कहानियाँ

पंचतंत्र की कथाएँ- तीन मछलियां

किसी नदी के किनारे उस से जुड़ा एक गहरा सरोवर था यह चारों ओर से घने वृक्षों और झाड़ियों से घिरा हुआ था. इसी कारण आसानी से लोगों की दृष्टि में नहीं आता था. उस सरोवर में अनेक जीव - जंतु सुरक्षित होकर रहते थे. सरोवर में तीन मछलियां साथ-साथ रहती थीं. उनके नाम थे स्वर्णरेखा,मत्स्यगंधा और रजतवर्णा.

स्वर्णरेखा सुनहरे रंग की बहुत बुद्धिमान मछली थी. किसी संकट का पूर्वानुमान होते ही अपने बचाव का उपाय कर लेती थी. मत्स्यगंधा भी बहुत चतुर थी वह किसी आपदा से नहीं डरती थी. उसे अपनी बुद्धि पर बहुत भरोसा था. उसे विश्वास था,कैसा भी संकट आए वह बच कर निकल जाएगी. रजतवर्णा इन दोनों से अलग थी. उसे लगता था,प्रकृति में सब कुछ पहले से निश्चित है जब जो होना है वह होकर ही रहेगा. कोई प्राणी कितना भी प्रयत्न करले,वह होनी को नहीं टाल सकता. विचारों में भिन्नता होते हुए भी तीनों में गहरी मित्रता थी.

एक बार कुछ मछुआरे नदी से मछलियाँ पकड़ कर अपनी बस्ती ओर लौट रहे थे. उस दिन उन्हें बहुत कम मछलियाँ मिल पाई थीं. इसलिए वे कुछ निराश थे. एकाएक उन्होंने आकाश में अनेक बगुलों को उड़ते हुए देखा जो सरोवर की ओर से आ रहे थे.

उन्होंने अनुमान लगाया जिस दिशा से वे आ रहे हैं उधर अवश्य ही कोई बड़ा जलाशय होगा तभी इतनी बड़ी संख्या में बगुले उधर गए होंगे. वे सभी उस ओर चल पड़े जिस ओर से बगुले आ रहे थे. कुछ दूर चलने के बाद उन्हें वहाँ वह सुंदर सरोवर दिखाई पड़ा. उन्होंने देखा सरोवर के निर्मल जल में छोटी-बड़ी असंख्य मछलियाँ तैर रही हैं.

मछुआरों के मुख प्रसन्नता से खिल उठे. एक मछुआरे ने कहा,'अहा! हमारे तो भाग्य खुल गए.' दूसरे ने कहा,'हाँ अब हमें कहीं और भटकने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी.' तीसरे मछुआरे ने कहा,'पर भाई,अब तो सांझ ढलने को आ गई. अच्छा होगा,कलभोर में ही हम यहां आ जाएं.' हां,यही उचित होगा ऐसा कहते हुए वे वहां से चले गए.

उनकी यह बातचीत इन तीनों मछलियों ने सुन ली. स्वर्णरेखा के मन में चिंता के भाव आ गए. उसने अपनी दोनों सखियों से कहा- 'अच्छा हुआ जो हमें यह बात पहले ही मालूम हो गई. हम तीनों के लिए अच्छा है कि अब हम कुछ दिनों के लिए नदी के जल में चले जाएं.'

यह सुनकर मत्स्यगंधा ने कहा,'तुम व्यर्थ ही चिंता करती हो. कल वे आ ही जाएंगे यह आवश्यक तो नहीं है. हो सकता है रात में तेज बारिश हो और उनकी झोपड़ियां गिर जाएं. हो सकता है उनकी बस्ती में आग लग जाए और वे सब उसमें फंस जाएं. यह भी हो सकता है कल उन्हें नदी में पर्याप्त मछलियां मिल जाएं. हम ऐसा मानकर क्यों चलें कि वे कल इस सरोवर में आएंगे ही. और यदि आ भी जाते हैं तो उसी समय बचने के तरीके भी ढूंढे जा सकते हैं.' स्वर्ण रेखा ने कहा 'जो उपाय तुम बाद में करना चाहती हो उसे पहले ही कर लेने में क्या हानि है. बुद्धिमान कहते हैं संकट आने से पूर्व ही बचाव के उपाय कर लेने चाहिये. जब आग लगे तब कुआँ खोदने से क्या लाभ?'

