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हमारे पौराणिक पात्र- वराहमिहिर

वराहमिहिर (वरःमिहिर) ईसा की पाँचवीं-छठी शताब्दी के भारतीय गणितज्ञ एवं खगोलज्ञ थे. वाराहमिहिर ने अपने पंचसिद्धान्तिका में सबसे पहले बताया कि अयनांश का मान 50.32 सेकेण्ड के बराबर है.

कापित्थक (उज्जैन) में उनके द्वारा विकसित गणितीय विज्ञान का गुरुकुल सात सौ वर्षों तक अद्वितीय रहा. वरःमिहिर बचपन से ही अत्यन्त मेधावी और तेजस्वी थे.उन्होंने अपने पिता आदित्यदास से परम्परागत गणित एवं ज्योतिष सीखकर इन क्षेत्रों में व्यापक शोध कार्य किया. समय मापक घट यन्त्र,इन्द्रप्रस्थ में लौहस्तम्भ के निर्माण और ईरान के शहंशाह नौशेरवाँ के आमन्त्रण पर जुन्दीशापुर नामक स्थान पर वेधशाला की स्थापना - उनके कार्यों की एक झलक मात्र हैं. वरःमिहिर का मुख्य उद्देश्य गणित एवं विज्ञान को जनहित से जोड़ना था. वस्तुतः ऋग्वेद काल से ही भारत की यह परम्परा रही है. वरःमिहिर ने पूर्णतः इस परम्परा का परिपालन किया है.

वराहमिहिर का जन्म सन् ४९९ में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ. उनका परिवार उज्जैन के निकट कपित्थ(कायथा) नामक गाँव का निवासी था. उनके पिता आदित्यदास सूर्य भगवान के भक्त थे. उन्हीं ने मिहिर को` ज्योतिष विद्या सिखाई. कुसुमपुर (पटना) जाने पर युवा मिहिर महान खगोलज्ञ और गणितज्ञ आर्यभट से मिले. आर्यभट से उसे इतनी प्रेरणा मिली कि उसने ज्योतिष विद्या और खगोल ज्ञान को ही अपने जीवन का ध्येय बना लिया. उस समय उज्जैन विद्या का केंद्र था. गुप्त शासन के अन्तर्गत वहाँ पर कला,विज्ञान और संस्कृति के अनेक केंद्र पनप रहे थे. मिहिर इस शहर में रहने के लिये आ गये क्योंकि अन्य स्थानों के विद्वान भी यहाँ एकत्र होते रहते थे. समय आने पर उनके ज्योतिष ज्ञान का पता विक्रमादित्य चन्द्रगुप्त द्वितीय को लगा. राजा ने उन्हें अपने दरबार के नवरत्नों में शामिल कर लिया. मिहिर ने सुदूर देशों की यात्रा की,यहां तक कि वह यूनान भी गये. सन् ५८७ में वराहमिहिर की मृत्यु हो गई.

550 ई. के लगभग इन्होंने तीन महत्वपूर्ण पुस्तकें बृहज्जातक,बृहत्संहिता और पंचसिद्धांतिका,लिखीं. इन पुस्तकों में त्रिकोणमिति के महत्वपूर्ण सूत्र दिए हुए हैं,जो वराहमिहिर के त्रिकोणमिति के ज्ञान के परिचायक हैं.

पंचसिद्धांतिका में वराहमिहिर से पूर्व प्रचलित पाँच सिद्धांतों का वर्णन है. ये सिद्धांत हैं : पोलिशसिद्धांत,रोमकसिद्धांत,वसिष्ठसिद्धांत,सूर्यसिद्धांत तथा पितामहसिद्धांत. वराहमिहिर ने इन पूर्वप्रचलित सिद्धांतों की महत्वपूर्ण बातें लिखकर अपनी ओर से 'बीज' नामक संस्कार का भी निर्देश किया है,जिससे इन सिद्धांतों द्वारा परिगणित ग्रह दृश्य हो सकें. इन्होंने फलित ज्योतिष के लघुजातक,बृहज्जातक तथा बृहत्संहिता नामक तीन ग्रंथ भी लिखे हैं. बृहत्संहिता में वास्तुविद्या,भवन-निर्माण-कला,वायुमंडल की प्रकृति,वृक्षायुर्वेद आदि विषय सम्मिलित हैं.

अपनी पुस्तक के बारे में वराहमिहिर कहते है:-
ज्योतिष विद्या एक अथाह सागर है और हर कोई इसे आसानी से पार नहीं कर सकता. मेरी पुस्तक एक सुरक्षित नाव है,जो इसे पढ़ेगा वह उसे पार ले जायेगी.
यह कोरी शेखी नहीं थी. इस पुस्तक को अब भी ग्रन्थरत्न समझा जाता है.

