दुख का कारण

लेखक - बलदाऊ राम साहू

हाथी दादा आज गुमसुम बैठा हुआ है, न जाने उसके मन में कौन-सी पीड़ा है. आज बार-बार उसका मन रोने को हो रहा है; पर वह रो नहीं पा रहा है. नम आँखों से वह इधर-उधर देखता है, तो कोई न कोई उसे दीख जाता है. पीड़ा बाँटने से कम होती है, पर वह अपनी पीड़ा किससे बाँटे? आज संवेदनाएँ मर गई हैं, किसी से अपनी पीड़ा कहो, तो सोचता है कि समर्थ होकर भी अपना रोना रो रहा है.

जंगल में कितने सारे प्राणी हैं, सब की अपनी समस्या, अपनी मजबूरियाँ हैं और सब अपने आपको एक दूसरों से अलग रखे हैं. शेरसिंह के मन के अहम् ने उसे सबसे दूर कर दिया है. वह अपने अहंकार के कारण किसी को कुछ नहीं समझता. सभी को वह हेय की दृष्टि से देखता है. इसलिए सभी उससे दूरी बनाकर रखते हैं. भालू काका तो अपने में ही मस्त रहते हैं. उनका सि‍ध्‍दांत ही है - ‘‘न उधो का लेना, न माधो को देना.’’ अपनी राह आओ और अपने राह जाओ. सियार, लोमड़ी, लकड़बग्घे सब का अपना-अपना राग, अपनी-अपनी डफ़ली. पर हाँ, नभचर जरूर मिलकर रहना पंसद करते हैं. कभी-कभी कौआ ही है जो अपनी अकड़ दिखा देता है, परंतु जब उसे कोयल और कबूतर समझाती हैं, तो वह भी समझ जाता है. नन्ही गौरैया बहुत देर से हाथी दादा को गुमसुम बैठा हुआ देख रही थी, किन्तु वह उसके पास जाकर कुछ कहने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही थी. तभी उस डाल पर एक बुलबुल भी आकर बैठ गई और मधुर आवाज में गाने लगी. बुलबुल की मीठी आवाज सुनकर गौरैया भी चहकने लगी. बुलबुल का गाना और गौरैया का चहकना मधुर होते हुए भी हाथी दादा को अच्छा नहीं लगा. जब मन खिन्न होता है, तो कुछ भी अच्छा नहीं लगता.

थोड़ी देर के बाद गौरैया ने बुलबुल से कहा - ‘‘बहन हाथी दादा आज उदास लग रहे हैं, न जाने वह क्यों गुमसुम बैठे हैं?’’ बुलबुल ने कहा - ‘‘बहन हम क्या कर सकते हैं?’’ हाथी दादा हमसे बड़े हैं. छोटे होते तो जाकर कुछ बात करते, उन्हें समझाते परंतु उनसे बात करें तो करें कैसे? नन्ही गौरैया ने बड़े प्रेम से कहा - ‘‘बहन आपका कहना ठीक है लेकिन हम उनसे उनके दुख का कारण तो पूछ सकते हैं; वे बताएँ या न बताएँ?’’

‘‘हाँ यह ठीक है,’’ बुलबुल ने कहा. नन्ही गौरैया और बुलबुल फुर्र से उडकर हाथी दादा के माथे पर जाकर बैठ गईं और चूँ-चूँ-चूँ करने लगीं. हाथी दादा बिना कुछ ध्यान दिए लेटे रहे. वह तो आज किंकर्तव्यंविमूढ स्थिति में थे. जब हाथी दादा को गौरैया और बुलबुल ने फिर भी चुप देखा तो वे उड़कर हाथी दादा के सामने जा कर बैठ कर चूँ-चूँ करने लगीं. कछु देर चूँ-चूँ करने के बाद वे चुप हो गईं. उनकी अपेक्षा थी कि हाथी दादा अब तो जरूर कुछ न कुछ बोलेंगे,पर हाथी दादा को कुछ ना बोलते देखकर नन्ही गौरैया ने हिम्मत करके हाथी दादा से कहा- ‘‘हाथी दादा, लग रहा है आप आज बड़े उदास हैं. क्या हम आपकी उदासी का कारण जान सकते हैं?’’ हाथी दादा बिना कुछ प्रतिक्रिया किए मौन बैठे रहे, तब नन्ही गौरैया ने पुनः कहा-

‘‘प्लीज़ दादा, हमें बताओ, आपकी उदासी का क्या कारण है?’’

हाथी ने कहा- ‘‘कुछ नहीं आज मन अच्छा नहीं है.’’

क्यों दादा, अब बुलबुल ने पूछा.

