छत्‍तीसगढ़ी

21 जून विश्व योग दिवस पर विशेष

लेखक – सुवर्णा साहू

योग:- योग का अर्थ है जोड़ना . किसी भी अच्छी आदत या क्रियाकलाप को स्वयं से जोड़कर आत्मसात् करना ही योग है.

उपनिषद् में चार प्रकार के योग कहे गए हैं, जिनमें से एक राजयोग है. इसी के एक हिस्से अष्टांग योग का वर्णन, महर्षि पतंजलि ने अपनी पुस्तक योग सूत्र में किया है जो वर्तमान में जन साधारण के योगाभ्यास के लिए प्रेरणास्रोत है.

अष्टांग योग अर्थात् आठ प्रकार के योग हैं - यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि. जो व्यक्ति इनको अपने जीवन में पूर्णतः अपनाता है वह परम मोक्ष की प्राप्ति करता है.

आसन, प्राणायाम और ध्यान, योग के ही हिस्से हैं और इन्हीं तीनों का सम्मिलित स्वरूप ही वर्तमान में योगाभ्यास के रूप में जाना जाता है.

आसन - तनावरहित और अधिक समय तक सुविधाजनक शारीरिक मुद्रा या अवस्था को ही आसन कहा जाता है. आसन मांसपेशियों, जोड़ों, हृदय तंत्र प्रणाली, नाड़ियों तथा ग्रंथियों के साथ-साथ मन, मस्तिष्क और चक्रों (ऊर्जा केन्द्रों) के लिए भी बहुत लाभदायक होते हैं. अनेक आसनों के नाम पशुओं की सहज गतिविधि और स्थितियों से प्रेरित हैं जो प्राकृतिक रूप से स्वस्थ और सक्रिय रहने में उनकी सहायता करते हैं, जैसे - भुजंगासन, शशकासन, मार्जरी आसन आदि. आसन खड़े होकर, बैठकर तथा लेटकर (पीठ तथा पेट के बल) किए जाते हैं. आसनों में श्वास - प्रश्वास की महत्वपूर्ण भूमिका होती है. उथली श्वास ना लेकर गहरी श्वास लाभदायक होती है जिसमें पेट के फूलने और पिचकने का अनुभव हो. कसरत के विपरीत आसनों का अभ्यास धीरे-धीरे किया जाता है जिससे व्यक्ति की संपूर्ण कायिक अवस्था में गहराई से ऊर्जा का संचार होता है और एकाग्रता, सचेतनता में वृद्धि होती है.

प्राणायाम - अर्थात् प्राण+आयाम प्राण अर्थात् जीवन शक्ति तथा आयाम अर्थात् विस्तार या फैलाव . श्वास के माध्यम से प्राण ऊर्जा को शरीर के कण-कण तक पहुंचाना ही प्राणायाम है. प्राणायाम में तीन मुख्य क्रियाएँ होती हैं :-

  1. पूरक - नियंत्रित गति से श्वास अंदर लेना
  2. कुंभक - अंदर ली हुई श्वास को क्षमता अनुसार रोक कर रखना
  3. रेचक - रोकी हुई श्वास को नियंत्रित गति से छोड़ना

इन तीनों क्रियाओं का अच्छी तरह से अभ्यास करने के बाद अन्य प्राणायमों का अभ्यास बढ़ाना चाहिए. अनुलोम-विलोम, भस्त्रिका, कपालभाति, भ्रामरी आदि सभी प्राणायाम, कुछ सहज आसनों जैसे- वज्रासन, सुखासन, पद्मासन आदि में बैठ कर किए जाते हैं. प्राणायाम हेतु यम अर्थात् आहार में नियंत्रण, नियम अर्थात् मन की शुद्धता और आसन अर्थात् सुविधाजनक शारीरिक अवस्था का परिपालन अत्यधिक लाभप्रद होता है.

