अब्दुर्रहीम खाने-खाना का बहु-आयामी काव्य

रहीम का जन्म संवत् १६१३ ई.लाहौर में हुआ था. उनके पिता बैरम खाँ सम्राट हुमायूँ के दरबारी थे. स्वयं हुमायूं ने उनका नाम रहीम रखा. बैरम खान अकबर के गुरू थे, परंतु बाद में मतभेद हो जाने के कारण अकबर ने उन्हें हज करने के बहाने दिल्ली से भेज दिया. रास्ते में बैरम खान की हत्या कर दी गई. रहीम की माता उन्हें लेकर अकबर के दरबार में लौट आईं. रहीम अकबर के दरबार में महत्वपूर्ण स्थान पर रहे. अकबर ने उन्हें मुस्तकिल (स्थाई) मीर अर्ज नियुक्त किया था. जनता की अर्जियां बादशाह के पास मीर अर्ज के माध्यम से ही जाती थीं इसलिये यह बड़ा महत्वपूर्ण पद था. उन्हें शहजादा सलीम को पढ़ाने की जिम्मेदारी भी दी गई थी. रहीम ने मुख्य रूप से बृज भाषा और अवधी में लिखा है, परंतु उनके संस्कृत के श्लोक भी मिले हैं और उन्होने फारसी में आइने अकबरी भी लिखा है, तथा बाबर की आत्मकथा तुजके बाबरी का तुर्की से फारसी में अनुवाद भी किया है. रहीम के प्रसिध्द ग्रंथ रहीम दोहावली या सतसई, बरवै नायिका भेद, श्रंगार सोरठा, मदनाष्टक, राग पंचाध्यायी, नगर शोभा आदि हैं। रहीम के काव्य में नीति, भक्ति, प्रेम और श्रंगार का सुंदर समावेश है.

रहीम के कुछ नीति विषयक दोहे देखिये –

रहिमन देख बड़ेन को, लघु न दीजिये डार।
जहां काम आवे सुई, कहा करे तरवार॥


रहीम कहते हें कि बड़ों को देखकर छोटों को छोड़ नहीं देना चाहिये क्योंकि जहां पर छोटे काम आ जाते हैं वहां बड़े काम नहीं आते जैसे सुई का काम सिलना है और यह काम तलवार से नहीं हो सकता.

जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करि सकत कुसंग।
चंदन विष व्यापत नहीं, लिपटे रहत भुजंग॥


रहीम कहते हैं कि अच्छी प्रकृति के लोग बुरों की संगत में भी नहीं बिगड़ते हैं जैसे सांप लिपटे रहने पर भी चंदन के पेड़ो में विष नहीं व्यापता है.

रहिमन धागा प्रेम का, मत तोरउ चटकाय।
टूटै से फिर ना मिलै, मिलै गांठ परि जाय॥


रहीम कहते हैं कि प्रेम का धागा तोड़ना नहीं चाहिये क्योंकि एक बार टूट जाने से वह फिर जुड़ता नहीं है और जुड़ भी जाये तो भी गांठ तो पड़ ही जाती है अर्थात मन में कुछ कड़वाहट रह जाती है.

जो बड़ेन को लघु कहे, नहिं रहीम घटि जांहि।
गिरिधर मुरलीधर कहे, कछु दुख मानत नांहि॥


यदि किसी बड़े को छोटा कह दिया जाये तो वह छोटा नहीं हो जाता, जैसे कृष्ण को गिरि‍धर (पहाड़ उठाने वाला) कहने के स्थान पर मुरलीधर (बांसुरी बजाने वाला) कह देने से वे कुछ दुख नहीं मानते.

आब गई, आदर गया, नैनन गया सनेहि।
ये तीनों तब ही गये, जबहि कहा कछु देहि॥


तेज, इज्जत और प्रेम तीनो ही कुछ मांगते ही समाप्त हो जाते हें,अत: मांगना नहीं चाहिये.

रहिमन वे नर मर गये, जे कछु माँगन जाहि।
उनते पहिले वे मुये, जिन मुख निकसत नाहि॥


रहीम कहते हैं कि जो कहीं मांगने जाते है वे मरे हुए के समान हैं, परंतु जो मांगने वाले को मना कर देते हैं वे तो उनसे भी गए-गुज़रे हैं.

