नन्दा मैडम की कक्षा

(भाग – 4)

लेखक – सुधीर श्रीवास्‍तव

दोपहर के खाने की छुट्टी की घंटी बजी. बच्चे खाना खाने बाहर निकल गए. नन्दा, हरप्रीत और सुधा ने भी जल्दी ही अपना टिफ़िन खत्म किया और एक साथ बैठ गईं. कल उनकी बातचीत अधूरी रह गयी थी. हरप्रीत और सुधा, दोनों ही चाहती थीं कि वे नन्दा के अनुभवों को सुनें. दोनों के मन में ये जानने की अकुलाहट थी कि आखिर गिनती इतनी महत्वपूर्ण क्यों है.

बातचीत कि शुरुआत हरप्रीत ने की. उसने कहा “नन्दा मेरी कुछ जिज्ञासाएँ तो कल शांत हुईं, पर मेरे मन में अभी भी कई सवाल बाकी हैं. इन पर मैं तुमसे आगे फिर बात करूंगी. अभी तो हम चाहते हैं कि गिनती सीखने सिखाने से संबन्धित तुम्हारे अनुभवों को पहले सुनें.”

“ठीक है प्रीत, हम गिनती से ही बात शुरू करेंगे. कल सुधा का सवाल था कि गिनती पर इतना समय क्यों देना चाहिए.” इतना कह कर नन्दा रुक गई. वह कुछ सोचने लगी. फिर धीरे से उसने कहना शुरू किया -

“मुझे ऐसा लगता है, इस सवाल का जवाब ढूँढने से पहले हमें यह सोचना चाहिए कि ‘गणित को पढ़ना ही क्यों चाहिए.’ बहुत लोगों की यह धारणा है कि यह कठिन और उबाऊ है, तो इसे पाठ्यक्रम मे रखा ही क्यों जाए? क्या हम इस बात पर थोड़ी देर सोचें?” नन्दा ने सवाल किया.

इस पर सोचते हुए सुधा ने कहना शुरू किया, “गणित तो पढ़ना ही होगा, अगर इसे नहीं समझा तो जीवन के बहुत सारे काम अटक जाएंगे. गणित का उपयोग तो हर जगह है, हर काम में है. इसके बिना तो दुनियादारी की कल्पना ही कठिन है. हर छोटी-बड़ी चीज़ में गणित शामिल है.”

सुधा की इस बात से हरप्रीत के चेहरे पर उलझन के भाव आ गए. उसने कहा, “ऐसा तुम कैसे कह सकती हो सुधा? जो लोग कभी स्कूल नहीं गए, जिन्होने गणित कभी नहीं पढ़ा, क्या वो जी नहीं रहे, क्या उनकी दुनिया ठहर गयी है?”

“नहीं प्रीत, ऐसा नहीं है. पहले तो यह समझ लो कि गणित केवल किताब या स्कूल की चीज़ नहीं है. हमारे हर छोटे-बड़े काम में गणित प्रायः शामिल रहता ही है. तुम जिन लोगों की बात कर रही हो वो भी जाने अनजाने गणित का उपयोग करते ही हैं.” सुधा ने हरप्रीत को समझाते हुए कहा.

हरप्रीत अभी भी आश्वस्त नहीं हो पाई थी. उसने अनुरोध के स्वर मे कहा, “सुधा, मुझे तुम्हारी बात ठीक तरह से समझ में नहीं आ रही है. जरा खुल कर अपनी बात समझाओ न.”

नन्दा इन दोनों की बातचीत को चुपचाप सुन रही थी. उसे यह लग रहा था कि सुधा गणित के जिन अनछुए पहलुओं को सामने लाना चाह रही है उसे प्रीत को भी समझना जरूरी है. ये सारी बातचीत गिनती को समझने का आधार तैयार करेंगी.

सुधा की बात खत्म नहीं हुई थी, वह कह रही थी, “प्रीत, मेरा बचपन गाँव में ही बीता है. मेरी माँ कभी स्कूल नहीं जा पायी थीं. वो खाना बहुत अच्छा बनाती थीं. उनके बनाए खाने में शायद ही कभी ऐसा हुआ कि आज मिर्च ज्यादा हो गयी या नमक कम हो गया हो, एकदम सही अनुपात होता था. हमारे यहां मेहमान बहुत आते थे. माँ का अनुमान लगभग सही ही होता था, कितना चावल पकना है, कितनी रोटियाँ बननी हैं. मुझे याद नहीं है कि कभी इतना खाना बचा कि फेकना पड़ जाये. उनका ये अनुमान लगाना भी गणित का ही हिस्सा है.”

