लेख

महिला

रचनाकार- किशन सनमुखदास भावनानी

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भारतीय कला और संस्कृति विश्व प्रसिद्ध है. भारतीय संस्कृति महिलाओं को देवी के प्रतीक के रूप में सम्मान देती रही है. हम सुनते आ रहे हैं और देखते भी हैं कि, भारत में महिलाओं का जितना सम्मान है, उतना शायद ही विश्व में किसी अन्य देश में हो क्योंकि भारत हजारों साल से आध्यात्मिक, सेवाभावी, परोपकारी, दयावान और पारदर्शी विचारों वाला देश रहा है. भारत अनेक संत महात्माओं की जन्मभूमि भी है. यही ऐतिहासिक धरोहर और अनेकों मान्यताओं को देखने के लिए विश्वभर के सैलानी भारत आते हैं और प्रभावित होकर जाते हैं. क्योंकि मानवता की सच्ची मिसाल सबसे अधिक भारत में ही देखने मिलती है, जिसमें धर्मनिरपेक्षता चार चाँद लगा देती है.

भारतीय समाज में महिलाओं के प्रति गहरे सम्मान की भावना एक श्लोक में वर्णित है, जिसमें कहा गया है, जहाँ एक महिला का सम्मान किया जाता है, वह स्थान दिव्य गुणों, अच्छे कर्मों, शांति और सद्भाव के साथ भगवान का निवास स्‍थल बन जाता है. हालाँकि, अगर ऐसा नहीं किया जाता है, तो सभी कार्यकलाप निष्‍फल हो जाते हैं. अगर हम भारत में महिलाओं के लिए सुरक्षित व अनुकूल माहौल तैयार करने की बात करें तो केंद्र व राज्य सरकारें इसके लिए पूरी तरह से प्रतिबद्ध है और हम देखते हैं कि ढेर सारी सुविधाओं, प्राथमिकताओं के साथ महिलाओं का सम्मान होता है लेकिन मीडिया के माध्यम से हम अभी भी देखते सुनते आ रहे हैं कि महिलाओं के साथ भेदभाव, क्रूरता और हैवानियत भी होती रहती है जिसके लिए हमें वैचारिक परिवर्तन की ज़रूरत है. आज भी अनेक क्षेत्रों में महिलाओं पर पुराने ज़माने की कुप्रथाएँ, बंधन, रीति-रिवाज, मान्यताएँ, धार्मिक-प्रतिबंध इत्यादि के बंधन में रखा जाता है. हालाँकि इसके खिलाफ अनेक अधिनियम भी बने हैं परंतु अब ज़रूरत है वैचारिक परिवर्तन और जन जागरण अभियान चलाने की. अगर हम ऐसे क्षेत्रों की बात करें जहां अभी भी महिलाएँ सामाजिक, धार्मिक, बंधनों में हैं.

शुरुआत हमें खुद से करनी होगी कि महिलाओं के प्रति भाव, भाग्य, देवी का नज़रिया तैयार करें. महिलाओं के लिए सुरक्षित व अनुकूल माहौल तैयार करने की जवाबदारी की शुरुआत, हर नागरिक खुद करें और भारत की प्रगति तेज़ करने के लिए महिलाओं को आगे करके उन्हें प्रोत्साहित करना होगा. अगर हम युवाओं की बात करें तो उनमें प्रोत्साहन और अद्भुत ऊर्जा उत्साह की अनूठी शक्ति का संचार कर भारत की प्रगति को और तेज़ किया जा सकता है, जिसके आधार पर हम विजन-2047 में वैश्विक रूप से सर्वशक्तिमान देश के रूप में उभरेंगे. वर्तमान भारत आजादी के अमृत महोत्सव का समारोह मना रहा है, यह महिला सशक्तिकरण की दिशा में हमारे देश में जारी प्रयासों का भी उत्‍सव है. महिलाओं ने आज राष्ट्र निर्माण और इसके सशक्तीकरण के लिए अग्रणी प्रतिनिधियों के तौर पर अपना उचित और समान स्थान ग्रहण करना प्रारंभ कर दिया है. अगर हम दिनांक 18 सितंबर 2021 को भारत के उपराष्ट्रपति द्वारा संसद भवन में एक कार्यक्रम में संबोधन की बात करें तो उन्होंने भी जोर देकर कहा कि, भारतीय संस्कृति हमेशा ही महिलाओं को देवी के प्रतीक के रूप में सम्मान देती रही है. समानता के लिए भरतियार की सोच का उल्लेख करते हुए, उन्होंने ऐसी सभी बाधाओं और भेदभाव को खत्म करने की जरूरत पर जोर दिया, जो जाति, धर्म, भाषा और लैंगिक आधार पर समाज को बाँटते हैं. उन्होंने युवाओं से राष्ट्र निर्माण के उद्देश्य में खुद को समर्पित करने और एक विकसित भारत- गरीबी, निरक्षरता, भूख और भेदभाव से मुक्त भारत के निर्माण के उद्देश्य से आगे आने के लिए कहा. उन्होंने कहा, मुझे भरोसा है कि हमारा युवा अपनी अद्भुत ऊर्जा और उत्साह के साथ भारत की प्रगति और तेज़ विकास को सक्षम बना सकता है. उन्होंने आज महिलाओं के खिलाफ सभी प्रकार के भेदभावों को खत्म करने का आह्वान किया और सभी से उनके लिए सुरक्षित व अनुकूल माहौल तैयार करने का अनुरोध किया, जिससे वे आगे बढ़ सकें और अपनी पूरी क्षमता हासिल कर सकें. अतः अगर हम उपरोक्त पूरे विवरण का अध्ययन और विश्लेषण करें तो हम पाएंगे कि महिलाओं के लिए सुरक्षित व अनुकूल माहौल तैयार करना अत्यंत जरूरी है वैसे भारतीय संस्कृति हमेशा ही महिलाओं को देवी के प्रतीक के रूप में सम्मान देती है जो भारत के लिए गौरव की बात है.



