बालगीत
बेटियाँ
रचनाकार- किशन सनमुखदास भावनानी
घर की जान होती है बेटियाँ,
पिता की आन बान शान होती है बेटियाँ.
बेटों से कम नहीं होती है बेटियाँ,
पिता का गुमान होती है बेटियाँ.
माँ, बहन, बहू, भाभी, पत्नी बनकर,
सेवा करती है बेटियाँ.
खुद अपमान सह,
दूसरों को मान देती है बेटियाँ.
कमियों को भुला जो मिले,
उसमें खुश रहती है बेटियाँ.
हर हाल में खुश हो,
मुस्कुराती रहती है बेटियाँ.
खुद की पहचान मिटा दूसरों की.
पहचान अपनाती है बेटियाँ.
बहू बन सास ससुर की,
सेवा करती है बेटियाँ.
सुनो जग वालों, धन मन हृदय,
सब कुछ है बेटियाँ.
लक्ष्मी सरस्वती पार्वती,
का रूप है बेटियाँ.
घर की जान होती है बेटियाँ,
पिता की आन बान शान होती है बेटियाँ.
बेटों से कम नहीं होती है बेटियाँ,
पिता का गुमान होती है बेटियाँ.
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चादर से कह रही रजाई
रचनाकार- राजेंद्र श्रीवास्तव
वर्षा गई शरद ऋतु आई
चादर से कह रही रजाई
जाओ कहीं दुबक कर बैठो
अब तो मेरी बारी आई.
अब सब मुझको ही खोजेंगे
मुझको रातों में ओढ़ेंगे
अगर नहीं ओढ़ेंगे तो वह
सर्दी के मारे रो देंगे.
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गिनती गीत
रचनाकार- रंजय कुमार सिंह
एक चिड़िया आती है, चु चु गीत सुनाती है.
दो बिल्ली के पिल्ली है, दोनों जाते दिल्ली है.
तीन गिलहरी रानी है, तीनों पीती पानी है.
चार चूहे राजा है, खूब बजाते बाजा है.
पांच लँगूर बड़े शैतान, मारे थप्पड़ खिंचे कान.
छः खरगोश है खड़े, लंबी मूंछें कान खड़े.
सात कबूतर आते है, दाना चुगकर जाते हैं.
आठ फूल खिल रहे, मस्त हवा में झूल रहे.
नौ सोने की चिड़िया है, फुदक फुदक कर गाती हैं.
हम दस मिलकर गाये गान, जय जय प्यारा हिंदुस्तान.
हम सब मिलकर गाये गान, जय जय प्यारा हिंदुस्तान.
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बीते बचपन
रचनाकार- प्रिया देवांगन 'प्रियू'
कितना सुंदर होता बचपन,
खिल जाता था पूरा तन-मन.
कुत्ते बिल्ली घर पर आते,
चुन्नू-मुन्नू साथ खिलाते.
पेड़ो की होती हरियाली,
चढ़ते उस पर डाली-डाली.
सुंदर दिखते बाग बगीचे,
बैठ खेलते बच्चे नीचे.
बैलो की गाड़ी में चढ़ते,
आगे-आगे सब है बढ़ते.
खुला-खुला सा होता आंगन,
कितना सुंदर होता बचपन.
माँ आँगन चूल्हा सुलगाती,
भोजन उसमें रोज पकाती.
साथ-साथ मिलकर है रहते,
कभी किसी से कुछ ना कहते.
रंग-बिरंगे चिड़िया आती,
चींव-चींव की गीत सुनाती.
दौड़-दौड़ भौंरा भी आते,
पुष्प रसों को वह पी जाते.
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ख्वाहिश है
रचनाकार- लोकेश्वरी कश्यप
ख़्वाहिश है नीलगगन में उन्मुक्त उड़ान भरने की.
ख़्वाहिश है सागर के अंदर गहराई में डुबकियाँ लगाने की.
ख़्वाहिश है जी भर के बेपरवाह खिलखिलाने की.
ख़्वाहिश है अपनी ही शरारतों पर मुस्कुराने की.
ख़्वाहिश है भौंरे की तरह गुनगुनाने की.
ख़्वाहिश है इंद्रधनुष के रंगों में घुल मिल जाने की.
ख़्वाहिश है उम्मीदों की किसलय बन जाने की.
ख़्वाहिश है सितारों जैसे जगमगाने की.
ख़्वाहिश है सब की मुस्कुराहटों में बस जाने की.
ख़्वाहिश है पतझड़ में भी फूल खिलाने की.
ख़्वाहिश है बारिश की बूंदों में भीग जाने की.
ख़्वाहिश है चांदनी रातों में जागते हुए तारे गिनने की.
ख़्वाहिश है बादल बनके बरस जाने की.
ख़्वाहिश है बारिशों में फिर से कागज की कश्ती चलाने की.
ख़्वाहिश है फिर से कंचे और खेलों की दुनिया में खो जाने की.
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जंकफूड से टाटा
रचनाकार- गौरीशंकर वैश्य विनम्र
नाम लिया पिज्जा-बर्गर का,बाबा जी ने डांटा.
नूडल,फ्रूटी,कोल्ड-ड्रिंक से,कर लो एकदम टाटा.
तेज दिमाग,स्वस्थ तन पाना,
खाओ अपने घर का खाना.
चने अंकुरित,रोटी-दाल,
विटामिनों से मालामाल.
जंकफूड कैलोरी देता,करे स्वास्थ्य का घाटा.
जंकफूड से तन हो मोटा,
कर देता है बुद्धि से खोटा.
चिंता और थकान सताती,
इसकी आदत,आलस लाती.
स्वादयुक्त हैं घर के व्यंजन,खाकर उँगली चाटा.
दूध पूर्ण आहार कहाता,
सब बीमारी दूर भगाता.
लस्सी- दही फायदेमंद,
सेवन करो,मिले आनंद.
भागो,दौड़ो,खेलो कूदो, मारो सैर-सपाटा.
कर लो भैया तुम भी अब,जंकफूड को टाटा.
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आज की नारी
रचनाकार- किशन सनमुखदास भावनानी
कौन कहता है इस युग में,
नारी अबला होती है
आज की दुनिया में नारी,
सबला होती है.
करुणा दया नम्रता ममता से,
उसकी परख होती है
इसका मतलब ना समझना,
वह कमजोर होती है.
नारी, लक्ष्मी सरस्वती पार्वती,
की रूप होती है
समय आने पर माँ रणचंडी दुर्गा,
काली का स्वरूप होती है.
सम्मान करो नारी का वो, ममता प्यार
वात्सल्य का स्वरूप होती है,
अपमान न करना नारी का,
आज की नारी सबला होती है.
नारी ऐसी होती है, जो सभी रिश्तो को,
एक धागे में पिरोती है,
मां बहन पत्नी बेटी बन,
हर रिश्ते को संजयोती है.
मत समझ अब अबला,
नारी सबला होकर जीती है
हर क्षेत्र में नारी आगे,
भारत की अब यह नीति है.
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प्यारे दादा जी
रचनाकार- गौरीशंकर वैश्य विनम्र
हमें बहुत अच्छे लगते हैं, प्यारे-प्यारे दादा जी.
पढ़ना-लिखना अच्छा माने, खेल उन्हें प्रिय ज्यादा जी.
हमें जानकर हुआ अचंभा,
पापा को सकते हैं डांट.
बाहर से जब घर आते हैं,
सबको टॉफी देते बाँट.
करते शाकाहारी भोजन, जीवन सीधा-सादा जी.
नन्हे-मुन्नोंसे लगाव है,
हम सबको दुलराते हैं.
जब भी कभी हाट जाते हैं,
बढ़िया चीज़ लाते हैं.
जन्मदिवस पर ड्रेस देने का, करते पक्का वादा जी.
बात-बात में बड़े प्रेम से
योगासन सिखलाते हैं.
उन्नति हित अतिशय उपयोगी,
अनुशासन बतलाते हैं.
प्रायः धोती-कुर्ता पहनें, ओढ़ें नहीं लबादा जी.
पाँच किलोमीटर तक प्रतिदिन,
प्रातःकाल टहलने जाते.
चाय नहीं, दूध पीते हैं,
लड्डू, दही-जलेबी खाते.
जब जाते हैं गाँव तो लाते, मूंगफली का गादा जी.
तुम भी सुनो और सुनते जाओ,
ऐसे हमारे दादाजी.
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प्लास्टिक ईंट खेल
रचनाकार- गौरीशंकर वैश्य विनम्र
हमें बहुत ही अच्छा लगता,
लेगो प्लास्टिक ईंट खेल है.
कभी बनाऊँ, कभी बिगाड़ूँ
रोचकता का अजब मेल है.
इसमें इतना मजा मिल रहा
समय का पता नहीं चलता.
निज पसंद की जोड़-तोड़ से
बहुआकृतियों में ढलता.
चाहे सुंदर भवन बना लो,
दिखें सीढ़ियाँ रंगबिरंगी.
प्लास्टिक की ईंटों से गढ़ लो
हाथी, शेर, गेंद, नारंगी.
बिना गोंद के प्लास्टिक ईंटें,
आसानी से जुड़ जाती।
छोटी सीधी रेल बना लो
तुरन्त ही देखो मुड़ जाती.
खेल बड़ा रोमांच भरा है,
खेलो खेल, खूब लो मस्ती.
खेल नयी कल्पना बढ़ाता,
कला-बुद्धि मिलती सस्ती.
ऐसा है यह रुचिर खिलौना,
बच्चे-बड़ों सभी को भाता.
इसको सकते खेल अकेले,
रहे नहीं दूजे से नाता.
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मन के जीते जीत
रचनाकार- लोकेश्वरी कश्यप
बाधाएं तो आती है, वह आती हैं और आती रहेंगी.
तू डर मत, तू रूक मत, बस अपना
कर्म करते चल.
मन को बना ले सरिता, बाधाओं के बीच रास्ता बनाते चल.
