लेख

खुश हैं वन्य जीव और प्रकृति मुस्काने लगी

रचनाकार- प्रमोद दीक्षित 'मलय'

देशव्यापी लाकडाउन के तीन सप्ताह बीत जाने के बाद भारतवर्ष के पर्यावरण में व्यापक सुधार देखने को मिला है. प्रकृति को नव जीवन मिला है. सुवासित इंद्रधनुषी सुमन खिलखिलाकर नित्य प्रातः बाल सूर्य का वंदन-अभिनंदन कर रहे हैं तो नदियां मां भारती के भाल पर निर्मल जल से पावन अभिषेक कर रही हैं. विषैले रसायन और कल-कारखानों का दूषित जल प्रवाहित न होने से सरिताएँ स्वच्छ निर्मल जलराशि से तृप्त हुई हैं और जलीय जीव-जन्तुओं के जीवन के लिए वरदान सिद्ध हो उपयुक्त परिस्थितियों का निर्माण कर रही हैं. वन्य जीव निर्भय निशंक हो नगरों के राजपथ और गलियों में विचरण कर रहे हैं. नोएडा में दिन में नीलगाय सड़क पर घूम रही है तो हरिद्वार में देर शाम को हिरन-सांभर टहलते दिखे और रात में हाथी घूमते हुए हर की पौड़ी तक पहुँच गये. मुम्बई के समुद्र तट पर हजारों की संख्या में कबूतर निर्भय किलोल कर रहे हैं तो कहीं सिंधु-जल में डाल्फिन अठखेलियाँ कर रही हैं. केरल के कोझिकोड शहर में लुप्तप्राय मान लिया गया गंधबिलाव विचरण करता दिखा तो कर्नाटक में गौर भी राजपथ पर शान से चहलकदमी करता मिला. उड़ीसा के समुद्र तट पर अंडे देने आई ओलिव रिडले मादा कछुवों की सात लाख तक की अनुमानित संख्या जीव विज्ञानियों के लिए आश्चर्यमिश्रित खुशी का आधार है तो सुखद भविष्य का विश्वास भी. एक सौ से अधिक शहरों की हवा के प्रदूषण में तेजी से कमी हुई और गुणवत्ता में वृद्धि हुई है जिससे वायु श्वसन के अनुकूल हो गई है. आकाश निर्धूम हुआ है जिससे पंजाब के शहर जालंधर से हिमाचल की पर्वतमालाएँ दिखने लगी हैं. शहरों की छतों पर मयूर पंख फैलाकर नाचते हुए खुशी का इजहार रहे हैं और उन्हें देखकर मनुज-मन भी आनन्द के सरोवर में डुबकी लगा रहा है. मंद-मंद बह रही हवा शीतल और सुखदायी है. ग्रीष्मऋतु का आगमन हो चुका है पर दोपहर का ताप भी तन-मन के लिए कष्टकारी नहीं है. गत वर्षों में मध्य मार्च तक घरों की शोभा बन जाने वाले कूलर अभी टाड़ एवं तलघर में ही कैद हैं और पंखों की ही ठंढी हवा में मानव चैन की वंशी बजा रहा है. मैं जिस पीढ़ी़ से ताल्लुक रखता हूं, वह पीढ़ी प्रकृति के साथ सह-अस्तित्व की उदात्त भावना और संकल्प के साथ जीवन निर्वाह करने वाली रही है. मैंने ग्राम, वन, गिरि एवं सर्वदा जल प्रवाही सरिताओं के तट पर प्रकृति के साथ लोकजीवन को राग-रंग के आनन्द के साथ न केवल जीते हुए देखा है बल्कि परस्पर पूरकता के नवल अध्याय रचने का साक्षी भी रहा हूँ. यह समय का वह दौर था जब न ही कृषि विषयुक्त हुई थी और न ही मानव मन कलुषित. धरती माता हरीतिमा की चादर ओढ़े सुंदर और विषमुक्त थी, जिससे उपजे फल-फूल, सब्जियाँ, अन्न आदि संपूर्ण प्राणी जगत का पोषण करते हुए बल, आयु और आरोग्य प्रदान करते थे. नदियों एवं सरोवरों का पय पानकर पथिक तृप्त होता और समस्त लोक अपने दैनंदिन जीवन का निर्वाह कर माता समान आदर-सम्मान देता. गाय, बैल, सियार, लोमड़ी, हिरन, सांभर, खरहा, सेही, बिज्जू, कुत्ता, बिल्ली, लकड़बग्घा जैसे हिंसक-अहिंसक पशु घर एवं गाँव के चतुर्दिक स्थित गिरि, कंदराओं और वन प्रांतर में सहजता से जीवन यापन करते थे. पक्षियों की मधुर रसमय चहचहाहट मानो संगीत के सप्त सुरों का उद्रेक ही थी. ऋतु अनुकूल वर्षा से सिंचित कानन-गिरि देव दुर्लभ जड़ी-बूटियों के संरक्षित भंडार थे. नदियों के शीतल जल में गाँव का संपूर्ण निस्तार निर्वाह था तो वही कच्छप, मत्स्य एवं शंख प्रजाति के सैकड़ों जीवों के जीवन का आधार भी. तथाकथित विकास की वाहक काली सड़क तब गाँव तक नहीं पहुँची थी. आवागमन के साधन सस्ते, सर्वसुलभ और प्रकृति हितैषी थे. बहुधा पैदल चलना श्रेयस्कर था और उत्तम स्वास्थय की कुंजी भी. कृषि कर्म गोवंश आधारित होने से परम्परागत हल-बक्खर जुताई के सर्वमान्य साधन थे और ट्रैक्टर गाँव से बहुत दूर था. यही कारण था सड़कों पर चलने वाले वाहनों से निकलने वाले धुएँ और कर्कश ध्वनि से रहित ग्राम्य परिवेश सुख-शांति का वह अभिराम स्थल था जहाँ पहूँचकर स्वर्ग का आनंद भी तुच्छ दिखाई पड़ने लगता था. लेकिन फिर ऐसा क्या हुआ कि प्रकृति कुपित होकर रूठ गई. मानव तो इस चराचर जगत का सबसे बुद्धिमान प्राणी है. आखिर वह गलती कहाँ कर बैठा, क्योंकर अपने पैरों स्वयं कुल्हाड़ी मार ली. ऐसे तमाम प्रश्नों के उत्तर यहीं हैं क्योंकि जहाँ की समस्या होती है तो समाधान का पंथ भी वहीं से निकलता है. वस्तुओं के अपरिग्रह और त्यागपूर्वक भोग के उपनिषदों के शुभ संदेश की अवलेहना कर मानव स्वार्थी और केवल भोगों में लिप्त अविवेकी पशुवत मनुष्य बन कर रह गया. प्राकृतिक संसाधनों का शोषक केवल शोषक बन गये मनुष्य ने जैसे अपने कर्तव्यों से मुंह मोड़ लिया है.

