कहानियाँ

पंचतंत्र की कथाएँ-संगठन की ताकत

वन में एक बहुत बड़ा अजगर रहता था. वह अभिमानी और अत्यंत क्रूर था. जब वह अपने बिल से निकलता तो सब जीव डर कर भाग खडे होते. एक बार अजगर शिकार की तलाश में घूम रहा था. सारे जीव तो उसे बिल से निकलते देख कर ही भाग चुके थे. उसे कुछ न मिला तो वह क्रोधित होकर फुफकारने लगा. निकट ही एक हिरणी अपने नवजात शिशु को पत्तियों के ढेर के नीचे छिपा कर भोजन की तलाश में गई थी.

अजगर के फुफकारने से सूखी पत्तियाँ उड़ने लगीं और अजगर की नजर हिरणी के बच्चे पर पडी. हिरणी का बच्चा उस भयानक जीव को देख कर इतना डर गया कि उसकी चीख तक न निकल पाई. अजगर ने देखते-ही-देखते हिरण के बच्चे को निगल लिया. तब तक हिरणी भी लौट आई थी, पर वह क्या करती? आँखों में ऑंसू भर कर दूर से अपने बच्चे को काल का ग्रास बनते देखती रही. हिरणी के शोक का ठिकाना न रहा. उसने किसी-न-किसी तरह अजगर से बदला लेने की ठान ली.शोक में डूबी हिरणी अपने मित्र नेवले के पास गई और रो-रोकर उसे अपनी दुख-भरी कथा सुनाई.

नेवले को भी बहुत दुख हुआ. वह दुख-भरे स्वर में बोला 'मेरे वश में होता तो मैं उस नीच अजगर के सौ टुकडे कर डालता. पर क्या करें, वह छोटा-मोटा साँप नहीं है, जिसे मैं मार सकूँ वह तो एक अजगर है. अपनी पूँछ की फटकार से ही मुझे अधमरा कर देगा. लेकिन यहाँ पास में ही चीटिंयों की एक बाँबी है. वहाँ की रानी मेरी मित्र हैं. उससे सहायता माँगनी चाहिए.'

हिरणी ने निराश स्वर में कहा 'पर जब तुम उस अजगर का कुछ बिगाडने में समर्थ नहीं हो तो छोटी-सी चींटी क्या कर लेगी?'

नेवले ने कहा 'ऐसा मत सोचो. उसके पास चींटियों की बहुत बडी सेना है. संगठन में बडी शक्ति होती है.'

नेवला हिरणी को साथ लेकर रानी चींटी के पास गया और उसे सारी कहानी सुनाई.

रानी चींटी ने सोच-विचार कर कहा 'हम तुम्हारी सहायता करेंगे. हमारी बाँबी के पास एक सँकरा नुकीले पत्थरों से भरा रास्ता है.तुम किसी तरह उस अजगर को उस रास्ते पर ले आओ बाकी का काम मेरी सेना पर छोड दो.'

नेवले को अपनी मित्र रानी चींटी पर पूरा विश्वास था. दूसरे दिन नेवला अजगर के बिल के पास जाकर बोलने लगा. नेवले की आवाज सुनकर अजगर अपने बिल से बाहर आया. नेवला उसी सँकरे रास्ते की दिशा में दौडा. अजगर ने पीछा किया. इस प्रकार नेवला अजगर को सँकरे रास्ते पर ले आया. नुकीले पत्थरों से अजगर का शरीर छिलने लगा. जब अजगर उस रास्ते से बाहर आया तब तक उसके शरीर पर जगह-जगह से खून टपक रहा था.

उसी समय चींटियों की सेना ने अजगर पर हमला कर दिया. चींटियाँ उसके शरीर पर चढकर छिले स्थानों के माँस को काटने लगीं. अजगर दर्द से तड़पने लगा. वह चींटियों से बचने के लिए अपना शरीर पत्थरों पर पटकने लगा जिससे और भी जगहों पर माँस छिलने लगा और चींटियों उसपर आक्रमण करती रहीं. चींटियाँ हजारों की संख्या में अजगर पर टूट पड रही थीं. कुछ ही देर में क्रूर अजगर ने तडप-तडप कर दम तोड दिया. हिरणी का बदला पूरा हो गया था.

चीकू ने जब मिर्ची खाई

रचनाकार-सुरेखा नवरत्न

एक दिन चीकू खरगोश जंगल में घूम रहा था. उसे बहुत भूख लगी थी. भोजन तलाश करते हुए उसनें एक विचित्र पौधा देखा जिसमें कुछ हरे कुछ लाल नुकीले फल लगे हुए थे. भूख से परेशान चीकू ने एक फल तोड़कर खा लिया.

फल खाते ही चीकू को जैसे दिन में तारे दिखने लगे. उसकी जीभ में जैसे आग लग गई थी, कानों से धुआँ निकलने लगा. हाय... हाय करते हुए वह वहाँ से भागा.