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कबाड़ में जुगाड़

रचनाकार- अशोक कुमार पटेल

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भरी दोपहरी का समय था.सिर पर सूरज की गर्मी सीधी पड़ रही थी.ऐसे ही समय पर हांफते और पसीने से तर-बतर एक कचड़ा उठाने वाला आदमी कबाड़ी की दुकान में आकर खड़ा हो जाता है और अपने आठ साल के बेटे की ओर इशारा करते हुए कहता है. 'बेटा भोलू जरा मेरी सहायता करना'

भोलू, जी पिता जी कहता हुआ उसके पीठ में लदे बोरी के गट्ठे को सहारा देते हुए नीचे उतारता है. फिर भोलू के पिताजी कहते है 'जरा अपना हाथ देना' 'जी पिता जी' कहता हुआ भोलू आगे बढ़ता है और उस बोरी के गट्ठे को सहारा देते हुए उसे कबाड़ी की दुकान में लगे तराजु के पास ले जाने में अपना सहयोग प्रदान करता है.

ठीक इसी समय उसकी नज़र पास के कबाड़ में पड़ी एक टूटी-फूटी जंग लगी सायकल पर पड़ती हैं. उस सायकल को देखकर वह उसके पास पहुंच गया और उसे सहलाने लगा. सहलाते हुए उसके बाल मन पर सुख और आनन्द की उजली किरण की भविष्य नज़र आने लगी,और वह भोलू गहरी सोंच के सागर में डूब गया.

तभी उसके पिता जी ने आवाज लगायी- 'भोलू-भोलू' 'कहां चला गए?' 'अरे, वहाँ क्या देख रहे हो?' तभी भोलू हड़बड़ा कर कहता है- 'जी पिता जी,'

मैं इस कबाड़ में पड़ी सायकल को देख रहा था. भोलू धीमी आवाज में जवाब देता है. उसके पिता जी उसकी जिज्ञासा और गहरी सोंच को अनदेखा करते हुए कहता है- 'अरे,बेटा उस कबाड़ में पड़ी टूटी-फूटी जंग लगी सायकल को क्या देख रहे हो,जो किसी काम की नहीं रह गई है,'

तभी मौका पाकर उसका बेटा भोलू कहता है- पिताजी, पिताजी, 'वह सायकल मुझे दिला दो न,' उसके पिता जी कहते है- ये क्या बोल रहे हो बेटा? हम लोग कचड़ा बीनने वाले हैं, बेटा, और उस कचड़े से जो उपयोगी होता है उसे कबाड़ी दुकान में बेच देते हैं,हम लोग बेचने वाले हैं, न कि खरीदने वाले.

भोलू उसके पिता जी की बातों को गम्भीरता पूर्वक सुन रहा था उसके बाल मन पर कुछ और ही चल रहा था. तभी वह अपने पिता जी को कबाड़ी दुकान के बगल में लाकर यह बात कहता है- 'पिता जी आप बोरी को पीठ में लादकर कितनी तकलीफें झेलते हैं मुझे देखकर बड़ी पीड़ा होती है क्यो न हम इस सायकल को खरीदकर उसे सुधारकर इसका उपयोग करें,इससे आपकी तकलीफें भी दूर होगी और आसानी से हम इसमें बोरी को लादकर कबाड़ी दुकान भी ला सकेंगे.'

बेटा भोलू की बात सुनकर मानो उसके पिता जी की आंखे खुल गई और हामी भरते हुए उसने अपने बेटे से कहा- 'ठीक है बेटा, 'हम यह सायकल खरीद लेते हैं'

तभी भोलू के पिता जी गहरी सांस लेते हुए अपने बेटे से कहता है कि- 'बेटा पर इसे खरीदने के लिए हमारे पास तो इतने पैसे भी नही है, उस कबाड़ी वाले को पैसा कंहा से देंगे?' तभी उसका बेटा कहता है- 'पिता जी हम लोग उपयोगी कचड़ा यहां बेचने तो आते ही हैं जब सायकल रहेगी तो हम और ज्यादा उपयोगी कचड़ा लाएंगे और उससे जो कमाई होगी उससे उसका भरपाई करते जाएंगे.'