हाथी दादा अब अपने को रोक न सके, फफक-फफक कर रो पड़े. नन्ही चिड़ियों को दादा का इस तरह रोना अच्छा नहीं लगा। बुलबुल हाथी दादा को ढ़ाढ़स बँधाते हुए बोली -‘‘दादा हम नन्ही चिड़िया आपकी क्या मदद कर सकती हैं, आप तो स्वयं इतने समर्थ हैं फिर भी आप इतने उदास क्यों?’’

हाथी दादा ने आँसू पोंछते हुए कहा - ‘‘बच्चों, अपनी पीड़ा मैं किससे कहूँ, और कौन सुनेगा मेरा दर्द. किसी को अपनी पीड़ा बताऊँ भी तो वह उपहास ही करेगा.’’

इन कथनों से हाथी दादा की पीड़ा का अहसास किया जा सकता था. नन्ही गौरैया और बुलबुल ने उन्हें ढाढस बाँधते हुए कहा - ‘‘दादा आप कहिए तो भला, आप अपनी पीड़ा कहेंगे ही नहीं, तो हम समझेंगे कैसे?’’ अपने आँसू पोंछते हुए हाथी दादा ने कहा- ‘‘बच्चों, मैं मोटा हूँ. मैं हिरनों की तरह कुलाचें नहीं मार सकता. बंदरों की तरह उछल कूद भी नहीं कर सकता. मैं भी चाहता हूँ कि बच्चों के साथ खेलूँ और उनकी तरह दौड़-भाग करूँ, किन्तु बच्चे मुझसे दूर-दूर रहते हैं. मेरा बड़ा होना मेरे लिए अभिशाप है.’’ ‘‘दादा कौन कहता है, कि तुम्हारा बड़ा होना अभिशाप है,’’ बुलबुल ने नम्र स्वर में कहा. गौरैया को दादा की बात पर हँसी आ गई. उसने कहा- ‘‘दादा, आप तो बच्चों की तरह बात तरह बात करते हैं. यह भी कोई दुखी होने की बात है? ऐसे में तो सबसे अधिक दुखी हमें होना चाहिए. हम कितने छोटे हैं, निरीह हैं, कोई भी, कभी भी हमें या हमारे बच्चों को मार गिराता है. देखिए फिर भी हम सदैव खुश रहते हैं. हर दम चहकते रहते हैं. हमारे चहकने से बहुतों को सुख मिलता है. हम दूसरों को सुख पहुँचाकर सुखी होते हैं? फिर आप तो जंगल के सभी प्राणियों में सबसे बड़े हैं. जंगल का राजा शेर सिंह भी आपका आदर करता है. रही बच्चों की बात, तो वे आपका सम्मान करते हैं, इसीलिए आपके पास नहीं आते. चाहें तो आप बच्चों को अपने पास बुलायें और उसने बात करें. वे जरूर आएंगे. उनकी बातें, उनका भोलापन आपको खुशी देगा और आपका एकाकीपन भी दूर हो जाएगा. बच्चे भी आपसे दोस्ती कर प्रसन्न होंगे.’’ बुलबुल बोली- ‘‘दादा सभी प्राणियों की अपनी अलग-अलग प्रकृति है, अलग-अलग शारीरिक संरचना और अलग-अलग स्वभाव है. छोटा हो या बड़ा सब का अपना महत्व है. इसीलिए ईश्वर ने हम सब को अलग-अलग पहचान दी है.’’

गौरैया और बुलबुल की बातें सुनकर हाथी दादा का मन कुछ प्रसन्न हुआ. उन्हें लगा कि सच में वे व्यर्थ ही चिंतित थे. वे अपने महत्व को नहीं समझ पा रहे थे और उन्होंने अपने आपको सबसे अलग कर लिया था. हाथी दादा को अपने व्यर्थ के सोच पर पश्चाताप हुआ. उन्होंने गौरैया और बुलबुल के प्रति अपना आभार जताया. गौरैया और बुलबुल खुशी-खुशी मधुर गीत गाते हुए आसमान में उड़ गए.

बाढ़ से बचा गांव

लेखिका एवं चित्र - खुशी कुमारी, भावना गुप्ता, चंचल कुमारी, नीलम शर्मा

एक बहुत पुराना गांव था. उस गांव में कुछ ही घर थे. उस गांव में पेड़ पौधे भी थे. गांव में कुछ बूढ़े व्यक्ति भी थे और छोटे-छोटे बच्चे भी थे. एक दिन बहुत जोर से मूसलाधार वर्षा होने लगी. उस गांव में बिजली भी नहीं थी. लगातार बारिश होने से गांव में बाढ़ आ गई जिससे लोगों के घर एवं पेड़ पौधे डूब गए. सब लोग घर की छत पर चले गए. कुछ देर बाद एक नाव दिखाई पड़ी. सब लोग नाव पर बैठकर एक ऊंचे स्थान पर चले गए. पानी उतर जाने के बाद लोग अपने गांव में वापस आकर खुशी-खुशी रहने लगे.