क्योंकि मन के हारे हार है मन के जीते जीत.
जरूरी नहीं जीवन में तुझे शीतल, मंद, सुगंधित समीर मिले.
सामने गर्म पवन, सर्द हवाएं, आंधी तूफानों के चक्रवात भी आएंगे.
तू हिम्मत न हार, मन छोटा ना कर, मन को अपने सुमेरु बना.
क्योंकि मन के हारे हार है, मन के जीते जीत.
क्या हुआ जो तू ठोकर लगने से औरों की तरह गिर गया.
गिरने में कोई बड़ी बात नहीं, फिर से संभल और इतिहास बना.
जिन पत्थरों से तुझे ठोकर लगी, उन्हें ही सफलता की सीढ़ी बना.
क्योंकि मन के हारे हार है, मन के जीते जीत.
उलझनों के भंवर में, अगर फंसी है तेरी जीवन नैया.
इधर-उधर के लहरों के थपेड़े भी जब तुझे विचलित करने लगे.
तब भय छोड़ हिम्मत से कर सामना, मन को तू अपने पतवार बना.
क्योंकि मन के हारे हार है, मन के जीते जीत.
जीवन एक संघर्ष है, तू इससे कब तक बचेगा और भागेगा.
हिम्मत से कर सामना, मन को कस, कर इस पर अपना वश.
अपनी सफलता की कहानी, स्वयं अपने कर्मों से तू लिख.
क्योंकि मन के हरे हार है, मन के जीते जीत.
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रिक्शा चालक
रचनाकार- प्रिया देवांगन 'प्रियू'
करे मेहनत रोज, पसीना माथ बहाते,
एक-एक पैसा जोड़, घरों में रोटी लाते.
तपती गर्मी धूप, सड़क पर चलते जाते,
दिखे सवारी राह, उसे मंजिल पहुँचाते.
देखे सपने रोज, टूट जाते हैं सारे,
पाई-पाई जोड़, सभी के बने सहारे.
किस्मत अपनी देख, हाथ को अपने मलते,
उड़ते आँखे नींद, सबेरे रिक्शा चलते.
करें मेहनत काम, नहीं होता है छोटा,
करते हैं जो शर्म, उसी का किस्मत खोटा.
रिक्शा वाला देख, लोग जो मुख को मोड़े,
आये विपत्ति पास, हाथ को अपना जोड़े.
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स्वर गीत
रचनाकार- लोकेश्वरी कश्यप
अ से अदरक चाय में डालो,
आ से आम रसीले खा लो.
इ से इलायची रोज खाओ,
ई से ईख चूसते जाओ.
उ से उजाला सूरज देता,
ऊ से ऊन भी गर्मी देता.
ऋ से ऋषि होते बड़े महान.
ए से एड़ी का रखो ध्यान,
ऐ से ऐनक कान पर चढ़ती.
ओ से ओखली अनाज कुटती,
औ से औरत बड़ी महान होती.
अं से अंजीर बड़ी मीठी लगती,
अ: से दर्द से कहराते अः.
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व्यंजन गीत
रचनाकार- लोकेश्वरी कश्यप
क से कमला है लक्ष्मी माता,
ख से खरबूजा सबको भाता.
ग से गगन को अंबर भी कहते,
घ से घड़ा इसमें हम पानी भरते.
च से चमके चम-चम हीरा,
छ से छतरी ओढ़े प्यारी मीरा.
ज से जगह को अपने साफ रखें,
झ से झपकाओ अपनी पलकें.
ट से टमाटर है बड़ा रसीला,
ठ से ठंड होता बड़ा सर्दीला.
ड से डमरू डम-डम बाजे,
ढ से ढक्कन सदा ढक कर रखें.
त से तकिया बड़ा मुलायम होता,
थ थरमस जिससे मैं पानी पीता.
द से दरवाजा धीरे लगाओ,
ध से धनुष पर डोरी चढ़ाओ.
न से नमक बिना कुछ ना भाता.
प से पलाश कितना सुंदर खिलता,
फ से फल ताज़ा मिलता.
ब से बढ़िया ढोलक बाजे,
भ से भक्त बन दर्शन करो.
म से मंदिर भी तुम जाया करो.
य से यज्ञ करो, बनो महान,
र से रथ चलाएं रथवान.
ल से लड़की गाना गाती,
व से वरदान मनचाहा पाती.
श से शबनम को ओस भी कहते,
ष से षटकोण देखो हंसते-हंसते.
स से सफल सब होते जाएं,
ह से हल किसान चलाएं.
क्ष से क्षत्रिय करते सब की रक्षा,
त्र से त्रिशूल शिव शक्ति का अच्छा.
ज्ञ से ज्ञान अपना बढ़ाते जाऐ,
अब हम पढ़ना लिखना सीख जाऐ.
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चाचा नेहरू का जन्मदिन आया
रचनाकार- बद्री प्रसाद वर्मा अनजान
आओ बच्चों आओ बच्चों,
चाचा नेहरू का जन्मदिन आया.
लाल गुलाब की याद,
सब बच्चों को आया.
सब बच्चों से प्यार,
करते थे चाचा नेहरू.
जन्मदिन पर उपहार,
देते थे चाचा नेहरू.
सब बच्चों के मन को,
भाते थे चाचा नेहरू.
खुद हंसते थे और,
सब बच्चों को हंसाते थे चाचा नेहरू.
चौदह नवम्बर को बाल दिवस,
मनाते थे चाचा नेहरू.
दुनिया भर में धूम,
मचाते थे चाचा नेहरू.
बच्चों के संग बच्चा,
बन जाते थे चाचा नेहरू.
अच्छी अच्छी बातें सबको,
बताते थे चाचा नेहरू.
कुर्ता टोपी और कोट,
पहनते थे चाचा नेहरु.
सदा कोट कुर्ता में,
गुलाब लगाते थे चाचा नेहरू.
भारत के प्रथम प्रधानमंत्री,
कहलाते थे चाचा नेहरू.
भारत की शान दुनिया में,
बढा़ते थे चाचा नेहरू.
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देखो आई मछली
रचनाकार- बद्री प्रसाद वर्मा अनजान
सात समुन्दर पार से,
देखो आई मछली.
मेरे हिन्दुस्तान को,
देखने आई मछली.
चीन जापान जर्मनी अमेरिका,
सब देश घुम आई.
आज उसका मन भारत को,
देखने को आई.
राम कृष्ण गौतम बुद्ध की,
वह धरती देखना चाहती थी.
सारा हिन्दुस्तान वह,
खूब घुमना चाहती थी.
उसको मेरा हिन्दुस्तान,
बहुत ही मन भाया.
मुंबई पुरी कच्छ कोलकता,
देख कर मन हर्षाया.
लाल किला कुतुब मिनार,
ताजमहल गोरखनाथ मंदिर मन भाया.
जयपुर का हवा महल,
देख कर मन हर्षाया.
घुम कर सारा हिन्दुस्तान,
रुस घुमने चली.
मछली रानी दुनिया की,
सैर करने चली.
रुस का सेंटपिटरवर्ग लाल चौक,
बहुत ही मन भाया.
रुसी लोगों से मिल कर,
मन में खुशी उमड़ आया.
कनाडा आस्ट्रेलियाई इटली,
आगे चली घुमने.
वह तो निकल पड़ी थी घर से,
सारी दुनिया को देखने.
सारी दुनिया घुम कर मछली,
घर हिन्दमहासागर लौट आई.
सभी मछलियों को उसने,
अपनी यात्रा वृतांत सुनाई.
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लगा हुआ है मेला
रचनाकार- बद्री प्रसाद वर्मा अनजान
गाँव-गाँव में जगह जगह,
लगा हुआ है मेला.
मेले में आते हैं,
सरकस दिखाने वाले खेला.
सब बच्चों को मेला,
बहुत ही प्यारा लगता है.
मेले में तरह तरह का,
सब सामान बिकता है.
कुछ बच्चे झूले पर,
झूला खूब झूलते हैं.
कुछ बच्चे खिलौना रेल की,
सैर खूब करते हैं.
मेले में जादुगर आ कर,
दिखलाता है जादू का खेला.
सब बच्चों के मन को,
भाता बहुत है मेला.
खेल खिलौने और मिठाईयां,
मेले में खूब बिकता है.
चाट पकौडे़ गोल गप्पे का,
खूब दुकान दिखता है.
हर मेले में रावण का पुतला,
हर जगह जलाया जाता है.
राम सीता हनुमान लक्ष्मण का,
खेल दिखाया जाता है.
*****
आ गया फिर जाड़ा
रचनाकार- बद्री प्रसाद वर्मा अनजान
चलो निकालो स्वेटर कोट,
आ गया फिर जाड़ा.
सर पर मफलर कनटोप लगाओ,
आ गया फिर जाड़ा.
ठंडी खूब बढ़ गई देखो,
आ गया फिर जाड़ा.
बच्चों और बड़ो को सताने,
आ गया फिर जाड़ा.
थर-थर बदन कांपने लगा,
आ गया फिर जाड़ा.
आग जला कर लगे तापने,
आ गया फिर जाड़ा.
रोज कोहरा लगा दिखने,
आ गया फिर जाड़ा.
सूरज की धूप मन को भाए,
आ गया फिर जाड़ा.
ओस रात भर गिरने लगा,
आ गया फिर जाड़ा.
कम्बल और रजाई ओढो़,
आ गया फिर जाड़ा.
*****
खजूर
रचनाकार- गौरीशंकर वैश्य विनम्र
लगे पेड़ पर फल हैं दूर.
लाल-लाल हैं पके खजूर.
मीठा फल, निर्धन का मेवा.
बच्चे-बड़ों की करता सेवा.
सूरज किरणों से पकता है.
खाओ! जल्दी पच सकता है.
प्राकृतिक शर्करा है इसमें.
पौष्टिकता गुण भरा है इसमें.
सूखा फल है 'छुहारा' होता.
गर्मी का अच्छा है सोता.