अब चीकू सोच रहा था कि मैं ऐसा क्या खाऊँ जिससे यह जलन शांत हो. उसनें एक और पौधा देखा, जिसमें कुछ अलग तरह के फल लगे हुए थे. हरा-हरा, खुरदरा और लम्बा सा यह फल अनोखा लग रहा है इसे खाकर मेरी जीभ की जलन ठीक हो जाएगी. ऐसा सोचकर चीकू ने एक फल तोड़ा और खा लिया. जीभ का तीखापन तो ठीक हो गया लेकिन ये तो बहुत कड़वा है, थू.. थू... थू..... ये मैंने क्या खा लिया, अब मैं क्या करूँ? वहीं पास में ही उसे एक झाड़ दिखाई दिया. उसमें हरे पीले, गोल गोल फल लगे हुए थे. चीकू ने सोचा, यह फल बहुत खूबसूरत लग रहा है. यह जरूर स्वादिष्ट होगा. उसनें एक फल तोड़ा और खा लिया. जीभ की कड़वाहट ठीक हो गई लेकिन उसके दाँत खट्टे हो गए. चीकू को मजा नहीं आया.

चीकू आगे बढ़ा. रास्ते में उसनें एक खेत में सुन्दर पत्तियों वाले पौधे देखे. चीकू ने एक पौधा उखाड़ लिया, उसे एक अनोखी चीज मिली. अपने नुकीले दाँतों से काटकर थोड़ा सा खाया. उसे उसका स्वाद बहुत अच्छा लगा. जलन भी नहीं हुई, कड़वाहट भी नहीं और खट्टापन भी नहीं. उसनें जल्दी जल्दी ढेर सारे फल खा लिए.

वाह! कितना मीठा है यह. चीकू का पेट भर गया उसे बहुत मजा आया.

बच्चो! क्या आप जान गए, चीकू ने कौन-कौन से फल खाए थे?

तीखा लगने वाला-मिर्ची

कड़वा लगने वाला-करेला

खट्टा लगने वाला-नीबू

और अंतिम वाला-गाजर

उस दिन से चीकू खरगोश को गाजर खाना बहुत अच्छा लगता है.

मेहनत का फल

रचनाकार-के.शारदा

एक गाँव में एक परिवार रहता था जिसमें माता-पिता और दो बच्चे चुन्नी और मुन्नू थे. दोनों एक ही कक्षा में पढ़ते थे. चुन्नी अपने पाठ्यक्रम के अनुसार पुस्तकों को पूरा-पूरा पढ़ती थी. मुन्नू सिर्फ परीक्षा के समय ही महत्वपूर्ण प्रश्नों को याद कर लेता था और अच्छे अंकों से उत्तीर्ण हो जाता था.

एक बार दोनों ने अपने पिताजी से साइकिल खरीदने की माँग की. पिताजी ने कहा कि जो इस बार कक्षा में प्रथम आएगा उसे साइकिल दिलाएँगे. दोनों मान गए. चुन्नी परीक्षा के लिए तैयारी में जुट गई, वह पूरे पाठ्यक्रम की तैयारी में बहुत मेहनत कर रही थी.

मुन्नू उसको देख कर हँसता, कहता कि इतना पढ़ने की क्या जरूरत है?

वह हमेशा खेलता रहता था. परीक्षा का समय पास आ गया. अब मुन्नू ने 10 सालों के प्रश्नों को पढ़ना शुरू कर दिया. परीक्षाफल आया तो पता चला कि मुन्नू प्रथम आया है. पिताजी ने मुन्नू को साइकिल दिलाई. मुन्नी को साइकिल नहीं मिली उसे दुख तो हुआ परंतु अपने भाई की खुशी में खुश हुई.

गर्मी की छुट्टियों में वे दोनों अपनी नानी के घर गए. वे मेला घूमने गए थे, उन्होंने देखा कि वहाँ बच्चों के लिए एक सामान्य ज्ञान की प्रतियोगिता चल रही थी. चुन्नी और मुन्नू ने भी प्रतियोगिता में भाग लिया. कम समय में बहुत सारे प्रश्नों के उत्तर देने थे. प्रतियोगिता शुरू हुई, प्रश्न पत्र देखते ही चुन्नू के चेहरे पर खुशी छा गई, उसे सारे प्रश्नों के उत्तर पता थे परंतु मुन्नू को कई प्रश्न समझ में नहीं आ रहे थे, क्योंकि वह कुछ प्रश्नों को ही पढ़ता था. चुन्नू सारे पाठ्यक्रम को पढ़ती थी इसलिए उसने प्रश्न-पत्र सरलता से हल कर लिया. मुन्नू कई प्रश्न हल नहीं कर पाया.

प्रतियोगिता में चुन्नी को प्रथम स्थान मिला. उसे 10 लाख रुपये की स्कॉलरशिप मिली. समाचारपत्रों में और टीवी में चुन्नी की प्रतिभा से संबंधित समाचार प्रकाशित हुए. सभी जगह चुन्नी की प्रशंसा होने लगी. माता-पिता सभी उसकी सफलता पर खुश थे.

लालच का फल

रचनाकार-टीकेश्वर सिन्हा 'गब्दीवाला'

'अरे रिनी, अभी तो तुम ने खाया है; फिर भी तुम्हे भूख लगी है. और कितना खाओगी?' राशि चिड़िया बोली.

