ दुष्प्रचार कर दिया तो क्या होगा? लोग जानने का प्रयास करेंगे ये रितिका कौन है?ज्यादा से ज्यादा 2 चार लोग बात भी कर लें. 20 पचास तेरे बारे में एक राय बना लें. लेकिन तू सोच जो 400 बच्चे हैं उनके लिये तुम ही आधार हो उनका जीवन तुमसे बनेगा. तुमको मैंने कहा था, ये हमारे आनंद का विषय है.'

'पर पापा. मुझे भी दुख लगता है.'

'आनन्द में दुख का कोई स्थान नहीं है पगली. सुख का विपर्याय दुख है. आनन्द का विपर्याय है ही नहीं. उन सैकड़ों बच्चों से वो पत्रकार मूल्यवान हो गया जिसे तुम जानती भी नहीं.बताओ?'

'नहींपापा!'

'तो उसके आरोप इतने महत्वपूर्ण हैं जिसके लिए तुम अपना कार्य त्याग दो.'

'नहीं पापा.'

'तो तुम स्कूल के लिए लेट नहीं हो जाओगी आज. बस 9 बजने ही वाले हैं बेटा!'

रितिका ने आँसू पोंछ लिए, तुरंत नहाकर तैयार हो गई.टिफिन नहीं बन पाया आज तो? उसने सोचा स्कूल में मध्यान्ह भोजन में से कुछ ले लुंगी. प्रार्थना सभा में उसे खड़ी देखकर सभी का उत्साह दुगुना हो गया.



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कृतज्ञता

रचनाकार- लोकेश्वरी कश्यप

Anu

मधु अपनी बेटी के साथ जल्दी-जल्दी बस में चढ़ी. बस के अंदर बहुत भीड़ थी. बैठने के लिए सीट नहीं मिली. मधु अपनी बेटी को अपने करीब चिपका कर खड़ी हो गई. अगले स्टेशन पर बस कुछ खाली हुई, तो मधु और उसकी बेटी को सीट मिल गई. दोनों बैठ गए. बस अभी कुछ ही दूर चली थी, इतने में कंडक्टर आ गया. मधु ने अपना और अपनी बेटी का टिकट ले लिया. कंडक्टर आगे बढ़ गया. थोड़ी देर बाद मधु ने देखा कि कंडक्टर एक वृद्ध व्यक्ति को डपट रहा था. तुम लोगों का यही रोज का काम है. पैसे रहते नहीं है मुफ्त में आ जाते हैं सवारी करने. बूढ़ा व्यक्ति हाथ जोड़े उसके सामने गिड़गिड़ा रहा था. बेटा ले चलो मेरी पत्नी बहुत बीमार है वह घर में मेरा इंतजार कर रही है. किंतु उसकी बातों का कंडक्टर पर कोई असर नहीं हुआ. कंडक्टर ने उसे बस से उतार दिया. मधु उस वृद्ध व्यक्ति की कातर आँखों को देखकर द्रवित हो गई. उसने कंडक्टर से कहा कि वह उसके टिकट के पैसे दे देगी. वह उसे वापस बस में चढ़ा ले. कंडक्टर ने समझाया कि ऐसे बहुत लोग होते हैं जो पैसे नहीं रखे होते और बस में सफर करना चाहते हैं. हम कितने लोगों पर दया दिखाएँगे. उन्होंने कहा कोई बात नहीं भैया आप उसके टिकट के पैसे मुझसे ले लीजिए. बस कंडक्टर ने उस वृद्ध व्यक्ति को पुनः बस में बैठा लिया. वह वृद्ध व्यक्ति मधु को बार-बार धन्यवाद देने लगा. उसकी आँखों में कृतज्ञता के आँसू थे.

मधु ने हाथ जोड़कर कहा कोई बात नहीं बाबा. मधु को आज उस वृद्ध की मदद करके शांति का अनुभव हो रहा था.



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रात्रि कहानी

रचनाकार- संकलित

ratri

सर! मुझे पहचाना?'

'कौन?'

'सर, मैं आपका स्टूडेंट, 40 साल पहले का.

'ओह! अच्छा. आजकल ठीक से दिखता नही बेटा और याददाश्त भी कमज़ोर हो गयी है. इसलिए नही पहचान पाया. खैर. आओ, बैठो. क्या करते हो आजकल?' उन्होंने उसे प्यार से बैठाया और पीठ पर हाथ फेरते हुए पूछा.

'सर, मैं भी आपकी ही तरह टीचर बन गया हूँ.'

'वाह! यह तो अच्छी बात है लेकिन टीचर की तनख़ाह तो बहुत कम होती है फिर तुम कैसे?'

'सर. जब मैं सातवीं क्लास में था तब हमारी कलास में एक वाक़िआ हुआ था. उस से आपने मुझे बचाया था. मैंने तभी टीचर बनने का इरादा कर लिया था. वो वाक़िआ मैं आपको याद दिलाता हूँ. आपको मैं भी याद आ जाऊँगा.'

'अच्छा! क्या हुआ था तब?'

'सर, सातवीं में हमारी क्लास में एक बहुत अमीर लड़का पढ़ता था. जबकि हम बाक़ी सब बहुत ग़रीब थे. एक दिन वोह बहुत महंगी घड़ी पहनकर आया था और उसकी घड़ी चोरी हो गयी थी. कुछ याद आया सर?'

'सातवीं कक्षा?'

'हाँ सर. उस दिन मेरा दिल उस घड़ी पर आ गया था और खेल के पीरियड में जब उसने वह घड़ी अपने पेंसिल बॉक्स में रखी तो मैंने मौक़ा देखकर वह घड़ी चुरा ली थी.