कोरोना के कारण तालाबंदी से पिछले 21 दिनों की अवधि ने घरों में कैद मानवीय जीवन में आये बदलाव से प्रकृति को पुनः नवल रूप धारण करने का एक स्वर्णिम अवसर प्रदान किया है. संचार के तमाम संसाधनों में चित्र और समाचार प्रकाशित प्रसारित होते रहे कि अब किस प्रकार प्रकृति खिली-खिली नजर आ रही है. हम अपने नगर-कस्बों में इस सकारात्मक प्राकृतिक परिवर्तन को प्रत्यक्ष देख, समझ और अनुभव कर सकते हैं. दिल्ली में यमुना का जल इतना स्वच्छ और निर्मल हो गया है कि तल में पड़े हुए पत्थर और अन्य वस्तुएँ सहजता से दिख रही हैं. यह दिल्ली की वही यमुना है जिसमें एक लाख कल-कारखानों के प्रवाहित दूषित जल से कलुषित विषाक्त फेनिल जल में हमने छठ के अवसर पर स्त्री-पुरुषों को सूर्य को अर्घ देते हुए भी देखा है. लाकडाउन के चलते कारखाने बंद हैं और न केवन दिल्ली बल्कि कानपुर, मथुरा प्रयाग, वाराणसी, लखनऊ आदि नगरों की नदियां गंगा, यमुना गोमती आदि निर्मल हुई हैं.