बेटा भोलू की बात पिता जी को उचित जान पड़ी और उसकी बात को मानकर उस कबाड़ी वाले को वस्तु स्थिति से अवगत कराकर वह सायकल खरीद ली, और वह कबाड़ी वाला भी मान गया.

भोलू खुश हो गया दोनों ने मिलकर सायकल को सुधार डाली,उससे सुंदर काम करने लगे और कुछ ही दिनों में भोलू के पिता जी ने सायकल की उधारी चुकता कर डाली.

अचानक एक दिन भोलू की नजर छोटे-छोटे बच्चों को स्कूल जाते देखा,उसने अपने पिता जी से कहा- 'पिता जी मैं भी स्कूल जाना चाहता हूं. सुबह कचड़ा बीनने जाया करेंगे और वापस आने के बाद आप मुझे दस बजे उसी सायकल से स्कूल छोड़ दिया करेंगे.'

भोलू की इस सुंदर बातों को सुनकर पिता जी प्रसन्न हो जाता है और अपने बेटे को कहता है- ठीक है बेटा, ठीक है, फिर भोलू को उसके पिता जी स्कूल में भर्ती कर देता है, वह स्कूल जाने लगता है और अपने बेटे को स्कूल जाता देख बहुत प्रसन्न हो जाता है.

इधर भोलू के पिता जी कुछ एक दिन कचड़ा बीनने के पश्चात उस काम को छोड़कर उसी सायकल से अपना खुद का व्यवसाय सब्जी बेचने का काम करने लगा. इस व्यवसाय से उसकी माली हालत सुधरने लगी.उसकी आर्थिक स्थिति भी सुधर गई,फिर अपने बेटे की सकारात्मक सोंच को याद करते हुए और शाबाशी देते हुए उसे अच्छी शिक्षा और संस्कार दिलाने की कमर कस ली, और फिर उसके पिता जी ने भोलू को अपने हृदय से लगा लिया.



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पितृपक्ष

रचनाकार- गौरीशंकर वैश्य विनम्र

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भारतीय काल गणना में वर्ष सौरमान से लिया जाता है. अतः संक्रांतियों के अनुसार काल विभाजन के क्रम में एक सौर में 360 अंश एवं 360 ही सौर दिन होते हैं जिसमें षडशीतिमुख नाम की चार संक्रांतियाँ होती हैं जो तुला राशि की संक्रांति के बाद से 86-86 अंश (सौर दिन) करके कन्या के 14 अंश तक आ जाती हैं.

इस क्रम में 16 दिन सौर वर्ष में बच जाता है, जिसे यज्ञ समान फल देने वाला कहकर पितरों को दे दिया गया है. 

विश्व में भारतीय संस्कृति का कोई सानी नहीं है. हमारे प्रत्येक कर्तत्व, पर्व और परंपरा में यह बात स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है. पितृ पक्ष या श्राद्ध पर्व भी कुछ ऐसा ही है. जिन पूर्वजों के गुण, कौशल और आनुवांशिकी हमें विरासत में मिले और जिनके कारण हमारा अस्तित्व है, उनके प्रति हम श्राद्ध पर श्रद्धा, कृतज्ञता, आस्था और सम्मान प्रकट करते हैं. हमारे शास्र में तीन ऋण बताए गए हैं- देव, ऋषि और पितृ ऋण. पितृ ऋण से उऋण होने के लिए श्राद्ध कर्म किया जाता है. जिसके फलस्वरूप मनुष्य आध्यात्मिक, आधिदैविक, आधिभौतिक उन्नति को प्राप्त कर सकता है. उन संस्मरणों के पुनः स्मरण और उनके द्वारा प्रदत्त संस्कार और विरासत को नई पीढ़ी में रोपने, उनके अनुपालन और अनुशीलन का पर्व है-श्राद्ध कर्म. सांस्कृतिक, वैज्ञानिक और सामाजिक दृष्टिकोण से देखें तो इन 16 दिनों में हम नवागत पीढ़ी को पूर्वजों से परिचित कराते हैं.

प्राचीन काल में श्रुति के आधार पर ही संपूर्ण समाज चलता था. नई पीढ़ी अपने पूर्वजों के इतिहास से परिचित हो, उन पर गौरवबोध करे, उन्हें कालबाह्य न समझे, इसी परंपरा का निर्वहन है श्राद्ध पर्व. कौवों, कुत्तों और गायों को अन्न का अंश निकालकर देना मनुष्य को पशु-पक्षियों और प्रकृति के साथ सहभागिता को प्रकट करता है. जो समाज वृक्षों, नदियों, पर्वतों और स्थलों को पूजनीय और वंदनीय मान रहा हो, उसके लिए पूर्वजों के निमित्त श्राद्ध पर्व अत्यंत महत्वपूर्ण तो होना ही है.

