उत्‍कृष्‍ट शिक्षकों की कथाएं
समस्‍त गुरुजनों के चरणों में वंदना करते हुये में आज से शिक्षकों के उत्‍कृष्‍ट कार्यों की कथाएं कहना प्रारंभ कर रहा हूं. शिक्षकों के इन कार्यों से मैं तो अभिभूत हूं, ही, मुझे विश्‍वास है कि आप सब भी प्रभावित होंगे. मुझे इस बात की भी आशा है कि शिक्षक भी इन कहानियों को पढ़कर एक दूसरे से सीख सकेंगे.

रुद्र प्रताप सिंह राणा सच कर रहे हैं बच्‍चों के सपने

कोविड काल में आपदा को अवसर में बदलकर नीली छतरी वाले गुरुजी के नाम से राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बना पाने वाले शिक्षक हैं रुद्र प्रताप सिंह राणा. छत्तीसगढ़ राज्य के कोरिया जिले के वनांचल ग्राम सकड़ा में निवास करते हैं जहां शत-प्रतिशत आदिवासी समुदाय निवास करता है. बच्‍चे 2 से 4 किलोमीटर दुर्गम रास्ते पार कर विद्यालय पहुंचते हैं. इन विषम परिस्थितियों में भी यह उपलब्धि रुद्र प्रताप सिंह राणा की मेहनत को दर्शाता है.

रुद्र बचपन में पढ़ने के साथ-साथ खेती-किसानी भी करते थे. 11 वर्ष की अल्पायु में उन्‍होने ट्रैक्टर चालाना सीख लिया था. खेतों पर काम करते और छुट्टियों में ट्रैक्टर चलाते हुये विद्यालयीन शिक्षा के प्रति उनका रुझान कम होता गया. परीक्षा आने के पूर्व अध्ययन छोड़कर आराधना करते थे कि हे प्रभु! मुझे पासिंग मार्क्स मिल जाएं. 35वें वर्ष में वे व्यापम की परीक्षा में शामिल हुए और सफल होकर शिक्षक बन गये. तभी से उन्होंने शिक्षा के प्रति पूर्ण समर्पण का संकल्प लिया. उन्हे अपने बचपन के सपनों को भी तो पूरा करना था. वे कहते हैं - ‘मै जब कभी भी प्रायवेट स्कूल के बच्चों को स्मार्ट यूनिफॉर्म में स्कूल वैन से खूबसूरत भवन में प्रवेश करते देखता था, तब मन में लालसा जाग उठती थी, कि काश मै भी ऐसे विद्यालय में पढ़ पाता.’ अब उनके पास अवसर था कि जो सपने उन्‍होने स्वयं के लिए देखे थे वे अपने विद्यार्थियों में पूरा होते देख सकते हैं.

अब्दुल कलाम साहब का कथन कि ‘सपने वे नहीं जो सोने के बाद आते हैं, सपने वे है जो हमें सोने ही नहीं देते’. यह महान विचार राणा जी के पंखों को उड़ान देने के लिए काफी था. उन्‍होने छोटे-छोटे प्रयास शुरू किये. स्‍कूल की भूमि स्वयं ट्रैक्टर चला कर समतल की. खंबे गड़ा कर बागवानी शुरू की. गतिविधि आधारित शिक्षा, बच्चों की नियमित उपस्थिति के लिए पालक संपर्क, शाला प्रबंध समिति की नियमित बैठक, किसी के बीमार होने पर डॉक्टर को गांव में बुलाना, सामाजिक कार्यक्रमों में लोगों के साथ शामिल होना, सारे स्थानीय व राष्ट्रीय पर्व जैसे कर्मा, होली, दीपावली आदि का आयोजन विद्यालय प्रांगण में करना, प्रार्थना सभा में कविताओं के गायन के लिए वाद्ययंत्रों का उपयोग करना, बच्चों को पेन, पेंसिल, कॉपियां, स्मार्ट-यूनिफॉर्म, स्वेटर, जूते आदि उपहार में देना, डिजिटल क्लास के लिए प्रोजेक्टर की व्यवस्था करना, मनोरंजन के लिए झूले, दूर से आने वाले बच्चों के लिए विद्यालय का अपना ई-रिक्शा आदि उनके विशेष कार्य थे निके लिये सारे संसाधन खुद ब खुद समुदाय के सहयोग से उपलब्ध होते गए. शुरुवात में मंडी में स्‍वयं का धान बेचने के बाद शासन से प्राप्त बोनस की राशि का उपयोग संसाधन जुटाने में किया. कुछ समय बाद बच्चों की शैक्षिक गुणवत्ता, शाला प्रबंध समिति की सक्रियता व अधिगम में हो रहे नवाचार से प्रभावित होकर पालकों, विभाग के अधिकारियों, मित्रों, रिश्तेदारों आदि ने आर्थिक अनुदान देना शुरू कर दिया. समुदाय के सहयोग से उपयोगी किचन गार्डन व 300 पौधों से सुसज्जित बाग विकसित हो गया. जिला पंचायत कोरिया की तरफ से तेरह लाख रुपए, पी.डब्लयू.डी. की तरफ से 8 लाख रुपए, स्वास्थ्य मंत्री जी की ओर से ई-रिक्शा अनुदान में मिला.