रजतवर्णा बोल पड़ी,'इस बातचीत का क्या अर्थ है? भविष्य में जो होना है वह तो होकर ही रहेगा,चाहे जो भी उपाय करलो.'

स्वर्णरेखा ने कहा,'मैं तो यहां से जाती हूं. तुम दोनों अपनी रक्षा स्वयं करना.' यह कहकर वह नदी की ओर चली गई.

दूसरे दिन बहुत से मछुआरे आए और पूरे सरोवर में उन्होंने जाल डाल दिया. मत्स्यगंधा ने सोचा अब तो कोई उपाय ढूंढना ही होगा. वह कोई गहरी और कोने की जगह ढूंढने लगी जहां जाल ना पहुंच सके पर हड़बड़ी में ऐसी कोई जगह उसे ना मिली. अचानक उसे पानी में तैरता हुआ किसी जानवर का मृत शरीर मिला. वह उसी के अंदर घुस गई.

एक मछुआरे के जाल में वह मृत शरीर भी फंस गया. जाल बाहर खींचने पर मृत शरीर के साथ मत्स्यगंधा भी बाहर आ गयी,किंतु अत्यधिक दुर्गंध के कारण मछुआरे ने उसे वापस पानी में फेंक दिया. यह एक संयोग ही था कि मछुआरे ने उसे अपनी टोकरी में नहीं डाला.

उधर रजतवर्णा भी एक दूसरे मछुआरे के जाल में फंस गई.उसे अब लग रहा था यदि उसने भी बचने का कोई प्रयत्न किया होता तो परिणाम ऐसा नहीं होता. पर अब पछताए क्या होय जब चिड़िया चुग गई खेत.... छटपटा - छटपटाकर वह अपने प्राण खो बैठी.

शुभी का शंख

रचनाकार- दीपक कंवर

समुद्र में एक मनोरम स्थान मे एक नन्ही मछली शुभी अपने माता पिता के साथ रहती थी. शुभी को घूमने फिरने का बहुत शौक था. कभी-कभी वह अकेली ही घूमने चली जाती थी. ऐसे ही एक दिन घूमते हुये उसे सुनहरे रंग का शंख मिला,ऐसा शंख उसने पहले कभी नहीं देखा था,कौतूहलवश शंख उठाकर वह जोर-जोर से फूँकने लगी,शंख की आवाज इतनी मधुर थी कि आसपास की सारी मछलियां और अन्य जीव जन्तु मंत्रमुग्ध होकर उसके चारो ओर इकट्ठा हो गये. शुभी इतने सारे जीव जंतुओं को देखकर डर गई और उसके हाथ से शंख गिर गया. सभी जीव जंतुओं ने ताली बजाते हुए शुभी से फिर से शंख बजाने का आग्रह किया. शुभी हड़बड़ी मे शंख को उल्टी तरफ से फूँकने लगी,पर इस बार शंख से इतनी डरावनी आवाज निकली कि सभी डर कर भाग गए.शंख लेकर शुभी घर आ गई. और इस बारे मे अपने माता-पिता को बताय

एक दिन शुभी घूमते-घूमते बहूत दूर तक चली गई,अचानक उसे एक बड़ी मछली ने निगल लिया. शुभी डर गई और रोने लगी. बड़ी मछली कुछ आगे बढ़ी ही थी कि तभी उससे भी बड़ी मछली ने उसे निगल लिया,अब तीसरी मछली को भी कुछ दूर जाने पर सबसे बड़ी मछली ने निगल लिया. अब शुभी सहित दोनो मछलियाँ व्बड़ी मछली के पेट के अंदर थे.. शुभी को अपने शंख की डरावनी आवाज के बारे मे याद आया और वह जोर-जोर से शंख फूँकने लगी.डरावनी आवाज से घबराकर व्हेल ने तीसरी मछली,तीसरी ने दूसरी और दूसरी मछली ने शुभी को मुँह से निकाल दिया और तीनो मछलियाँ डरकर भाग गईं. शुभी ने खुद को समुद्र मे आजाद पाकर राहत की साँस ली और वापस अपने घर आ गई.अब शुभी कभी भी अकेली घुमने नहीं जाती है.