'हाँ बहन, मम्मी ठीक कह रही है. पेट का भी ख्याल रखा करो. थोड़ा रूक जाओ. तब तक पापा जी भी कुछ न कुछ लेकर आते ही होंगे.' नन्हे मीतू ने कहा.

'लो, तुम्हारे पापा भी आ गये.' राशि ने बताया.

टिम्मू ने दोनों बच्चों के मुँह में पानी डाला. कहने लगा-'बच्चो! मैं पानी ही लाया हूँ, क्योंकि मुझे पता था कि तुम्हारी मम्मी तुम दोनों के लिए भोजन अवश्य लायेगी. अब तुम दोनों ने भोजन कर लिया; पानी भी पी लिया. चलो अब सो जाओ; हो गया तुम लोगों का डिनर.' फिर टिम्मू और राशि ने एक-एक बच्चे को अपने-अपने डैने से ढँक लिया. कुछ देर में सबको नींद आ गयी.

सुबह हुई. टिम्मू व राशि के साथ बच्चे भी जाग गये. टिम्मू और राशि को लगा कि भोजन के लिए घोंसला छोड़ने से पहले बच्चों को कुछ खिलाया जाए. उन्होंने बच्चों को आम की कुछ कैरियाँ खिला दीं. फिर दोनों भोजन की तलाश में निकल पड़े.

टिम्मू और राशि को घोंसला छोड़कर गये कुछ ही समय हुआ था. तभी हवा चलने से कुछ कैरियाँ घोंसले पर गिरीं. ताजी कैरियाँ देखकर रिनी के मुँह में पानी आ गया. मीतू के मना करने पर भी वह कैरियों पर चोंच मारने लगी. इससे पहले दोनों भाई-बहन ने स्वयं से कभी कुछ नहीं खाया था. आज रिनी अपने प्रयास में सफल हो गयी. एक-दो कैरियाँ जब उसने खा लीं, तब मीतू ने फिर मना किया-'ज्यादा मत खाओ बहन. अभी ही तो मम्मी-पापा हमें खिलाकर गये हैं मेरी बात मान जाओ.' परन्तु रिनी तो मानने वाली नहीं थी. उसने मीतू की एक न सुनी; और खाती गयी मन भर.

थोड़ी ही देर में रिनी के पेट में दर्द होने लगा. वह कराहने लगी. मीतू कहने लगा-'शांत रह बहन. मम्मी-पापा आते होंगे; वे ही कुछ उपाय करेंगे. सब ठीक हो जायेगा.' मीतू रिनी को रोते देखकर दुःखी हो रहा था; पर क्या करता. वह रिनी को सहलाते हुए मम्मी-पापा की प्रतीक्षा करने लगा.

दोपहर में टिम्मू और राशि घर आये. रिनी को कराहते हुए देख कर उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ. मीतू ने पूरी बात सविस्तार बताई. टिम्मू डॉक्टर नीलू नीलकंठ को बुलाकर ले आया. नीलू ने रिनी के बारे में पूरी जानकारी ली. उन्हें पूरी बात समझ में आ गई. उन्होंने कुछ पत्तियाँ देते हुए कहा-'आप इन्हें अच्छी तरह चबाकर रिनी को खिलाइए. ठीक हो जायेगी.' टिम्मू-राशि ने डॉक्टर नीलू के कहे अनुसार रिनी को पत्तियाँ खिलाईं.

कुछ समय पश्चात रिनी ठीक हो गयी. टिम्मू व राशि की चिंता कम हुई. डाॅ. नीलू ने रिनी को सलाह देते हुए कहा-'देखो रिनी, अगर तुमने मीतू की बात मान ली होती, तो तुम्हारी ऐसी हालत नहीं होती. पेट भर नाश्ता करने के बाद भी तुमने कैरियाँ खाई. तुमने लालच किया तभी तुम्हारी यह स्थिति हुई. तुम्हारे मम्मी-पापा समय पर मुझे नहीं बुलाते, तो तुम्हें और भी परेशानी होती. लालच बहुत बुरी बला है. लालच का फल हमेशा बुरा होता है.' रिनी को सबक मिल गया.

रानीकीड़ा

रचनाकार-वाणी मसीह

हमारे बचपन मे जब पहली बारिश होती थी, मिट्टी की सौंधी खुशबू के बीच हम बारसुर (जिला दंतेवाड़ा) में अपने स्कुल के मैदान में रानी कीड़ा ढूँढने निकल पड़ते थे. रानी कीड़ा चटक लाल रंग की मखमली पीठ़ वाला एक छोटा सा कीड़ा होता था. जो आजकल दिखाई नही देता है. मैदान मे लाल रंग के कुछ बडे और कुछ छोटे आकार के रानी कीड़े घूमते रहते थे. बहुत सुंदर दिखने के कारण हम उसे रानी कीड़ा कहते थे. सीधे-सादे कीडे. हम जब उन्हे पकड़ने की कोशिश करते तो वो अपने पैर मोड़कर छुपा लेते थे. हम उन्हें अपने हाथो पर चला कर सबको स्वयं का साहस दिखाते कि देखो मैं नहीं डरती और फिर उन्हे उसी मैदान में छोड़ दिया करते थे. आजकल बहुत ढूँढने पर भी रानीकीड़ा दिखाई नही देता है.

