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मिन्नत ना कर

इस सुलगती आग को हवा कहाँ से मिल रही है,
कोयले पर जमी रख कहाँ से पिघल रही है.

मता-ए-नियाज़ मेरी भी कभी की चुक गई है,
जोशे-वहशत तिशनगी की आरज़ू उभर रही है.

हो चुका है खत्म, मशके-सितम अब हिज़्रो-विसाल,
कारवां साँसों का तय कर ज़िंदगी फिसल रही है.

सोज़िश -ए-दर्दे-दिले को असीरी में बांधकर,
गुमशुदा आवाज़ मेरी दर पे दस्तक कर रही है.

इक तेरी रहमो-नुमाई ‘अणिमा’ मिन्नत ना कर,
ज़र्रे-ज़र्रे मुंतशिर वजूद -ए-ताक़त बढ़ रही है.

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