घर

रचनाकार- जयन्त कुमार पाठक

रामपुर नाम का एक गाँव था. वहाँ के लोग बहुत ही मेहनती थे. आपस में मिलजुलकर रहते थे. गाँव से सटा हुआ घनघोर जंगल था,वहाँ बहुत से जानवर रहते थे. मनुष्य व जानवर सुखपूर्वक रहते थे.मनुष्यों ने अपने स्वार्थ व लालच के लिए जंगल काटना,जंगल में आग लगाना शुरू कर दिया. जंगल काटकर,खाली जमीन पर कब्जा कर खेती करने लगे. जंगल की अधाधुंध कटाई से जंगल धीरे-धीरे कम और वीरान होने लगा. गाँव के आदमी जंगली जानवरों का शिकार भी करने लगे. लगातार जंगल काटने व जानवरों का शिकार करने से जीव-जंतुओं के लिए समस्या बढ़ने लगी. जानवरों ने बैठक की और चर्चा की,कि यदि मनुष्य इसी तरह जंगल काटते व शिकार करते रहे,तो हमारे घर खत्म हो जाएँगे,हम कहाँ रहेंगे? जंगल के राजा ने कहा कि हम भी मनुष्य,उनके घरों व फसलों को नुकसान पहुँचाएंगे. उसके बाद सभी जानवर अपनी-अपनी क्षमता के अनुसार मनुष्यों की फसलों व घरों को नुकसान पहुँचाने लगे. मनुष्य जंगलों को और जानवरों को नुकसान पहुँचाते एवं जानवर मनुष्यों का. जो आज तक जारी है.

भूल का एहसास

रचनाकार- अनिता चंद्राकर

गाँव के सरकारी स्कूल में सोनू,कक्षा आठवी का छात्र था.वह सीधा-सादा और होनहार छात्र था. उसके स्कूल की ख्याति दूर दूर तक थी,कारण था वहाँ के प्रतिभावान बच्चों की उपलब्धि और स्कूल का अनुशासन. स्कूल में गणित विषय के नए शिक्षक 'दत्ता सर' आये. दत्ता सर ऊँचे- पूरे आकर्षक व्यक्तित्व के थे. पहले ही दिन जब वे सोनू की कक्षा में गए तो उनको देखते ही सभी बच्चे अपनी जगह पर खड़े हो गए. सम्मान पाकर दत्ता सर के चेहरे पर मुस्कान ख़िल गई. पर तभी उनकी नज़र सोनू पर पड़ी जो अभी भी बैठा हुआ था. दत्ता सर क्रोध से तिलमिला उठे. गुस्से में वे सोनू के क़रीब गए. सोनू फिर भी नहीं उठा. 'तेरी इतनी हिम्मत,शिक्षक के सामने भी बैठा है. तू खड़ा नहीं हो सकता क्या ?' दत्ता सर ने कहा.

सोनू कोई सफाई दे पाता उससे पहले ही दत्ता सर ने 'आव देखा न ताव',और छड़ी उठाकर सोनू को पीटना शुरू कर दिया. पूरी कक्षा में डर के मारे सन्नाटा छा गया. तभी एक बच्चे ने घबराते हुए कहा,' सर जी सोनू खड़ा नहीं हो सकता.' दत्ता सर ने पूछा,' क्यों ? क्या उसके पैर टूट गए हैं ?' सर वह बचपन से ही खड़ा नहीं हो सकता,वह दिव्यांग है.' उस बच्चे ने कहा. अब दत्ता सर ने सोनू की ओर देखा,सोनू की आँखों से अश्रु की अविरल धारा बह रही थी. सोनू के पैरों की ओर नज़र डाली तब दत्ता सर को अपनी ग़लती का अहसास हुआ.उनका हृदय द्रवित हो उठा. वे ख़ुद को रोक नहीं पा रहे थे.दत्ता सर की आँखों से भी आँसू बह निकले.वे सोनू को गले लगाकर रोने लगे.उसकी हथेलियों को चूमा और सोनू के आँसू पोछते हुए कहा,' बेटा मुझे माफ़ कर दो,मुझसे बहुत बड़ी भूल हुई है आज.'