तन में ज्यादा भूख बढ़ाता.
हड्डी- दाँत मजबूत बनाता.
ऊर्जा, चुस्ती, शक्ति प्रदाता.
कोलेस्ट्राल से रखे न नाता.
मैग्नीशियम, पोटैशियम ज्यादा.
स्वस्थ रखे तन, पक्का वादा.
पाचन शक्ति करे मजबूत.
यह पौष्टिक आहार अकूत.
*****
मूँगफली
रचनाकार- गौरीशंकर वैश्य विनम्र
खा लो, खा लो मूँगफली,
लगे स्वाद में बहुत भली.
सर्दी का मौसम है आया,
मूँगफली का रूप लुभाया.
बड़ी-बड़ी है, चुनी हुई है,
ताजी खस्ता, भुनी हुई है.
अच्छी भरी हुई दानों से,
यदि खाली तो बहुत खली.
सोंधी-सी सुगंध आती है,
खाने में सबको भाती है.
एक-एक कर फोड़ो, खाओ,
मिले विटामिन, स्वास्थ्य बनाओ.
ठेलों पर हैं लगी ढेरियाँ,
धूम मची है गली-गली.
पोषक तत्त्वों से भरपूर,
दूर-दूर तक है मशहूर.
मित्रों को दो, स्वयं भी खाओ,
कहीं नहीं छिलके बिखराओ.
स्वयं डस्टबीन में डालो,
अच्छी आदत, सदा फली.
खा लो, खा लो मूँगफली.
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गैया
रचनाकार- गौरीशंकर वैश्य विनम्र
प्यारी-प्यारी गैया जी,
तुम हो मेरी मैया जी.
हरी घास, तुम खा लोजी,
उड़ा लूँ मैं कनकैया जी.
चला न देना लात कहीं,
दूध दुह रहे भैया जी.
कालू पर तुम क्यों झपटी,
जोर से बोला, दैया जी.
कितना सुंदर बछड़ा है,
घूमे खेत-तलैया जी.
*****
चिड़िया
रचनाकार- गौरीशंकर वैश्य विनम्र
घर में नन्हीं चिड़िया आयी,
'टिंउ टू टिंउ टू' पड़ी सुनायी.
धीरे-धीरे पंख फैलाती,
बार-बार वह पूँछ हिलाती.
झट जा बैठे डाली पर,
चोंच मारती जाली पर.
रस्क मजे से खाती कुर्र,
मुझे देखकर उड़ गयी फुर्र.
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दीपावली त्यौहार में
रचनाकार- प्रिया देवांगन 'प्रियू'
आओ साथी हम सभी देंगे सब का साथ,
दीवाली त्यौहार में,सभी बटाएँ हाथ.
सभी बटाएँ हाथ और अब साफ सफाई,
चादर कम्बल खोल, करे हम आज धुलाई.
चमकाओ घर द्वार, खुशी से झूमो गाओ,
मिलकर सारे लोग, काम सब के तुम आओ.
दीपक मिट्टी का जले, ऐसा रखना सोच,
झालर मालर फेंक दो, करो नहीं संकोच.
करो नहीं संकोच, तभी होगा उजियारा,
टिम-टिम जलते दीप, लगेगा कितना प्यारा.
यही हमारी रीत, इसी में अपना है हक,
होगा रौशन देश, जलाओ मिट्टी दीपक.
आतिशबाजी में सभी, करते पैसा खर्च,
नये पटाखे क्या बने, करते गूगल सर्च.
करते गूगल सर्च, सभी बाजारे जाते,
रंग बिरंगे देख, पटाखे घर पर लाते.
वातावरण अशुद्ध, प्रदूषण यह फैलाती,
है बीमारी पास, बंद हो आतिशबाजी.
*****
संघर्ष
रचनाकार- सीमा यादव
जीवन में है कष्ट बहुत, पर इनका मोचन करना है जरूर.
जीवन में है संघर्ष बहुत, पर इनका सामना करना जरुर.
जीवन में है चुनौतियाँ बहुत, पर इन्हें स्वीकारना भी है जरूर.
जीवन में है दुःख बहुत, पर दुःखों से ऊपर उठना है जरुर.
जीवन में है कठिनाईयाँ बहुत, पर इनको सरल बनाना भी है जरुर.
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डेंगू मच्छर
रचनाकार- गौरीशंकर वैश्य विनम्र
डेंगू मच्छर है शैतान,
सबको करता है हैरान.
एडीज एजिप्टी इसका नाम,
पानी में करता आराम.
वजन में कुछ भारी होता है,
ऊँचे न भर सके उड़ान.
बड़ा दुष्ट है, दिन में काटे,
घर भर में भरता फर्राटे.
बचना है डेंगू बुखार से,
काफी रखना होगा ध्यान.
पूरी बाँह के पहने कपड़े,
तन को ढके, न पाले लफड़े.
घर- बाहर की रखें सफाई,
सोएँ मच्छरदानी तान.
डेंगू ले जब पाँव पसार,
उल्टी-दस्त हो तेज बुखार.
अस्पताल में जाँच कराकर,
नियमित औषधि मात्र निदान.
फास्टफूड, मीठा कम खाएँ,
योग और आसन अपनाएँ.
दूध, दही, अंकुरित अन्न लें,
कोल्ड-ड्रिंक का करें न पान.
*****
राष्ट्रभाषा हिंदी
रचनाकार- विभा पाटकर
हिंदी अपनी राष्ट्रभाषा
हिंदी अपनी शान है,
हिंदी से ही गौरवान्वित
हिंदी से पहचान है.
हिंदी की यह विशिष्टता
सबसे घुलमिल जाती है,
उर्दू, अरबी,फारसी
सबको यह अपनाती है.
उच्चारण में भी इसके
ना कोई अंतर रहे,
है सदा समृद्धशाली,
चाहे कितने युग बहे.
भारत की संस्कृति का
करती गौरव गान है,
देश की अखंडता की
हिंदी ही पहचान है.
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सर्दी दीदी
रचनाकार- अशोक 'आनन'
सर्दी दीदी! सर्दी दीदी!
हालत पतली कर दी दीदी,
भाव धूप के चढ़े गगन पर,
लाओ धरा पर जल्दी दीदी.
सर्द हवाएं पिन-सी चुभतीं,
यही आपसे अर्ज़ी दीदी.
सूरज के साथ धूप गुलाबी,
घर को जल्दी चल दी दीदी.
नहाते, तो लगता यूं मानों,
बर्फ बदन पर धर दी दीदी.
मार सही न जाती हमसे,
मौसम उफ्! बेदर्दी दीदी.
*****
धूप
रचनाकार- अशोक 'आनन'
स्वप्न-सलौने जैसी धूप,
देह से सोने जैसी धूप.
उछल-कूद कर धूम मचाती,
मृग के छौने जैसी धूप.
सर्दी में यह मीठी लगती,
रस के दौने जैसी धूप.
मन को जब ये बहलाती है,
लगे खिलौने जैसी धूप.
हरी दूब पर रेशम के ये,
लगे बिछौने जैसी धूप.
*****
जलेबी
रचनाकार- अशोक 'आनन'
घी में जब ये तली जलेबी.
लगी हमें तब भली जलेबी.
मीठी रस भरी जलेबी.
खाते कुरकुरी जलेबी.
मीठी गरमागरम जलेबी.
चाव से खाते हम जलेबी.
जाड़े में खूब भाए जलेबी.
खाने को जी चाहे जलेबी.
मीठे बोले बोल जलेबी.
ठंड की रानी गोल जलेबी.
*****
कोयल
रचनाकार- अशोक 'आनन'
मधुमास में आती कोयल,
पाती उसकी लाती कोयल.
डाली पर वह बैठ मज़े से,
आम कुतरकर खाती कोयल.
काली है पर, देखो फिर भी
मन को कितनी भाती कोयल.
मीठी मिश्री जैसी लगती,
बोली जब सुनाती कोयल.
बोलें मीठे बोल सभी से,
हमें यही सिखाती कोयल.
*****
दिए जलाएं
रचनाकार- भगवत पटेल
आओ फिर से दिए जलाएं.
मिलकर तम को दूर भगाएँ.
आडम्बर, प्रपंच, पाखण्ड से
हरदम दूर रहें हम.
ईर्ष्या, द्वेष कहीं न हो,
न हो कोई गम.
छल कपट के तम को हरकर
प्रेम का दीप जलाएं.
आओ फिर से दिए जलाएं.
हो समाज में समरसता
कम न हो सम्मान.
ज्ञान का दीप चलो जलाएं,
कर लें कार्य महान.
बाल विवाह औऱ कुरीति के
तम को दूर भगाएँ.
आओ फिर से दिए जलाएं.
बेटी है पराया धन
संकीर्ण है सोच विचार.
बेटा ही देगा मुखाग्नि,
है सोंच बेकार.
इन कुरीतियों के तम को
फिर से दूर भगाएं.
आओ फिर से दिए जलाएं.
पढ़ा लिखा हो हर परिवार
हर का हो सम्मान.
हुनरमंद हर एक व्यक्ति हो,
बने भारत की पहचान.
शिक्षा कादीप जला दें हम सब
आगे बढ़ते जाएं.
आओ फिर से दिए जलाएं.
*****
शहर से अलग है गाँव के घर
रचनाकार- प्रीतम कुमार साहू
शहर से अलग है गाँव के घर,
घास मिट्टी से बने है घर.
बर पीपल के छाँव में घर,
लगते सुंदर न्यारे घर.
तुलसी चौरा सबके घर,
गौ माता पूजे घर-घर.
पशुओं को भी घर में रखते,
हरदम उनकी सेवा करते.
गोबर से घर आँगन लिपते,
स्वच्छ सुंदर घर है दिखते.
कोसो दूर बीमारी रहते,
घर से दूर शौचालय रखते.
दादा-परदादा साथ में रहते,
आपस में सब बातें करते.
रिश्ते-नाते साथ निभाते,
गीत ख़ुशी के सब हैं गाते.