जीवन का जरूरी पक्ष विकास भी है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता. विकास से विरोध भी नहीं. पर विकास प्रकृति की आहुति देकर तो नहीं किया जा सकता न. हमें प्रकृति के सह-अस्तित्व पर आधारित एक ऐसा विकासपरक मॉडल विकसित करना होगा जो दोनों को साध सके, जीवन को उमंग एवं उत्साह के साथ सदैव गतिशील करता रहे. इसके लिए जरूरी होगा कि हम भोगवाद एवं संग्रह करने की भावना एवं प्रवृत्ति से मुक्त हों. प्रकृति से उतना ही लें जितना जीवन निर्वाह के लिए आवश्यक हो. कल-कारखानों के दूषित जल को बिना उपचारित किये सीधे नदी-नालों में प्रवाहित न किया जाये. बेहतर होगा दूषित जल निकासी की एक अलग समानान्तर व्यवस्था बना ली जाये. प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देने के साथ शाकाहार को प्रोत्साहित किया किया जाये. कृषि कार्य में रासायनिक कीटनाशकों एवं उर्वरकों का प्रयोग योजनाबद्ध तरीके से सीमित किया जाये. चेतना सम्पन्न मानव ही प्रकृति का संरक्षक हो सकता है. कोरोना ने हमें जागने का एक संकेत और चेतावनी दी है. यदि हम वर्तमान संकट में ऐसे ही बेसुध सोये रहे तो आगामी पीढ़ी के सवालों के सम्मुख हम केवल सिर झुकाये मौन खड़े रहने को विवश होंगे.

हमारे प्रेरणास्रोत- मिल्खा सिंह

रचनाकार- प्रीति सिंह

प्यारे बच्चो,
आज मैं बात करूँगी एक एथलीट की, जिन्हें पद्मश्री जैसे सर्वोच्च पुरस्कार से सम्मानित किया गया .उन्होंने हमारे देश को कई गोल्ड मेडल दिलाए ,कुल अस्सी. अंतर्राष्ट्रीय रेस में से सतहत्तर रेस जीत कर उन्होंने एक नया कीर्तिमान स्थापित कर दिया. उस एथलीट का नाम है मिल्खा सिंह.

मिल्खा सिंह जी का जन्म पंजाब प्रांत के मुज़फ़्फ़रनगर में सन १९३२ में हुआ. यह आजादी के पहले की बात है. पंजाब का यह हिस्सा आज पाकिस्तान में है.१५ अगस्त १९४७ को आज़ादी के साथ ही भारत और पाकिस्तान में दंगों की शुरुआत हो गई. इन दंगों में मिल्खा जी ने अपने पूरे परिवार को खो दिया. सिर्फ़ एक भाई और एक बहन बच गए थे. इस बँटवारे के दौरान वह पाकिस्तान से भाग कर भारत आ गए.शुरू के दिनों में तो वह बहन के यहाँ रहे परंतु बाद में उन्होंने आर्मी में नौकरी कर ली. आर्मी का जीवन बहुत ही अनुशासित और थका देनेवाला होता था. उन्हें फिजिकल ट्रेनिंग के साथ -साथ गार्ड्निंग,रोड बनाना और रसोई आदि के काम भी करने होते थे. उन्हें वहाँ पैंतीस रुपए तनख़्वाह ही मिलती थी और उसमें से भी दस रुपए परिवार को भेजना ज़रूरी होता था. बचे पैसों से वह अपनी दैनिक ज़रूरत की चीज़ें ख़रीदते थे. एक रोज़ सुबह उन्हें जानकारी दी जाती है कि दूसरे दिन छह मील की राज्य स्तरीय दौड़ प्रतियोगिता आयोजित होगी. जो जवान यह प्रतियोगिता जीतेगा उसे रोज़ एक गिलास दूध मिलेगा और रोज़ के काम में भी कुछ छूट मिलेगी.

