भाषा सिखाने की विधियां – भाषा का मौखिक और मूर्त रूप
काफी दिनों से सोच रहा हूं कि भाषा की शिक्षा के संबंध में आप सब से कुछ बात करूं. अन्य कोई भी विषय सीखने के लिये भाषा का ज्ञान आवश्यक है, इसलिये प्रारंभिक कक्षाओं में भाषा के शिक्षण पर विशेष ध्यान देना अनिवार्य है.
मैंने प्रायः देखा है कि स्कूलों में भाषा शिक्षण के नाम पर एक बच्चे को पाठ्य पुस्तक लेकर कक्षा के सामने पाठ पढ़ने को कहा जाता है, और बाकी बच्चों को उसके पीछे पाठ को दोहराने को कहा जाता है. इसके अतिरिक्त पाठ्य पुस्तक में लिखे हुए पाठ को कॉपी में लिखना आदि सिखाया जाता है. भाषा सिखाने में हमारा प्रयास अक्सर वर्णमाला सिखाने में, बारहखड़ी रटाने में, व्याकरण के नियम समझाने में और शब्दों के अर्थ रटाने में रहता है. उच्चारण पर भी बहुत अधिक ध्यान दिया जाता है. आइये विचार करते हैं कि क्या भाषा सिखाने का यही तरीका सर्वोत्तम है या भाषा किसी अन्य तरीके से बेहतर सिखायी जा सकती है.
भाषा की उत्पत्ति ध्वनि से हुयी है
भाषा के दो स्वरूप हैं - मौखिक और लिखित. लिखित भाषा को हम लिपि भी कह सकते हैं. भाषा की उत्पत्ति लेखन से नहीं बल्कि, ध्वनियों के माध्यम से अपने विचार अन्य लोगों तक पहुंचाने के प्रयास से हुई है. कहते हैं कि मधुमक्खियों से लेकर डॉल्फिन तक एक दूसरे के साथ विभिन्न प्रकार की ध्वनियों के माध्यम से बातचीत करते हैं. मनुष्य में भी भाषा का जन्म ध्वनियों, हावभाव और बॉडी लैंगुएज के व्दारा विचार संप्रेषण के प्रयासों से हुआ है. भाषा की उत्पत्ति मौखिक ही है. भाषा शब्द भाष् धातु से बना है, जिसका अर्थ ही बोलना है.
बच्चा भाषा कैसे सीखता है
बच्चे जो कुछ सुनते हैं, वही दोहराते है. प्रारंभ में बच्चा सबसे अधिक समय अपनी मां के साथ बिताता है. जब बच्चे को बोलना बिल्कुल भी नहीं आता है उस समय भी मां बच्चे से लगातार बातें करती है. मां बच्चे को इशारे से बताती है कि वह उसकी मां है, और अक्सर ‘मां’ शब्द का उच्चारण भी करती है. इसीलिये बच्चा अक्सर पहला शब्द ‘मां’ ही बोलता है. इसी प्रकार बच्चा ‘बाबा’, ‘भइया’, ‘पानी’, ‘खाना’ जैसे शब्द बोलना सीखता है. जैसे-जैसे बच्चा बड़ा होता है, वह अन्य लोगों के बोले हुये शब्दों को सुनकर उनका अर्थ समझने का प्रयास करता है और धीरे-धीरे सार्थक वार्तालाप प्रारंभ कर देता है. भाषा सीखने की प्रक्रिया में ‘सुनना’ अत्यंत महत्वपूर्ण क्रिया है. इसीलिये आपने देखा होगा कि जो बच्चे जन्म से बहरे होते हैं वे गूंगे भी होते हैं. सुन नही सकने के करण वे बोलना भी नही सीखते हैं.