नवरात्र के अंतर्गत अनंत रूपों और अनंत गुणों में दिव्य माँ की पूजा की जाती है, देवी की पूजा करने के पहले हमें पितरों के आशीर्वाद की आवश्यकता होती है. उन्हें तर्पण अर्पित किया जाता है. यह परंपरा अपने देश में हजारों वर्षों से चली आ रही है. दुनियाभर की परंपराओं में दिवंगत लोगों को स्मरण करने की प्रथाएँ हैं. सिंगापुर में यह एक उत्सव की भाँति है- एक सार्वजनिक अवकाश. दक्षिण अमेरिका, अफ्रीका और आस्ट्रेलिया के मूल निवासियों में भी दिवंगत लोगों को स्मरण करने के लिए समारोह होते हैं. ईसाई परंपरा में 'आल सोल्स डे' (सर्व आत्मा दिवस) इसी उद्देश्य से मनाते हैं.

पितरों की आराधना का यह पुण्य काल प्रति वर्ष आश्विन कृष्ण पक्ष में आता है. इसके पहले ही दिन पितरों का अपने वंशजों के बीच धरती पर आह्वान किया जाता है, श्रद्धापूर्वक उनका श्राद्ध- तर्पण कर स्वागत और स्तुति गान किया जाता है. इससे प्रसन्न हो, वे वंशवृद्धि, यश- कीर्ति, सुख- समृद्धि समेत मंगलमय जीवन का आशीष दे जाते हैं. यह सब हमारी संस्कृति और परंपराओं में से एक श्राद्ध पर्व है. अब सोचें भला किसी भी घर का ऐसा कौन पूर्वज होगा जिसे घर में कोई शुभ कर्म होना या धन- संपदा के रूप में खुशहाली आना या नए सामान के रूप में कुछ खरीदारी करना, पसंद न हो, चाहे वे बुजुर्ग हमारे बीच में भौतिक रूप से विद्यमान हों या सूक्ष्म रूप में.

पितृ पक्ष के बारे में कुछ ऐसी धारणा बना दी गई है कि इन दिनों कोई नया काम नहीं कर सकते. यह धारणा कब बनी और किसने बनायी, किसी को नहीं पता. बस आँख मूँदकर उसका पालन किए जा रहे हैं. ऐसे में जो चीजें हमारे वश में होती हैं, वे तो हम कर लेते हैं और उसके पक्ष- विपक्ष में तर्क भी गढ़ लेते हैं लेकिन विचार करें कि यदि पितृ पक्ष में परिवार में संतान का जन्म हो तो इसे अशुभ कहेंगे. इसका सरलार्थ यह है कि यह सारी भ्रांति और अंधविश्वास समय के साथ- साथ भले ही फैला दी गई हो लेकिन आधुनिक समय में इनसे चिपके रहने का कोई औचित्य दृष्टिगत नहीं होता.

काशी हिंदू विश्वविद्यालय के ज्योतिष विभागाध्यक्ष प्रो ० विनय पाण्डेय के अनुसार पितृ पक्ष में पितरों के उद्देश्य से किया गया कर्म जैसे दान, तर्पण, श्राद्ध आदि यज्ञ के समान अक्षुण्ण फल देने वाला होता है तथा पितृऋण से मुक्ति प्रदान कर धन- धन्यादि से संपन्न करता है. इस काल में कोई भी नया काम करना या खरीदारी करना अशुभ नहीं है. श्री काशी विद्वत परिषद के वरिष्ठ पदाधिकारी डॉ रामनारायण द्विवेदी के अनुसार पितृपक्ष पितरों के श्रद्धा समर्पित करने और उनसे सुख- समृद्धि का शुभाशीष प्राप्त करने का पर्व है. इस अवधि में भू- भवन या संपत्ति की खरीद पितरों को तृप्त करेगी. शास्त्रों में पितृपक्ष शुभ पक्ष है. तुलसीदास जी ने शिव को पितर कहा है. ऐसा समय शुभ कार्यों और खरीद- बिक्री के लिए निषेध नहीं है. आचार्य शिवशंकर पाण्डेय का कहना है- शास्र में लिखा तो यह गया है कि पूर्वजों का प्रतिदिन स्मरण करना चाहिए. जो प्रतिदिन विधि- विधान से उनका पूजन नहीं कर सकते, उनके लिए पितृपक्ष का प्रावधान किया गया है. इस काल में किसी भी खरीदारी को लेकर प्रतिबंध नहीं है. पितृ तो हमारे देवता समान हो गए तो वे अशुभ कहाँ से हो गए. हमें रूढ़ियों से मुक्त होना चाहिए.