ध्यान - ध्यान का तात्पर्य मन की किसी एक बात पर स्थिरता है. ध्यान का मूल अर्थ है जागृत होते हुए भी क्रियाओं तथा विचारों से मुक्ति. मानसिक शांति, एकाग्रता, दृढ़ मनोबल, परम शक्ति से जुड़ाव, मन को काबू कर निर्विचार करना आदि उद्देश्यों के साथ ध्यान किया जाता है. ध्यान की अवस्था में सभी को स्वतः अलग-अलग अनुभूतियाँ होती हैं अतः इसे परिभाषित करना कठिन है. यह योग की उच्चतम उपलब्धियों में से एक है जो निरंतर अभ्यास से प्राप्त होती है.

हमारे बच्चे क्यों नहीं सीख पाते?

लेखक - गोपाल कौशल

मन मे बडी बैचेनी थी कि बच्चे तेजी से सीखते क्यो नहीं जबकि हम जी तोड मेहनत कर रहे हैं. हमारी मेहनत मे कमी नहीं फिर भी परिणाम अपेक्षित नहीं. गहन विचार के बाद कुछ बातें समझ मे आयीं.

हम बच्चों को अपने हिसाब से सिखाना चाहते हैं, बच्चों के सीखने के हिसाब से नहीं चलना चाहते, जबकि NCF के अनुसार “our teaching principles should be based on learning principles.” हम उल्टा यह मान बैठे हैं कि Learning principles should be based on our teaching principles. बस यही वह गल्ती है जिसको हम लगातार करते आ रहे हैं और बदलने को तैयार भी नहीं हैं. किसी निष्कर्ष पर पहुँचने के लिये इन बातों पर विचार करना होगा -

  1. हम किस तरह से पढा रहे हैं?
  2. हमारी मान्यताएं क्या हैं?
  3. इसके क्या परिणाम आ रहे है?
  4. हमे करना क्या चाहिए?
  5. क्या हमे अपनी कार्य पध्दति‍ को बदलने की जरूरत है?

हम कर क्या रहे हैं? अगर ध्यान से देखें तो हम निम्न लिखित कार्य कर रहे हैं -

  1. पढाने के नाम पर हम उन पाठ्यपुस्तकों को पूरी करा रहे हैं जो किसी कक्षा विशेष के लिये निर्धारित होती हैं.
  2. हम जी जान से पढाने में जुटे हुए हैं.
  3. कक्षा में घुसते ही बोर्ड पर लिखना और बोलना शुरू कर देते हैं और लगभग 90% से 95% समय तक हमारा यही क्रम रहता है.
  4. हम खुश होते हैं कि हमने उच्च स्तर का ज्ञान देते हुए पढा दिया है.

इस पूरे समय मे बच्चों ने क्या किया? केवल मूक दर्शक बनकर बोर्ड से उन चीजों को उतार लिया. जरा सोचिये, क्या यह पढाना हुआ? क्या हमने बच्चों के अनुभवों को महत्व दिया? नहीं न. फिर बच्चा भी आपके अध्यापन को महत्व क्यों दे?

आप बार बार उन्ही चीजों पर बच्चों को घुमा रहे हो जो उसको आती हैं. उदाहरण के लिए हम मरोद्भिद पादप पढा रहे हैं तो हम मरोद्भिद पादपों की परिभाषा व उनकी विशेषताएं एवं उनके उपयोग बोर्ड पर लिखा देते हैं, जिन्हें बच्चे पहले से और आपसे ज्यादा अच्छी तरह से जानते हैं. अगर आपने बच्चों की जानकारी को ही बाहर निकाल लिया होता तो न तो आपको इतनी मेहनत से लिखने की जरूरत थी और ना बालकों को रटकर याद करने की.