बच्चे की प्रारंभिक बातचीत माता-पिता, भाई-बहन और परिवार के अन्य सदस्यों के साथ होती है. धीरे-धीरे बच्चा आस-पड़ोस के लोगों से बातचीत करना सीखता है. इसी प्रकार खेल-खेल में बच्चा भाषा के कठिन स्वरूप को भी सीख जाता है. ध्यान देने की अवश्यकता है कि इस प्रकार भाषा सीखने में बच्चे को न तो वर्णमाला रटनी होती है न ही शब्दों के अर्थ को रटना होता है, बल्कि सार्थक वार्तालाप से बच्चा भाषा का ज्ञान अर्जित कर लेता है. आप सब यह बात तो स्वीकार करेंगे ही कि जब बच्चा पहली कक्षा में प्रवेश लेता है और पहली बार स्कूल आता है तब भी उसे भाषा का इतना ज्ञान तो होता ही है कि वह आपस में और आपके साथ बातचीत कर सके. हमारा उद्देश्य यह होना चाहिए कि हम इसी बातचीत को आगे बढ़ाते हुए उसमें धीरे-धीरे ऐसे शब्दों, वाक्यों आदि का समावेश करते चलें जो बच्चे को पहले से नहीं आते हैं.
भाषा सिखाने के लिए बातचीत करना सबसे महत्वपूर्ण है. कक्षा में बहुधा इससे ठीक उल्टी बात होती है. कक्षा में अक्सर बच्चों से चुप रहने के लिए कहा जाता है. पाठ्यपुस्तक के पाठ को दोहराते रहना रटंत की प्रवृत्ति को बढ़ावा देता है. पाठ को बिना समझे दोहराना नीरस भी होता है, और बच्चों को भाषा सीखने के लिये बिल्कुल भी प्रेरित नहीं करता. भाषा का उद्देश्य ही विचारों का संप्रेषण है. इसलिये जब तक बच्चों को सार्थक वार्तालाप के लिये उत्साहित और प्रेरित नहीं किया जायेगा तबतक उन्हें भाषा का शिक्षण रुचिकर नहीं लगेगा.
वर्णमाला और बारहखड़ी रटाने से कोई लाभ नही होता
भला सोचिये कि वर्णमाला या बारहखड़ी को रटना बच्चों के लिये कितना नीरस और दुष्कर कार्य है. बच्चे शायद यह सोचते होंगे कि इस प्रकार वर्णमाला और बरहखड़ी को रटने से कोई लाभ नहीं है, क्योंकि उनका उपयोग वे अपने वार्तालाप में नही करते हैं. क्या बेहतर यह नहीं होगा कि हम बच्चों से उन विषयों पर बात करें जो उन्हें रुचिकर लगते हैं, और इसी प्रक्रिया से हम उन्हें भाषा सिखायें. यह प्रक्रिया सामान्य रूप से समाज में भाषा सीखने की प्रक्रिया से मिलती-जुलती होगी और अधिक उपयोगी होगी. हम बच्चों से उनके उनके परिवार और परिवेश के संबंध में बात कर सकते हें. बच्चों से पूछें कि उन्होंने आज सुबह या कल क्या किया था, घर में भोजन क्या बना था, वे कौन से खेल खेलते हैं, आदि. इस प्रकार की बातें बच्चों के लिए रुचिकर होंगी और हर बच्चा बेहतर तरीके से कक्षा की गतिविधियों में भाग लकर भाषा सीख सकेगा. यह प्रक्रिया बच्चों को रटंत से दूर ले जाएगी.
कक्षा में मौखिक भाषा सिखाने के लिये कुछ गविधियों के सुझाव निम्नानुसार हैं -
- बच्चों से उनके परिवेश के बारे में प्रश्न करना.
- बच्चों से कहें कि वे एक दूसरे से उनके परिवार के बारे मे जानकारी लें और फिर कक्षा के समक्ष बताएं.
- बच्चों से कहा जाए कि वह कोई कहानी सुनाएं.
- बच्चों से किसी महापुरुष, किसी खेल, किसी त्योहार आदि के संबंध में बोलने के लिये कहा जाए.
- शिक्षक कक्षा में बच्चों को कोई कहानी सुनाएं और फिर उस कहानी के संबंध में प्रश्न करें.
- कक्षा की दीवारों पर लिखी कहानियों, आदि का उपयोग भी बच्चों के साथ सार्थक बातचीत करने में किया जा सकता है.
- कक्षा की दीवारों पर बने चित्रों पर भी बातचीत की जा सकती है.