' नहीं सरजी ! इसमें आपकी कोई गलती नहीं है 'सोनू ने कहा. और दोनों फ़फ़क फ़फ़क कर रोने लगे. छुट्टी के बाद दत्ता सर सोनू के घर गए और उसके पालकों से मिलकर माफी माँगी. सोनू के पिताजी ने कहा,' गुरुजी आप लोग माली की तरह है,आपकी देखरेख में ही हमारे बच्चे फूलों की तरह महकते हैं और अच्छे इंसान बनते हैं.आप लोग माता पिता से भी बढ़कर है. ' यह बात सुनकर दत्ता सर को चैन मिला,उस दिन से उनके भीतर अभूतपूर्व परिवर्तन आया. वे उस विद्यालय के सबसे प्रिय शिक्षक बन गए.

ड्यूटी

रचनाकार-टीकेश्वर सिन्हा 'गब्दीवाला'

सेवानिवृत्त शिक्षक गौकरण सिंह नेताम अपने विभागीय कार्य के सिलसिले में डी ई ओ ऑफिस जा रहे थे. अड़तीस बरस तक शिक्षक के रूप में सेवारत रहे नेताम जी अंचल के एक नामी शिक्षक रहे. उनके शिक्षकीय कर्म का न केवल विभाग; बल्कि उस कार्यक्षेत्र पर भी गहरा असर रहा.

कोलतार की सड़क पर उनकी सामान्य स्पीड चलती बाइक को ट्रैफिक पुलिस के एक कांस्टेबल ने रोका और कागजात दिखाने के लिए कहा. नेताम जी हड़बड़ा गये. बाइक का इंश्योरेंस खत्म हो चुका था. आर सी बुक भी नहीं थी. ड्राइविंग लाइसेंस घर पर रह गया था. फिर उन्होंने जैसे ही हेलमेट उतारा,कांस्टेबल मुस्कुराया- ' ओह! नेताम सर आप! वर्षों बाद आपके दर्शन हुए सर! प्रणाम!'

अपने पैरों पर झुकते हुए उस जवान को नेताम जी नहीं पहचान पाये. वे अपने दिमाग पर जोर देते हुए उसे देखते रह गये. फिर कांस्टेबल ने मुस्कुराते हुए कहा- ' मैं सूरज हूँ सर. सूरज कुमार पटेल. आपने मुझे पढ़ाया है सर. जाँजगीर जिले के देवतराई ब्लॉक के मिडिल स्कूल सिवनी में. सन तिरानवे-चौरानवे में.'

' हाँ...हाँ..! मैं उन दिनों वहीं था. पर...',

'...पर कोई बात नहीं सर,नहीं पहचान पा रहे हैं तो,बहुत दिन भी हो गये.'

' तुम्हारे चेहरे से नहीं पहचान पा रहा हूँ,पर तुम्हारा नाम मुझे याद आ रहा है. ' नेताम जी ने कांस्टेबल से कहा.

' ओ के सर. कोई बात नहीं.... अच्छा,आदरणीय अब आप अपनी गाड़ी की कागजात दिखाइए.

' मेरे पास फिलहाल एक भी कागज नहीं है.' नेताम जी सकपकाये. उन्हें अच्छा नहीं लगा. बोले - ' इंश्योरेंस एक हफ्ते पहले ही खत्म हुआ है. लाइसेंस मेरी दूसरे शर्ट की जेब में हैं. घर से जल्दबाजी में निकल गया.'

' आदरणीय,आप एक सीनियर सिटिजन हैं. एक रिटायर्ड शिक्षक हैं. आपको ऐसे नहीं चलना चाहिए. आपको चालान कटवाना पड़ेगा.' कहते हुए कांस्टेबल ने चालान की कार्यवाही पूरी की; और अपनी ड्यूटी पर लग गया. नेताम जी ने भी अपनी राह पकड़ ली.