चार पहरेदार

रचनाकार-श्वेता तिवारी

एक राजा था, उसका नाम था चंद्रसेन. उसका राज्य बहुत दूर तक फैला हुआ था. उसकी प्रजा बहुत सुखी थी. राज्य में कोई परेशानी नहीं थी चंद्रसेन के राज्य से सटा एक छोटा सा राज्य था जिसका राजा मानिकचंद था. उस राज्य में आए दिन कलह झगड़े होते थे प्रजा बहुत परेशान और दुखी थी. एक दिन राजा मानिकचंद, राजा चंद्रसेन के पास आया. उसने अपनी समस्या बताई और चंद्र सेन के राज्य की खुशहाली का राज पूछा. चंद्रसेन हँसा और बोला-मेरे राज्य में खुशहाली का कारण यह है कि मेरे पास 4 पहरेदार हैं, जो हर समय मेरी रक्षा करते हैं. मानिक चंद ने कहा आप चार पहरेदारों से कैसे काम चला लेते हैं. मेरे पास तो पहरेदारों की फौज है. राजा ने कहा मेरे चार पहरेदार हैं सत्य जो मुझे झूठ नहीं बोलने देता, प्रेम जो मुझे घृणा से बचाता है, न्याय जो मुझे अन्याय नहीं करने देता और त्याग जो मुझे स्वार्थी नहीं होने देता. मानिकचंद की शंका का समाधान हो गया और कुछ समय बाद राजा मानिकचंद की प्रजा भी खुशहाल रहने लगी.

कुछ खाने को मिल जाये

रचनाकार-मनोज कश्यप

एक दिन व यूँ ही घूमते-घूमते आम के एक बाग़ में पहुँच गया. वहाँ रसीले आमों से लदे कई पेड़ थे. रसीले आम देख उसके मुँह में पानी आ गया और आम तोड़ने वह एक पेड़ पर चढ़ गया. लेकिन जैसे ही वह पेड़ पर चढ़ा, बाग़ का मालिक वहाँ आ पहुँचा.

बाग़ के मालिक को देख आलसी आदमी डर गया और जैसे-तैसे पेड़ से उतरकर वहाँ से भाग खड़ा हुआ. भागते-भागते वह गाँव में बाहर स्थित जंगल में जा पहुँचा. वह बुरी तरह से थक गया था, इसलिए एक पेड़ के नीचे बैठकर सुस्ताने लगा.

तभी उसकी नज़र एक लोमड़ी पर पड़ी. उस लोमड़ी की एक टांग टूटी हुई थी और वह लंगड़ाकर चल रही थी. लोमड़ी को देख आलसी आदमी सोचने लगा कि ऐसी हालत में भी इस जंगली जानवरों से भरे जंगल में ये लोमड़ी बच कैसे गई? इसका अब तक शिकार कैसे नहीं हुआ?

जिज्ञासा में वह एक पेड़ पर चढ़ गया और वहाँ बैठकर देखने लगा कि अब इस लोमड़ी के साथ आगे क्या होगा?

कुछ ही पल बीते थे कि पूरा जंगल शेर की भयंकर दहाड़ से गूंज उठा, जिसे सुनकर सारे जानवर डरकर भागने लगे, लेकिन लोमड़ी अपनी टूटी टांग के साथ भाग नहीं सकती थी. वह वहीं खड़ी रही.

शेर लोमड़ी के पास आने लगा, आलसी आदमी ने सोचा कि अब शेर लोमड़ी को मारकर खा जायेगा. लेकिन आगे जो हुआ, वह कुछ अजीब था. शेर लोमड़ी के पास पहुँचकर खड़ा हो गया. उसके मुँह में मांस का एक टुकड़ा था, जिसे उसने लोमड़ी के सामने गिरा दिया. लोमड़ी इत्मिनान से मांस के उस टुकड़े को खाने लगी. थोड़ी देर बाद शेर वहाँ से चला गया.

यह घटना देख आलसी आदमी सोचने लगा कि भगवान सच में सर्वेसर्वा है. उसने धरती के समस्त प्राणियों के लिए, चाहे वह जानवर हो या इंसान, खाने-पीने का प्रबंध कर रखा है. वह अपने घर लौट आया.

घर आकर वह २-३ दिन तक बिस्तर पर लेटकर प्रतीक्षा करने लगा कि जैसे भगवान ने शेर के द्वारा लोमड़ी के लिए भोजन भिजवाया था. वैसे ही उसके लिए भी कोई न कोई खाने-पीने का सामान ले आएगा.

लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. भूख से उसकी हालात ख़राब होने लगी. आख़िरकार उसे घर से बाहर निकलना ही पड़ा. घर के बाहर उसे एक पेड़ के नीचे बैठे हुए बाबा दिखाए पड़े. वह उनके पास गया और जंगल का सारा वृतांत सुनाते हुए वह बोला, 'बाबा जी! भगवान मेरे साथ ऐसा क्यों कर रहे हैं? उनके पास जानवरों के लिए भोजन का प्रबंध है. लेकिन इंसानों के लिए नहीं.'