विद्वज्जन बताते हैं कि पितरों का स्थान देव कोटि में आता है. उन्हें विवाह जैसे शुभ-कर्म में आमंत्रित किया जाता है. पितृपक्ष उनके स्मरण और श्राद्ध का काल है. ऐसे में होना यह चाहिए कि हम इतनी खरीदारी करें कि वे हमारी समृद्धि देखकर प्रसन्न हों. पितृपक्ष चातुर्मास में पड़ता है, इस अवधि में मुहूर्त नहीं होते. ऐसे में मांगलिक कार्य जैसे विवाह आदि वर्जित हैं. इसके अतिरिक्त न तो यह अशुभ काल है और न ही अन्य वर्जना. इस अवधि में दूकान- मकान का क्रय-विक्रय, गृहारंभ, गृहप्रवेश जैसे कार्य हो सकते हैं. अतः इन दिनों में कुछ शुभ कार्य न करना, नई वस्तु न खरीदना जो भ्रांति फैली हुई है, उसका न कोई शास्त्र सम्मत आधार है और न ही तर्कसंगत है.

समय आ गया है, जब हम अपनी संस्कृति और परंपरा के वास्तविक अर्थ, आशय, संदेश और उद्देश्य को समझें. इसके बीच किसी रूढ़िवादिता, भ्रांति और अंधविश्वास का औचित्य नहीं है और हमें चाहिए कि अतार्किक सोच से शीघ्रातिशीघ्र छुटकारा पाएँ. पितरों को प्रसन्न करने, उनकी आराधना और स्तुति का इससे अच्छा तरीका और कुछ नहीं हो सकता कि इस पितृपक्ष में शुभ- अशुभ भ्रांतियों का तर्पण अवश्य करें. अच्छे कार्य के लिए कोई शुभ- अशुभ समय नहीं होता. आवश्यक है कि यह कार्य अच्छे ढंग से संपन्न हो जाए. अभी कम कीमत पर मिलने वाला सामान बाद में शुभ समय समझकर अधिक मूल्य पर खरीदना भला कहाँ की समझदारी कही जाएगी. वास्तव में भ्रांतियों से जितनी जल्दी छुटकारा मिले, हम सब की खुशहाली के लिए उतना ही श्रेयस्कर होगा.



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फुगड़ी

रचनाकार- रजनी शर्मा बस्तरिया

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रानू और उसकी बहन बस्तर के गाँव में छुट्टियां मनाने गईं. उन्हे गाँव के एक घर में बैठने का इशारा किया गया और कहा गया 'बसा री'.

रानू ने इशारे से समझ लिया कि उसे बैठने के लिए कहा जा रहा है. वह मुस्कुराकर बैठ गई. इतने में कई और ग्रामीण बच्चे भी वहाँ आ पहूँचे.

घर के मालिक ने गोंडी में उन सबसे उद्दा उद्दा कहा. अर्थात बैठिए.गाँव का गुड़ खाकर रानू ने देखा कि सारे बच्चे उकडूँ बैठकर एक खेल खेलने लगे. उसने पूछा कि ये कौन सा खेल खेल रहे हैं. महिला ने मुस्कराकर कहा ये उकडूँ बैठ कर खेला जाने वाला खेल है जिसे फुगड़ी कहा जाता है. रानू भी उतावली होने लगी.वह भी उकडूँ बैठने की कोशिश कर खेलने लगी.

बच्चों ने गाना शुरू कर दिया

उद्दा उद्दा उखडू,

फुग्गा फुग्गा फुगड़ी.

रानू खिलखिला उठी.आज उसने फुगड़ी का खेल भी सीख लिया और उसके शब्दकोष में भी वृद्धि हो गई कि बैठना को हल्बी में बसा कहा जाता है और गोंडी में बैठने को उद्दा कहा जाता है.



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नारी जाति का अस्तित्व

रचनाकार- सीमा यादव

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कहते हैं किसी स्त्री में तब तक सम्पूर्णता नहीं आती है, जब तक कि वह माँ नहीं बन जाती है. माँ होने का गौरव अपने आप में ईश्वर और प्रकृति का अनुपम उपहार है. जो कि हर किसी के भाग्य में नहीं होता. स्त्री होकर किसी संतति को जन्म न दे पाना उनकी वंध्या होने की पहचान है. उनके स्त्रीत्व पर अनेकानेक प्रश्नवाचक चिन्ह लग जाते हैं. इस दारुण दुःख को उस स्त्री से ज्यादा भला कौन बता सकता है. जो कि पति के साथ होते हुए भी इस असहनीय दर्दनाक पीड़ा की अनुभूति को प्रतिपल सहन करती है. ऐसी स्त्री को समाज का एक तबका क्या, समाज, रिश्ते से जुड़े स्वयं सभी स्त्रियाँ ही हेय नजरों से देखती हैं. आखिर क्यों? क्या स्त्री में बच्चा ही पूर्णता लाता है. क्या संतान पैदा करेगी तभी वह स्त्री जाति की गिनती में होगी यह बहुत ही दुःखदायी प्रतिक्रिया है उस स्त्री के लिए जिनके अस्तित्व को उनकी माँ बनने या न बन पाने की स्थिति से आँकलन किया जाता है.