वराहमिहिर की कृतियों की सूची
• पंचसिद्धान्तिका,
• बृहज्जातकम्,
• लघुजातक,
• बृहत्संहिता
• टिकनिकयात्रा
• बृहद्यात्रा या महायात्रा
• योगयात्रा या स्वल्पयात्रा
• वृहत् विवाहपटल
• लघु विवाहपटल
• कुतूहलमंजरी
• दैवज्ञवल्लभ
• लग्नवाराहि

वैज्ञानिक विचार तथा योगदान
वराहमिहिर वेदों के ज्ञाता थे मगर वह अलौकिक में आँखे बंद करके विश्वास नहीं करते थे. उनकी भावना और मनोवृत्ति एक वैज्ञानिक की थी. अपने पूर्ववर्ती वैज्ञानिक आर्यभट की तरह उन्होंने भी कहा कि पृथ्वी गोल है. विज्ञान के इतिहास में वह प्रथम व्यक्ति थे जिन्होंने कहा कि कोई शक्ति ऐसी है जो चीजों को जमीन के साथ चिपकाये रखती है. आज इसी शक्ति को गुरुत्वाकर्षण कहते है.

वराहमिहिर ने पर्यावरण विज्ञान (इकोलाॅजी),जल विज्ञान (हाइड्रोलाॅजी),भूविज्ञान (जिओलाॅजी) के संबंध में महत्वपूर्ण टिप्पणियाँ की. उनका कहना था कि पौधे और दीमक जमीन के नीचे के पानी को इंगित करते हैं. आज वैज्ञानिक जगत द्वारा उस पर ध्यान दिया जा रहा है. उन्होंने लिखा भी बहुत था. संस्कृत व्याकरण में दक्षता और छंद पर अधिकार के कारण उन्होंने स्वयं को एक अनोखी शैली में व्यक्त किया था. अपने विशद ज्ञान और सरस प्रस्तुति के कारण उन्होंने खगोल जैसे शुष्क विषयों को भी रोचक बना दिया,जिससे उन्हें बहुत ख्याति मिली. उनकी पुस्तक पंचसिद्धान्तिका (पांच सिद्धांत),बृहत्संहिता,बृहज्जात्क (ज्योतिष) ने उन्हें फलित ज्योतिष में वही स्थान दिलाया है जो राजनीति दर्शन में कौटिल्य का,व्याकरण में पाणिनि का और विधान में मनु का है.

त्रिकोणमिति
कई त्रिकोणमितीय सूत्र वाराहमिहिर ने प्रतिपादित किये हैं.
वाराहमिहिर ने आर्यभट प्रथम द्वारा प्रतिपादित ज्या सारणी को और अधिक परिशुद्ध बनाया.

अंकगणित
वराहमिहिर ने शून्य एवं ऋणात्मक संख्याओं के बीजगणितीय गुणों को परिभाषित किया

संख्या सिद्धान्त
वराहमिहिर 'संख्या-सिद्धान्त' नामक एक गणित ग्रन्थ के भी रचयिता हैं जिसके बारे में बहुत कम ज्ञात है. इस ग्रन्थ के बारे में पूरी जानकारी नहीं है क्योंकि इसका एक छोटा अंश ही प्राप्त हो पाया है. प्राप्त ग्रन्थ के बारे में पुराविदों का कथन है कि इसमें उन्नत अंकगणित,त्रिकोणमिति के साथ-साथ कुछ अपेक्षाकृत सरल संकल्पनाओं का भी समावेश है.

क्रमचय-संचय
वराहमिहिर ने वर्तमान समय में पास्कल त्रिकोण (Pascal's triangle) के नाम से प्रसिद्ध संख्याओं की खोज की. इनका उपयोग वे द्विपद गुणाकों (binomial coefficients) की गणना के लिये करते थे.

प्रकाशिकी
वराहमिहिर का प्रकाशिकी में भी योगदान है. उन्होंने बताया कि परावर्तन कणों के प्रति-प्रकीर्णन (back-scattering) से होता है. उन्होंने अपवर्तन की भी व्याख्या की.

वरहमिहिर के विभिन्न विषयों के योगदान ने भारतवासियों को गौरवान्वित किया और भारत को सदैव अग्रणी रखा है.उनके महान खोज एवं ज्ञान के लिए संसार उन्हें सदा याद रखेगा.

