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काल-चक्र
मानव अब मानव का दुश्मन, कुछ भी बोलो तो हो अनबन,
धर्म सिखाने वाले करते हिंसा और धर्म-परिवर्तन.
भूले शील-अश्लील का अंतर, कलयुग का यह जंतर-मंतर,
काल का चक्का घूमा ऐसा कि दिख रहा सूअर भी भैंसा.
दिन को रात, बताने वाले... सबकी नींद उड़ाने वाले,
आवाज़ें दबा देते हैं, तिल का ताड़ बना देते हैं...
जनता में सरगोशी तो है पर, छाई खामोशी क्यों है!!
हर घाव नासूर बन गया कोई पुराना दर्द बन गया,
अब यह दर्द हवाओं में है यह हर तरफ फिज़ाओं में है,
इक-दूजे पर शक करते हैं, हिंसा और नफरत करते हैं.
कैसा दीख रहा है मंज़र भाई-भाई को भोंके खंजर,
लकड़ी जैसे चीर रहे हैं, इक -दूजे के अस्थि-पंजर...
यह कैसा अधर्म हो रहा? मानव धर्म नगण्य हो रहा,
सहिष्णुता और भाईचारा सब, कहीं कब्र में दफ्न हो रहा.
हा!! सत्ता की भीषण अग्नि में सारा यह विश्व जल रहा,
सूरज के तपते रथ जैसा... देखो कैसा वक्त चल रहा...