स्त्री किसी संतति को अपने गर्भ से जन्म दे या न दें. इस बात से स्त्री की ममता की हत्या नहीं होनी चाहिए. एक स्त्री में ममत्व होता ही है. क्योंकि बच्चा पैदा करने का उनके मूल स्वभाव से क्या कोई सरोकार है? नहीं!बिल्कुल नहीं!आपने विशेष परिस्थिति में कभी न कभी एक स्त्री के कोमल स्वभाव के बारे में महसूस किया होगा कि वह चाहे किसी भी भूमिका में हो, किन्तु उसके भीतर की ममता जाग ही जाती है. वो एक बेटी की भूमिका में होगी तो भी अपने पिता को माँ सी ममता देती है. एक पत्नी अपने पति की परवाह माँ की जैसी ही करती है. इसी प्रकार और भी कई बातों या हालातों में घर की स्त्रियां या बेटियाँ माँ जैसा ही व्यवहार करती हैं. फिर प्रश्न यह उठता है कि केवल एक कमी के कारण उनके सम्पूर्ण वजूद या अस्तित्व पर कलंक क्यों लगा दिया जाता है? क्या उनका वजूद सिर्फ इसी से होता है कि वह एक बच्चे की माँ हो जाय? या फिर किसी लड़का या लड़की को चाहे जिस किसी भी तरीके से अपने शरीर से ही उत्पन्न करें?ऐसा तो किसी भी शास्त्र में नहीं लिखा है कि एक स्त्री में ममता तब तक नहीं होती है, जब तक कि वह स्वयं किसी बच्चे की माँ नहीं बन जाती है.

स्त्रियां स्वभाव से ही सरल, कोमल एवं निश्छल चरित्र वाली होती हैं. इतिहास में भले ही कई स्त्रियों का नाम उनकी निर्ममता, क्रुरता एवं ईर्ष्या स्वभाव के कारण कलंकित हुआ है. और उनमें ये दुर्गुण इसलिये भी उपजा होगा कि कहीं-न-कहीं उनको स्त्रीत्व के प्रति घृणा परिलक्षित हुई होंगी. या और भी बहुत सी वजह हो सकती हैं. जिसके कारण कुछ क्षण के लिए उनके अन्तःकरण से ममत्व जड़ मूल विलुप्त हो गया होगा. क्योंकि स्त्री प्रेम, दया, करुणा, सहानुभूति इत्यादि गुणों की खान होती हैं. उनमें केवल सद्गुण ही सद्गुण होते हैं और अपनी इन्हीं गुणों के कारण स्वर्ग से भी श्रेष्ठ होने का महान् पद से विभूषित हैं. माँ धरती और जननी को वेद, पुराणों एवं शास्त्रों में विद्वानों के द्वारा स्वर्ग से भी श्रेष्ठ बतलाया गया है. उनकी सहनशीलता ही उनके स्त्री होने की परिचायक है. स्त्री स्वयं में अद्भुत शक्ति लेकर पैदा होती हैं और इस निर्मम संसार में तरह -तरह की यातनाएँ झेलकर स्वयं को मिटा बैठती हैं.वे इस निर्मोही संसार से मुक्ति पाकर ईश्वर में तल्लीन होकर भगवद्भक्ति में विलीन हो लेना चाहती हैं. किन्तु पुरुषवादी समाज के भेदभावपूर्ण व्यवहार ने उन्हें कहीं का भी नहीं छोड़ा है. तपती अग्नि में परीक्षा ही जैसे उनकी योग्यता को परखने का मुख्य माध्यम है.एक स्त्री को आजीवन बार-बार अग्नि परीक्षा का भीषण सामना करना पड़ता है. इसी से वह खरा सोना सिद्ध होती हैं. नहीं तो उनकी कीमत एक खोटे सिक्के से भी बद्तर हो जाती हैं.यही सच्चाई है. जो एक स्त्री को जीवन भर असहनीय दारुण व वेदनाओं में बंधकर जीना पड़ता है. कभी स्वयं के लिए, तो कभी औरों के लिए.



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हमारे प्रेरणा स्रोत

डॉक्टर सलीम अली

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बच्चों,

आप रोज आकाश में उड़ने वाले पक्षियों को देखकर सोचते होंगे कि वे कहां से आते हैं और कहां को चले जाते हैं. उनकी प्रकृति कैसी होगी. ऐसे बहुत सारे सवाल आपके मन में आते होंगे. जी हां बच्चों हम बात कर रहे है डॉक्टर मोइजुद्दीन अब्दुल अली की. वह ऐसे शख्स थे जो पक्षियों के व्यवहार और उनकी प्रकृति को समझते थे. वह एक ऐसे पक्षी वैज्ञानिक थे जिन्होंने संपूर्ण भारत में व्यवस्थित रूप से पक्षियों का सर्वेक्षण किया, और पक्षियों पर ढेर सारे लेख और किताबें लिखी. जिन्हे हम बर्ड मैन ऑफ इंडिया के नाम से भी हम जानते हैं.