' रात्रि लगभग साढ़े-दस बजे नेताम जी का मोबाइल घनघनाया. ' सर जी,मैं सूरज कुमार पटेल. आपका चालान काटने वाला पुलिस कांस्टेबल. साॅरी सर. आपको अच्छा नहीं लगा होगा सर. पर मैं क्या करता. मैंने अपनी ड्यूटी पूरी की सर. माफ कीजिएगा,मैंने आपको हर्ट किया सर. आपको बहुत बुरा लगा होगा. उसकी वाणी में बड़ी विनम्रता थी. ' सर,मुझे आज भी याद है,आपने पढ़ाया था अर्जुन को कृष्ण का दिया उपदेश... ' कहते हुए कांस्टेबल की जुबान ठिठक गयी.

' ओह! कोई बात नहीं बेटा. मुझे तुम पर बहुत गर्व है. बहुत अच्छा. तुमने अपना कर्तव्य पूरा किया. मैं तुमसे बहुत खुश हूँ. भगवान तुम्हें सदा खुश रखें. अपनी ड्यूटी करते रहो. बेटा,आज मुझे अपना शिक्षक होना सार्थक लगा.' शिक्षक नेताम जी के मुख से आशीष झर रहे थे.

सत्यवादिता

रचनाकार- श्वेता तिवारी

'पूत के पांव पालने में दिखाई दे जाते हैं 'कि बचपन के कुछ घटनाएं सबके लिए प्रेरणा स्रोत बन जाती हैं.

एक बार गणित के अध्यापक ने अपनी कक्षा में श्यामपट्ट पर एक प्रश्न लिखा और बच्चों को हल करने को कहा सभी बालक गुरु जी की आज्ञा का पालन करते हुए इस प्रश्न को हल करने में जुट गए.थोड़ी देर में गुरु जी ने विद्यार्थियों की उत्तर पुस्तिका को देखना शुरु किया. सभी बालकों के उत्तर गलत थे तभी उनकी दृष्टि कोने में बैठे छोटे से बालक की कॉपी पर पड़ी ,तो देखकर उनकी आंखों में चमक आ गई. गुरु जी प्रसन्न होकर बोले शाबाश गोपाल तुम्हारा उत्तर बिल्कुल सही है. उन्होंने गोपाल की पीठ थपथपाई.गोपाल ने पूरी कक्षा में धाक जमा ली,गुरुजी ने कुछ सवाल बालकों को घर से हल करके लाने को दिए. गोपाल ने घर आकर उन प्रश्नों को हल करना शुरू किया ,उसने सभी प्रश्न हल कर लिए किंतु ,एक प्रश्न बहुत कठिन था.गोपाल ने एड़ी चोटी का जोर लगाया परंतु हल नहीं हुआ. हार कर बालक ने अपने बड़े भाई की सहायता से प्रश्न हल कर लिया.अगले दिन अध्यापक जी ने सभी विद्यार्थियों की अभ्यास पुस्तिकाएं एकत्रित की पूरी कक्षा में गोपाल ही ऐसा विद्यार्थी था जिससे सारे उत्तरसही थे. गोपाल इधर आओ गुरु जी ने कहा,मुझे प्रसन्नता है कि तुम्हारे सारे उत्तर सही है लो ,मैं तुम्हें यह कलम पुरस्कार में देता हूं.गोपाल ने पुरस्कार का नाम सुना उसकी आंखों में आंसू आ गए.इस पर गुरुजी को आश्चर्य हुआ उन्होंने पूछा बेटा इसमें रोने की क्या बात है ,क्षमा करें गुरुजी गोपाल ने हाथ जोड़कर विनम्र भाव से कहा ,मैं पुरस्कार का अधिकारी नहीं हूं. पर क्यों गुरु जी ने विस्मित होकर पूछा तुम्हारे सारे उत्तर सही है.गुरु जी आप समझ रहे होंगे कि यह सभी प्रश्न मैंने स्वयं हल किए हैं ,पर यह सत्य नहीं है. एक प्रश्न मेरी समझ में नहीं आ रहा था मैंने उसे अपने बड़े भाई की सहायता से हल किया है.अब आप ही निर्णय कीजिए कि मुझे पुरस्कार मिलना चाहिए ,या दंड.बालक की सत्यवादिता एवं निर्भीकता को देखकर गुरुजी बहुत प्रसन्न हुए.उन्होंने कभी सोचा भी नहीं था कि एक छोटा सा बालक इतनी निर्भीकता से सत्य बोलने का साहस कर सकता है.वह बोले बेटा पहले मैं तुम्हें यह कलम सभी सवालों को सही हल करने के लिए दे रहा था,पर अब मैं उसे तुम्हारी ईमानदारी के लिए देता हूं.बालक ने गुरुजी से पुरस्कार प्राप्त किया. यह बालक बड़ा होकर गोपाल कृष्ण गोखले के नाम से प्रसिद्ध हुआ. गोपाल कृष्ण गोखले जिन्हें महात्मा गांधी अपना राजनीतिक गुरु मानते थे.