मानवाधिकार का आधार है संवेदना एवं समताभरा व्यवहार

रचनाकार- प्रमोद दीक्षित मलय

मनुष्य एक शिशु के रूप में जन्म लेता है और शिशु को जन्म लेते ही मानव के रूप में गरिमामय जीवन जीने का अधिकार प्राकृतिक रूप से प्राप्त हो जाता है. प्रत्येक मानव के लिए स्वतंत्रता,समानता और सम्मान के अधिकार के साथ जीवन में आगे बढ़ने और समाज,जीवन के किसी भी क्षेत्र में काम करने एवं आगे बढ़ने हेतु भयरहित निर्बाध खुला मार्ग उपलब्ध है. किसी भी मानव के साथ नस्ल,लिंग,जाति,भाषा,धर्म,विचार,जन्म,रंग,क्षेत्र एवं देश के आधार पर किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जा सकता. संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा 10 दिसंबर,1948 को विश्व मानवाधिकार घोषणा पत्र जारी कर मानव अधिकारों की रक्षा कर मानव मूल्यों एवं आदर्शों के संरक्षण पर बल दिया गया है. वर्ष 1950 से संयुक्त राष्ट्र से सम्बद्ध देशों द्वारा मानवाधिकार दिवस मनाने एवं प्रचार प्रसार करने हेतु सतत् प्रयास सराहनीय हैं. प्रत्येक वर्ष 10 दिसंबर को मानवाधिकार दिवस मना कर संपूर्ण विश्व में मानव अधिकारों के प्रति सजगता और जागरूकता का प्रचार-प्रसार करते हुए मानवता के विरुद्ध हो रहे जुल्म एवं अत्याचारों को रोकने और उसके विरुद्ध आवाज उठाने,खड़े होने और संघर्ष करने के लिए प्रेरित किया जाता है. भारत में मानवाधिकार बहुत विलंब से लागू हुए. 28 सितंबर 1993 को मानवाधिकार कानून बनाया गया जिसके आलोक में 12 अक्टूबर 1993 को सरकार ने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का गठन कर नागरिकों के हितों एवं अधिकारों की सुरक्षा हेतु पहल की.

मानवाधिकारों का वर्तमान वितान भले ही आकर्षक एवं चेतना युक्त दिखाई पड़ रहा हो पर मानव इतिहास क्रूरता,कुभाव,कलुषता,हिंसा,रुदन और अत्याचार से भरा हुआ है. इतिहास के पन्ने मनुष्य के रक्त से भीगे हुए हैं और शोषण की गाथाओं से भरे हुए भी. मानव जीवन की इस यात्रा में ऐसे हजारों चित्र अंकित हैं जहाँ मानवता शर्मसार होती दिखाई देती है,जहाँ मनुष्य द्वारा मनुष्य को एक जानवर की भांति उपयोग और उपभोग की वस्तु बना दिया गया हो,जहाँ वह वस्तु की भाँति बेचा और खरीदा गया हो,जहाँ उसकी साँसों के स्पंदन पर नियंत्रण उसके मालिक का रहा हो. समृद्ध वर्ग द्वारा निर्धनों के प्रति यह बरताव युगों-युगों से पूरी दुनिया में जारी रहा है. एशिया,अफ्रीका,अमेरिका एवं यूरोपीय देशों में अमानवीय दास प्रथा को उदाहरण के रूप में देखा जा सकता है. जो सभ्यताएँ तलवार एवं छल-प्रलोभन के बल पर बढ़ीं वहां दास प्रथा को बढ़ावा और प्रश्रय मिला. युद्धबंदी,सामूहिक अपहरण और संगठित दास बाजार के उदाहरण इतिहास के पृष्ठों में दर्ज हैं. मनुष्य की स्वतंत्रता अमरीकी आजादी के संघर्ष का नारा ही था. भारत भी इस अमानवीय प्रथा से अलग नहीं रहा. बंधुआ मजदूरों के रूप में मानव का एक बड़ा वर्ग पीढ़ी दर पीढ़ी अमानवीय एवं अपमानजनक जीवन जीने को अभिशप्त रहा है. पर 1975 में एक कानून बनाकर बंधुआ मजदूरी को संज्ञेय दंडनीय अपराध घोषित कर देने से हजारों मनुष्यों को इस नारकीय जीवन ये मुक्ति मिली. विश्व में बाल मजदूरी को भी इसी पंक्ति में रखा जा सकता है. आज भी कम साक्षरता वाले राज्यों में अक्सर मानवाधिकार हनन की घटनाएँ जैसे पुलिस प्रताड़ना,झूठे केस में फँसाने एवं निर्दयता से मारने आदि प्रकाश में आती रहती हैं. इतना ही नहीं संपूर्ण विश्व में नारी गौरव,अस्मिता एवं अस्तित्व को हाशिए पर रखा गया है. महाभारत के द्रोपदी चीर हरण का दृश्य आँखों के सम्मुख बरबस आ जाना स्वाभाविक ही है.