बाबा जी ने उत्तर दिया, 'बेटा! ऐसी बात नहीं है. भगवान के पास सारे प्रबंध है. दूसरों की तरह तुम्हारे लिए भी. लेकिन बात यह है कि वे तुम्हें लोमड़ी नहीं शेर बनाना चाहते हैं.'

अना

रचनाकार-आसिया फ़ारूक़ी

सूरज की किरणों ने आँगन में रुपहली चादर बिछा दी थी. शादी की धूम थी. मेहमानों से घर भरा हुआ था. ढोलक की थाप पर गाना चल रहा था-'कजरारे-कजरारे तेरे काले-काले नैना.' जहाँ गाने की धुन पर चाची, खाला, फूफी झूम रहीं थीं वहीं नीचे आँगन में ज़ोया, हिना, शिज़ा अन्य बच्चों के साथ गरमागरम जलेबियाँ और समोसों का ज़ायक़ा लेते हुए बातें कर रही थी. हर तरफ ख़ुशी का माहौल था. हिना सारा दिन चहकती-फुदकती रहती. बार-बार कपड़े बदल-बदलकर सबको दिखाती. उसकी बड़ी बहन अना जिसे वह प्यार से बज्जो कहती थी, की शादी थी. अना एक कमरे में चुपचाप बैठा दी गई थी. मासूम चेहरा. दुबली-पतली. मात्र 19 वर्ष की बच्ची. सबको खामोशी से देखा करती. उसे बार बार वह दिन याद आ रहा था जब वह कालेज से घर आयी थी. घर मे कुछ मेहमान थे. यही लोग रिश्ता लेकर उसके घर आये थे. वह कुछ जान समझ नहीं सकी थी कि जिन्हें वह चाय नाश्ता करा रही है वे उसके व्याह की बात तय करने आये हैं.

तभी अना की माँ कमरे में आईं 'अना! लो बेटा नाश्ता कर लो.' माँ नाश्ता टेबल पर रखकर जैसे ही मुड़ीं अना ने माँ का दुपट्टा पकड़ लिया. माँ ने अना का चेहरा अपनी हथेलियों में ले लिया. अना ने मासूमियत से कहा-'माँ मुझे आगे पढ़ना है.अब मैं कैसे पढ़ूँगीं' ? यह कहते हुए आँसू उसकी आँखों से टप-टप करके माँ की हथेलियों पर गिर पड़े. माँ को बेटी अना के दर्द का एहसास था. माँ ने कहा-'अना, तू खुश रहना और जिन्दगी में कभी कमज़ोर मत पड़ना. तेरी माँ तेरे साथ है बेटा.'

अना की आँखों में हज़ारों सवाल घूम रहे थे पर वह चुप थी.

अगले दिन अना बिदा होकर अपने ससुराल आ गई. अपनी किताबें जिन्हें वो कभी अपने से अलग न करती थी, साथ लेकर आयी. अना के घर से यहाँ का माहौल बिल्कुल अलग था. जहाँ उसके मायके में चार लोगों का छोटा सा परिवार था, उसके उलट ससुराल में दस-बारह लोगों का भरा-पूरा परिवार था. अब अना घर का काम करती. आने-जाने वाले मेहमानो से बातचीत, चाय-नाश्ता साफ़-सफ़ाई, देख-रेख करते करते दिन भर में थक जाती. अना अपनी पढ़ाई को लेकर काफी परेशान होने लगी. वो अन्दर ही अन्दर घुटी जा रही थी.

एक दिन उसकी सास ने कहा कि 'पढ़कर क्या करोगी, घर के काम ही तो करने है.' अब अना उदास रहने लगी. मन उदास होने की वजह से खाना कम लज़ीज़ बना पाती लेकिन जब सबके सामने दस्तरख़्वान पर से सासू माँ खाने को बेस्वाद बताकर उठ गई तो मानो अना के अन्दर कुछ टूट गया. अना अपनी डायरी निकालकर माँ से पूछ-पूछकर सारी रेसिपी लिख लेती और डायरी से पढ़-पढ़कर हर दिन अलग-अलग ज़ायकेदार खाना तैयार करती. अना को पढ़ाई का अपना ख्वाब पूरा करना था. वह उसे कभी भूली नहीं.