साथ का प्रभाव

लेखिका - श्वेता तिवारी

एक राजा वन में शिकार खेलने गया. जंगल में भटक गया. इधर उधर घूमते हुए उसे एक झोपड़़ी दिखी. राजा ने सोचा वहां जाकर थोड़ा विश्राम कर लूंगा और रास्ता भी पूछ लूंगा. झोपड़ी के पास पहुंचकर राजा ने देखा कि व्दार पर एक तोता टंगा है. राजा को देखते ही तोते ने रट लगाना शुरू कर दिया – ‘‘चेन हार और मुकुट तलवार लूटो.’’ वह झोपड़ी चोरों की थी. कोई यात्री आता तो तोता ऐसे ही शोर मचाता और चोर राहगीरों को लूट लेते थे. राजा ने सोचा यहां से जल्दी निकल जाना चाहिए. उसने घोड़े को एड़ लगाई और दूर निकल गया. राजा ने दूर एक आश्रम देखा. उसने सोचा यहीं जाना ठीक रहेगा. राजा जब वहां पहुंचा तो वहां एक तोता बैठा था. राजा को देखते ही बोला – ‘‘आइए स्वागत है आपका. आराम से बैठें जलपान करें.’’ तोते की आवाज सुनकर झोपड़ी से साधु निकले. उन्होंने अतिथि का स्वागत किया. उसे पानी पिलाया. आराम करने को कहा. राजा आश्चर्य चकित हो रहा था. उसने साधुओं से दोनों तोते का हाल कहा. साधुओं ने कहा यह दोनों तोते सगे भाई हैं. एक ही पेड़ पर दोनों ने अपना बचपन बिताया. एक दिन तेज तूफान आया. पेड़ टूट गया. सभी पक्षी इधर उधर जा गिरे और बिछड़ गए. एक तोता चोरों के पास जा पहुंचा और दूसरा तोता आश्रम में. इस तरह एक चोरों के यहां पला और दूसरा साधुओं के यहां. दोनों ने जैसा वातावरण देखा वैसे ही बातें सीख लीं. यह इनका दोष नहीं इनकी संगति का फल है. जो मनुष्य जैसे लोगों के बीच रहता है वैसा ही सीखता है.

इस कहानी से हमें यह शिक्षा मिलती है कि जैसी संगति वैसे ही उसका असर होता है.