बैठ जमी में खाना खाते,
मम्मी,चाची परोसा करते.
बंद दरवाजा कभी ना रखते,
मेहमानों का आदर करते.
*****
खेल-कूद
रचनाकार- प्रीतम कुमार साहू
घर के अंदर, बाहर खेल,
गाँव, गली, शहर में खेल.
एकल और समुह के खेल,
तरह-तरह के अपने खेल.
खेल-कूद में मस्त है रहना,
स्वस्थ सदा तन-मन है रखना.
हार-जीत से कभी ना डरना,
कोशिश अंत तक है करना.
खेल हमें हर दम सिखाता,
अनुशासन का पाठ पढ़ाता.
कभी हंसाता, कभी रुलाता,
संघर्ष का मार्ग हमें दिखाता.
हार हमें यह सब बतलाता,
कोशिश करने को है कहता.
जीत हम में उत्साह जगाता,
आगे बढ़ने को प्रेरित करता.
*****
कालू बंदर
रचनाकार- प्रीतम कुमार साहू
वन उपवन से आया बंदर,
गाँव गली और शहर के अंदर.
उछल कूद है करता रहता,
नाम है उसका कालू बंदर.
तन है काला मन है साफ,
जय श्री राम का करता जाप.
नहीं किसी से पंगा लेता,
दुश्मन को भी करता माफ़.
किचकिच दाँत दिखाता,
किसी के पास नहीं जाता
पेड़ पौधों में बसेरा करता,
फल,फूल को खूब खाता.
कुश, परी, प्रकाश आया,
साथ में अपने केला लाया.
केला देख बंदर ललचाया,
दोस्त बनकर केला खाया.
दिन भर घुमता रहता बंदर,
नहीं किसी का उसको डर.
शाम हुई तो घर के अंदर,
जंगल ही है उनका घर.
*****
बिल्ली मौसी
रचनाकार- प्रीतम कुमार साहू
बिल्ली मौसी घूमने को जब,
घर से बाहर आई.
देख मिठाई जी ललचाई,
खाई मीठी रसमलाई.
बिल्ली को जब लगी प्यास,
दौड़ी आई किचन के पास.
देख दूध से भरा गिलास,
बढ़ गया,दूध पीने की आस.
पीकर दूध से भरा गिलास,
अपनी प्यास बुझाई.
कहने लगी बिल्ली मौसी,
अब जान में जान आई.
देख चूहे कोबिल्ली मौसी,
चुपके सेपासआई.
दावत करने चूहे का,
वोखूबदौड़लगाई.
पकड़ ना पाई बिल्ली मौसी,
रोई और पछताई.
बिलमेंघुस कर चूहा ने,
जब अपनी जान बचाई.
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नाम है मेरा घड़ी
रचनाकार- प्रीतम कुमार साहू
टीक-टीक-टीक-टीक करती रहती,
दिन रात मैं चलती रहती,
ना मैं थकती,नामैंरुकती,
अपनी राह पर चलती रहती,
नाम है मेरा घड़ी.
कुश, परी, प्रकाशके घरों में,
लटका रहता हूँ दीवारों में,
गीताली के हाथ में सजती,
सुबह-सुबह अलार्म मैं बजती,
नाम है मेरा घड़ी.
संग मेरे जो साथ है चलता,
जीवन पथ पर आगे बढ़ता,
अपनी धुन पर मैं चलती हूँ,
नहीं किसी की मैं सुनती हूँ,
नाम है मेरा घड़ी.
समय के साथ काम करो,
जग में अपना नाम करो,
समय का जो करता मान,
हर जगह, वो पाए सम्मान
नाम है मेरा घड़ी.
नदियों सा मैं बहती हूँ,
सब लोगों से कहती हूँ,
आगे जब मैं बड़ जाती हूँ,
लौटकर कभी नहीं आती हूँ,
नाम है मेरा घड़ी.
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बच्चों की रेल
रचनाकार- श्वेता तिवारी
छुक छुक छुक छुक करती आई रेल,
आओ मिलकर खेले खेल.
एक दूजे के पीछे अपनी,
लंबी एक बनाएं रेल.
जो है सबसे मोटा ताज़ा,
भाग बनेगा वो इंजन वाला.
सबसे आगे जाएगा,
सबको वही चलाएगा.
आगे पीछे लग कर हम,
डिब्बे बाकी बन जाएँगे.
सीधी लाइन में चलेंगे सब,
आजु बाजू नहीं मुड़ेंगे अब.
जो साथी है सबसे छोटा,
गार्ड वही रेल का होगा.
हरी लाल झंडी दिखाकर,
चलना रूकना बताएगा.
जब इंजन सिटी बजाएगा,
सब का पैर बढ़ जाएगा.
छुक छुक छुक छुक करके,
हम अब आगे बढ़ते जाएंगे.
*****
भागी बिल्ली
रचनाकार- महेंद्र कुमार वर्मा
बिल्ली चूहे में कभी,
ना हो सकता मेल.
दोनों में होता सदा,
लुका छिपी का खेल.
लुका छिपी के खेल में,
मगर चूहा है पगला.
पगला चूहा देख के,
बिल्ली का मन मचला.
बिल्ली बोली चलो घूमने,
चलते दिल्ली है.
पर डॉगी संग देख चूहा,
बिल्ली गई भाग बिल्ली गई भाग.
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भारत के प्रमुख नगरों के उपनाम
रचनाकार- कु. सुषमा बग्गा
1. कोयला नगरी- धनबाद
2. पांच नदियों की भूमि- पंजाब
3. बुनकरों का शहर- पानीपत
4. त्यौहारों का नगर- मदुरै
5. स्वर्ण मंदिर का शहर- अमृतसर
6. अंतरिक्ष का शहर- बेंगलुर
7. डायमंड हाबर्र- कोलकाता
8. सात टापूओं का नगर- मुंबई
9. महलों का शहर- कोलकाता
10. इलेक्ट्रॉनिक शहर- बेंगलुर
11. नवाबों का शहर- लख़नऊ
12. पर्वतों की रानी- मसूरी
13. रैलीयों का नगर- नई दिल्ली
14. भारत का प्रवेश द्वार- मुंबई
15. भारत का पिटसबर्ग- जमशेदर
16. इ स्पात नगरी- जमशेदपुर
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आओ दीप जलाएँ
रचनाकार- अशोक पटेल 'आशु'
आओ हम सभी दीप जलाएँ
तन मन हो सब का उजियारा,
वसुंधरा ये दमके गगन ये दमके
दमके जग का कण-कण सारा.
आओ हम सभी दीप जलाएँ.
घर आँगन हो सबका उजला
सब का मन हो निखरा-निखरा,
सगुन-सुमङ्गल,मन-चिंतन हो
सद्गुण उद्भव अंतर-मन में हो.
आओ हम सभी दीप जलाएँ.
धन-धान्य सुख-शांति आए
समृद्धि के द्वार खुल जाए,
माँ लक्ष्मी के आशीष पाएँ
दुख-दरिद्रता से मुक्ति पाएँ.
आओ हम सभी दीप जलाएँ.
जीवन सभी का सुखमय हो
मन मे साहस और निर्भय हो,
सत्य-सद्भावना का विजय हो
मन-पावन ज्योतिर्मय मय हो.
आओ हम सभी दीप जलाएँ.
आशाओं के फूल खिलाएँ
आपस मे सब एक हो जाएँ,
आओ अब जीवन महकाएँ
राग-द्वेष सबके दूर हो जाए.
आओ हम सभी दीप जलाएँ.
दिये मिट्टी का सम्मान करें हम
अपनी धरती का मान करें हम,
अकिंचन का ख्याल करें हम
ख़ुशियों का प्रकाश भरें हम.
आओ हम सभी दीप जलाएँ.
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दीपावली आई
रचनाकार- अशोक पटेल 'आशु'
दीप जल उठे दीपावली आई
कण-कण में उजियारा छाई,
घर-आँगन में रौनकता समायी
रँग-रंगोली मन को अति भायी.
घर आँगन सुहाने लगते हैं
सब के मन को भाते हैं,
बच्चे मौज-मस्तियाँ करते हैं
खूब हंसते और मुस्कुराने लगते है.
बच्चे प्यारे-प्यारे सब
ये बड़े न्यारे-न्यारे लगते हैं,
चमकीले कपड़े पहनते हैं
बच्चे ख़ुशियाँ खूब मनाते हैं.
बच्चे फुलझड़ियाँ जलाते हैं
ये आँगन में फूल खिलाते हैं,
बच्चे खुब मिठाईयां खाते हैं
और खुशियाँ खूब मनाते हैं.
धूप-दीप से थालियां सजाते हैं
माँ लक्ष्मी की आरतियाँ करते हैं,
बतासे मिठाई से भोग लगाते हैं
सुख-शांति का आशीष पाते हैं.
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घर का कुलदीपक
रचनाकार- अशोक पटेल 'आशु'
बच्चों की किलकारी है,
घर-आँगन फुलवारी है.
ये घर-आँगन की रौनक है,
ये लगते बड़े मन-मोहक हैं.
घर में तुझसे ही उजास है,
तुझसे ही घर में उल्लास है.
तुझसे होता मधुमास है,
तुझसे हास-परिहास है.
तू ही तो अम्मा का दुलारा है,
तू ही तो आखों का तारा है.
तू फूलों सा बड़ा प्यारा है,
तू ही तो सबसे न्यारा है.
अम्मा की तु सुख-चैन है,
पिता के तु ही दो नैन है.
तू ही घर का कुलदीपक है,
होगा तेरा राज तिलक है.
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शिक्षा मानव का आभूषण है
रचनाकार- अशोक पटेल 'आशु'
शिक्षा संस्कार और, नैतिक मूल्यों का दर्पण है.
शिक्षा ही आदर्श और, मानव का आभूषण है.
शिक्षा जीवन और, भविष्य का नव-निर्माण है.
शिक्षा प्रकाश है, और इससे ही मान-सम्मान है.