बच्चो, जीवन में मिलने वाले दुःख और अभाव अक्सर इंसान को तोड़ कर रख देते हैं. परन्तु जिनके हौसले बुलंद होते हैं वे तकलीफों से और भी मजबूत बनते जाते हैं. वे कमियों को ही ताकत बना लेते हैं. मिल्खा सिंह की गिनती ऐसे ही इंसानों में होती है.

दूसरे दिन रेस शुरू हुई. वे जान लगाकर पूरी ताक़त से दौड़े .उस दिन उनके पैरों में जूते नहीं थे पर मन में जीतने की ललक ज़रूर समाई हुई थी. उन्हें जीतना ही था. वे रेस जीत गए. यहाँ से उनके एथलेटिक जीवन की शुरुआत हुई.

१९६० में एक लम्हा वह भी आया जब पाकिस्तान सरकार की तरफ़ से उन्हें वहाँ इंडो -पाक मीट में खेलने का निमंत्रण मिला. पाकिस्तान में उन्होंने अपनी आंखों के सामने अपने परिवार को खत्म होते देखा था. वह दृश्य वे भूल नहीं सकते थे. वह जाना नहीं चाहते थे पर तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के कहने पर वह वहाँ गए.

लाहौर के गद्दाफ़ी स्टेडीयम मे हज़ारों की संख्या में लोग बैठे थे. तभी गन फ़ायर के साथ रेस शुरू हुई.उस दिन वह फ़ील्ड पर तूफ़ान की तरह दौड़े. हज़ारों की संख्या में महिलाओं ने उन्हें बुर्का उठा कर देखा. यह खबर पाकिस्तान न्यूज़ एजेंसी की हेडलाइन बन गयी. वह रेस जीत चुके थे. पाकिस्तान की सरज़मीं पर अपने देश का झंडा लहराता देखकर उनके दिल में गर्व और दर्द दोनों का एहसास था. पाकिस्तान के जनरल अयूब खान ने उन्हें फ़्लाइंग सिख की उपाधि दी.

उनका संघर्ष और उपलब्धियों से भरा जीवन हमें सदा प्रेरित करता रहेगा.

पौधों को भी होता है दर्द

रचनाकार- खेमराज साहू 'राजन '

(5 जून विश्व पर्यावरण दिवस पर विशेष )
साधारण कटने,जलने या छिलने पर हमें दर्द महसूस होता है लेकिन क्या आप जानते है कि पेड़-पौधे भी दर्द महसूस करते हैं व प्रतिक्रिया स्वरूप चीखते भी हैं. जंतु में पोषण,उत्सर्जन,गति , संवेदनशीलता , वृद्धि ,प्रजनन आदि का लक्षण सजीवो में पाए जाते हैं. तो पौधे भी सजीव है. अत: उनमें पोषण , उत्सर्जन , गति, संवेदनशीलता ,वृद्धि तथा प्रजनन के लक्षण भी पाए जाते हैं. इसी प्रकार अन्य सजीवों के समान ही पौधों या वृक्षों में भी संवेदनशीलता पायी जाती है.

पौधों में गति तथा गुरुत्वाकर्षण में पौधो की जड़ जमीन की ओर ही बढ़ती जाती है. प्रकाशानुवर्तन की बात करें तो पौधों के तने हमेशा ही प्रकाश की ओर ही वृद्धि करते हैं. पौधों को जल की आवश्यकता हो तो पौधों की जड़ें स्वमेव ही जल की ओर वृद्धि करती हैं जिसे जलावर्तक कहते हैं. साथ ही स्पर्शानुवर्तन का गुण देखें तो लगता है कि पौधे अपने आप को संरक्षित रखना चाहते हैं. जैसे - छुई-मुई के पौधों की विशेषता से सभी परिचित है. इस पौधे को छूने मात्र से ही इसकी पत्तिया बंद हो जाती है, इसे कम्पानुकुंचन भी कहते है वह गति जो पौधों में स्पर्श से उत्पन्न होती है उसे स्पर्शानुवर्तन कहते है. कुम्हड़ा , लौकी, मटर, करेला आदि की बेल में स्पर्शानुवर्तन पाया जाता है इनके 'प्रतान ' जैसे ही किसी सहारे को छूती हैं उसके चारो ओर स्प्रिंग की तरह लिपट जाते हैं. क्या होता है जब जलती हुई मोमबत्ती की लौ के ऊपर आपका हाथ पड़ जाता है? आप झटके से अपना हाथ हटा लेते हैं, ये क्रिया संवेदनशीलता के कारण होती है. पेड़- पौधों में भी संवेदनशीलता होती है, जैसे - कमल के फूल का सूर्योदय के साथ खिलना तथा सायंकाल के समय बंद हो जाना ,रात में कचनार , इमली की पत्ति का बंद होना ये दोनों उदाहरण प्रकाश के प्रति संवेदनशीलता प्रदर्शित करते हैं. छुई- मुई की पौधों की पत्तियों का छूने से बंद हो जाना स्पर्श के प्रति संवेदनशीलता है.