रहिमन विपदा ही भली, जो थोरे दिन होय।
हित अनहित या जगत में, जानि परत सब कोय॥


रहीम करते हैं कि थोड़े दिनो की विपत्ति भी अच्छी है क्योंकि इससे इन दुनिया में अच्छे-बुरे का ज्ञान हो जाता है.

बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर।
पंथी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर॥


खजूर के पेड़ की तरह बड़ा होने का क्या लाभ. यह यात्रियों को छाया तो देता नहीं और फल भी बहुत दूर लगे होने के कारण कोई इन्हें खा नहीं सकता. अर्थात बड़ा वही है जो दूसरों का भला करे.

रहिमन चुप हो बैठिये, देखि दिनन के फेर।
जब नीके दिन आइहैं, बनत न लगिहैं देर॥


रहीम करते हें कि बुरे दि‍न आने पर चुप होकर बैठ जाना अच्छा है. जब अच्छे दिन वापस आयेंगे तो काम बनते देर नहीं लगेगी.

फिल्मे अंखियों के झरोखों से के यह गीत यू-ट्यूब पर देखें. गीत में पहले 2 दोहे रहीम के हैं –

भक्ति रस से परिपूर्ण दोहे देखि‍ये

तैं रहीम मन आपुनो, कीन्हों चारु चकोर।
निसि बासर लागो रहै, कृष्णचंद्र की ओर।।


मैने अपना मन चकोर की तरह बना लिया है जो रात दिन भगवान कृष्ण रूपी चंद्रमा की ओर ही लगा रहता है.

गहि सरनागति राम की, भवसागर की नाव।
रहिमन जगत उधार कर, और न कछू उपाव।।


भवसागर को पार करने के लिये और जगत से उध्दार के लिये राम की शरण में जाना ही एकमात्र उपाय हैं.

चित्रकूट में रमि रहे, रहिमन अवध-नरेस।
जा पर बिपदा पड़त है, सो आवत यह देस।।


अवध के राजा राम चित्रकुट में रहते हें. जब किसी पर विपत्ति पड़ती है तो वह उन्हीं की शरण में जाता हैं.

अच्युत-चरण-तरंगिणी, शिव-सिर-मालति-माल।
हरि न बनायो सुरसरी, कीजो इंदव-भाल।।


हे गंगा मां आप भगवान विष्णु के चरण पखारती हैं और भगवान शंकर के सिर पर मालती के फूलों की माला के समान शोभित हैं. मुझे आप हरि न बनाना, शिव बनाना जिससे मैं आपको मस्तक पर धारण करूं.

महेन्द्र कपूर और अनुपमा देशपांडे के गाये रहीम के भजन यू-ट्यूब पर सुनिए –

कुछ श्रंगार रस के सोरठे देखिये -

गई आगि उर लाय, आगि लेन आई जो तिय।
लागी नाहिं, बुझाय, भभकि भभकि बरि-बरि उठै।।


आग लेने आई उस सुंदर स्त्री को देख कर हृदय में आग लग गई है जो बुझाने से बुझती नहीं और बार-बार भभक कर जल उठती है.

तुरुक गुरु भरिपूर, डूबि डूबि सुरगुरु उठै।
चातक चातक दूरि, देह दहे बिन देह को।।


इस दोहे में कूटभाषा का बड़ा सुंदर प्रयोग किया गया है. तुरकों के गुरू का अर्थ है पीर पर यहां उसका अर्थ है पीड़ा. सुरगुरू हैं बिरहस्पति यहां तात्पर्य है विरह से. इसी प्रकार चातक पी-पी की आवाज़ करता है. यहां पी का अर्थ है पति. बिन देह अनंग कामदेव हैं. इस प्रकार इस दोहे का भावार्थ है कि मेरे पति दूर हैं इसलिये मेरा पूरा शरीर विरह की पीड़ा में डूबा हुआ है और कामदेव मेरे शरीर को जला रहे हैं.

दीपक हिए छिपाय, नवल वधू घर ले चली।
कर विहीन पछिताय, कुच लखि जिन सीसै धुनै ।।


नववधु अपनी छाती (आंचल) में दिये को छिपा कर घर जा रही है. दिये को बड़ा पछतावा हो रहा है और वह सिर धुनता हुआ सोच रहा है कि मेरे हाथ नहीं हैं, नहीं तो मैं इसकी छाती को छूकर आनंद पाता.