शिक्षा ही सुखमय, जीवन की बुनियाद है.
शिक्षा से ही मानव, गुलामी से आजाद है.
शिक्षा शांत और, स्थिर जीवन का आधार है.
शिक्षा समाधान है, अंतिम उपाय व सार है.
शिक्षा प्रकाश है, अज्ञानता को हर लेत है.
शिक्षा ही विस्वास है, शंका का समाधान है.
शिक्षा से ही चरित्रता और, बौद्धिकता बढ़ती है.
शिक्षा से आध्यात्मिकता, समग्रता आती है.
शिक्षा से ही संस्कृति है, इसी से सभ्यता है.
शिक्षा से विकास है इसी में मानवता का सार है.
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विश्व गुरु भारत
रचनाकार- अशोक कुमार यादव
शिक्षा समर्पित जन-जन को, मिला सभी वर्णों को ज्ञान.
घोर तिमिर को ज्योति दिया, विश्व गुरु है यह हिंदुस्तान.
यह ऋषि-मुनियों की तपोभूमि, यहां ज्ञान की गंगा बहती है.
आओ तुम्हें मैं काबिल बना दूं, मां शारदे विश्व से कहती है.
सर्व संपदा से समृद्ध भारत, सोने की चिड़िया कहलाता है.
बैठकर पीपल की डाली में, सुख जीवन का गीत गाता है.
लोगों में था खुशहाली बहुत, आदर्श सभ्यता से जीते थे.
संस्कृतियों के दीप जलाकर, परंपरा को सदैव निभाते हैं.
आदि गुरु हैं शिव भगवान, जगत आदि योगी कहलाते हैं.
ध्यान और समाधि में लीन, सबको योग की बात बताते हैं.
कृष्ण,महावीर और बुद्ध ने, दिए हैं उपदेश योग माया का.
सिद्ध,शैव,नाथ,वैष्णव शाक्त, बता रहे प्राचीन छाया का.
वैदिक काल में शल्य गुरुदेव, इंद्र,अग्नि और सोम प्रवीण.
दो वैद्यों का हुआ आविर्भाव,अश्विनी कुमार थे बड़े निपुण.
अंग-भंग होने पर करते प्रार्थना, नए अंग लगा दो आदिदेव.
महर्षि सुश्रुत थे काय के जनक, प्रतीची देश किए छद्मवेव.
महान् गणितज्ञ जन्में धरा में, शून्य सिद्धांत दिया ब्रह्मगुप्त.
खगोल शास्त्री आर्यभट्ट ने, शून्य की खोज की विश्वसंयुक्त.
अनंत भव का वर्णन वेद में, उड़न तश्तरी की बताता बात.
मंडलाकार है हमारी पृथ्वी, घूमने से होता दिन और रात.
देववाणी प्यारी परिनिष्ठित, विश्व की है सबसे प्राचीन भाषा.
दिए हैं उपदेश जन-जन को, विधाता की कीर्ति चारण गाता.
शिक्षा का केंद्र था भारतवर्ष, गुरुओं का स्थान था सर्वोपरि.
उच्च शिक्षा में नामी नालंदा, चौंसठ शास्त्रों का ज्ञान बड़ी.
अनभिज्ञ था विश्व शिक्षा से, हिंद में शिक्षा की फुलवारी था.
गुरुकुल से लेकर जन विद्या,ज्ञान सागर में गोते लगाता था.
वैदिक से बौद्ध काल तक, भारत था शिक्षा का स्वर्ण युग.
बनकर शिक्षक पाठ पढ़ाए, विश्व शीश झुकाएगा युग-युग.
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द्वीपवती
रचनाकार- अशोक कुमार यादव
हे! जलमाला नीर की देवी, निकलती हो तुम शिखर से.
हो तुम चंचल परी तनुजा, अडिग असितांग नीलांबर के.
चलती हो तुम लहराती हुई, दुर्गम,चढ़ाव,नितम्ब मार्गों में.
झर-झर गाती जीवन गीत, विभक्त होती हो कई सर्गों में.
श्वेत रंगों की पहनी हो साड़ी, अति निर्मल उज्जवल काया.
मोह लेती हो सभी प्राणी को, कैसी अद्भुत है तुम्हारी माया?
इंतजार कर रही पावन धरा, कब रखोगी पग मेरी छाती में?
कर लूंगी मैं त्रिपथगा स्नान, इंद्रायुध रंगों के भांति-भांति में.
धूल जाएगी तन मलिनता, बुद्धि हो जाएगी अचल अभरम.
हो जाऊंगी फिर मैं नवीन, कभी ना होगी सौम्य धरा गरम.
अपलक देख रहे हैं विपिन, सपना गुलशन नवजीवन का.
अब आकर लग जाओ गले, खिल जायेगा बहार मन का.
कब से कर रहा हूं इंतजार?, बच गया है केवल मेरी हाड़.
उजड़ चुकी है दुनिया मेरी, खड़ा हूँ बेबस बनकर पहाड़.
राह देख रहें व्याकुल जीव, पछाड़ खाकर गिर रहे वसुंधरा.
रवि अनल में जल रहा तन, मार्ग नहीं दिखता कोई दूसरा.
आ जाओ तुम उछलते हुए, मन की प्यास बुझा दो तटिनी.
रंग लो हमें भी अपने रंग में, जीवन अमृत दो स्रोतस्विनी.
रहते हैं तुम्हारे उदर समुचय, नाना प्रकार के जलीय जीव.
करते अपना भरण-पोषण, खेल खेलते बहुसंख्य अतीव.
आते सभी आंचल में छुपने, घने अरण्य से निरकुंश निरीह.
तृप्त कर अपनी आत्मा को, लौट जाते फिर से वे गृहखोह.
मन-ही-मन सोचता पीड़ा को, कहता नहीं मैं मन की बात.
तुम मूक-बधिर पशु बनके, मानुस होकर लगाते क्यों घात ?
बने हैं तुम्हारे तट में भवन, जल भरने आती बाला सुंदरी.
करके तृप्त अपने कुटुंब को, मुख आभा से प्रकट चुंदरी.
बहती धारा में स्नान करती, मिलकर सभी सोम सहेलियां.
हस-हस कर बातें करती हैं, बुझती एक दूसरे से पहेलियां.
तुम चली जा रही हो हंसते, ढलमल-ढलमल रव सदानीरा.
पिया मिलन की आस लिए, गा रही हो जीवन गीत बिरहा.
मन में आश लिए दौड़ती हो, जगत का करती हो कल्याण.
सुदूर बैठा अर्णव राह देखे, कब आओगी मेरी जीवन प्राण?
मिल जाओगी प्रीतम के गले, तुम हमें कभी ना भूल जाना.
हमें संतान समझ स्नेह करना, ऐसे ही नीर छलकाते रहना.
*****
कभी चुका नहीं पाऊंगा
रचनाकार- अशोक कुमार यादव
माँ तेरी ममता का कर्ज, कभी चुका नहीं पाऊंगा.
अगले जनम में मैं फिर, तेरे लाल बनकर आऊंगा.
रख के नौ माह उदर में, मेरी पग प्रहार को सही हो.
देकर नव जन्म मुझे तुम, चिरंजीवी रहना कही हो.
प्रतीति मुझे भी होता है, कष्ट को भुला नहीं पाऊंगा.
माँ तेरी ममता का कर्ज, कभी चुका नहीं पाऊंगा.
उंगली पकड़कर मेरी तूने, चलना मुझे सिखाया था.
अनदेखे जगत के दृश्यों को, तूने मुझे दिखाया था.
गुजरे हुए पलों को स्मृति से, मैं मिटा नहीं पाऊंगा.
माँ तेरी ममता का कर्ज, कभी चुका नहीं पाऊंगा.
भूख से होता था बेहाल, दौड़कर पास में आता था.
हवा देती मुझे बिजना से, तुम्हारे हाथों से खाता था.
तुम्हारी लाड,प्यार को, किसी को दिखा नहीं पाऊंगा.
माँ तेरी ममता का कर्ज, कभी चुका नहीं पाऊंगा.
घर आता था देर से तो, बहुत डांट मुझे लगाती थी.
जल्दी आ जाया करो, यह बात हमेशा कहती थी.
देखती रहती राहों को, किसी को बता नहीं पाऊंगा.
माँ तेरी ममता का कर्ज, कभी चुका नहीं पाऊंगा.
मैं करता था कोई गलती, पिता से छुपाती थी तुम.
बुरी आदत को छोड़ दो, नैतिक सीख देती थी तुम.
रोशन करूंगा नाम तुम्हारी, नाम डूबा नहीं पाऊंगा.
माँ तेरी ममता का कर्ज, कभी चुका नहीं पाऊंगा.
तुम्हारी ही बदौलत मिला, मुझे कर्तव्य आजीविका.
दूर हो गई सारी गरीबी, रहने लगे हम सभी हर्षिता.
तुम्हारे किए उपकार को, आजीवन डूबा नहीं पाऊंगा.
माँ तेरी ममता का कर्ज, कभी चुका नहीं पाऊंगा.
विस्तार करेगा वंश को, कहके कर दी मेरी शादी.
आ गई नववधू घर में, बढ़ने लगी देश की आबादी.
रो रहे हैं बच्चें बिलख, लोरी से सूला नहीं पाऊंगा.
माँ तेरी ममता का कर्ज, कभी चुका नहीं पाऊंगा.
छिड़ गया घर में गृहयुद्ध, सास-बहू की है टक्कर.
बिगुल बजा शंखनाद से, उतरे हैं मैदान में डंटकर.
कमीं गिनाते लाख-लाख, गलती बता नहीं पाऊंगा.
माँ तेरी ममता का कर्ज, कभी चुका नहीं पाऊंगा.
घर में खींचाया सीमा-रेखा, हुई चीजों की बंटवारा.
सिर से उठा उनका हाथ, जो थे जीवन का सहारा.