अना की उदासी उस वक़्त कुछ कम हुई जब उसके माँ-पापा उसके लिए आगे की पढ़ाई की किताबें और काॅलेज के एडमिशन का फ़ार्म लेकर आये. अना किताबें देखकर खुश तो बहुत हुई पर अगले ही पल बोली, 'माँ ! मुझे पढ़ने का समय कैसे मिलेगा?' माँ ने अना की हिम्मत बढ़ाई, पापा ने भी खूब समझाया. उनके जाने के बाद से अना ने दिन-रात एक कर दिया. अना छत पर एक कोने में चटाई बिछाकर बैठ जाती और खुद को किताबों में गुम कर लेती. इसी तरह पूरी मई-जून की गर्मियों में, जब सब पंखे-कूलर की हवा में सोते, अना किसी कोने में किताबों में खोयी होती. घर के काम खत्म करके वह अपनी किताबें लेकर बैठ जाती. वह एक पल भी व्यर्थ नहीं करना चाहती थी. कयोंकि वह कुछ अलग करने की ठान चुकी थी. धीरे-धीरे एक साल बीत गया अब अना एक प्यारी सी बच्ची की माँ की भी ज़िम्मेदारी सम्भाल रही थी. अब उसे दिन में तो पढ़ाई का वक़्त नहीं मिलता. सारा दिन घर, रसोई और बच्ची के कामो में लगी रहती. अना बच्ची को नहला-धुलाकर दाई के पास छोड़कर काॅलेज जाती और रात में सब के सो जाने के बाद किचन की लाइट जलाकर ज़मीन पर बैठकर अपने नोट्स तैयार करती थी. कभी-कभी तो सारी रात वो लिखती रहती और सुबह की अज़ान के वक़्त जब उसकी नन्हीं परी उठकर भूख से रोती तो अना झट से दौड़कर उसे उठा लेती और उसके कामों में लग जाती. अना वक़्त की पाबन्द और दूसरों की परवाह करने वाली लड़की थी. वह हँसमुख और शिष्ट थी. वह सारी मुश्किलों को नज़र अन्दाज़ कर अपनी पढ़ाई करती.

अना एक दिन जब कालेज से घर आई तो देखा कि उसके कुछ नोट्स नहीं मिल रहे थे. पता चला कि कबाड़ के साथ जला दिये गये हैं. वो समझ रही थी कि यह सब जानबूझ कर किया गया है. अना छट-पटाकर रोने लगी. उसके दिल में छाए बादल आंखों से बहने लगे. फोन पर माँ के काफी समझाने के बाद उसने खुद को संभाला. फिर से तैयारी में जुट गयी. अब कमरे के हर दरवाज़े और किचन के पल्ले पर अना के नोट्स और चार्ट चिपके होते. अना भोजन बनाते, बच्ची का काम करते, साफ़-सफाई करते अपने नोट्स देखती जाती. इसी तरह तैयारी करके उसने कालेज में प्रथम स्थान पाकर सबको दिखा दिया कि सफलता इत्तेफ़ाक नहीं बल्कि मेहनत का नतीजा है.

जल्द ही वो दिन भी आ गया जब अना के हाथ में सरकारी नौकरी का फरमान था. जो उसके ससुराल में आज तक किसी बहू को न मिला था. अना की ये कामयाबी उसकी माँ को समर्पित जिसने उसे मज़बूत बनाया. यूँ ही नहीं मिलता कोई मुक़ाम उन्हें पाने के लिये चलना पड़ता है, इतना आसान नहीं होता कामयाबी मिलना,उसके लिये किस्मत से लड़ना पड़ता है.'

आज अना हज़ारों बच्चों की मुस्कान है. वो आग में तपकर कुंदन बन चुकी है और एक मज़बूत चट्टान की तरह समाज के सामने खड़ी है. असहाय औरतों और बच्चे-बच्चियों की तरक़्क़ी के लिए काम कर रही है. सरकारी महकमे में भी अपनी अलग पहचान बना चुकी है. अना का संघर्ष जीवन के फलक पर सितारों की भांति दमक रहा है जैसे कोई मुरझाया फूल ओस की नमी पाकर खिले उठा हो.

भलाई

रचनाकार-अयन तिवारी, कक्षा पांचवी, शा. प्रा. विद्यालय बेलगहना, बिलासपुर

मनोहर की दोनों ऑंखें खराब हो गई थीं. पहले एक,फिर दूसरी. उसकी पत्नी और बेटी ने उसे छोड़ दिया था. मनोहर अकेला रहता था. तब उसका एक पुराना दोस्त आकर उसके साथ रहने लगा. दोस्त का व्यवहार बड़ा अजीब था. मनोहर पानी माँगता तो उसका दोस्त एक बार तो पानी पिला देता पर दूसरी बार माँगने पर कह देता कि तुम खुद ले सकते हो, उठो अपने आप लेकर पी लो. वह कपड़े माँगता तो एक बार देता दूसरी बार कह देता अलमारी में रखे हैं जाओ अपने आप ले लो. कभी मनोहर का मन घूमने का होता तो वह एक बार घुमा देता और जब दूसरी बार की बात आती तो कह देता मुझे काम है तुम अकेले ही घूम आओ. मनोहर मन मसोसकर जैसे-तैसे अपना काम करता.

असल बात यह थी कि मनोहर का दोस्त उससे कम प्यार नहीं करता था, न काम से बचना चाहता था बल्कि वह बार-बार दया दिखा कर मनोहर को सदा के लिए आश्रित नहीं बनाना चाहता था. वह उसमें आत्मविश्वास पैदा कर देना चाहता था.

धीरे-धीरे मनोहर अपने काम स्वयं करने लगा. अब उसे किसी के सहारे की जरूरत नहीं रही. तब उसने समझा कि उसके दोस्त ने उसका कितना भला किया. मनोहर नेत्रहीनों की एक संस्था में चला गया और वहाँ उसने कई असहाय भाई बहनों को अपने पैरों पर खड़ा होने में सहायता की.