उसके बाद आपका पीरियड था. उस लड़के ने आपके पास घड़ी चोरी होने की शिकायत की. आपने कहा कि जिसने भी वह घड़ी चुराई है उसे वापस कर दो. मैं उसे सज़ा नहीं दूँगा. लेकिन डर के मारे मेरी हिम्मत ही न हुई घड़ी वापस करने की.'

'फिर आपने कमरे का दरवाज़ा बंद किया और हम सबको एक लाइन से आँखें बंद कर खड़े होने को कहा और यह भी कहा कि आप सबकी जेब देखेंगे लेकिन जब तक घड़ी मिल नहीं जाती तब तक कोई भी अपनी आँखें नहीं खोलेगा वरना उसे स्कूल से निकाल दिया जाएगा.'

'हम सब आँखें बन्द कर खड़े हो गए. आप एक-एक कर सबकी जेब देख रहे थे. जब आप मेरे पास आये तो मेरी धड़कन तेज होने लगी. मेरी चोरी पकड़ी जानी थी. अब जिंदगी भर के लिए मेरे ऊपर चोर का ठप्पा लगने वाला था. मैं पछतावे से भर उठा था. उसी वक्त जान देने का इरादा कर लिया था लेकिन, लेकिन मेरी जेब में घड़ी मिलने के बाद भी आप लाइन के आख़िर तक सबकी जेब देखते रहे. और घड़ी उस लड़के को वापस देते हुए कहा, 'अब ऐसी घड़ी पहनकर स्कूल नहीं आना और जिसने भी यह चोरी की थी वह दोबारा ऐसा काम न करे. इतना कहकर आप फिर हमेशा की तरह पढाने लगे थे.'कहते कहते उसकी आँख भर आई.

वह रुंधे गले से बोला, 'आपने मुझे सबके सामने शर्मिंदा होने से बचा लिया. आगे भी कभी किसी पर भी आपने मेरा चोर होना जाहिर न होने दिया. आपने कभी मेरे साथ फ़र्क़ नहीं किया. उसी दिन मैंने तय कर लिया था कि मैं आपके जैसा टीचर ही बनूँगा.'

'हाँ हाँ, मुझे याद आया.' उनकी आँखों मे चमक आ गयी. फिर चकित हो बोले, 'लेकिन बेटा, मैं आजतक नहीं जानता था कि वह चोरी किसने की थी क्योंकि जब मैं तुम सबकी जेब देख कर रहा था तब मैंने भी अपनी आँखें बंद कर ली थीं.'



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आम का पेड़

रचनाकार- संकलित

mango tree

एक बच्चे को आम का पेड़ बहुत पसंद था.जब भी फुर्सत मिलती वो आम के पेड़ के पास पहुच जाता. पेड़ के ऊपर चढ़ता, आम खाता, खेलता और थक जाने पर उसी की छाया मे सो जाता. उस बच्चे और आम के पेड़ के बीच एक अनोखा रिश्ता बन गया. बच्चा जैसे-जैसे बडा होता गया वैसे-वैसे उसने पेड़ के पास आना कम कर दिया. कुछ समय बाद तो बिल्कुल ही बंद हो गया. आम का पेड़ उस बालक को याद करके अकेला रोता.

एक दिन अचानक पेड़ ने उस बच्चे को अपनी तरफ आते देखा और पास आने पर कहा,

'तू कहाँ चला गया था? मैं रोज तुम्हें याद किया करता था. चलो आज फिर से दोनों खेलते हैं.'

बच्चे ने आम के पेड़ से कहा,

'अब मेरी खेलने की उम्र नहीं है. मुझे पढना है, लेकिन मेरे पास फीस भरने के पैसे नहीं है.'

पेड़ ने कहा,

'तू मेरे आम लेकर बाजार मे बेच दे, इससे जो पैसे मिले अपनी फीस भर देना.'

उस बच्चे ने आम के पेड़ से सारे आम तोड़ लिए और उन सब आमों को लेकर वहाँ से चला गया. उसके बाद फिर कभी दिखाई नहीं दिया. आम का पेड़ उसकी राह देखता रहता.

एक दिन वह फिर आया और कहने लगा, अब मुझे नौकरी मिल गई है, मेरी शादी हो चुकी है. मुझे मेरा अपना घर बनाना है, इसके लिए मेरे पास अब पैसे नहीं है.'

आम के पेड़ ने कहा, 'तू मेरी सभी डाली को काट कर ले जा, उससे अपना घर बना ले.' उस जवान ने पेड़ की सभी डाली काट ली और ले के चला गया.

आम के पेड़ के पास अब कुछ नहीं था वह अब बिल्कुल बंजर हो गया था.

कोई उसे देखता भी नहीं था.

पेड़ भी अब उस बालक/जवान उसके पास फिर आयेगा यह उम्मीद छोड दी थी.

फिर एक दिन अचानक वहाँ एक बूढा आदमी आया. उसने आम के पेड़ से कहा,

'शायद आपने मुझे नहीं पहचाना,

मैं वही बालक हूँ जो बार-बार आपके पास आता और आप हमेशा अपने टुकड़े काटकर मेरी मदद करते थे.'

आम के पेड़ ने दु:ख के साथ कहा,

'पर बेटा मेरे पास अब ऐसा कुछ भी नहीं जो मैं तुम्हें दे सकूँ.'

वृद्ध ने आँखों में आँसू लिए कहा,

'आज मैं आपसे कुछ लेने नहीं आया हूँ, बल्कि आज तो मुझे आपके साथ जी भरके खेलना है, आपकी गोद मे सर रखकर सो जाना है.' इतना कहकर वो आम के पेड़ से लिपट गया और आम के पेड़ की सूखी हुई डाली फिर से अंकुरित हो उठी. वह आम का पेड़ कोई और नहीं हमारे माता-पिता हैं.



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