पछतावा

रचनाकार- प्रिया देवांगन 'प्रियू'

एक समय एक गाँव में बहुत बुद्धिमान राजा रहता था. गांव के सभी लोग राजा की प्रशंसा करते थे.राजा को जरा भी घमण्ड नही था.वह गरीबो को दान देते रहते थे. बच्चो से राजा बहुत अच्छा व्यवहार करते थे इसलिए बच्चे भी राजा से खुश रहते थे. राजा की कोई संतान नही थी,राजा को इस बात का दुख था कि मेरे जाने के बाद मेरा राज्य कौन सम्भालेगा.

बहुत दिनों बाद राजा का एक बेटा हुआ. राजा बहुत प्रसन्न हुये.राजा ने अपने बेटे का नाम वीर प्रताप रखा.गाँव और गाँव के आस पास के लोगो के लिए भोज का आयोजन किया. राजा का बेटा बड़ा हो गया लेकिन राजा के बेटे का व्यवहार राजा के बिल्कुल विपरीत था.राजा वीर प्रताप को खूब पढ़ाना- लखाना चाहते थे लेकिन वीर प्रताप का पढ़ने में बिल्कुल मन नहीं लगता था..उसको बुरी लत लग चुकी थी,उसको घमण्ड था कि मेरे पिता जी के बाद मै राजा बनूँगा.राजा ने अपने बेटे को बहुत समझाया कि पढ़ लिख के आगे बढ़ और बुरी आदतें छोड़ दे लेकिन वीरप्रताप नही माना.एक दिन अचानक वीर गिर पड़ा.आँखों के आगे अंधेरा छा गया.राजा उसे तुरन्त चिकित्सक के पास ले गए. पता चला कि वीर को गंभीर बीमारी हो गई है.राजा बहुत दुखी हुये.वीर को जब पता चला कि उसका जीवन अब ज्यादा नही बचा है उसके बाद वीर बहुत रोने लगा.और पछताने लगा कि मैं यदि समय के रहते पिता जी का बात मान लेता तो ऐसा नही होता.

किसी के साथ बुरा मत करो

रचनाकार- कु.कल्याणी,कक्षा बारहवीं,शा.उ.मा. वि. पहंडोर,पाटन,दुर्ग

एक सुखी परिवार मे कुल 4 सदस्य थे माता-पिता एक बेटी और एक बेटा. पिता का नाम रमेश था,सब आनंदपूर्वक जीवन व्यतीत कर रहे थे. रमेश एक दुकानदार था एवं माता गृहिणी थी. बच्चे स्कूल जाते थे. सब कुशल मंगल चल रहा था. उनके घर के पास गोपाल रहने आया.गोपाल का रमेश के साथ व्यवहार ठीक नही था,वह रमेश की तरक्की देखकर जलने लगा था. एक दिन गोपाल ने यह तय किया कि वह रमेश की दुकान ठीक से चलने नही देगा इसलिए उसने रात मे सबके सोने के बाद रमेश की दुकान के अंदर चूहे छोड़ दिए. सुबह जब रमेश दुकान आया तो उसने देखा कि दुकान का सारा सामान चूहे कुतर गए हैं. वह बहुत दुखी हुआ,उसका बहुत नुकसान हो गया था. उसने नया सामान लाकर अपनी दुकान को फिर से सुव्यवस्थित किया. एक दिन गोपाल की तबीयत खराब हो गई उसके पास पैसे नही थे जिससे वह अपना इलाज करा सके तब सहायता के लिए रमेश आया एवं गोपाल को कुछ पैसे दिये जिससे वह अपना इलाज करा सके. यह देखकर गोपाल की आँखों में आँसू आ गए. वह अपने किये पर शर्मिंदा था. उसने रमेश को सारी बात बतायी और माफी माँगी. रमेश ने उसे माफ कर दिया और उसे अपनी दुकाम में काम पर रख लिया. दोनों अच्छे मित्र बन गए.