अगर किसी पौधे या वनस्पति को उचित मात्रा में पानी न मिले या उसका तना काटा जाता है तो वे इसका दर्द महसूस करने के साथ चीखते भी है. इज़राइल के तेल अवीव विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने शोध में इसकी पुष्टि की है. वैज्ञानिकों ने बताया की कुछ वनस्पतियाँ ऐसी है, जो पर्यावरणीय तनाव सहन करने के बाद अत्यधिक आवृत्ति वाले दुःखी ध्वनि का उत्सर्जन करते हैं. वैज्ञानिकों ने बताया की वनस्पति द्वारा उत्सर्जित ध्वनि के कई प्रकारों को सुनने से बेहतर कृषि में मदद मिल सकती है.

सन् 1901 में भारतीय वैज्ञानिक *सर जगदीश चंद्र बोस ने साबित कर दिया था कि पेड़- पौधों में भी जीवन होता है. बोस ने ' क्रेस्कोग्राफ ' के जरिये बाहरी बदलाव होने पर पेड़ पौधों की प्रतिक्रिया रिकॉर्ड की. यह प्रयोग लंदन की रॉयल सोसाइटी में हुआ था. इसके बाद दुनिया ने बोस का लोहा माना.

शोध में वैज्ञानिकों ने टमाटर व तम्बाकू के पौधों में 10 से.मी. की दूरी से यह चीख माइक्रोफोन के जरिये रिकॉर्ड की. उन्होंने तना काटा व पानी डालना बंद कर दिया. हर घंटे 35 बार पौधों की चीख रिकॉर्ड हुई. तना को काटने पर टमाटर के पौधे के एक घंटे में 25 और तम्बाकू के पौधों में 15 अल्ट्रासोनिक भ्रंश ध्वनियों का उत्सर्जन किया. पानी कम होने पर टमाटर के पौधों ने एक घंटे में 35 और तम्बाकू के पौधों में 11 अल्ट्रासोनिक भ्रंश ध्वनियों का उत्सर्जन किया. इस प्रकार पौधों को महसूस होता है दर्द. जब पौधे के पत्ती को कीड़ा काटता है तो यह कटा हुआ हिस्सा पौधे से कैल्शियम खींचता है. पत्तियों व तने के साथ कोशिकाओं में एक चेन रिएक्शन सेट करता है. कैल्शियम पत्तियों की रक्षा के लिए पौधे से हार्मोनल प्रतिक्रिया करता है. यहीं दर्द को रिकॉर्ड किया जाता है. इस प्रकार वैज्ञानिकों ने पता किया कि पौधों या वृक्षों को काटने ,तोड़ने या पानी नहीं मिलने से दुःखी होते हैं l अतः आज 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस के अवसर पर शपथ लेनी होगी कि हमें पेड़- पौधों को नहीं काटना है तथा नए पेड़- पौधे लगाना एवं उसका संरक्षण करना है.

सबको देनी है ये शिक्षा,पर्यावरण की करो सुरक्षा.