आइए जानते हैं उन्हें पक्षियों में दिलचस्पी कैसे पैदा हुई. जब वह एक साल के हुए तभी उनके अब्बा चल बसे और 3 साल के थे तब उनकी अम्मी नहीं रही. उनके मामा ने उनकी परवरिश की. एक दिन वह जंगल में अपने मामा के साथ शिकार करने गए. वहां उन्होने एक पक्षी को मार गिराया. उस घायल पक्षी को गोद में उठाकर वह बड़े ध्यान से बार-बार देखते रहे और सोचते रहे. यह कौन सा पक्षी है कहां से आया होगा. वह पक्षी गौरैया जैसा लगता था परंतु उस पक्षी के गले पर पीला धब्बा था सलीम बड़े असमंजस में था. पक्षी के बारे में उसने अपने मामा से पूछा, तो वह भी उस उनके प्रश्नों का उत्तर ना दे सके. यहीं से उनके अंदर पक्षियों के जीवन और उनके अन्य पहलुओं के बारे में जानने की जिज्ञासा पैदा हुई.

इसके बाद उन्होंने सन 1913 में मुंबई विश्वविद्यालय से दसवीं की परीक्षा उत्तीर्ण की. परीक्षा पास कर वह अपने भाई के साथ वर्मा चले गए. वहां उनका इमारती लकड़ियों का व्यवसाय था. उनका मन वहां व्यवसाय में नहीं लगता. वह वहां भी ज्यादातर समय जंगल में चिड़ियाओं को देखने में गुजार दिया करते थे. उनके व्यवहार से नाराज होकर उनके भाई ने उन्हें वापस मुंबई भेज दिया. सात साल वर्मा में रहने के बाद वह वापस लौटे तो उन्होंने पक्षी शास्त्री विषय में प्रशिक्षण लिया. फिर उन्होंने प्रिंस ऑफ वेल्स म्यूजियम के हिस्ट्री सेक्शन में नौकरी कर ली.

डॉक्टर सलीम ने जर्मनी के बर्लिन विश्वविद्यालय में दाखिला लिया. वहां उन्होने प्रसिद्ध जीब वैज्ञानिक इरविन स्ट्रासमेन से शिक्षा ली. बर्लिन में शिक्षा लेने के बाद वह 1930 में भारत लौट आए. फिर यहां उन्होंने पक्षियों पर अध्ययन प्रारंभ किया. कहा जाता है कि डॉक्टर सलीम पक्षियों की जुबान समझते थे उन्होंने पक्षियों की अलग-अलग प्रजातियों के बारे में अध्ययन किया. उन्होंने देश के कई भागों और जंगलों में भ्रमण किया. उन्होंने कुमायूं के जंगलों से बया पक्षी की एक ऐसी प्रजाति ढूंढ निकाली जो लुप्त घोषित हो चुकी थी. बच्चों कुमायूं क्षेत्र उत्तराखंड राज्य में है. जिसकी सीमा तिब्बत और नेपाल से भी लगती है. यहां साइबेरियन सारस भी प्रवास पर आते हैं. डॉक्टर सलीम ने उन्हें भी नजदीक से देखने का प्रयास किया. उन्होंने उनका बारीकी से अध्ययन कर यह मालूम किया कि साइबेरियन पक्षी मांसाहारी नहीं होते, बल्कि वह पानी के किनारे पर जमी काई खाते हैं.

डॉक्टर सलीम ने पक्षियों को पकड़ने के लिए प्रसिद्ध डॉ एंड फायर व डक्कन विधि की खोज की. इस विधि में पक्षियों के साथ दोस्ताना व्यवहार किया जाता है. इसमें पक्षियों को बिना कष्ट पहुंचाए पकड़ा जा सकता है. इस विधि में पक्षियों के व्यवहार, गुण-अवगुण, प्रवासी आदतों पर रिसर्च किया जाता है. इसके बाद उन्होंने एक पुस्तक भी लिखी द फॉल ऑफ ए स्पैरो. जिसमें उन्होंने पक्षियों के बारे में अनेक रोचक और महत्वपूर्ण जानकारियां दी.

डॉक्टर सलीम को उनके कार्यों के लिए कई सम्मान भी मिले. है. वह बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी में एक महत्वपूर्ण पद पर कार्यरत थे. उनके महत्वपूर्ण कार्यों के लिए उन्हें भारत सरकार ने भी सन 1976 में पद्म विभूषण से नवाजा. उनके नाम पर जम्मू कश्मीर में एक राष्ट्रीय उद्यान भी है.

डॉक्टर सलीम द्वारा लिखित यह पंक्ति-

कौन पूछता है पिंजरे में बंद पंछियों को
याद वही आते हैं जो उड़ जाते हैं

बच्चों यह थे डॉक्टर सलीम जिन्होंने बचपन में अपने मां-बाप को खोने के बाद भी हार नहीं मानी. आर्थिक परेशानी के बाद भी उन्होंने कठिन परिश्रम से देश का नाम रौशन किया. इसी वजह से वह आज हमारे प्रेरणा स्रोत हैं.