मैं भारत की माटी हुँ

रचनाकार- शालिनी पंकज दुबे

कहते है इतिहास अपने आप को दोहराता है. पहले भी महामारी का ऐसा दौर आया था.क्या कभी किसी ने सोचा था कि ऐसा दिन भी आएगा जब पूरा विश्व संकटग्रस्त हो जाएगा?

स्थिति इतनी खराब हो जाएगी कि कोई समझ ही नही पाएगा.

टीवी और अखबारों में कोरोना की खबरें चल रही थी. लोग अपने काम में व्यस्त थे. दिनचर्या की शुरुआत जरूर अखबारों से होती थी और रात न्यूज़ चैनल में विश्व की खबरे सुनकर. मन में थोड़ा भय जगह बनाने लगा था पर घर से निकलना भी तो जरूरी था. अपने काम पर जिससे रोजी-रोटी चलती है. अगर मन के किसी कोने में डर ने जगह बनाना शुरू भी किया तो दिल में आत्मविश्वास भी था,वही आत्मविश्वास जो रणभूमि में एक योद्धा के हृदय में होता है.

ये आत्मविश्वास यूँ ही नही आया था,ये आया था क्योंकि मैं पवित्र भारत की भूमि हुँ. गौतम और महावीर की तपोभूमि हुँ. कितने ऋषि मुनि,साधु सन्यासियों ने और स्वयं भगवान ने जन्म लेकर मुझ पावन मिट्टी को अजेय बना दिया था. इतना कि कण-कण में मृत्यु का भय नही सिर्फ विजय की कामना होती है. मैं मातृभूमि इतनी पावन हुई जब भारत की माटी में मां लक्ष्मी सीता का रूप लेकर प्रकट हुई और मुझ वसुंधरा में ही समाहित भी हो गई. यहाँ भगवान है या नही ये बात ही नही,यहाँ भगवान को मानने वाले बहुत है. माँ नर्मदे 'नदी' रूप में है तो स्वर्ग से पतित पावनी गंगा मैया भी है. यमुना,सरस्वती,जैसी पवित्र नदियाँ हैं जिनमें जन-जन की आस्था है. ये पवित्र नदियाँ स्नेह के साथ मुझसे लिपटकर यूँ बहती है जैसे एक दिहाड़ी मजदूर स्त्री की छाती से बँधी उसकी संतान. मेरी ये पुत्रियाँ ही तो है जो मेरा गौरव बढ़ाती हैं.

मैं वही भारतभूमि हुँ जहाँ बालिका स्वयं साक्षात दुर्गा स्वरूपा है. गाय -गोमाता व वृक्षों को भी पूजा जाता है. यही वजह है कि यहाँ के लोगो का,मेरी संतानों का आत्मविश्वास गजब का है. जो ऐसी आपदा की कल्पना भी नही कर सकते क्योंकि मेरे कण-कण में भगवान बसा है. मैं भारत की माटी युगों -युगों का इतिहास समेटे अपने भविष्य को सँवारती हुँ. मैं भारतभूमि आस्था,विश्वास,पूजा,प्रेरणा,कर्म,धर्म,प्रेम,भावना,इच्छाशक्ति,साहस,बुद्धि सत्कर्म,तपस्या,पवित्रता,वीरता भाईचारा का दूसरा नाम हुँ.

यही वजह है कि इस भयानक महामारी ने दबे पाँव जब यहाँ दस्तक देना शुरू किया तो एक निर्णय लिया. कुछ आलोचनाएँ हुईं,कुछ मुसीबतें आई पर देशहित में कुछ कदम तो उठाना ही था.

11 मार्च को जब बच्चे स्कूल गए तो किसी ने नही सोचा था कि,अब स्कूल लंबे समय के लिए बंद होगा.