आधुनिक युग पर दृष्टिपात करें तो कतिपय देशों की साम्राज्यवादी नीति ने लाखों निर्दोष मनुष्यों के लहू से वसुधा को रक्तरंजित किया है. प्रथम विश्व युद्ध से ही यह प्रश्न वैश्विक विचार फलक पर उभरने लगे कि एक मानव के रूप में उसके क्या अधिकार हैं. द्वितीय विश्व युद्ध में लाखों नागरिकों की हत्या से इन प्रश्नों की स्याही और गहरी हुई. भारत-पाकिस्तान के बँटवारे में धर्मांधता की आग में लाखों जीवन झुलस गए और नारी अस्मिता तार-तार हुई. पूरे विश्व में महिलाओं के श्रम का शोषण हुआ और कुछ देशों में महिलाएँ मतदान के अधिकार से वंचित भी रही हैं. इन तमाम संदर्भों के धरातल पर तब संयुक्त राष्ट्र संघ में मानवाधिकारों पर न केवल चर्चा-परिचर्चा करके एक रास्ता खोजने की पहल की गई बल्कि सर्वसम्मति से मानवाधिकारों का एक घोषणा पत्र भी जारी हुआ. इस वैश्विक घोषणा पत्र में प्रत्येक व्यक्ति को गरिमामय स्वतंत्र जीवन जीने की सुरक्षा का अधिकार मिला. मनुष्य की मनुष्य द्वारा की जा रही दासता से मुक्ति का उजास भरा पथ मिला. यातना,पीड़ा,क्रूरता से आजादी और एक मानव के रूप में जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में समानता का भी अधिकार प्राप्त हुआ. और यह भी किसी भी राज्य-सत्ता द्वारा किसी भी व्यक्ति की मनमाने ढँग से गिरफ्तारी करने,हिरासत में रखने और देश से निर्वासन पर अंकुश लगाकर गैरकानूनी घोषित कर दिया गया. जब तक अदालत द्वारा आरोपी पर दोष सिद्ध न हो जाए तब तक उसे निर्दोष होने का अधिकार भी प्रदत्त है. घर,परिवार एवं पत्राचार में निजता की उपेक्षा कोई नहीं कर सकता. इसके साथ ही कोई भी व्यक्ति अपने देश के अंदर एवं अन्य किसी भी देश में भ्रमण करने,अपने देश की नागरिकता त्यागने एवं अन्य देश की नागरिकता ग्रहण करने और किसी भी देश में राजनीतिक शरण पाने का (गैर-राजनीतिक अपराध को छोड़कर) अधिकार रखता है. एक मनुष्य के रूप में वह धर्म,वर्ग,जाति,उपासना पद्धति से परे अपनी पसंद से किसी भी मनुष्य से शादी करने एवं परिवार बढ़ाने का अधिकार रखता है. वह अपनी समझ विकसित करने एवं कला-कौशल वृद्धि हेतु शिक्षा प्राप्त करने एवं साहित्य,संगीत,नृत्य आदि ललित कलाएँ सीखने-रचने का अधिकार रखते हुए वह सांस्कृतिक एवं बौद्धिक संपदा के संरक्षण का भी कानूनन अधिकारी है. स्त्री-पुरुष लैंगिक भेदभाव से मुक्त हो लोकतांत्रिक प्रक्रिया का हिस्सा बनकर समान रूप से विकास पथ पर अग्रसर हुए.

वास्तव में यह दुनिया एक सुंदर सुवासित उपवन है जिसमें मानव रूपी विविधवर्णी मनमोहक पुष्प शोभायमान हैं. इसका सौंदर्य एकात्मता में है अलगाव एवं विभेद में नहीं. शक्ति समुच्चय से ही समृद्धि के संकल्प की सिद्धि है और रिद्धि की प्राप्ति भी. मानवीय योग-क्षेम की कुशलता का आधार परस्पर सहकार,सख्य,सौम्यता,सामंजस्य,शुचिता एवं सहानुभूति हैं न कि अमैत्री,अशौच,विषमता,द्वेष एवं घृणा. परस्पर सहयोग से ही जीवन-घट आनंद रस से परिपूर्ण है. हम संपूर्ण दुनिया में आनंद रस वर्षण करें,अमिय स्नेह बाँटें जहां देश की संकीर्ण सीमाएं न हों और न हों रंग,नस्ल,पंथ की क्षुद्र बंधन. हम प्रीति-आत्मीयता का गुलाल मुट्ठियों में भर उड़ाते रहें जिससे हर मानव मन दैवीय संपदा से समृद्ध एवं सुगंधित हो और करुणा,ममता,समरसता,संवेदना एवं समताभाव से ओतप्रोत भी. हम अपनी वैचारिक साम्य संपदा से संपूर्ण विश्व को मानवीय गरिमा से आलोकित,अलंकृत एवं आभामय कर सकें,तभी इस दिवस को मनाने की सार्थकता सिद्ध होगी.