“इन सब के अलावा घर में, खेतों में काम करने वालों को कितना पैसा देना है, कितना अनाज साल भर के लिए रखना है, कितना बेचना है. किस खेत में कितना बीज बोना है जैसे सारे हिसाब वो मौखिक रूप से ही करती थीं. प्रीत, क्या तुम्हें नहीं लगता की इन सब कामों में गणित का उपयोग हुआ होगा?”

हरप्रीत ध्यान से यह सब सुन रही थी और कल्पना में देख रही थी कि बाज़ार में बैठी सब्जी वाली कितनी जल्दी किसी की खरीदी हुई सब्जियों का हिसाब जोड़ कर बता देती है. और भी कई ऐसे उदाहरण उसकी आँखों के सामने तैर रहे थे जिनमे उसने अनपढ़ कारीगरों को कई तरह के काम सफाई और खूबसूरती से करते देखा था. वो लगभग खो गयी थी अपने विचार प्रवाह में.

सुधा ने हरप्रीत से कहा, “तुम सुन भी रही हो कि नहीं?”

हरप्रीत चौंक गईं, “अरे हाँ ! सुन रही हूँ, सोच भी रही हूँ। तुम बोलो न.”

सुधा ने फिर कहा, “लकड़ी की जिस कुर्सी पर तुम बैठी हो उसे लगभग 10 – 15 साल तो हो ही गए होंगे बने हुए। देखो, अभी भी ये कितनी मजबूत है. तुम्हें क्या लगता है, इसे किसी इंजीनीयर ने बनाया होगा? जरा गौर से इसके चारों पायों और हत्थों को देखो, सभी पाये बिल्कुल एक जैसे हैं, दोनों हत्थों में कितनी समानता है, और इसकी पुश्त को तो देखो, कितना सटीक झुकाव दिया है. तुम्हें इसके हर हिस्से में एक समरूपता, एक समानता यानि गणित कि भाषा में एक खूबसूरत सममिति दिखाई पड़ेगी.

नन्दा और हरप्रीत दोनों ही मुग्ध भाव से सुधा कि बातें सुन रही थीं. हरप्रीत सोच रही थी उसने इसके पहले इस कुर्सी को इस नज़र से देखा क्यों नहीं.

सुधा का बोलना जारी था. उसने कहा, “प्रीत, इस बढ़ई ने कुर्सियां, टेबल बनाने कि पढ़ाई किसी कॉलेज में नहीं की होगी.”

इसके बाद थोड़ी चुप्पी बनी रही. हरप्रीत कुछ समझ गयी थी, कुछ समझने कि कोशिश कर रही थी. थोड़ा सोचने के बाद उसने कहा, “सुधा तुम्हारी बातों से दो चीज़ें समझ में आ रही हैं. एक तो यह कि हम जो कुछ करते हैं, प्रायः उन सभी में गणित किसी न किसी रूप में मौजूद होता है. दूसरी बात, जिन्होंने स्कूली गणित को नहीं सीखा वे भी गणित का उपयोग जाने अनजाने करते ही हैं. लेकिन अगर दूसरी बात पर यकीन करें तो एक सवाल मन में उठता है – स्कूल में गणित पढ़ाने की जरूरत ही क्या है?”

सुधा ने जवाब में कहा, “तुहारा सवाल जायज़ है प्रीत. ये उदाहरण मैंने इसलिए दिये कि हम जीवन में गणित की महत्वपूर्ण भूमिका को पहचान सकें. अब बात है स्कूली पाठ्यक्रम में गणित को रखने की. इसके पक्ष में लंबी चर्चा की जा सकती है. अभी बस इतना समझ लो कि दुनिया में जितनी भी तरक्की हो रही है, उन सभी के महत्वपूर्ण आधारों में एक गणित भी है, किसी कारखाने में बटन बन रहे हों या चाँद पर उतरने की कोशिश हो रही हो. कोई भी काम बिना गणितीय ज्ञान के संभव नहीं होगा. स्कूल में सीखा जाने वाला गणित इन सब की बुनियाद है.”

नन्दा, जो अब तक दोनों कि बातें ध्यान से सुन रही थी, बोल पड़ी, “वाह सुधा, वाह !! क्या बात है! मज़ा आ गया तुम्हारी बातें सुन कर. तुमने जिस तरह से गणित कि अहमियत पर अपनी बातें रखी हैं उसमे और भी उदाहरण जोड़े जा सकते हैं. मैं समझती हूँ, तुमने खुद ही अपने सवाल का जवाब दे दिया है. जब तुम कह रही थी स्कूल में सीखा जाने वाला गणित दूसरी बहुत सारी चीजों को सीखने कि बुनियाद है, वहीं पर तुम ये भी स्वीकार करोगी कि बुनियाद जितनी मजबूत होगी, उस पर बनने वाली इमारत उतनी ही टिकाऊ होगी.

