लेख

अमर शहीद वीर नारायण सिंह



वीर नारायण सिंह का जन्म 1795 में हुआ था. उनके पिता सोनाखान के जमींदार रामसाय थे. पिता की मृत्यु के बाद 1830 में वे सोनाखान के जमींदार बने. वर्ष 1856 में छत्तीसगढ़ में भयानक सूखा पड़ा. लोग भुखों मरने लगे. कसडोल के व्यापारी माखन का गोदाम अन्न से भरा था. वीर नारायण ने उससे अनाज गरीबों में बांटने का आग्रह किया लेकिन वह तैयार नहीं हुआ. इसके बाद उन्होंने माखन के गोदाम के ताले तुड़वा दिए और अनाज निकाल ग्रामीणों में बंटवा दिया. उनके इस कदम से नाराज ब्रिटिश शासन ने उन्हें 24 अक्टूबर 1856 में संबलपुर से गिरफ्तार कर रायपुर जेल में बंद कर दिया. वर्ष 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के समय कुछ देशभक्तों ने कारागार से एक गुप्त सुरंग बनाकर नारायण सिंह को मुक्त करा लिया.

जेल से मुक्त होकर वीर नारायण सिंह ने 500 सैनिकों की एक सेना गठित की और 20 अगस्त, 1857 को सोनाखान में स्वतन्त्रता का बिगुल बजा दिया. डिप्टी कमिश्नर इलियट ने स्मिथ नामक सेनापति के नेतृत्व में अंग्रेजी सेना भेजी. नारायण सिंह ने शुरू में ऐसा धावा बोला कि अंग्रेजी सेना को भागते भी नहीं बना. परन्तु सोनाखान के आसपास के अनेक जमींदार अंग्रेजों से मिल गये. इस कारण नारायण सिंह को पीछे हटकर एक पहाड़ी की शरण में जाना पड़ा. अंग्रेजो ने सोनाखान में घुसकर पूरे नगर को आग लगा दी. नारायण सिंह काफी समय तक गुरिल्ला युध्द करते रहे, पर आसपास के जमींदारों की गद्दारी से नारायण सिंह फिर पकड़े गये. उन पर राजद्रोह का मुकदमा चलाने का नाटक किया गया. वीर नारायण सिंह को मृत्युदंड दिया गया. 10 दिसंबर 1857 को ब्रिटिश सरकार ने उन्हें सरेआम तोप से उड़ा दिया, स्वातंत्र्य प्राप्ति के बाद वहाँ ‘जय स्तम्भ’ बनाया गया, जो आज भी छत्तीसगढ़ के उस वीर सपूत की याद दिलाता है.

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