हमारा पर्यावरण

रचनाकार- पद्यमनी साहू

उद्यान में खिले रंग- बिरंगे फूल, छोटे- बड़े बहुत सारे पेड़ पौधे, जमीन पर बिछी घास की हरी चादर, प्रणव और ज्योति के मन को अनायास ही अपनी ओर आकर्षित करती है . प्रणव और ज्योति छुट्टियों के दिनों में अपने दादा जी के साथ उद्यान में जाया करते हैं। उनके दादा जी दीनदयाल पांडे जी प्रतिदिन उद्यान में सैर करने के लिए जाते हैं ।आज सुबह उद्यान में लोगों की भीड़ अन्य दिनों से अधिक थी क्योंकि आज 5 जून है, जो कि विश्व पर्यावरण दिवस के रूप में मनाया जाता है। इस दिन उद्यान में विश्व पर्यावरण दिवस पर एक कार्यक्रम भी रखा गया है। प्रणव और ज्योति भी अपने दादा जी के साथ इस कार्यक्रम में सम्मिलित हुए ।नन्हीं सी ज्योति ने अपने दादा जी से बड़ी मासूमियत से पूछा दादाजी यह पर्यावरण दिवस क्या है और क्यों मनाया जाता है?दादा जी ने प्रणव और ज्योति को बताया कि विश्व पर्यावरण दिवस के दिन कई स्थानों पर कार्यक्रम होते हैं।जिसमें कई विद्वान सम्मिलित होते हैं और पर्यावरण के विषय में महत्वपूर्ण चर्चा करते हैं ।पर्यावरण पर मानवीय क्रियाकलाप से होने वाले अंतर को देखना व हमारे लिए और पर्यावरण के लिए यह लाभदायक है या हानिकारक है इस पर चर्चा करते हैं ।इतने में उद्यान में कार्यक्रम की शुरुआत हो गई ।कार्यक्रम में ज्योति के दादाजी को भी बोलने का अवसर दिया गया ।दादा जी ने कहा कि हम जिस पर्यावरण में रहते हैं उसे साफ सुथरा व सुंदर बनाए रखना हम सबकी आवश्यकता एवं परम कर्तव्य है। जिससे स्वच्छ व सुंदर पर्यावरण में रहकर हम स्वस्थ व निरोगी और प्रसन्न चित्त रह सकते हैं क्योंकि बीमारी का कारण गंदगी एवं अव्यवस्था ही है।विश्व पर्यावरण दिवस पर आयोजित इस कार्यक्रम में सभी लोगों ने अपने अपने विचार प्रकट किए सभी ने संकल्प लिया कि वे अपने पर्यावरण को साफ-सुथरा व सुंदर बनाए रखने का प्रयास करेंगे ।खाली जगहों व अपने घरों में पेड़-पौधे लगाकर अपने पर्यावरण को सुंदर बनाएंगे ।प्रणव और ज्योति को इस कार्यक्रम में सम्मिलित होकर बहुत ही अच्छा लगा ।वे दोनों आज जान पाए कि पर्यावरण हमारे लिए कितना महत्वपूर्ण है।हम पर्यावरण के बिना और पर्यावरण हमारे बिना नहीं रह सकता ।इसलिए हमें पर्यावरण को साफ बनाए रखने के लिए लिया गया संकल्प सदैव याद रखने का निश्चय किया।दोनों ने वर्षा ऋतु आने पर अपने दादा जी के साथ घर और घर के आस-पास बहुत सारे पौधे लगाए और उनकी देखभाल की ।साथ ही वे अपने मित्रों और रिश्तेदारों को प्रतिवर्ष पौधे लगाने के लिए प्रेरित करने का संकल्प भी लिया ।दोनों का इस संकल्प से दादा जी को बहुत प्रसन्नता हुई कि उन्होंने अपने जीवन में जिस संकल्प को निभाया वह संकल्प निभाने का अब उनके पोते व पोती ने संकल्प लिया है

सफलता की कहानी

नाम- अंजू साहू
पिता का नाम- श्रीमान् दनुक लाल साहू
माता का नाम- श्रीमती लता साहू
कक्षा – आठवीं
ग्राम- कोयलारी