- हम कक्षा में कोई पोस्टर या मुस्कान लाइब्रेरी में उपलब्ध पुस्तकों लाकर उनके माध्यम से भी बच्चों से बातचीत कर सकते हैं.
भाषा के खेल
इन गतिविधियों को करने से हम बच्चों को रटंत से दूर ले जा सकेंगे. भाषा की बेहतर समझ बच्चों में विकसित होगी. धीरे-धीरे बच्चों के साथ भाषा के खेल भी खेले जा सकते हैं. उदाहरण के लिए समानार्थी और विरुध्दर्थी शब्दों के खेल. शब्दों का वाक्य में प्रयोग करने के खेल. मुहावरों आदि के खेल. स्क्रेबल जैसे खेल जिनके व्दारा बच्चों को शब्द बनाया सिखाया जा सकता है.
हावभाव और बॉडी लेंगुएज का महत्व
भाषा के मूर्त रूप को समझाने के लिए हमें बच्चों के साथ हाव-भाव और बॉडी लैंग्वेज के संबंध में भी बात करनी होगी. एक ही शब्द को अलग-अलग हावभाव और बॉडी लैंग्वेज के साथ बोलने पर उसके अर्थ अलग-अलग हो सकते हैं. उदाहरण के लिए यदि हम ‘अच्छा’ शब्द का उपयोग समान्य रूप से उपयोग करें तो उसका साधारण अर्थ है – ठीक, भला, उपयुक्त आदि, परंतु यदि हम ‘अच्छा’ शब्द का उच्चारण प्रश्नवाचक रूप में करें तो उसका अर्थ यह होगा कि हम प्रश्न कर रहे हैं कि बताई गई बात सही है अथवा नहीं. इसी प्रकार हम ‘अच्छा’ शब्द को उच्चारण और हाव-भाव बदलकर व्यंग्यात्मक भी बना सकते हैं. आप समझ ही गये होंगे कि हाव-भाव और बॉडी लैंग्वेज से एक ही शब्द के अलग-अलग अर्थ निकल सकते हैं. इसलिये बच्चों को हाव-भाव ओर बॉडी लेंगुएज के बारे में सिखाना बहुत महत्वपूर्ण है.
उच्चारण और व्याकरण पर बहुत अधिक फोकस करने का विपरीत प्रभाव हो सकता है
मैने देखा है कि हम अक्सर कक्षा में बच्चों को सही उच्चारण सिखाने पर बहुत अधिक ध्यान देते हैं. दरअसल कौन सा उच्चारण सही है यह अपने आप में विवाद का विषय हो सकता है. उच्चारण बहुधा परिवेश के साथ बदल जाता है. हाल ही में मैं एक स्कूल में गया. वहां एक बच्चे के साथ बातचीत में मैने उसके पिता का नाम पूछा. बच्चे ने कहा कि उसके पिता का नाम ‘परेम’ है. वहां उपस्थित शिक्षिका ने तत्काल बच्चे से कहा कि ‘परेम’ नहीं ‘प्रेम’ बोलो, परन्तु बच्चा लगातार ‘परेम’ ही बोलता रहा. मैने देखा कि वह बच्चा अन्य शब्दों का उच्चारण सही कर रहा था, परन्तु ‘प्रेम’ को ‘परेम’ ही बोल रहा था. तब मुझे लगा कि शायद उसके घर में उसके दादा-दादी उसके पिता को ‘परेम’ ही कहते होंगे, इसलिये उसे ‘परेम’ ही सही लगता है. आपने देखा होगा कि एक ही शब्द के उच्चारण अलग-अलग प्रदेशों में अलग-अलग होते हैं. बिहार में अक्सर ‘ड़’ वर्ण का उच्चारण ‘र’ किया जाता है. इसी प्रकार अन्य प्रदेशों में भी उच्चारण बदल जाता है. मानक हिन्दी में मानक उच्चारण भी निर्धारित हैं, और शायद आगे की कक्षाओं में विद्यार्थी यह मानक उच्चारण सीख भी जायेंगे, परन्तु प्रारंभिक कक्षाओं में मानक उच्चारण पर बहुत अधिक आग्रह करने से भाषा सीखना अरुचिकर और कठिन हो सकता है. मेरा मानना है कि बच्चे को उसके परिवेश के अनुसार उच्चारण करने देना चाहिये, परन्तु शिक्षक जब बच्चे के साथ बात करें तो स्वयं मानक उच्चारण का ही प्रयोग करें. ऐसा करने से धीरे-धीरे बच्चा मानक उच्चारण सीख जायेगा. यही बात व्याकरण के लिये भी है. हमने भाषा का उपयोग करने के लिये व्याकरण के नियम नहीं रटे थे, बल्कि दूसरों से सुनकर हम स्वयमेव सही व्याकरण का उपयोग करने लगे. शिक्षक हर समय बच्चे को व्याकरण के नियम रटाने और उसकी बातचीत में टोका-टोकी करने का प्रयास न करें, परन्तु स्वयं सही व्याकरण का उपयोग कक्षा में की जाने बाली बातचीत में करें तो बच्चा स्वयं ही सही व्याकरण सीख जायेगा.