श्रीनिवास रामानुजन: गणित का दैदीप्यमान नक्षत्र

रचनाकार- प्रमोद दीक्षित मलय

लेख का आरम्भ आज से 125 साल पहले एक गांव के विद्यालय की कक्षा तीन की गणित की बेला के एक दृश्य से करता हूं. शिक्षक बच्चों से बातचीत करते हुए कहते हैं कि ,तीन केले यदि तीन लोगों में या एक हजार केलों को एक हजार लोगों में बराबर बांटा जाये तो प्रत्येक को एक-एक केला मिलेगा. अर्थात् किसी दी हुई संख्या में उसी संख्या से भाग देने पर भागफल एक आता है. तभी एक बच्चे ने सवाल किया कि ,क्या शून्य को शून्य से भाग देने पर भी भागफल एक आयेगा. कक्षा में मौन पसर गया. इस बालक ने कक्षा पांचवीं में पूरे जिले में सर्वाधिक अंक प्राप्त कर अपने माता-पिता और विद्यालय को गौरवान्वित किया. इतना ही नहीं,कक्षा सातवीं में पढ़ते हुए कक्षा बारहवीं और बी.ए. के बच्चों को गणित पढ़ाया करता था. आगे चलकर यही बालक विश्व का महान गणितज्ञ सिद्ध हुआ.जिसे सभी श्रीनिवास रामानुजन आयंगर के नाम से जानते हैं. और जिनके प्रमेय आधारित सूत्र गणितज्ञों के लिए आज भी रहस्य एवं अबूझ पहेली बने हुए हैं और शोधकार्य का आधार भी. जिनके नाम पर रामानुजन अभाज्य,रामानुजन स्थिरांक सिद्धांत विश्व विश्रुत हैं. वास्तव में रामानुजन गणित की दुनिया के प्रखर भास्कर थे जिनके ज्ञान,मेधा और अंक शास्त्र की समझ से विश्व चमत्कृत है. वह गणितीय कर्म कौशल के फलक का कोहिनूर माणिक्य हैं. गणित के आकाश का दैदीप्यमान नक्षत्र हैं जिनकी आभा से गणित-पथ प्रकाशित है,जिनके महनीय अवदान से गणित-कोश समृद्ध,समुन्नत और सुवासित हुआ है.

रामानुजन का जीवन-पथ कंटकाकीर्ण था. तमाम अभावों और दुश्वारियों से जूझते हुए वह गणित के शोधकार्य में मृत्युपर्यन्त साधनारत रहे. अंतिम घड़ी तक रोगशैय्या पर पेट के बल लेटे औंधे मुंह वह गणित के सूत्र रचते रहे. रामानुजन का जन्म तमिलनाडु के एक निर्धन ब्राह्मण परिवार में पिता श्रीनिवास के कुल में माता कोमलतम्म्ल की कोख से 22 दिसम्बर 1887 को इरोड में हुआ था. पिता एक दुकान में मुनीम अर्थात खाता-बही लेखन का काम करते थे. एक वर्ष बाद पिता परिवार के साथ कुंभकोणम आ गये. मजेदार बात यह कि बालक तीन वर्ष तक कुछ बोला ही नहीं. सभी समझे कि वह गूंगा है. पर आगे वाणी प्रस्फुटित हुई तो परिवार में खुशी छाई. रामानुजन का बचपन कुंभकोणम में बीता और यहीं पर ही प्राथमिक शिक्षा भी पूरी हुई. आगे की शिक्षा के लिए टाउन हाईस्कूल में प्रवेश लिया. यहां पढ़ने का बेहतर वातावरण मिला. स्थूलकाय रामानुजन की आंखों में नया सीखने की उत्कट उत्कंठा की चमक थी. स्कूल के पुस्तकालय में त्रिकोणमिति आधारित सूत्रों की एक पुस्तक मिली. बालक रामानुजन उन सूत्रों को हल करने में जुटे रहते. न प्यास की चिंता न भोजन का ध्यान. सूत्रों को हल करने की ललक से रामानुजन गणितीय संक्रियाओं को समझने और हल करने में पारंगत हो गये. वह अंकों से खेलने लगे,उनके गुण-धर्मों पर सोचने लगे. पर इसके कारण अन्य विषयों के अध्ययन के लिए समय न बचता. फलतः उनमें पिछड़ते गये. लेकिन हाईस्कूल उत्तीर्ण कर लिया और गणित एवं अंग्रेजी में अधिक अंक प्राप्त करने के कारण आगे के अध्ययन के लिए सुब्रमण्यम छात्रवृत्ति मिली और कालेज में 11वीं कक्षा में दाखिला ले लिया. पर गणित में सर्वोच्च अंक लाकर अन्य विषयों में अनुत्तीर्ण हो गये. छात्रवृत्ति बंद हो गई और कालेज छूट गया. परिवार की आर्थिक स्थिति डांवाडोल और जरूरतें मुंह बाये खड़ी थीं. गणित का ट्यूशन शुरू किया तो पांच रुपये महीना मिलने लगे. 1907 में बारहवीं की परीक्षा में व्यक्तिगत परीक्षार्थी के रूप में बैठे पर फिर अनुत्तीर्ण हो गये,हालांकि गणित में पूरे अंक प्राप्त किये. परिणाम यह हुआ कि कालेज हमेशा के लिए छुट गया.