NCF कहता है बच्चों के अनुभवों को बाहर निकाल कर उन्हें व्यवस्थित कर दीजिए, बस. उनको ज्यादा से ज्यादा उदाहरण दीजिए. उन उदाहरणो से अपनी तरह से अपनी भाषा मे व अपनी समझ से नियम बनाकर अपनी परिभाषा तैयार करने दीजिए. उन्हें ऐसा माहौल दें कि वे अपने ज्ञान का निर्माण स्वयं कर सकें. इसके लिए उन्हें समय दीजिए. अपना समय कम कीजिए. 20% से ज्यादा समय आपको नहीं लेना है. 80% समय बच्चों के व्दारा प्रयोग किया जाना चाहिए.

हम बच्चों को जाते ही कहते हैं चलो बच्चों किताब निकालो आज फलां पाठ पढेंगे. यह सुनते बच्चों के मन मे बोझ सा पडने लगता है. जबकि होना यह चाहिए कि हम बच्चों को यह अहसास कराये कि हम वार्तालाप कर रहे हैं. नयी जानकारी को बच्चों के अनुभवों से जोड दें.

भाषा पढाते समय हम व्याकरण को अलग से पढाते है. अत: उसका उपयोग व्यवहार मे करने मे बच्चे कठिनाई महसूस करते हैं. होना यह चाहिए कि हम बच्चों को व्याकरण भी communication के दौरान उदाहरण देकर प्रयोग से सिखायें. हम जो अलग से व्याकरण के नियम सिखाने मे समय लगाते हैं उसका उपयोग बालक को स्वयं करने दीजिए. बालको को 3-4 उदाहरण देकर वहीं अभ्यास करा दीजिए. बच्चे खुद ही नियम बना लेंगे.

हम यह मान बैठे हैं कि बच्चे कुछ नहीं जानते. वे कुछ भी नहीं कर पायेंगे. अरे साहब इस मिथक से बाहर तो निकलिए. बच्चों पर विश्वास तो कीजिए.

आजकल एक trend चल पडा है गतिविधि कराने का. गतिविधि के नाम पर व्याकरण का topic लिया और कुछ क्रियायें करा दी और उन्हेँ रटाकर video बनाकर facebook, whatsapp, U tube पर डाल देते हैं. ध्यान से देखें तो उनमे चिन्तन व अनुप्रयोगों का नितांत अभाव होता है. नतीजा वो ज्ञान उस गतिविधि के साथ ही समाप्त हो जाता है. आपकी गतिविधि मे चिन्तन व अनुप्रयोग होने चाहिए तभी आपकी गतिविधि नि‍ष्कअर्श तक पहुंच पायेगी.

मित्रो यदि आपको अपने आपको पुनःस्थापित करना है और समाज मे प्रतिष्ठा पानी है तो CLT को अपनाना होगा GLT को छोडना होगा. Lecture की जगह activity को महत्व देना होगा. बच्चों को अपना ज्ञान निर्माण करना सिखाना होगा. बच्चों को अपना दोस्त बनाना होगा, ताकि वे भी हमे अपना mentor समझने लगें. Time ratio - 20% teacher व 80% छात्रों का करना होगा. अपनी भाषा एवं पध्दोति को सरल बनाना होगा. हमारा उद्देश्य कोर्स पूरा कराना ना होकर बच्चों के मन मे समझ आने पर जोर देना होगा. व्याकरण के topics अलग से नहीं पढाकर वार्तालाप के वीच मे ज्यादा से ज्यादा उदाहरण देकर व्यावहारिक रुप मे समझाइए. टुकडों मे पढाई हुई व्याकरण ठीक वैसी ही है जैसे, हाथ, पांव, मुँह, नाक, कान बाल, रंग रूप के वर्णन के आधार पर किसी व्यक्ति का अनुमान लगाना. अगर बर्णन करने के बजाय उस सम्पूर्ण व्यक्ति को ही सामने खडा करके वर्णन खुद बच्चों को ही करने दें तो भ्रम की स्थिति पैदा ही नही होगी.

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