लिखित भाषा
मौखिक भाषा के साथ लिपि सिखाना आवश्यक है, जिससे बच्चा पुस्तकों में उपलब्ध ज्ञान के भंडार का उपयोग कर सके और स्वयं भी लिखकर अपने विचार सारे संसार तक पहुंचा सके. लिपि सीखने में पढ़ना और लिखना दोनो सिखाना होगा. इनके लिये भी बहुत सी तकनीकों का उपयोग किया जा सकता है परंतु उनके बारे में अगली बार बात करेंगे.
अंत में आंकलनकर्ताओं से कुछ बात
छत्तीसगढ़ के स्कूलों में हम सबने मिलकर ‘सुघ्घर पढ़वइया’ योजना प्रारंभ की है. इस योजना के तहत आप अपने आस-पास के अन्य स्कूलों का आंकलन करने जायेंगे. मेरा आंकलनकर्ताओं से एक ही आग्रह है कि आंकलन का उद्देश्य फेल करना नही बलिक पास होने का अवसर प्रदान करना है. आंकलन करने वालों को सबसे पहले बच्चों से मित्रता करनी होगी, और उन्हें उनकी पसंद की गतिविधियां चुनने का अवसर देना होगा. ध्यान रखिये की इस सबके केन्द्र में बच्चे हैं, न कि हम सब. बच्चों से बात करें और फिर यह तय करें कि किस प्रकार की गितिविधि से आप बच्चों को वह करने के का अवसर दे पायेंगे जो वे कर सकते हैं. उदाहरण के लिये भाषा के आंकलन में एक गतिविधि सुझायी गयी है कि एक डब्बे में सभी बच्चों के नाम की पर्चियां डाल दें और फिर बच्चों से एक-एक पर्ची निकाल कर उसपर लिखा नाम पढ़ने को कहें और उस बच्चे के संबंध में कुछ बताने को कहें. इस गतिविधि में बच्चे के पास कोई ‘चॉइस’ नहीं है. हो सकता है कि बच्चा उस शब्द को न पढ़ पाये जो उस पर्ची पर लिखा है, या उस बच्चे के बारे में उसे विशेष जानकारी नही है इसलिये उसके बारे में वह कुछ न बोल पाये. इसके स्थान पर यह भी तो किया जा सकता है कि हम बच्चों से कक्षा में उपस्थित अपनी पसंद के किसी भी बच्चे के बारे में कुछ कहने के लिये कहें. इस प्रकार बच्चे को ‘चॉइस’ मिल जायेगी और शायद वह बेहतर प्रदर्शन कर पायेगा. यह केवल एक उदाहरण है. तात्पर्य केवल इतना है कि आंकलनकर्ता मशीनी तरीके से उन्हें दी गई आंकलन पुस्तिका के टूल्स का उपयोग न करें, बल्कि उसके पीछे के भावार्थ को समझ कर बच्चों की वास्तविक क्षमताओं का आंकलन उन्हें अधिक से अघिक ‘चॉइस’ देकर करें. हमारा उद्देश्य बच्चों को फेल करना नही है बल्कि उन्हें बेहतर करने की प्रेरणा देना है.