अगले पांच वर्ष जीवन की कड़ी परीक्षा का काल था. पढ़ाई छूट चुकी थी,कोई काम-धंधा था नहीं. गणित में काम करने का असीम उत्साह तरंगें मार रहा था पर किसी विद्वान शिक्षक-प्रोफेसर का साथ न था. ऐसे विकट संकटकाल में एक भाव था ,जो रामानुजन को अनवरत ऊर्जा प्रदान कर रहा था.और वह था ईश्वर के प्रति दृढ आस्था और विश्वास. कुलदेवी नामगिरि के प्रति अनंत असीम श्रद्धा और समर्पण भाव उनके हृदय को ज्योतित किए हुए था,जिसका उल्लेख रामानुजन ने प्रो. हार्डी के साथ बातचीत में करते हुए कहा था ,कि गणित में शोध भी मेरे लिए ईश्वर की ही खोज है. इसी दौरान 1909 में पिता ने 12 वर्षीय कन्या जानकी से रामानुजन का विवाह करवा दिया. अब पारिवारिक जिम्मेदारियां बढ़ गईं तो आजीविका की तलाश में मद्रास(अब चैन्नै) की राह पकड़ी. पर 12वीं अनुत्तीर्ण युवक को नौकरी पर कौन रखता. जैसे-तैसे एक साल गुजरा,स्वास्थ्य भी गिरने लगा तो कुंभकोणम लौटना पड़ा. एक साल बाद फिर मद्रास लौटे. पर अबकी बार अपने गणित के शोधकार्य का रजिस्टर साथ लाये और रजिस्टर दिखाकर काम मांगने लगे. संयोग से एक शुभचिंतक ने रजिस्टर देखा तो रामानुजन को डिप्टी कलेक्टर से मिलने की सलाह दी. डिप्टी कलेक्टर वी रामास्वामी अय्यर स्वयं गणित के विद्वान थे. वह रामानुजन के काम से प्रभावित हुए और जिलाधिकारी रामचंद्र राव से अनुशंसा कर 25 रुपये मासिक मानधन का प्रबंध करवा दिया. इससे रामानुजन को आर्थिक झंझावात से आंशिक मुक्ति मिली और वे शोधकार्य में अधिक ध्यान देने लगे. इसी अवधि में वह इंडियन मैथमेटिक्स सोसायटी में काम करते हुए उसके जर्नल के लिए प्रश्न बनाने और हल करने का काम भी करने लगे थे. इसी जर्नल में आपका पहला शोध-पत्र ‘बरनौली संख्याओं का गुण’ प्रकाशित हुआ जिसकी चतुर्दिक भूरि-भूरि प्रशंसा हुई. आगे मद्रास पोर्ट ट्रस्ट में क्लर्क के पद पर काम करने लगे. यह समयावधि रामानुजन के शोध के लिए उपयुक्त थी. रात भर स्लेट पर सूत्र बनाते,हल करते,फिर रजिस्टर पर उतारते और थोड़े आराम के बाद कार्यालय निकल जाते. अब एक गणितज्ञ के रूप में पहचान बनने लगी थी. मित्र की सलाह पर अपने काम को इंग्लैंड के गणितज्ञों के पास भेजा पर कोई महत्व न मिला. संयोग से 8 फरवरी 1913 को एक पत्र प्रो. जी.एच. हार्डीको भेजते हुए उनके एक अनुत्तरित प्रश्न को हल करने के सूत्र खोजने का संदर्भ देकर अपने कुछ प्रमेय भी भेजे. पहले तो हार्डी ने पत्र पर ध्यान न दिया पर अपने शिष्य लिटिलवुड से परामर्श कर रामानुजन के काम की गम्भीरता समझी और रामानुजन को मद्रास विश्वविद्यालय से छात्रवृति दिला कालांतर में शोध हेतु अपने पास लंदन बुलवा लिया. दोनों साथ शोधकार्य करते रहे. यहां रामानुजन के कई शोध-पत्र प्रकाशित हुए. ऐसे ही एक विशेष शोधकार्य पर कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय ने बी.ए. की उपाधि प्रदान की. लेकिन वहां की जलवायु,रहन-सहन,खान-पान और सामाजिक व्यवहार से शर्मीले,संकोची,आत्मनिष्ठ शाकाहारी रामानुजन तादात्म्य न बैठा सके. स्वयं भोजन पकाने और शोधकार्य के अत्यधिक मानसिक श्रम से शरीर क्षीण होने लगा. चिकित्सकों ने क्षय रोग बता आराम करने की सलाह दी. पर रामानुजन पर काम की धुन सवार थी. इसी काल में आपको रॉयल सोसायटी का फेलो चुना गया. आज तक सबसे कम उम्र में फेलो चुने जाने वाले वह पहले व्यक्ति थे.और पहले अश्वेत भी. ट्रिनिटी कालेज से फेलोशिप पाने वाले पहले भारतीय बने. रोग बढ़ने के कारण आप जन्मभूमि भारत लौट आये. मद्रास विश्वविद्यालय में प्रोफेसर नियुक्त हुए. पर स्वास्थ्य तेजी से गिरने लगा. रोग शैय्या पर लेटे-लेटे ही आप काम करते. कालपाश रामानुजन के प्राणों की ओर बढ़ रहा था. 26 अप्रैल 1920 को गणित का यह जगमगाता दीप अपना प्रकाश समेट अनंत की यात्रा पर निकल गया.