राणा जी कहते हैं – ‘मैने सपने में भी नहीं सोचा था कि इतना आसान होगा यह सब हासिल कर पाना.’ उनके लिए दो महत्‍वपूर्ण सिघ्‍दांत है - पहला ‘शिक्षा सिर्फ दिमाग से नहीं बल्कि हाथों से भी’ और दूसरा ‘सीखने-सिखाने की प्रक्रिया में बच्चों के व्यवहार में हो रहे परिवर्तन को उनके पालक एवं समुदाय भी देख पाएं, महसूस कर पाएं.’

किसी भी प्रतियोगी परीक्षा में सफल न रहने वाले उसी गांव के बच्चों का आवासीय विद्यालय में चयन होना आश्चर्य मिश्रित प्रसन्नता देता है. बस कन्डेक्टर का कथन है कि – ‘कभी इस गांव की महिलाएं भी शराब पीकर बस में बैठती थीं, पर आज कोई पुरुष भी सड़क पर नशा करता नहीं दिखता.’ विगत 4 वर्षों से किसी भी परिवार ने विवाह के अवसर पर मंडप के लिए हरे पेड़ नहीं काटे. सभी मंडप के लिए विद्यालय में उपलब्ध टेंट का निःशुल्क उपयोग करते हैं. प्राथमिक विद्यालय के नन्हे बच्चे जब बैंड बजाते हैं तो लोग स्तब्ध रह जाते हैं. यह परिवर्तन भी इन्हें नई पहचान बनाने में मददगार साबित हुये है. यही वजह है कि पड़ोसी जिले के कुछ पालक एवं शिक्षक ने अपने बच्चों का दाखिला प्राथमिक शाला सकड़ा में करवाने लगे हैं. इनके विद्यालय की वीडियो फिल्म बनाकर एस.सी.ई.आर.टी. व एन.सी.ई.आर.टी. के माध्यम से सब के समक्ष उदाहरण स्वरूप रखी गयी है.

राणा जी को जिला स्तर के पुरस्‍कारों से लेकर राज्यपाल पुरस्कार एवं राष्ट्रीय स्तर तक के कई सम्मान मिले हैं. राष्ट्रीय शिक्षा नीति के निर्माण में सुझाव के लिए उन्‍हें एस.सी.ई.आर.टी. में आमंत्रित किया गया. निपुण भारत मिशन के तहत छत्तीसगढ़ राज्य के FLN की 5 सदस्यीय टीम में शामिल किया गया.

जब कोविड के दौरान लॉक डाउन के कारण विद्यालय बंद कर दिये गए थे, तब उन्होंने तय किया कि क्या अगर बच्चे विद्यालय नहीं आ सकते तो वे स्‍वयं ही विद्यालय को ही बच्चों तक ले कर जायेंगे. वे अपनी मोटर साइकिल में ग्रीन-बोर्ड बांध कर, किताबें लेकर बड़ी सी नीली छतरी में विषयवार पठन-पाठन सामग्री लेकर अलग-अलग मोहल्ले में जाकर बच्चों को पढ़ाते रहे. इस नवाचार की सराहना भारत के प्रधानमंत्री माननीय नरेंद्र मोदी जी ने अपने ‘मन कि बात’ कार्यक्रम में भी की. श्री राणा सभी शिक्षकों के लिये एक उदाहरण हैं.

अस्‍वीकरण: मैने यह कहानियां संबंधित शिक्षकों एवं उनके मित्रों व्दारा दी गयी जानकारी के आधार पर लिखी हैं, स्‍वयं उनका सत्‍यापन नही किया है.

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