“हाँ नन्दा, मैं इस बात से सहमत हूँ.” सुधा ने अपनी सहमति दी. “अब थोड़ा इस बात पर हम गौर करेंगे कि अपनी शालाओं में हम सब गणित की शुरुआत कैसे करते हैं?” नन्दा ने सोचने के लिए एक प्रश्न रखा.

सुधा और हरप्रीत दोनों कुछ पल सोचती रहीं. सुधा ने पहल की, “नन्दा, मुझे इसमें कुछ खास बात कभी दिखाई नहीं पड़ी. मैंने प्रायः बोर्ड पर गिनती को लिखा और क्रम से पढ़ दिया. बच्चों को दोहराने को कहा. यही बार बार किया. कुछ दिनों बाद बच्चों से इसे लिखने को कहा. बस कुछ इसी तरह मैंने सिखाने की कोशिश की.” “मैं भी ऐसा ही करती हूँ नन्दा” हरप्रीत ने सुधा की बात पर ही सहमति दी. नन्दा की आँखें बंद थीं. वह सोच रही थी कि इस तरीके से गिनती को बच्चों तक ले जाने में सीखना कितना कठिन हो सकता है उसकी अनुभूति किसी शिक्षक को कैसे कराई जाए. उसने धीरे से समझाने के लहजे में कहना शुरू किया.

“सुधा और प्रीत, इस बात को कक्षा एक के बच्चे के संदर्भ में कहना चाहूँ तो क्या इस तरह कहा जा सकता है – बोर्ड पर मैंने कुछ आड़ी टेढ़ी आकृतियाँ बना दीं और उनमें से हरेक के साथ कुछ अनजाने – अनसुने नाम चिपका दिये. जैसे पाँच, बारह, उन्यासी, बहत्तर, सैंतीस.” आदि.

“अब बच्चे की ज़िम्मेदारी है कि इन आकृतियों को अपने दिमाग में ठीक ठीक छाप ले, इनके साथ बोले गए शब्दों को इनके साथ जोड़ कर रखे. इतना ही नहीं, इन सभी शब्दों को उसी क्रम से बोले, जैसा शिक्षक ने पढ़ाया है. बात यहां भी नहीं रुकती, हम शिक्षकों की और बहुत से माँ-बाप की भी यही अपेक्षा रहती है कि बच्चा उन आकृतियों को अपनी स्लेट या कॉपी पर वैसा ही बनाए भी. यदि इनमें कहीं कुछ भी इधर-उधर हो जाए तो बस फिर क्या है, डांट खाने या उलाहने सुनने को तैयार रहे.”

नन्दा ने अपनी बात रोकते हुए पूछा, “क्या छः – सात साल के बच्चे से इतनी अपेक्षाएँ बहुत ज्यादा नहीं लगती सुधा? प्रीत तुम्हें क्या लगता है?”

आज की बातचीत में जब भी कोई सवाल उठा, एक खामोशी सी पसरती रही हर बार. तीनों के दिमाग में विचारों का व्दंद शुरू हो जाता था. तीनों शायद यहां होकर भी यहां नहीं होती थीं. अभी भी तीनों कक्षा की परिस्थितियों में बच्चों कि जगह खुद को रख कर कठिनाई को महसूस करने की जद्दोजहद में पड़ीं थीं.

हरप्रीत ने कहा, “मैं किसी परिणाम तक नहीं पहुंच पा रही हूँ.”

“मैं भी कुछ ठीक ठीक नहीं कह पाऊँगी लेकिन लग रहा है यह काम बच्चे के लिए मुश्किल हो सकता है.” सुधा ने धीरे से अपनी बात रखी.

नन्दा ने कहा, “बहुत से लोग इस सवाल पर यह भी कहते हैं कि इसमें मुश्किल क्या है, हमने भी तो ऐसे ही सीखा है, दुनियाभर के बच्चे ऐसे ही सीखते हैं. इस बात को समझने से ज्यादा जरूरी है महसूस कर पाना. सुधा, इसे एक उदाहरण से समझते हैं. जब तुम पहली बार अपनी कक्षा में बच्चों से मिली तो उन सब का नाम याद करने में तुम्हें कितने दिन लगे थे?

“यही कोई बीस – पच्चीस दिन.” सुधा ने कहा.