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भगवान का स्वरूप

रचनाकार- सीमा यादव

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भ-भूमि, ग-गगन व-वायु, अ-अग्नि, न-नीर. हमारा शरीर इन्हीं पाँच तत्वों से मिलकर बना है. जब तक प्राण में साँस चलती है,तब तक शरीर जिन्दा होता है और जब साँस रुक जाती है, तो शरीर निष्प्राण होकर मृत हो जाता है. अंत में इन्हीं पंच तत्वों में पूरा शरीर विलीन हो जाता है. जब तक व्यक्ति जीवित रहता है, तब तक वह धरातल पर कुछ-न-कुछ कर्म अवश्य करता है. इसी से शरीर गतिमान होकर सक्रिय रूप से कार्य कर पाता है. और आजीवन शुभ-अशुभ कर्मों को करके अंत में इस संसार के प्रति वैराग्य धारण करके विरक्त हो जाता है. सारे रिश्ते-नातों से मोह छूटने लगता है.ऐसे व्यक्ति अनासक्त भाव से संसार सागर से निकलने के बहुत से उपक्रम करते रहते है. किन्तु अपने पूर्व जन्म के प्रारब्ध से वह अल्पायु या दीर्घायु होकर जीवन जीता है.

जन्म-मरण का यह चक्र चलता-रहता है. कई कल्प बीत गये हैं. कईयों महापुरुष हुए हैं. जिनका वर्णन करोड़ों मुख से भी नहीं किया जा सकता है. सभी युगों में भगवान के अवतार प्रत्यक्ष-परोक्ष रूपों में हुए हैं, और आगे भी होते रहेंगे. यही अटल सत्य है. भगवान के स्वरूप को जानने व समझने हेतु हमें अपने अन्तःकरण के चक्षु को ज्ञानमय बनाना होगा. जब ज्ञान के विभिन्न रूपों की परिभाषा को हमारा अन्तःकरण समझ लेता है,तभी हम जीवन के यथार्थ स्वरूप को समझने के योग्य हो जाते हैं. जब हम बिना किसी स्वार्थ के, बिना किसी प्रयोजन के परमार्थ के कार्यों या उद्देश्यों में तल्लीन हो जाते हैं, तभी हम भगवान के स्वरूप के दर्शन हेतु एक कदम आगे बढ़ा देते हैं. फिर आप तत्क्षण ही भगवद् भक्ति के मार्ग की दिशा में मग्न हो जाते हैं. जब कोई व्यक्ति यहाँ तक पहुँच जाता है, तब उसके लिए मान-अपमान, भय-शोक,घटा-नफा इत्यादि चीजों से कोई सरोकार नहीं होता है. ऐसा व्यक्ति आत्मोत्थान के लिए ही संघर्षरत होता हैं. वे स्वयं में ही प्रतिस्पर्धा करते रहते हैं. आत्मविजय की प्राप्ति हेतु कितने ही त्याग, दुःख एवं कठिनाईयों से होकर गुजरना पड़ता है. ऐसी तपस्या और उससे मिलने वाली असहनीय पीड़ा को केवल वही अनुभूति या महसूस कर सकता है.

सत्य ही भगवान का साक्षात् स्वरूप है. जहाँ पर सत्य विराजमान होता है, वहाँ पर निश्चय ही भगवान के स्वरूप की प्रत्यक्ष अनुभूति होती है. और यह अनुभूति केवल उन्हीं व्यक्ति को होती है, जो वास्तव में निर्मल, पावन और निश्छल हृदय वाले होंगे. लेशमात्र भी यदि हमारे मन में गंदले विचार, कुटिल पूर्वाग्रह और षड्यंत्र होंगे तो हमें कभी- भी सत्य का ज्ञान नहीं हो सकता. चित्त की शुद्धि सिर्फ और सिर्फ सच्चा ज्ञान ही कर सकता है. जिस प्रकार जल से शरीर शुद्ध और पवित्र होता है, ठीक उसी प्रकार आत्मा और मन की शुचिता के लिए सत्य के निर्मल जल से सिंचित होना होगा. तभी हम तत्वज्ञान की प्राप्ति कर सकने में सफल हो सकेंगे. यदि इतना भी नहीं कर पाये, तो फिर मानव शरीर में आपका जन्म होना व्यर्थ ही होगा. मनुष्य अपने सुकर्मों के कारण अपने हिस्से के दारुण दुःखों से भी छुटकारा पा लेता है. क्योंकि यह सारा जगत कर्म प्रधान के सिद्धांत पर आधारित है.अच्छा कर्म अच्छा परिणाम देता है.सम्पूर्ण सृष्टि में ही शक्ति की माया निवास करती हैं. उन्हीं की प्रेरणा से समस्त चराचर जीव इस संसार में अपना कार्य करते हैं और मुक्ति पाकर पुनः जीवन-मरण के पाश में बंधकर अपने नियोजित कर्मों के प्रतिफल को भोगते हैं. यही भगवान का वास्तविक स्वरूप है. वे जड़-चेतन सभी में वास करते हैं.



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