अच्छे पुत्र के दायित्व को, अब निभा नहीं पाऊंगा.
माँ तेरी ममता का कर्ज, कभी चुका नहीं पाऊंगा.
इस जनम में कलह से, जननी मैं तुमसे दूर हो गया.
पत्नी की प्रेम के खातिर, मैं बहुत मजबूर हो गया.
तुम्हारे दिल को और ज्यादा, मैं दु:खा नहीं पाऊंगा.
माँ तेरी ममता का कर्ज, कभी चुका नहीं पाऊंगा.
*****
हारा नहीं हूँ मैं
रचनाकार- अशोक कुमार यादव
अभी हारा नहीं हूं मैं, एक और मौका मिला है मुझे.
लड़ रहा हूं चुनौतियों से, सफल होकर दिखाऊंगा तुझे.
तू क्या समझता है मुझे?, खो दूंगा मैं अपना हौंसला.
रोते रहूंगा बैठकर हरपल, मायूस होकर मन बौखला.
क्या चुप होकर बैठ जाऊं?,ऐसा हरगिज़ नहीं करूंगा.
नए राह में कदम रखकर, कठिनाइयों से नहीं डरूंगा.
जीवन जंग में जीता नहीं तो, कर लिया अपनी आंखें नम.
कुछ दिन था उदास बहुत, सोच कर डूबा रहता था मैं ग़म.
मन-ही-मन उसी बात को, दोहराते रहता था बार-बार.
क्यों नहीं मिला मुझे मंजिल?, क्या कमी थी मुझमें सार?
मैं लायक तो नहीं इसका, नहीं-नहीं ऐसी बात नहीं है.
करूं भी तो क्या करूं मैं?, भाग्य ही मेरे साथ नहीं है.
हल-चल हो रही है मन में, उदासी लग रहा मुझे बहुत.
दिल कहता है तू फिर लड़, दिमाग कहता है थोड़ा रुक.
नहीं मानूंगा किसी की बात, करूंगा सदा अपनी मन की.
टूटने ना दूंगा हौसला अपनी, थामा हूं डोर नवजीवन की.
अभी-अभी तो चलना सीखा, दौड़ में कैसे जीत पाऊंगा?
करके तैयारियां कौशल लेकर, मैदान में लड़ने आऊंगा.
फिर देखूंगा सबको ज्ञान से, खोल कर अपनी त्रिनेत्र को.
विद्यारण भूमि में कूद पडूंगा, चुनकर एक ही परिक्षेत्र को.
मिलेंगे वहां कई योद्धागण, दिखाएंगे बाहुबल पराक्रम.
किए होंगे दक्षता हासिल, पैदा करेंगे लोग हरपल भ्रम.
दाएं से बाएं करेंगे वो वार, मुझे भी संभल कर खेलना है.
देने होंगे मुझे उन्हें प्रतिउत्तर, भारी आयुध मुझे झेलना है.
सीखने होंगे उनके नव तरीके, तभी जीत पाऊंगा उनसे.
यदि नहीं सीख पाया कला, हार मान लौटुंगा गुमसुम से.
अभ्यास से अर्जित होगा ज्ञान, नवशक्ति का होगा संचार.
एक बार जीतना होगा मुझे, कोशिश कर लूंगा प्रतिकार.
*****
रिश्ते-नाते
रचनाकार- महेन्द्र साहू 'खलारीवाला'
नाना-नानी,मामा-मामी
घर आये हमारे.
मौसा-मौसी,दीदी-भैया
साथ उनके पधारे.
दादा-दादी, मम्मी-पापा
ले आये मीठे-खारे.
बड़े प्यार से लगे परोसने,
चाचा-चाची हमारे.
बुआ-फूफा केला लाए,
मिल बैठ मजे से खाए.
सभी मिलकर करते बातें,
ठहाके दिनभर लगाए.
ताऊ-ताई दिल्ली से आए,
वहाँ से सुंदर बिल्ली लाए.
बिल्ली इनकी बड़ी सयानी,
दूध झटपट चट कर जाए.
*****
मम्मी के राजदुलारे
रचनाकार- महेन्द्र साहू 'खलारीवाला'
गहरी नींद में सोए,
मम्मी के राजदुलारे.
भोर हुई अब उठ भी जाओ,
ओ मुन्ना राजा हमारे.
भर कटोरी लायी मम्मी,
काजू,किशमिश,छुहारे.
झटपट उठ अब मुँह धोलो,
ओ मुन्ना राजा प्यारे.
झटपट अब स्नान कर,
स्कूल हो जा तैयारे.
प्रस्तुत है टिफिन तुम्हारा,
चाय-नाश्ता,बिस्किट करारे.
स्कूल जाना पढ़ना लिखना,
अच्छी शिक्षा पाना तुम.
नाम हमारा रोशन करना,
जग में ओ मेरे प्यारे.
*****
मेरी प्यारी नीली छतरी
रचनाकार- महेन्द्र साहू 'खलारीवाला'
ओ मेरी प्यारी नीली छतरी.
बहुत ही सुंदर न्यारी छतरी.
ऊँचे सुंदर नील गगन सी.
रंग आसमानी नहाये छतरी.
बारिश आती झम-झमाझम.
मुझे बारिश से बचाये छतरी.
आठ हाथ एक पैर है इनके.
धूप में भी कमाल दिखाये छतरी.
देती हरदम मेरा साथ छतरी.
चिपके रहती मेरे हाथ छतरी.
कोई भी मुझे आँख दिखाये.
रक्षा करती मेरी नीली छतरी.
*****
छुक छुक रेल
रचनाकार- महेन्द्र साहू 'खलारीवाला'
छुक-छुक आती-जाती रेल
पों-पों हॉरन बजाती रेल.
इस डिब्बे से उस डिब्बे में,
आपाधापी ठेलमठेल रेलमपेल.
दो पटरी पर चलती रेल,
सरपट दौड़ लगाती रेल.
गेट पर बैठा टाइमकीपर,
लाल, हरी झंडी दिखाती रेल.
खानों से कारखानों तक
झटपट आती-जाती रेल.
माल ढोकर आती रेल,
ढोकर माल जाती रेल.
बच्चे मन के होते सच्चे,
खेल रेल का खेलमखेल.
मुन्नी बिटिया बड़े मजे से
सफर करती रेलमरेल.
सामान ढोना हुआ आसान,
आसान हुआ आवागमन.
आय के हैं प्रमुख साधन,
देश की आय बढ़ाती रेल.
*****
सुशासन
रचनाकार- किशन भावनानी
सरकारों को ऐसी नीतियाँ बनाना हैं,
सुशासन को आखरी छोर तक ले जाना हैं.
लोगों के जीवन की गुणवत्ता में सुधार करके,
सुखी आरामदायक बेहतर जीवन बनाना हैं.
भारतीय लोक प्रशासन को ऐसी नीतियाँ बनाना हैं,
वितरण प्रणाली में क्षमता अंतराल को दूर.
करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाना हैं,
सुशासन को आखिरी छोर तक ले जाना हैं.
भारत को परिवर्तनकारी पथ पर ले जाना हैं,
सबको परिवर्तन का सक्रिय धारक बनाना हैं.
न्यूनतम सरकार अधिकतम शासन प्रणाली लाना हैं,
सुशासन को आखिरी छोर तक ले जाना हैं.
सुविधाओं समस्यायों समाधानों की खाई पाटना हैं,
आम जनता की सुविधाओं को बढ़ाना हैं.
प्रौद्योगिकी पर जोर देकर विकास को बढ़ाना हैं,
कल के नए भारत को साकार रूप देना हैं.
*****
ऊन का गोला
रचनाकार- महेन्द्र साहू 'खलारीवाला'
माँ ला दो मुझे ऊन का गोला,
बनाऊँ मैं इक सुंदर झिंगोला.
कड़ाके की सर्दी है पड़ रही,
नाक से दूधिया धार बह रही.
थरथर-थरथर काँप रहा हूँ,
ठंड से हूहूहूहू जाप रहा हूँ.
रोम-रोम में सिलवट आई,
ठंड से देखो ठिठुर रहा हूँ.
मन होता रंग बिरंगा पहनूँ झिंगोला,
माँ ला दो मुझे ऊन का गोला.
झिंगोला सर्दी से मुझे बचायेगा,
वह जब तन मेरे समायेगा.
ठंड में झबलेदार पहनूँ झिंगोला,
तब बड़ा मजा मुझे आएगा.
*****
दीपोत्सव
रचनाकार- महेन्द्र साहू 'खलारीवाला'
दीप जले हैं घर-आँगन में,
दीपों का त्यौहार है आया.
सबका मन हर्षित पुलकित,
सबके अंतर्मन में समाया.
घर की होगी साफ सफाई,
गाँव गली स्वच्छ बनाएँगे.
चहुँ ओर स्वच्छता की छटा,
बगिया फूलों सा महकाएँगे.
बच्चों की होगी धमाचौकड़ी,
सूट बूट में यारों संग मस्ती.
घर आँगन दीप जलाएँगे,
खुशियों से दीवाली मनाएँगे.
चाइना का होगा बहिष्कार,
होगा स्वदेशी ही स्वीकार.
कुम्हार की मेहनत से बनी,
मिट्टी के दिये जलाएँगे.
घर दुल्हन सी सजाएँगे,
मिलकर खुशियाँ मनाएँगे.
गौरा-गौरी की पूजा-अर्चना,
कलशा भी खूब सजाएँगे.
माँ लक्ष्मी की पूजा आराधना,
सुख-समृद्धि की होगी कामना.
मीत संग करेंगे धूम-धड़ाका,
जलाएँगे फूलझड़ी व फटाका.
बैरभाव को त्यागकर,
सबको गले लगाएँगे.
भाईचारे का संदेश देंगे,
गोबर्धन टीका लगाएँगे.
*****
तिरंगा
रचनाकार- महेन्द्र साहू 'खलारीवाला'
तीन रंगों का झंडा,
झंडा देश की शान है.