रामानुजन का काम आज भी गणितज्ञों की परीक्षा ले रहा है. ट्रिनिटी कालेज के पुस्तकालय में 1976 में रामानुजन का हस्तलिखित 100 पन्नों का रजिस्टर मिला था.जिसमें उनकी प्रमेय और सूत्र लिखे हैं. जिसे टाटा फंडामेंटल रिसर्च सेंटर ने रामानुजन नोटबुक नाम से प्रकाशित किया है. उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर एक फिल्म ‘द मैन हू न्यू इन्फिनिटी’ भी बन चुकी है. भारत सरकार ने 1912 में 125वीं जयंती के अवसर पर रामानुजन पर डाक टिकट जारी करते हुए उनके जन्मदिन 22 दिसम्बर को गणित दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की. गूगल ने डूडल बनाकर अपना श्रद्धा भाव अर्पित किया. जब तक गणित है तब तक उनकी खोज ‘रामानुजन संख्याएं’ (1729,4104,39312 आदि),थीटा फलन और संख्या सिद्धांत पर उनका विशेष काम विद्यार्थियों को प्रेरित करता रहेगा. रामानुजन हमेशा गणित के पृष्ठों पर विद्यमान रहेंगे.

हमारे प्रेरणास्रोत- स्वामी विवेकानंद

स्वामी विवेकानंदजी का जन्म १२ जनवरी,१८६३ को कलकत्ता में हुआ. इनके पिता श्री विश्वनाथ दत्त कलकत्ता हाईकोर्ट के एक प्रसिद्ध वकील थे. उनकी माता भुवनेश्वरी देवी सभी धर्मों को मानने वाली थीं. पारिवारिक वातावरण के कारण उनमें बचपन से ही हिंदू धर्म और आध्यात्म का गहरा प्रभाव पड़ गया.

पिताजी ने बहुत ही कम उम्र में स्कूल में उनका दाख़िला करवा दिया. उन्हें बचपन से ही नयी-नयी चीजों को जानने की जिज्ञासा थी. इसी जिज्ञासा ने उन्हें दर्शन शास्त्र,धर्म,इतिहास,सामाजिक विज्ञान,साहित्य,वेद,उपनिषद,भगवद गीता,रामायण,महाभारत,पुराण सहित अन्य विषयों का भी महान ज्ञाता बना दिया. विषयों के साथ-साथ,वह शारीरिक व्यायाम व खेलों में भी रुचि लिया करते थें. उन्होंने कलकत्ता के प्रेज़िडेन्सी कॉलेज से स्नातक की पढ़ाई पूरी की.

एक बार स्वामीजी और उनके साथी,दक्षिणेश्वर स्थित काली मंदिर गए,वहाँ उनकी मुलाक़ात मंदिर के पुजारी रामकृष्ण परमहंस से हुई. स्वामीजी,परमहंस के विचारों से इतने प्रभावित हुए,कि उन्हें अपना गुरु बना लिया. वह ६ वर्षों तक उनकी सेवा में संलग्न रहे.उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस की मृत्यु के पश्चात वह पैदल ही पूरे भारतवर्ष की यात्रा पर निकल गए. इसी दौरान विवेकानंद जी ने गुरु की याद में रामकृष्ण मठ,रामकृष्ण मिशन की स्थापना की.

स्वामी विवेकानंदजी जब शिकागो में रहते थे,तब वहाँ के पुस्तकालय से बड़ी मात्रा में पुस्तकों को उधार लिया करते थें,और एक दिन में ही उन्हें लायब्रेरियन को वापस कर देते थे. अचंभित हो कर लायब्रेरियन ने स्वामी विवेकानंद से पूछा की जब उन्हें पढ़ना ही नहीं था तो किताबें उधार क्यूँ ली ? जब स्वामीजी ने कहा कि उन्होंने सारी किताबें पढ़ ली हैं,तो लायब्रेरियन को भरोसा ही नहीं हुआ और उसने उनकी परीक्षा लेने की सोची. वह एक किताब से किसी भी पृष्ठ का चयन कर उनसे प्रश्न करती,तो स्वामीजी पुस्तक पर बिना नज़र डाले सही जवाब देते. उनसे ऐसे और कई सवाल पूछे गए और उन्होंने सभी के सही जवाब दिए. इसी ज्ञान और अभूतपूर्व स्मरण शक्ति के कारण वह जब लोगों के बीच भाषण देते तो लोग बिना हिले घंटो उन्हें सुनते.