सुरभि और पीहू

लेखक - ढ़ालेंद्र साहू

बहुत पुरानी बात है. एक गांव में एक मजदूर परिवार रहता था. परिवार में रामू, उसकी पत्नी वन्दना और दो प्यारे बच्चे - पीयूष और सुरभि थे. उनके साथ एक बकरी का बच्चा भी रहता था, जिसका नाम पीहू था. सब साथ में हंसी-खुशी रहते थे. पीयूष 5 साल का था और उसकी बहन सुरभि 2 साल की थी. सुरभि दिन भर पीहू के साथ खेलती और उसका बहुत खयाल रखती. उसे साथ खाना खिलाती और साथ ही सुलाती भी थी. परन्‍तु घर के अन्‍य लोग सुरभि के बकरी के बच्चे के प्रति इस लगाव को पसंद नहीं करते थे. खासकर पिता रामू को सुरभि का पीहू (बकरी के बच्चे) के साथ रहना पसंद नहीं था. वह उसे बेचना चाहता था पर सुरभि की ज़‍िद के आगे वह कुछ नही कर पाता था. रामू पास के ही गांव के ज़मींदार के घर मजदूरी का काम करता था और सुरभि की माँ घर का काम करती थी. उनकी जिंदगी हंसी-खुशी बीत रही थी. बरसात का मौसम था. गांव में बहुत बारिश हुई और पास की नदी में बाढ़ आ गयी. बाढ़ का पानी गांव में आ गया. चारों ओर अफ़रातफ़री मच गई. सब अपनी जान बचाने के लिए अपना-अपना सामान लेकर ऊँचाई वाली जगह की ओर जाने लगे, ताकि उनकी जान बच जाए. पानी धीरे-धीरे बढ़ रहा था. रामू भी अपने परिवार के साथ दूसरे स्थान की ओर जा रहा था. थोड़ी देर में सब एक सुरक्षित स्थान पर पहुँच गए और वहां अपने रहने की व्यवस्था करने लगे. तभी अचानक सुरभि को बकरी पीहू की याद आयी जो पुराने घर में ही छूट गयी थी. वह बहुत रोने लगी और अपने पिता से पीहू (बकरी के बच्चे) को लाने की जिद करने लगी. पिता के बहुत मनाने पर भी वह न मानी. हारकर पिता वापस जान जोखिम में डालकर उस बकरी के बच्चे को ले आये. सुरभि ने उसे गले से लगा लिया और प्यार से उसे सहलाने लगी. दिन बीतते गए. बाढ़ का पानी सूख गया और सब वापस अपने पुराने घरों में लौट आये. जिंदगी फिर से सामान्य हो गयी. एक रात रामू अपने परिवार के साथ सो रहा था. तभी उनके घर में एक जहरीला सांप घुस आया. सांप धीरे-धीरे उनकी ओर बढ़ रहा था. तभी उनको पीहू के जोर-जोर से मिमियाने की आवाज आई. रामू की नींद खुल गयी. उसने सांप को देख कर तुरंत पास पड़े डंडे से उसे घर से दूर भगाया. तब उसकी जान में जान आयी. रामू को तब एहसास हुआ कि अगर पीहू के शोर से उसकी नींद नही खुलती तो कोई अनहोनी हो जाती. वह तुरंत पीहू के पास गया और उसे गोद में उठाकर बहुत लाड़ करने लगा. यह सब पूरा परिवार देख रहा था. सब के सब पीहू के पास आकर उसे लाड़ करने लगे. रामू और वन्दना को इस बात का एहसास हुआ कि अबोध जानवर भी प्रेम व स्नेह के भूखे होते हैं और समय आने पर वही स्नेह सूद समेत लौटाते हैं. जैसे पीहू ने सबकी जान बचाकर लौटाया.

हाँ मैं बच्चा तो ही हूँ जो ऐसा कर सकता हूँ

लेखक - निशांत शर्मा

9 महीने माँ की कोख में पलकर जब बाहर रोते-रोते आया पर पूरे रिश्तेदारों सहित अपने माँ बाप को हँसाया. मैं बच्चा ही तो हूँ जो ऐसा कर सकता हूँ.

थोड़ा बड़ा हुआ तो अपने नटखट शैतानियों और मस्तियों से दादा-दादी, मम्मी-पापा और सब को हँसाया. मैं बच्चा ही तो हूँ जो ऐसा कर सकता हूँ.

मेरे बड़े से दादा दादी पापा मम्मी को आसानी से अपने लिए कभी घोड़ा कभी ऊँट कभी मोर कभी गाय बनवाया. मैं बच्चा ही तो हूँ जो ऐसा कर सकता हूँ.

मेरे जन्मदिन पर घर के सभी लोगों को मेरे साथ सुंदर-सुंदर नए कपड़े पहनवाक़र, गुब्बारे फुलवाकर प्यारा सा केक कटवाकर हसीन दावत का लुफ्त उठवाया. मैं बच्चा ही तो हूँ जो ऐसा कर सकता हूँ.

मेरे हॉस्टल में दाखिले के समय सबकी आंखों में पानी लाया और मन ही मन सबको रुलाया. मैं बच्चा ही तो हूँ जो ऐसा कर सकता हूँ.

दादा के जन्मदिन में उनको प्यारा सा चश्मा देकर तो दादी के जन्मदिन पर बनारसी साड़ी देकर, पापा को मोबाइल देकर तो मम्मी को अंगूठी देकर उन सभी के मन को खिलखिलाया. मैं बच्चा ही तो हूँ जो ऐसा कर सकता हूँ.

मम्मी के गुस्सा होने पर उन्हें फुसलाया तो कभी पापा के गुस्सा होने पर उन्हें बहलाया. मैं बच्चा ही तो हूँ जो ऐसा कर सकता हूँ.

स्कूल में अपने व्यक्तित्व और गतिविधियों से माँ बाप और शिक्षकों का मान और अभिमान बढ़ाया. मैं बच्चा ही तो हूँ जो ऐसा कर सकता हूँ.

कॉलेज आते-आते लगता हैं मगर अब मैं बड़ा हो गया हूँ क्योंकि कुछ सवाल जो मन में चलते है कि कॉलेज के बाद जॉब की टेंशन उसके बाद शादी की टेंशन. सेटल होने की टेंशन. पर कितना भी बड़ा क्यों न हो जाऊं अपने भीतर एक बच्चा हमेशा रखूंगा. क्योंकि मैं बच्चा ही तो हूँ जो ऐसा कर सकता हूँ.

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