भारत माता की निशानी,
हम सबकी पहचान है.
ऊँचे आसमाँ पे फहरे,
नीचे जमीं पे नहीं ठहरे.
भारत माता की आन-बान,
तिरंगा भारत की जान है.
प्रतीक केसरिया बलिदानी,
सुख-शांति श्वेत रंग निशानी.
हरा रंग दे जाए हरियाली,
भारत माता की बात निराली.
आओ हम सब मिलकर,
तिरंगा फहर-फहर फहराएं.
तिरंगा ऊँचे नील गगन में,
शान से लहर-लहर लहराए.
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प्रियदर्शिनी इंदिरा
रचनाकार- अशोक पटेल 'आशु'
तुम इंदिरा हो,तुम प्रियदर्शिनी हो,
तुम नेहरू की लाडली नन्दिनी हो.
तुम पिता की राज-कुमारी हो,
तुम परिवार की राज-दुलारी हो.
तुम स्वतंत्रता संग्राम सेनानी हो,
तुम देशभक्त हो स्वाभिमानी हो.
तुम जन-जन भारत की आदर्श हो,
तुम नई आशा व नई विस्वास हो.
तुम पहिली महिला प्रधानमंत्री हो,
तुम नारी शक्ति की अभिव्यक्ति हो.
तुम ही भारत की नई पहचान हो,
तुम ही विश्व क्षितिज की शान हो.
तुम राजनीति की साक्षात मूर्ति हो,
तुम ही दृढ़ राजनीति की शक्ति हो.
तुम कहलाती लौह महिला हो,
तुम नेतृत्व की अद्भुत कला हो.
तुम शक्ति सामर्थ्य की प्रतिमूर्ती हो,
तुम एकता की पर्याय व शक्ति हो.
*****
भारत की पावन मिट्टी
रचनाकार- अशोक पटेल 'आशु'
हे भारत की पावन मिट्टी
तुझको शत-शत वन्दन है,
तेरी मिट्टी चंदन सा पावन
तुझको मेरा अभिनन्दन है.
सूर्य सा तू दैदीप्यमान है
स्वर्णिम तेरी गाथा है,
तेरी महिमा अवर्णीय है
तेरा युगों-युगों से नाता है.
तूने ही तो सिंचित किया है
प्राचीन संस्कृति सभ्यता को,
तेरा ही तो अनुकरण किया है
यह विश्व तेरी योग्यता को.
ज्ञान-जोतिष, धर्म-आस्था का
तूने ही तो दर्शन कराया है,
वेद-पुराण,गीता,रामायण का
सृजन कर विश्व गुरु कहलाया है.
ज्ञान-भक्ति और आस्था का
ध्वज तूने ही फहराया है,
कबीर, तुलसी, सुर, मीरा, नानक
से ज्ञान का मशाल जलाया है.
जब-जब तेरी मिट्टी में
अत्याचारों का पाप बढ़ा है,
तब-तब तूने शिवा, महाराणा
जैसे वीर योद्धा को गढ़ा है.
तूने ही तो लक्ष्मी,दुर्गा और
अवन्ति, अहिल्या, अवतारा है,
इस मिट्टी की लाज बचाने
इन्होंने दुश्मन को ललकारा है.
जिसने तूझ पर बुरी नियत गड़ाई
उसको मुह की खानी पड़ी है,
चाहे यवन हो,शक हो या कुषाण
निश्चित है उसकी बलि चढ़ी है.
साइरस,डेरियस और सिकन्दर
ना जाने कितने दुश्मन आए,
सब के दाँत यहां खट्टे हो गए
भारतीय वीरों ने है धूल चटाए.
सेल्युकस,पौरस,कासिम आए
और आए नादिरशाह अब्दाली,
सभी के यहां छक्के छूट गए
सच्चे सपूत थे यहाँ बलशाली.
वीर सपूतों में महा पराक्रमी
राजा हरिश्चंद्र और चन्द्रगुप्त थे,
भारत की गौरव इन्होंने बचाई
और प्रतापी सम्राट अशोक थे.
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दरकते रिश्ते
रचनाकार- अविनाश तिवारी
सिमटता समय बढ़ती दूरियाँ,
दरकते रिश्ते कहां है कमियाँ.
खोता विश्वाश बढ़ता हुआ द्वेष,
गिरता ईमान छद्म है वेश.
पाश्चात्य प्रभाव छोटा परिवार,
विलुप्त संस्कार जीवन व्यापार.
बढ़ता तापमान गिरता ईमान,
पैशाचिक कृत्य निष्कृष्ट अभिमान.
खोया मान बुजुर्गो का सम्मान,
छोटा है मन ऊँचे मकान.
पिता का आदर्श माँ का ध्यान,
भूलता बचपन गुम है इंसान.
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सेंटा क्लाज मुझे बना दो जी
रचनाकार- श्वेता तिवारी
सेंटा मुझे बना दो जी,
मोटी तोंद लगा दो जी,
नाक गाल को खूब सजाकर,
सफेद सफेद दाढ़ी चिपका कर,
उछल-उछल कर कूद-कूद कर,
रातों को मैं घूम -घूम कर,
सबको उपहार देता हूँ.
बच्चे मुझे सब प्यार करते,
प्यार से मुझे है सेंटा कहते,
रातों-रात तोहफा दे जाऊँ,
जी करता है सैंटा बन जाऊँ.
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खुशियाँ त्यौहारों की
रचनाकार- प्रिया देवांगन 'प्रियू'
छन्न पकैया-छन्न पकैया, घर-घर दीप जलाये.
मम्मी पापा के सँग मिलकर, दीपावली मनाये.
छन्न पकैया-छन्न पकैया, सभी आरती गाते.
लक्ष्मी माता की पूजा करते, खुशियाँ सभी मनाते.
छन्न पकैया-छन्न पकैया, सारे द्वार सजाते.
दादा-दादी के सँग बच्चे, मिलकर धूम मचाते.
छन्न पकैया-छन्न पकैया, खिचड़ी सभी बनाते.
गौ माता की पूजा करते, गौ को भोग लगाते.
छन्न पकैया-छन्न पकैया, भैया दूज मनाते.
नये-नये पकवान बनाकर, मिलकर सब हैं खाते.
छन्न पकैया-छन्न पकैया, टिम टिम करते तारे.
जगमग करता द्वार सभी का, लगते कितने प्यारे.
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पूस की रात
रचनाकार- सीमा यादव
पूस की रात बड़ी सुन्दर लगती है,
गरम कपड़े से सारा शरीर ढँका होता है.
जब ठंडी-बर्फीली हवा चलती है,
सारा बदन थर-थर काँपने लगता है.
धूप की किरणे बड़ी मीठी लगती हैं,
भोजन का स्वाद कई गुना बढ़ जाता है.
चारों तरफ फूलों की महक होती हैं,
जिंदगी बहुत खूबसूरत लगती है.
गली-खोर की सुन्दर रंगोली,
जीवन में सात रंग भर देती हैं.
पूस का मौसम बहुत अच्छा लगता है,
सुन्दर मीठे फल खाने को मिलता है.
रंग-बिरंगी साग-सब्जी से,
रसोई घर की शोभा बढ़ जाती है.
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फूलों की मुस्कान
रचनाकार- टीकेश्वर सिन्हा 'गब्दीवाला'
आ गयी अब ठंडी रानी,
फूलों की मुस्कान निराली.
पेड़ों की ऊँची डाल पर,
मानों उनके भाल पर.
पत्तियों की शान निराली,
फूलों की मुस्कान निराली.
हरी-भरी सी कलियाँ,
भीगी-भीगी सी पंखुड़ियाँ.
भौरें की तान निराली,
फूलों की मुस्कान निराली.
बड़ी महक हवाओं में,
चहुँ ओर फिज़ाओं में.
तितलियों की आन निराली,
फूलों की मुस्कान निराली.
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एक बंदरिया छत पर आई
रचनाकार- राजेन्द्र श्रीवास्तव
एक बंदरिया छत पर आई,
अपने दो बच्चों को लाई.
बिस्किट तीन वहाँ पर पाए,
एक-एक तीनों ने खाए.
चार छतों पर कूदे-भागे,
पाँच बजे पापाजी जागे.
छह फिट लम्बी लाठी लाए,
सात सीढ़ियाँ चढ़ कर आए.
आठ बार लाठी दिखलाई,
मम्मी नौ बिस्किट ले आई.
तीन-तीन बिस्किट खा बढ़िया,
सुबह दस बजे गई बंदरिया.
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सुरभित सदन
रचनाकार- अविनाश तिवारी
सदन सुरभित है वही,
मातृ-पितृ की छाँह हो.
हो दीप आलोकित यहीं,
जहाँ मन इनका सुवास हो.
बन गई अट्टालिकाएं देख,
महल विशाल मुस्का रहा.
बिन रिश्तों के साज सज्जा,
रास न इनको आ रहा.
है वही सम्पन्नता जहां,
मान हो सम्मान हो.
बुजुर्गों के आशीष की छाया,
हर सदन बिद्यमान हो.
जुगनुओं की चमक देख,
लड़ियाँ लगा लो चांद की.
एक मुस्कान खिला के देखो,
घर के इस भगवान की.
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खेलें खेल
रचनाकार- गौरीशंकर वैश्य विनम्र
करें पढ़ाई, खेलें खेल,
मित्रों के संग रखना मेल.
छुपमछुपाई संग जमें,
गुल्लीडंडा और गुलेल.
भागें-दौड़ें, पकड़ें-धकड़ें,
तोड़ें-खाएँ, इमली-बेल.
सोनू बैठा है मुड़ेर पर,
देखो! देना नहीं ढकेल.
खड़े हों एक दूजे के पीछे,
चले धूम से छुकछुक रेल.
मार पिटाई मत करना,
डांट पड़ी, जाएँगे झेल.
कालू बैल मरखना है,
उसे डालकर रखें नकेल.