पलटि चली मुसुकाय दुति रहीम उपजात अति।
बाती सी उसकाय मानों दीनी दीन की ।।


वह पलट कर और मुस्कुरा कर चली गई, और इससे उसकी आभा ऐसे बढ़ गई जैसे दिये की बाती को कुछ ऊपर उठा देने से प्रकाश बढ़ जाता है.

यक नाही यक पी हिय रहीम होती रहै।
काहु न भई सरीर, रीति न बेदन एक सी ।।


हृदय की पीड़ा बढ़ती घटती रहती है. यह शरीर की पीड़ा की तरह सदा एक समान क्यों नहीं रहती है.

रहिमन पुतरी स्याम, मनहुँ जलज मधुकर लसै।
कैधों शालिग्राम, रूपे के अरघा धरे ।।


प्रेमिका की सफेद आंखों में काली पुतली ऐसी सुंदर लगती है जैसे सफेद कमल पर काला भौंरा बैठा हो या चांदी के अरघे में शलिग्राम रखे हों.

बरवै नायिका भेद में विभिन्न प्रकार की नायिकाओं के बड़े अच्छे उदाहरण दिये गये हैं-

उत्तमा नायिका

लखि अपराध पियरवा, नहिं रिस कीन।
बिहँसत चनन चउकिया, बैठक दीन।।


उत्तमा नायिका कैसी है – अपने पति का अपराध देखकर भी क्रोध नहीं करती। हंसते हुए चंदन की चौकी पर बिठाती है.

मुग्धा नायिका

लहरत लहर लहरिया, लहर बहार।
मोतिन जरी किनरिया, बिथुरे बार।।

लागे आन नवेलियहि, मनसिज बान।
उसकन लाग उरोजवा दृग तिरछान।।


वह लहरिया की साड़ी पहने हुए है जिसपर मोतियों की किनारी लगी हुई है, और बाल बिखरे हुए हैं. उसके उरोज़ (छातियां) कुछ उकसने लगीं है (बड़ी हो रही हैं) और वह कामदेव के बाण चलाती हुई तिरछी नज़र से देख रही है.

पावर्ती दत्ता व्दारा कथक नृत्यो में मुग्धा – नायिका का प्रदर्शन यू-ट्यूब पर देखें –

अज्ञातयौवना – नायिका (जिसे अपने यौवन का पता नहीं है)

कवन रोग दुहुँ छतिया, उपजे आय।
दुखि दुखि उठै करेजवा, लगि जनु जाय।।


नायिका सोचती है कि यह मुझे कौन सा रोग हो गया है कि मेरी दोनो छातियां बढ़ रही हैं और कलेजा बार-बार दुखता है, पीड़ा कम नहीं होती.

ज्ञातयौवना नायिका (जिसे अपने यौवन का पता है)

औचक आइ जोबनवाँ, मोहि दुख दीन।
छुटिगो संग गोइअवॉं नहि भल कीन।।


नयिका सोचती है कि मुझे दुख देने के लिये यौवन अचानक ही आ गया. मेरी सखियों का साथ भी छूट गया, यह इसने अच्छा नहीं किया.

प्रौढ़ रतिप्रीता नायिका

भोरहि बोलि कोइलिया, बढ़वति ताप।
घरी एक घरि अलवा, रह चुपचाप।।


बहुत भोर में बोलकर कोयल विरह-ताप बढ़ा रही है — अरे सखि, एक घड़ी तो चुप रह (प्रीतम आनेवाले हैं).

मदानाष्टक

मदनाष्टक श्रंगार काव्य तो है ही इसमें रहीम ने संस्कृत,अवधी,फारसी और खड़ी बोली का प्रयोग इस प्रकार से किया है कि बीच में छंद टूटता तक नहीं. अनेक भाषाओं के एक साथ प्रयोग का दूसरा उदाहरण अमीर खुसरो हैं. मदनाष्टक से कुछ उदाहरण देखिये-

दृष्ट्वा तत्र विचित्रताम् तरुलता, मैं गया था बाग में।
क्वचित् तत्र कुरंगशावकनयनी, गुल तोड़ती थी खड़ी॥


मैं उस विचित्र तरु लता (बेल) को देखकर बाग में गया. वहां पर हिरण के शावक (बच्चे) जैसी सुंदर आंखों वाली फूल तोड़ती हुई खड़ी थी.