“सबकी कंठवासी” शांत स्वभाव की शर्मीली बालिका सबकी चहेती है. पढ़ाई में भी अच्छी है. अनुशासन में रह कर सबको अनुशासित रहने हेतु प्रेरित करती है, जो शाला की छात्रा प्रतिनिधि के रूप में बाल संसद में प्रधानमंत्री के पद के अनुरूप अपनी जिम्मेदारियां निभाती है. अंजू को खेल विशेषकर बैडमिंटन, पेंटिंग, साहित्यिक गतिविधियों में भी सरुचि भाग लेती है और कंप्यूटर ऑपरेटिंग में तो इसे विशेष दक्षता हासिल है इसलिए कार्यालीन कार्यो के संचालन में एक लिपिक जैसे कार्य कर लेती है विद्यायलीन गतिविधियों में कंप्यूटर व तकनीकी संबंधी कार्यो को यही संभालती है समय पड़ने पर अधीक्षिका मैडम के कार्यो में मदद करती है.

किन्तु शर्मीला स्वभाव व गुस्सा इसकी योग्यता को निखारने में रूकावट पैदा कर्ता है. जीवन कौशल सत्रों के दौरान इसे प्रेरित किया गया जीवन कौशल की शिक्षा से इसमें परिवर्तन स्पष्ट दिखाई पड़ने लगा है. अंजू में खुलकर बात करने की क्षमता विकसित हुई और निडरता के साथ अपने विचारों को प्रस्तुत करने में सक्षम हो गई है.

अंजू का गुस्सा और अभिव्यक्ति में झिझक इसकी योग्यता व प्रतिभा को निखारने व उसे बहुउद्देश्य बनाने में रूकावट पैदा करता था. जीवन कौशल सत्र- “अपने गुस्से को नियंत्रण करना” एवं “दृढ़ता पूर्वक अपनी बात रेख पाना” सत्र अंजू के लिए बहुत लाभदायक रहा और अंजू का कहना है-
आज मैं स्वयं कहती है मुझमें आत्मविश्वास बढ़ गया है, आने वाले समय में मैं जीवन कौशल सत्रों से और भी अच्छी आदतों को सीखकर अपना भविष्य गढ़ने का कार्य करुँगी.”

छात्र जीवन में शिक्षक की सीख -डॉ ए.पी.जे.अब्दुल कलाम

संकलनकर्ता- डॉ शिप्रा बेग

भूतपूर्व राष्ट्रपति (मिसाइल मैन) डॉ अब्दुल कलाम जी का जीवन सादगी और जिज्ञासाओं से भरपूर था. बचपन से ही प्रत्येक वस्तु के लिए उनके मन में जिज्ञासा रहती थी. उनकी आत्मकथात्मक पुस्तक 'अग्नि की उड़ान ' पढ़ी तो उनके प्रति आदर एवं श्रद्धा की भावना और भी बढ़ गई.उनकी आत्मकथा पढ़ना एक तीर्थयात्रा करने जैसा है.उसी पुस्तक में से एक बहुत सुंदर प्रसंग है जिसे छात्रों के साथ साझा करना चाहूँगी.

रामनाथपुरम के श्वार्ट्ज हाई स्कूल में मेरा मन लग जाने के बाद मेरे भीतर का पंद्रह साल का किशोर बाहर निकल पड़ा. वहाँ मेरे एक शिक्षक अयादुरै सोलोमन उन उत्सुक छात्रों के लिए आदर्श मार्गदर्शक थे जिन छात्रों के समक्ष उस समय संभावनाओं और विकल्पों की अनिश्चितता थी. श्री सोलोमन बहुत ही स्नेही और खुले दिमाग वाले व्यक्ति थे. हमेशा सभी छात्रों का उत्साह बढ़ाते थे. उनसे मेरे संबंध गुरु -शिष्य से बढ़कर थे., उनके साथ रहते हुए मैंने जाना कि व्यक्ति खुद अपने जीवन की घटनाओं पर काफ़ी असर डाल सकता हैं.

उनका कहना था कि जीवन में सफल होने के लिए तीन प्रमुख ताकतों को समझना चाहिए इच्छा, आस्था, और उम्मीदें.