खेल खेल में

रचनाकार-अर्चना त्यागी

सोनू और गोलू के पिता उन दोनों के बीच अनबन से बहुत दुखी थे. गोलू, सोनू से दस साल छोटा था. माता पिता का उस पर स्नेह थोड़ा अधिक था. सोनू को यह बात बिल्कुल पसंद नहीं थी.

वह कहता,' जबसे गोलू घर में आया है तबसे सब बदल गए हैं. मेरी ओर किसी का ध्यान ही नहीं जाता है. सब गोलू के आस पास ही घूमते रहते हैं. उसको ही छेड़ते रहते हैं. उसी से हंसते बोलते रहते हैं. खाने पीने की सब चीजें उसकी पसंद की ही आती हैं. कपड़े भी उसके लिए ही पहले आते हैं.

'मम्मी पापा उसे समझाते लेकिन वह कहता,' मुझे बड़ा और समझदार कहकर चुप करा देते हैं. गोलू के लाड लड़ाते रहते हैं.

'इसी सोच के चलते गोलू से उसकी नफरत बढ़ती जा रही थी. सोनू का ध्यान बस इसी बात पर रहता कि गोलू कोई ग़लती करे और सोनू मम्मी पापा से उसकी शिकायत करे. गोलू को कभी डांट पड़ जाती तो सोनू खुश हो जाता.

सोनू के मम्मी पापा उसे समझाने की पूरी कोशिश करते,' बेटा, गोलू घर में सबसे छोटा है इसलिए सबको उससे लगाव अधिक है. ऐसा बिल्कुल नहीं है कि तुम से किसी को प्यार नहीं है. तुम गोलू से दस साल बड़े हो इसलिए सभी लोग तुम्हे समझदार मानते हैं' लेकिन सोनू के मन में जो बात बैठ गई तो बैठ गई.

रोज़ शाम के समय सोनू पार्क में खेलने जाता था. एक दिन खेलने गया तो रोते चिल्लाते हुए वापिस आया. उसके बाएं हाथ में चोट लगी थी. उसका दोस्त बंटी उसे घर तक छोड़ने आया था.

पापा ऑफिस से आए तो तुरंत ही सोनू को डॉक्टर के पास ले गए. डॉक्टर ने जांच करके बताया,' हाथ की हड्डी टूट गई है.

प्लास्टर लगाना पड़ेगा.' सोनू यह सोचकर दुखी था कि वह अपने काम ठीक से नहीं कर पाएगा परन्तु अंदर ही अंदर वह खुश था.

जबसे उसे चोट लगी थी सबका ध्यान उसकी ओर ही था. मम्मी पापा सब भूलकर उसकी सेवा में लगे थे. और तो और गोलू भी उसके पास से नहीं जा रहा था. सोनू को जब प्लास्टर लगा तो गोलू बहुत रोया. उसे डर था कहीं भाई का हाथ ऐसा ही ना रह जाए. गोलू दौड़-दौड़ कर सोनू के सब काम कर रहा था. सोनू मन ही मन सोच रहा था,' रोज़ इसके काम मुझे करने पड़ते थे आज इसकी बारी आ गई है. अच्छा ही हुआ.

'गोलू ने जिद करके अपनी छोटी सी चारपाई सोनू के पास ही बिछवाई.

'भैया को रात में भी कोई काम होगा तो परेशानी नहीं होगी.' रोज़ सुबह सोनू से पूछता,' भैया आपने देखा? कितना हाथ ठीक हो गया है?' सोनू को हंसी आ जाती.

मम्मी उसे समझाती 'एक महीने बाद ही अब हाथ का पता लगेगा.' दूसरी ओर सोनू एकदम संतुष्ट था.

वह जैसा चाहता था वैसा ही हो रहा था. पंद्रह दिन बीत गए. अब उल्टी गिनती शुरू हो गई थी. गोलू हर रोज़ कैलेंडर से एक तारीख काट देता. पापा मम्मी भी दिन में एक बार तो तारीख देख ही लेते कि किस तारीख को सोनू का प्लास्टर खुलना है?

अब सोनू की मनोदशा बदल रही थी. वह सोचने लगा था,' अगर हाथ नहीं टूटता तो मम्मी पापा की परेशानी नहीं बढ़ती.

'मम्मी घर के सारे काम करने के साथ-साथ उसके काम भी करती. जान पहचान वाले हाल-चाल पूछने आते रहते थे. उनको भी समय देती. पहले जो छोटे मोटे काम सोनू कर देता था वो भी उन्हें ही करने पड़ते थे. पापा दिन भर अपने ऑफिस में रहते और रात में जागते हुए ही सोते थे. गोलू अब सोनू के सारे छोटे-छोटे काम कर देता था.

सोनू को अब अपनी सोच पर पछतावा होने लगा था. मैं, सबके बारे में कितना ग़लत सोचता था. जल्दी से प्लास्टर हटे तो सबकी परेशानी खत्म हो.