शरद-निशि-निशीथे चाँद की रोशनाई।
सघन-बन-निकुंजे कान्ह बंसी बजाई॥
रति, पति, सुत, निद्रा, साइयाँ छोड़ भागी।
मदन-शिरसि भूय: क्या बला आन लागी ।।


शरद ऋतु में पूर्णिमा के चांद की चमक की तरह सघन वन के निकुंज में कृष्ण ने बांसुरी बजाई. इस बांसुरी की तान को सुनकर रति, पति, पुत्र, नींद, और भगवान को भी छोड़कर गोपियां वन की ओर भागने लगीं. मदन (कामदेव) के तीर से कैसी बला आ गई है.

तरल तरनि सी हैं तीर सी नोकदारैं।
अमल कमल सी हैं दीर्घ हैं दिल बिदारैं।।
मधुर मधुप हेरैं माल मस्ती न राखें।
विलसति मन मेरे सुंदरी श्याम आँखें ।।


सुंदरी की आंखें नदी में चलने वाली नाव की तरह है, तीर की तरह कटीली हैं, कमल की तरह बड़ी हैं और दिल को भेदने वाली हैं. भौंरे की तरह मेरे विलसित (प्रसन्न) मन को सुंदरी की यह मस्ती भरी काली आंखें हर लेती हैं.

रहीम ने ज्यो‍तिष शास्‍त्र पर भी खेट-कौतुकम् नाम का ग्रंथ लिखा है. इसकी भाषा संस्कृत और फ़ारसी की खिचड़ी है और भाषा-कौतुक की दृष्टि से नायाब है. इसका एक पद नीचे दिया गया है –

यदा चश्मख़ाने भवेदाफ़ताबस्तदा ज्ञानहीनोsथ गुस्साबरूदम्।
सदा संगदिल सख़्तगो द्रव्यहीन: कुवेषो सदा स्यान्नहोशोहवासम्॥


जब जातक के नेत्र-स्थान में सूर्य हो तो वह ज्ञान-हीन और बहुत गुस्सेवाला होता है. स्वभाव से हमेशा संगदिल और कठोर रहता है, धनहीन होता है, बुरा वेश धारण करता है और उसे होशोहवास नहीं रहता.

रहीम ने शुध्द संस्कृत मे श्लोक भी लिखे हैं. कुछ उदाहरण नीचे देखिये

आनीता नटवन्मशया तब पुर; श्रीकृष्ण या भूमिका।
व्योामाकाशखखांबराब्धिवसवस्व् लोत्प्रीलतयेऽद्यावधि।।
प्रीतस्वंन्म यदि चेन्निरीक्ष्यक भगवन् स्‍वप्रार्थित देहि मे।
नोचेद् ब्रूहि कदापि मानय पुरस्वेदि चतादृशीं भूमिकाम् ।।


हे श्रीकृष्ण आपकी प्रसन्न्ता के लिये मैं नट की भांति चौरासी लाख रूप (योनियां) धारण करता रहा हूं. हे परमेश्वर यदि आप इससे प्रसन्न हुए हों तो मैं आपसे माँगता हूं वरदान दीजिए और प्रसन्न नहीं हों तो ऐसी आज्ञा दीजिए कि मैं फिर कभी ऐसे स्वाँग धारण कर इस पृथ्वी पर न लाया जाऊँ.

रत्नाजकरोऽस्ति सदनं गृहिणी च पद्मा,
किं देयमस्ति भवते जगदीश्वनराय।
राधागृहीतमनसे मनसे च तुभ्यं,
दत्तं मया निजमनस्त दिदं गृहाण।।


हे कृष्ण‍ समुद्र आपका घर है, लक्ष्मी आपकी पत्नी हैं, इसलिये हे जगदीश्वर आपको देने योग्य क्या बचा? राधा जी ने आपके मन को हर लिया है, वही मैं आपको देता हूँ, उसे ग्रहण कीजिए.

रहीम की प्रतिभा को प्रणाम है।

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