“क्या नाम के साथ बच्चों को पहचानने भी लगी थी?” नन्दा ने पूछा.

“अ.....शायद नहीं. अभी भी किसी किसी बच्चे को दूसरों के नाम से पुकार लेती हूँ.” सुधा का जवाब था.

“अब सोचो सुधा,” नन्दा ने कहा, “इन बच्चों के नाम ऐसे तो नहीं है न जो तुमने कभी नहीं सुने होंगे? शायद सभी परिचित और सहज से शब्द होंगे, हैं ना?”

“हाँ नन्दा, तुम्हारी बात सही है.” सुधा ने सहमति दी.

“सुधा, अब इससे थोड़ी मुश्किल परिस्थिति की कल्पना करते हैं. मान लो आज तुम्हें एक नयी कक्षा दी जाती है. बच्चे सौ हैं और जापान के हैं. अब तुम्हारे पास नामों के सौ ऐसे शब्द होंगे जो तुमने कभी सुने नहीं होंगे. इसके अलावा सौ ऐसे चेहरे भी होंगे जिनमें फर्क करना थोड़ा मुश्किल होगा.”

“अब सोचो जरा, क्या हर एक चेहरे को नाम के साथ याद रखना आसान रहेगा?” सुधा और हरप्रीत दोनों के चेहरे पर असमर्थता के भाव स्पष्ट रूप से दिखाई पद रहे थे. दोनों में से कोई कुछ नहीं कहा सका.

नन्दा ने फिर कहा, “अभी मैं चाहूँ तो इस काम में कुछ और भी जोड़ सकती हूँ, जैसे जिस क्रम में ये नाम रजिस्टर में लिखे हैं उसी क्रम में नाम बताओ, और अगर नहीं बता पाओ तो डांट खाने के लिए तैयार रहो.”

इस बात की गंभीरता और इससे जुड़ी बच्चों की मुश्किलों को सुधा और हरप्रीत दोनों ही महसूस कर रहीं थीं. दोनों ही जैसे उस परिस्थिति में खो गईं थीं. नन्दा चुप हो गई थी. उसने अपने दोनों साथियों के मन में बन रही तस्वीर को बनने दिया. कुछ पल ऐसे ही बीते. फिर इस गहरी और अर्थ भरी चुप्पी को तोड़ते हुए नन्दा ने आगे अपनी बात रखी. उसने कहा -

“सुधा, गिनती सीखना, नाम याद करने से थोड़ा ज्यादा मुश्किल है. गिनती में संख्या के नाम और उसके अंकों के रूप में प्रदर्शन जिसे हम संख्यांक कहते हैं, से अलग और बात होती है जो इन दोनों से ज्यादा जरूरी है.”

“क्या इससे भी अलग कोई और बात भी अभी बाकी है?” हरप्रीत के आँखों में आश्चर्य था.

“हाँ प्रीत, जब तुम पाँच बोलती हो तो ये केवल संख्या का नाम भर होता है, जैसा हमारे आस पास की दूसरी चीजों के नाम होते हैं, बिल्कुल वैसे ही. और जब तुम पाँच के लिए उसका विशेष संकेत बोर्ड पर या कागज़ पर उकेरती हो तो उसे हम संख्यांक कहते हैं. ये दोनों ही चीज़ें संख्या नहीं हैं, संख्या को व्यक्त करने के साधन मात्र हैं.”

“अरे बाप रे! तो फिर ये संख्या क्या चीज़ है नन्दा?” हरप्रीत और सुधा दोनों आश्चर्य में पड़ गईं.

संख्या को समझने के लिए थोड़ी और प्रतीक्षा करो प्रीत, वह भी समझ में आएगा. संख्या नाम और संख्यांक, चीजों के एक विशेष समूह के साइज़ या विस्तार या आकार का बोध कराती हैं. जैसे मान लो हम ‘पचहत्तर’ कहें या सात और पाँच के संकेतों को कागज पर एक खास क्रम में लिखें तो ये एक निश्चित और विशेष अर्थ को व्यक्त करते हैं. अब यदि सात और पाँच के संकेतों के लिखने का क्रम बदल दें तो यही आकृतियां किसी दूसरे समूह या दूसरे आकार को प्रदर्शित करने लगती हैं. एक समय यह भी आता है कि वस्तुएँ या उनका समूह नहीं होता केवल एक बोध या मानसिक अनुभूति रह जाती है. दिमाग में बनी ये चीज़ ही संख्या है जो वस्तु नहीं हैं.