स्वामी विवेकानंदजी ने मात्र तीस वर्ष की आयु में शिकागो में हुए विश्व धर्म सम्मेलन में एक बेहद चर्चित भाषण दिया था. उन्हें प्रमुख रूप से भाषण की शुरुआत “मेरे अमरीकी भाइयों और बहनों” के साथ करने के लिए जाना जाता हैं.स्वामी जी द्वारा दिए गए भाषण में उनकी भाषा शैली और ज्ञान से अमेरिकी भी इतने प्रभावित हुए की उन्हें “साईक्लोनिक हिंदू” का नाम दिया.

स्वामी विवेकानंद के अनमोल विचारों ने उनको महान पुरुष बनाया. वे हमेशा भाई-चारा,प्रेम की शिक्षा देते थे,उनका मानना था की प्रेम और भाईचारे से जीवन के हर संघर्ष से आसानी से निपटा जा सकता हैं. इतने गुणों से धनी व्यक्ति का भारत भूमि में जन्म लेना,भारत को पवित्र और गौरवान्वित करता हैं.

सफलता की कहानी- व्यवहार में परिवर्तन

बालिका का नाम- गुंजन (परिवर्तित नाम)

संस्था का नाम- कस्तूरबा गाँधी बालिका विद्यालय बिलाईगढ़,बलौदा बाज़ार

कक्षा - सातवीं

कस्तूरबा गाँधी बालिका विद्यालय बिलाईगढ़ में कक्षा सातवीं की बालिका गुंजन,जिनका कहना है कि भेदभाव रहित समाज ही सबको आगे बढ़ने में मदद करेगा.

गुंजन का कहना है कि पहले उसे पता नहीं था कि अगर कोई बात हमें अच्छी नहीं लग रही है तो उसे कैसे कहा जाये,गुंजन ने कहा “मेरी माँ पहले मेरे साथ बहुत भेदभाव पूर्वक व्यवहार करती थी. मेरे दोनों भाइयों को ज्यादा प्यार देती थी और मुझे कम. मेरे भाइयों के लिए नए-नए कपड़े खरीदती थी पर मेरे लिए बहुत ही कम. यह सब देखकर मुझे बहुत दुःख होता था और मैं बहुत रोती थी.

जब गुंजन अधीक्षिका द्वारा अगस्त माह 2019 में आयोजित कक्षा सातवीं के जीवन कौशल सत्र “लिंग भूमिकाएँ और रूढ़ीवादी सोच” में शामिल हुयी तब उसे इस बात की जानकारी मिली कि जो उसके साथ घर पर परिवार वाले व्यवहार करते हैं वो भी तो भेदभाव ही है. फिर गुंजन ने सोचा कि मैं यह बात घर पर कहूँगी. जब छुट्टियों में वह अपने घर गयी तो उसने अपनी मम्मी पापा को बताया कि हमारे स्कूल में जीवन कौशल की शिक्षा दी जाती है,जिसमें यह बताया गया है कि माता-पिता को अपने बच्चों के साथ किसी भी तरह का भेदभाव नहीं करना चाहिए,तो आप लोग भी मेरे साथ इस तरह का भेदभाव पूर्वक व्यवहार मत किया कीजिये,मुझे यह बिलकुल अच्छा नहीं लगता और मैं बहुत रोती हूँ. इस तरह कई बार समझाने के बाद मेरे मम्मी पापा को भी अहसास हुआ कि वो मेरे साथ गलत व्यवहार कर रहे थे. अब मेरे मम्मी पापा दोनों मुझसे बहुत प्यार करते हैं और मेरे लिए नए कपड़े भी लाते हैं.

इस पूरी घटना की जानकारी गुंजन ने अपने अधीक्षिका एवं शिक्षिका को दी और कहा कि मैडम मेरे जीवन में यह बदलाव जीवन कौशल की शिक्षा के कारण हुआ है,अब मैं बहुत खुश हूँ.

गुंजन का कहना है कि- अभिभावकों को अपने बच्चों के साथ भेदभाव नहीं करना चाहिए जो कार्य लड़के कर सकते हैं वो कार्य लड़कियां भी कर सकती हैं और पैसों के कारण कभी भी पढ़ाई नहीं छोड़नी चाहिए.

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