12 तारीख की रात तक खबर मिली और तेरह मार्च से स्कूल बंद हुए. भारत का भविष्य ये नन्हे बच्चे ही तो है उन्हें पहले सुरक्षित करना था.

तब भी निष्कंटक काम चल रहे थे. कहीं भागवत कथा,कही पूजा,कहीं आयोजन! कुछ झिझक के साथ चल रहे थे. जो सामने महामारी आ रही थी किसी ने सोचा नही था कि वो प्रवेश कर चुकी है.

वो दिन जब पहला लॉक डाउन हुआ. तब भी अंदाज नही था कि आगे कुछ बड़ी कठिनाई आ सकती है.आत्मविश्वास जो था.

जब अन्य देशों में इसकी भयावहता बढ़ रही थी. करुण क्रंदन व मृत्यु पर विलाप हो रहे थे. तब मैं भी सिहर उठी कि मेरी सन्तानो का क्या होगा. जो सम्पन्न हैं वो सम्हल जाएंगे पर मैं माँ थी,माँ का ध्यान हमेशा उस बच्चे की ओर जाता है जो तकलीफ में होता है. जो रोजी-रोटी की तलाश में अपना प्रदेश छोड़,दूसरी जगह गये. छोटे बच्चे,वृद्ध माता-पिता औऱ पत्नी भी. जब मिल,फैक्ट्रियाँ बंद हो जाएँगी,तो क्या होगा. झोपड़ी में जहाँ साँस लेने की भी जगह नही. दिन भर की मजदूरी के बाद थके हुए जब पनाह लेते है थकावट की वजह से कब नींद की आगोश में सो जाते है. हाँ गाँव का घर आँगन याद आता है पर जीविकोपार्जन के लिए बस रात को ही तो पनाह लेनी थी,लेकिन काम बंद होने के बाद तो यहाँ एक दिन भी रुकना मुश्किल है. कारण छोटी सी झोपड़ी औऱ गंधाती नालियाँ. पीने का पानी भी मुश्किल से नसीब होता है. राशन भी इतना नही की कुछ दिन गुजारा हो सके. इतना तो नही कमाते की संचय कर सके. फिर गाँव भी तो जमा कर-करके पैसा भेजना होता है. हाँ अपना देश होकर भी प्रदेश तो दूसरा था. गाँव भी अपना हो तो दूसरे के घर माँग के खा ले,कोई भूखा नही सो सकता पर बहुमंजिला इमारतों के पीछे की झुग्गी झोपड़ी मानो पिंजरे में बंद पँछी की तरह मन फड़फड़ाने लगा. एक बेचैनी होने लगी कि कहीं प्राणान्त न हो जाये और अगर होना है तो एक जदोजहद तो करें कि घर पहुँच जाए.

वो समय था जब 21 दिनों के लिए लॉकडाउन हुआ. ' जो जहाँ है वो वही रहे.' टीवी,अखबार सब जगह हर तरीके से ये सन्देश दिया गया. सब धार्मिक आयोजन,विवाह स्थगित हो गए. सबको घर में रहने का निर्देश दिया गया. मंदिर,देवालय के भी पट बंद हो गए.वो वक्त था,जब सर पे कफ़न बाँध पुलिस औऱ डॉक्टर निकले,देश की रक्षा के लिए. मैं जानती हुँ मेरे बच्चों के अंदर मेरे लिए अथाह प्रेम है. मातृभूमि के लिए भक्ति भावना है.

मैं मातृभूमि,जननी! मेरे साये में पूरा भारत वर्ष के मेरे बच्चे है. मुझे उन बच्चों की भी चिंता होने लगी थी जो विदेश की धरती पर रह रहे. जिनके माता-पिता,परिवार यहाँ पर वो वहाँ फँसे है. चिंता तो जायज थी. मैं आँचल के साये में सिमटे उन बच्चों का दर्द महसूस कर रही थी. जैसे बेटी का दर्द एक माँ समझती है. उन हर कोनो का महसूस कर रही थी जहाँ पीड़ा मानसिक तनाव से गुजर रहा था. जहाँ जदोजहद हो रही थी,जिंदगी व मौत के बीच. बस दुआ कर रही थी सृष्टि के रचयिता से की ऐसी स्तिथि दुबारा न आये. सबकुछ ठीक हो जाए.

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