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मुर्दे खड़े हो जाएंगे
मत कुरेदो, परतों को, मुर्दे खड़े हो जाएंगे...
कल जो उजड़े थे शहर वो, फिर से उजड़ जाएंगे.
जिनने लिक्खी थी इबारत, वो ज़मीं-दोज़े हुए,
फुरकत-ए-इंसानियत हम, कितनों को? दफ़नाएंगे.
हाथ जब भी दोस्ती का, बढ़ाया था यार ने...
दरमियाने दोस्ती के, मज़हब आड़े आ गए.
क्या किसीने भी कभी तारीख लिक्खी आम की?
कल भी थे वो हाशिये पर, आज फिर हो जाएंगे.
यह नशा है शख्सियत का... ताकत और गुरूर का,
जब-जब सर उठाएगा, मुर्दे उखाड़े जाएंगे.