पाँच कलम, पाँच किताबें, पाँच फूल – इन सब में वस्तुओं से परे जो गुण है जो तीनों समूहों में उपस्थित है वो है इसके पाँच होने का गुण......यानि पांचपन.....यही संख्या है.

“उफ़्फ़ ! ये तो बहुत मुश्किल है.” सुधा ने अपने सिर पर हाथ रख लिया.

“नहीं सुधा, बिल्कुल भी मुश्किल नहीं है.” नन्दा ने सुधा को आश्वस्त करते हुए कहा. हम एक संख्या पच्चहत्तर की बात कर रहे हैं. एक शिक्षक के रूप में हमारी पहली कोशिश तो ये हो कि हम पहले खुद इसे इसके वास्तविक रूप में देख पाएँ और फिर बच्चों को भी वैसा ही महसूस करा पाएँ.”

नंदा इतना कह कर थोड़ा चुप हो गई. वो देख रही थी कि ये बात उन दोनों को स्पष्ट नहीं हो पा रही थी. वह समझ रही थी कि संख्या कि ये अमूर्ततता संख्या नाम या संख्यांक को ही संख्या मानने की ओर हम सब को धकेल देती है. उसने फिर कहा, “सुधा मैं इस बात को कुछ अलग ढंग से रखती हूँ. मान लो मैंने तुम्हें एक टुकड़ा गुड़ खाने को दिया और कहा कि इसका स्वाद प्रीत को बताओ. तुम क्या कहोगी?”

सुधा ने कहा, “मैं कहूँगी, गुड़ तो मीठा था.”

“बहुत ठीक. अब प्रीत मैंने तुम्हें एक चम्मच भर शहद दिया और तुम्हें भी कहा कि खा कर इसका स्वाद सुधा को बताओ. तुम क्या कहोगी?”

“बेशक मैं भी कहूँगी मीठा है.”

“अरे भाई, कुछ हमें भी तो खिलाया जाये.” अचानक एहसान मियां ने कमरे में प्रवेश किया. उनकी उपस्थिती सभी को खुशी और उत्साह से भर देती है. अपने प्रधान पाठक के आने पर तीनों खड़ी हो गईं. सुधा ने हँसते हुए कहा, “सर, आइए न, बैठिए. कल हमारी बातचीत अधूरी रह गयी थी. बस उसी को आगे बढ़ाया है हमने.”

“नन्दा, मुझे तुमसे शिकायत है, मैंने तुमसे पहले भी कई मर्तबा कहा है कि अपनी बातचीत में मुझे भी शरीक कर लिया करो पर तुम हमेशा भूल जाती हो. भाई, ये बात सही है कि मेरी उम्र हो चली है लेकिन तुम सब जानती हो कि कुछ नया सीखने में मुझे अब भी उतनी ही दिलचस्पी है जितनी एक बच्चे को होती है. और ऐसी चर्चाएँ तो कुछ न कुछ सिखाती ही हैं,” एहसान मियां ने कहा.

“सर मुझे माफ़ करें, आइंदा मैं ध्यान रखूंगी. आज तो बस यूं ही बात चल पड़ी थी.” “अच्छा अगर ऐसा है तो तुम मुझे क्या खिलाओगी.” एहसान मियां ने हँसते हुए कहा.

नन्दा ने कहा, “सर मान लीजिये मैंने आपको बताशे खिलाये और कहा कि आप बताशे का स्वाद सुधा और प्रीत को बताएं तो आप क्या कहेंगे?”

“अरे भाई, और क्या कहेंगे, बेशक यही कहेंगे कि बताशे बहुत मीठे हैं.”

“बहुत अच्छा, आप तीनों ने गुड़, शहद और बताशों के लिए कहा ‘मीठे हैं’. अब सोचिए तीनों कि मिठास क्या एक जैसी होगी?”

नन्दा के इस सवाल पर तीनों सोच में पड़ गए. तीनों समझ रहे थे कि गुड़, बताशे और शहद तीनों मीठे तो हैं लेकिन तीनों की मिठास में कुछ न कुछ फर्क भी है. लेकिन कोई जवाब नहीं आया.

“अब आप तीनों से यदि मैं कहूँ अपनी अपनी चीजों की मिठास एक दूसरे को बताइए तो सोचिए आप ये कैसे बताएँगे.” नन्दा ने जोड़ा.

बात सहज नहीं थी.

इस सवाल का जवाब क्या है?
गिनती सीखने से इस बात का क्या संबंध है?
क्या नन्दा अपनी बात अपने साथियों को समझा पायीं?
इस पर अगले अंक में आपसे बातचीत होगी।

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