डॉ अब्दुल कलाम जी के लिए उनके शिक्षक श्री सोलोमन बहुत ही पूजनीय थे. डॉ कलाम कहते हैं कि उन्होंने ही मुझे सीखाया कि मैं जो कुछ चाहता हूँ पहले उसके लिए तीव्र कामना करनी होगी. फिर वह निश्चित रूप से मुझे प्राप्त हो सकेंगी.

इसका मैं एक उदाहरण देता हूँ. बचपन से ही मैं आकाश औऱ पक्षियों के उड़ने के रहस्य के प्रति काफी आकर्षित रहता था. मैं सारस को समुद्र के ऊपर मँडराते ऊँची उड़ानें भरते देखा करता था. तब मैंने भी निश्चय किया कि एक दिन मैं भी आकाश में ऐसी ही उड़ानें भरूँगा,और वास्तव में कालांतर में उड़ान भरने वाला मैं रामेश्वरम का पहला बालक निकला.

शिक्षक श्री सोलोमन का यह कथन, मुझे सदैव प्रेरित करता रहता हैं---

'निष्ठा और विश्वास से तुम अपनी नियति बदल सकते हो.

संकलित - अग्नि की उड़ान ( रामेश्वरम से राष्ट्रपति भवन की कहानी : डॉ कलाम की जुबानी)

सादा जीवन उच्च विचार

संकलनकर्ता - डॉ शिप्रा बेग

महात्मा गांधी जी ने अपने जीवन में सदैव 'सादा जीवन और उच्च विचार' को ही सर्वोपरी रखा. परन्तु गाँधी जी के जीवन में जो बदलाव आया,उसके पीछे भी एक रोचक प्रसंग हैं. बैरिस्टर बनने, कानून की पढ़ाई करने गाँधी जी जब इंग्लैंड जाते हैं तो,उनको सभ्य बनने की सनक सवार हुई. उन्होंने सोच लिया कि, किसी भी दृष्टि से वे अंग्रेजों के सामने अपने आप को असभ्य सिध्द नहीं होने देंगे. अतः उन्होंने अंग्रेजी सूट सिलवाया हैट ली, ईवनिंग सूट तैयार करवाया,टाई बाँधने की कला सीखी. आईने के सामने खड़े होकर टाई की 'नॉट' बाँधने और बालों को कंघी से साधने के अभ्यास शुरु हो गये. उन्होंने सोचा सभ्य आदमी को नाचना भी अवश्य आना चाहिए. अतः उन्होंने डांस भी सीखा. रोजाना कई - कई घण्टे बनने संवरने में गुजर जाते.

मगर एक दिन उन्होंने सोचा कि, वे यहाँ क्या करने आये हैं और किस दिखावे में उलझ गए. उन्हें अपने बड़े भाई की स्थिति का खयाल आया कि, किस प्रकार दुःख उठा कर उन्होंने मुझे बैरिस्टर की पढ़ाई के लिए विदेश भेजा और वे उनके पैसे को यूँ ही उड़ा रहे हैं. सभ्य बनने के लिए कीमती वस्त्र और बनावटी चीजों की आवश्यकता नहीं होती हैं. उन्हें अपनी शिक्षा की तरफ ध्यान देना चाहिए. अतः उन्होंने सभी बनावटी चीजो को तिलांजली दे दी.

अब वे अपना सारा समय पढ़ाई में और बचे हुए समय में विदेशी भाषाओं को सीखने का निर्णय लिया. यहीं गाँधी जी को मितव्ययिता की आदत पड़ी. अब उनका जीवन एकदम सादा और सहज हो गया. सादगी ने उच्च विचारों को जन्म दिया. और अब उनकी दृष्टि लक्ष्य पर टिक गई.

इसी सन्दर्भ में गाँधी जी का कथन था कि, ' कोई यह न समझे कि सादगी से मेंरा जीवन नीरस बन गया था. सच तो यह है कि,इससे मेंरे भीतर औऱ बाहर के जीवन में समरसता आ गई थी. यह संतोष भी था कि, मैं अपने परिवार पर अधिक बोझ नहीं डाल रहा हूँ. मेंरे जीवन में अधिक सच्चाई आ गई. मेंरी आत्मा में आनंद लहराने लगा. '

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