'उसके हाथ का प्लास्टर कटने का दिन भी आ गया. जैसे ही प्लास्टर हटा, गोलू खुशी से चिल्लाया.,' भैया का हाथ ठीक हो गया.

'वह डॉक्टर की सलाह को बहुत ध्यान से सुन रहा था. घर वापस आया तो पापा ने दोनों भाइयों को अपनी गोद में बिठा लिया. दोनों को बाहों में भरकर बोले,' मेरे दोनों हाथ. रहेंगे साथ-साथ.' सोनू पापा की बात समझ गया.

उसने गोलू को गले से लगा लिया और मम्मी-पापा से अपने व्यवहार के लिए माफी मांगी. गोलू धीरे से उसका हाथ छूकर देख रहा था.

सोनू की आंखें भर आई,' गोलू मेरे भाई मुझे समझ क्यूं नहीं आया कि तू मुझे इतना प्यार करता है. हाथ टूटने पर मुझे समझ आया.' गोलू दौड़कर गया और उसका बैट उठा लाया.

'चलो भैया खेलते हैं.' सोनू भागकर बॉल उठा लाया और खेल शुरू हो गया.

अवसर

रचनाकार-कन्याकुमारी पटेल

सीमा और निधि दसवीं कक्षा में पढ़ती थीं. दोनों अच्छी मित्र और होशियार थीं. अंतर सिर्फ व्यक्तित्व का था, सीमा चंचल, हाजिर जवाब व तुरंत निर्णय लेने में सक्षम थी. वहीं, निधि अपने विचारों में और लोग क्या कहेंगे इस सोच में उलझ कर रह जाती थी. इसी कारण वह कई बार अच्छा मौका हाथ से गंवा देती थी. निधि की शिक्षिका और सीमा अक्सर उसे समझाती कि सही अवसर को नहीं छोड़ना चाहिए. निधि हामी तो भरती पर फिर भूल जाती.

एक बार कक्षा से एक छात्रा को नृत्य एवं सामान्य ज्ञान प्रतियोगिता में जिला स्तर पर प्रदर्शन करना था. सीमा और निधि दोनों ही इस काम में माहिर थी, किंतु निधि ने कभी ऐसी प्रतियोगिता में हिस्सा नहीं लिया था, सीमा ही हमेशा आगे रहती थी.

इस बार सीमा कुछ कारणवश अपने गाँव चली गई थी. शिक्षकों ने निधि को प्रतियोगिता में ले जाने के लिए सोचा, लेकिन निधि फिर सोचने लगी कि लोग क्या कहेंगे और परिवार वाले नहीं जाने देंगे. शिक्षिका ने निधि से कहा कि लोगों की चिंता छोड़ दो निधि और तुम्हारे परिवार से मैं बात कर लूँगी. मैं भी तुम्हारे साथ चलूँगी, यह सुनकर निधि ने बड़ी मुश्किल से हाँ कहा. अगले दिन जब प्रतियोगिता हुई तो निधि पहले घबरा गई. फिर उसने अपनी शिक्षिका की ओर देखा और उसका हौसला बढ़ने लगा. प्रतियोगिता का परिणाम आया तो निधि नृत्य व सामान्य ज्ञान दोनों में प्रथम थी. वह कलेक्टर के हाथों सम्मानित भी हुई. आज निधि बहुत खुश थी और भविष्य में आने वाले किसी भी अवसर को न खोने का संकल्प कर चुकी थी.

शिक्षा का मूल्य

रचनाकार-स्वाति मुकेश पांडे

एक छोटे से गाँव रामपुर में कुछ ही लोग पढ़े लिखे थे. इसी गाँव में बिल्लू रहता था. उसके 8 बच्चे थे. अपने बच्चों को स्कूल न भेजकर बिल्लू उन्हें खेतों में काम करने भेजता था. उसकी पत्नी रामबाई ने जिद करके अपने सबसे छोटे बेटे श्याम को स्कूल भेजना शुरू कर दिया.

स्कूल मे श्याम ने जल्दी ही गिनती जोड़-घटाव एवं पहाड़ा सीख लिया. उसको पढ़ाई में बहुत मजा आने लगा. एक दिन बिल्लू, श्याम को अपने साथ खेत ले गया.

उसी दिन बिल्लू को हफ्ते भर के काम की मजदूरी मिलनी थी. मालिक ने कहा कि 15 रुपये प्रतिदिन के हिसाब से तुम्हारी 7 दिन की मजदूरी 100 रुपये हुई. बिल्लू ने 100 रुपये ले लिए. लेकिन तभी श्याम ने अपने पिता को बताया कि बाबूजी आपकी सात दिन की मजदूरी 105 रुपये होती है. मालिक आपको 5 रुपये कम दे रहे हैं. यह सुनकर मालिक झेंप गया और बिल्लू को 5 रुपये और दिए.

अब बिल्लू को समझ में आया कि मालिक प्रति सप्ताह उसे 5 रुपये कम देते थे. अब बिल्लू को अपनी गलती का एहसास हुआ. उस दिन के बाद बिल्लू अपने सभी बच्चों को स्कूल भेजने लगा.

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