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क्रिशमस का त्यौहार है
रचनाकार- अशोक पटेल 'आशु'
आज आया क्रिसमस का त्यौहार है,
बच्चों को सेंटा-क्लॉज का इंतजार है.
सेंटा-क्लॉज लाया प्यारा उपहार है,
ये करते सदा बच्चों से बेहद प्यार है.
बच्चों के मन में उत्साह समाया है,
आज बच्चों में देखो उमंग आया है.
आज बच्चों के मन में किलकारी है,
आज घर-घर में रौनक फुलवारी है.
आज बच्चे सुंदर चमक-दमक रहे हैं,
बच्चे आज खूब चहक-फुदक रहे हैं.
आज बच्चे फूलों सा महक रहे हैं,
आज ये बच्चे मनमोहक लग रहे हैं.
आज बच्चे उमंगों की उड़ान भरते हैं,
ये बचपन की यादों में खोते जाते हैं.
आज बच्चे क्रिसमस की देते बधाई है,
एक दूसरे को केक मिठाई खिलाई है.
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तितली
रचनाकार- सुचित्रा सामंत सिंह
रंग-बिरंगे पंखो वाली,
तितली कितनी सुंदर है.
इस डाली से उस डाली पर,
उड़-उड़ कर यह फिरती है.
चार पंखों वाली तितली,
फूलों के रस को पीती है.
लाल पीले गुलाबी बैंगनी,
फूलों पर मंडराती है.
तितलियाँ है बड़े काम की.
परागण में सहायक होती है,
जिससे फूल, फल में परावर्तित हो जाती है.
यह छोटी तितली भी,
खाद्य श्रृंखला की इकाई है.
चलो उगायें रंग बिरंगे,
फूलों की हम क्यारी.
ताकि रंग-बिरंगी तितली,
हमेशा रहें ऐसी प्यारी.
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हस्तलिखित पुस्तिका
रचनाकार- वीरेन्द्र कुमार साहू
बच्चों की कल्पनाओं को,
देता एक मुकाम है.
कविता कहानियों से रचा बसा,
सुंदर चित्रों का सजा संसार है.
बड़े प्यार से इसमें हमने,
चुनचुन मोती सजाएं हैं.
सबको जो भा जाए,
वह प्यारे गीत बनाए हैं.
हम किसी से कम नहीं,
यह सच कर दिखलाया है.
हमने भी हस्तलिखित पुस्तिका,
अपना अपना बनाया है.
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दिया और बाती
रचनाकार- वंदिता शर्मा
दीवाली है आई है,
चारों ओर जगमग छाई,
यह कहानी है दिए और बाती की.
दिवाली ऐसी है आयी,
दिशाएं दीपों से छाई,
मंद-मंद मचल रहा था चिंराग,
अंधियारे को मिटाने, जग में ज्योत जगाने.
एक छोटा-सा दीया था कहीं जल रहा,
लौ की धुन में मगन, उजियारी की है लगन,
उसकी लौ में लगन भगवान की.
यह कहानी है दीये और बाती की.
कहीं दूर था त्योहार,
कहीं दूर था इस, दीये को जलाने को है दिल है मगन
सारे जग को जगमगाने मचल रहा.
एक नन्हा-सा दीया,
बाती ने एक ज्योत दिया,
अब देखो लीला विधि के विधान की.
यह कहानी है दीये और बाती की.
दुनिया ने साथ छोड़ा, ममता ने मुख मोड़ा,
अब दीये पे यह दुख पड़ने लगा,
पर हिम्मत न हार, मन में मरना विचार.
अंधियारी को मिटाने लड़ने लगा.
यह कहानी है दीये और बाती की.
फिर ऐसी घड़ी आई
दीपावली है दीपों का त्योहार
घनघोर अंधियारी मिटाने को,
भगवान राम को याद करने
तब दीया इंतजार में हैं खड़ा
चौदह बरस वनवास
राम के लौटने की आस
एक दिया बाती को लेकर खड़ा.
यह कहानी है दीये की और बाती की.
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कहानी से मिलती है शिक्षा
रचनाकार- सीमा यादव
खरगोश-कछुए की कहानी, ढेला-पत्ता की कहानी, बंदर-लोमड़ी की कहानी, राजा-रानी की कहानी इत्यादि शिक्षाप्रद कहानियाँ हमारे जीवन को बहुत अधिक प्रभावित करती हैं. इसी प्रकार पंचतंत्र की कहानियों से हमें जीवन के नैतिक-अनैतिक पक्ष को समझने में आसान होती है. कहानी हमारे जीवन को गति देती है. प्रायः हिंदी फ़िल्में या कार्टून्स हमें किसी महत्वपूर्ण कहानी या कथा से जोड़े रखती है. हर कहानी में एक सुन्दर संदेश छिपा होता है. पत्र-पत्रिकाओं की कहानियों में भी सही-गलत, सत्-असत्, अच्छा-बुरा इत्यादि से सम्बद्ध चरित्रों का समावेश होता है. प्राचीन कथाएँ हमारे मन मस्तिष्क को सही दिशा देने की माध्यम होती हैं. अतीत की बातें, परिवेश, स्थिति संस्कृति को हम कहानी के द्वारा सरलता व सहजता के साथ समझ पाते हैं.
बच्चों को प्रेरणादायी व शिक्षाप्रद कहानी अपने दैनिक जीवनचर्या में सुनने-सुनाने की आदत विकसित करने की अत्यंत आवश्यकता है. कहानी लोककथा, किम्वदन्ती आदि स्रोतों से प्राप्त की जाती है. अतः आज के तकनीकीकरण व मशीनीकरण के अत्याधुनिक युग में कहानी की रुपरेखा बदल गयी है. जिससे बच्चों का ध्यान कहानी के प्रति अनाकर्षित व उदासीनता भरा हो गया है जो कि निकट भविष्य में इसके प्रति सचेत होने की अत्यंत आवश्यकता है.
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नानी
रचनाकार- अनिता चन्द्राकर
नानी मेरी प्यारी नानी,
हमें सुना दो एक कहानी.
हो परियों की सुंदर दुनिया,
या जिसमें हो राजा-रानी.
नानी बोली आओ बच्चो,
तुम्हें सुनाऊँ एक कहानी.
भीषण गर्मी पड़ी गाँव में,
सूख गया पोखर का पानी.
हाहाकार मच गया गाँव में,
संकट में पड़ गई जिंदगानी.
सबको बात समझ में आई,
पेड़ लगाने की सबने ठानी.
अब वे पेड़ नहीं काटेंगे,
बचायेंगे एक-एक बूंद पानी.
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चंदा तारे
रचनाकार- अनिता चन्द्राकर
नील गगन में चंदा तारे,
बच्चों को वे लगते प्यारे.
ढूँढते चाँद में दादी अम्मा,
बच्चों के वे प्यारे मामा.
तारों में ढूँढते चोर सिपाही,
उनके पीछे चलते हैं राही.
चाँद अकेले घूमता रहता,
कभी न रुकता, कभी न थकता.
चारों तरफ हैं अनगिन तारे,
कितने अद्भुत कितने न्यारे.
गिनने की सब शर्त लगाते,
कोई उन्हें पर गिन न पाते.
गिनते-गिनते जब थक जाते,
मीठे सपनों में खो जाते.
रहते नहीं क्यों साथ हमारे,
छुप जाते हैं दिन में सारे.
नील गगन में चंदा तारे,
बच्चों को लगते हैं प्यारे.
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बंदर मामा
रचनाकार- अनिता चन्द्राकर
इस डाली से उस डाली पर,
कूद रहे हैं बंदर मामा.
नीचे खेल रहे हैं बच्चे,
राजू गोलू रानी श्यामा.
दो केले रख आई गुड़िया,
शायद बंदर को भूख लगी हो.
नीचे आकर केला खाकर,
अपनी भूख मिटा ले वो.
नीचे आए बंदर मामा,
छुप गए बच्चे घर के अंदर.
झूम उठा वो केले पाकर,
चढ़ा पेड़ पर फिर केले लेकर.
अपने साथी को दे केला एक,
खुद भी खाया केला एक.
बच्चे निकले घर के बाहर,
बनना है अब उनको भी नेक.
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बाल दिवस
रचनाकार- भगवत पटेल
दुनिया मुझको याद करे ऐसा मैं नन्हा कलाम हूँ.
खेल, खिलौने, कन्चे, गोली, मुझको लगते प्यारे.
फूलों के संग तितली रानी, भौंरे कितने न्यारे.
जगमग-जगमग जुगनू जैसे नभ में चाँद-सितारे.
मेरे कोरे मन मेंउपजें प्रश्नअनोखे सारे.
खोज निकालूँ प्रश्नों के हल ऐसा मैं इंसान हूँ.
दुनिया मुझको याद करे ऐसा मैं नन्हा कलाम हूँ.
रोज सवेरे विद्यालय जाता, गुरुजन मुझे पढ़ाते.
गिनती,कविता और पहाड़े, मुझको खूब रटाते.
पेड़, फूल और पत्तों के मैं सुंदर चित्र बनाऊँ.
प्रकृति की प्यारी इस बगिया में सबको पास बुलाऊँ.
नानक, बुद्ध और महावीर का मैं नन्हा पयाम हूँ.
दुनिया मुझको याद करे ऐसा मैं नन्हा कलाम हूँ.
बच्चों के प्रिय नेहरु चाचा अच्छे लगते हैं.
बाल-दिवस को हम सब मस्ती खूब करते हैं.
कलाम के सपनों की, भारत में धूम मचाएँगे.
ज्ञान प्रकाश से तम को हम सब दूर भगाएँगे.
विज्ञान, कला और संस्कृति का मैं ऐसा आयाम हूँ.
दुनिया मुझको याद करे ऐसा मैं नन्हा कलाम हूँ.
कौन बनेगा नन्हा कलाम है वैज्ञानिक नवाचार.
अक्टूबर में शुरू हुआ लिए सपने पंख हजार.
ज्ञान-विज्ञान के रहस्यों का है नया संसार.
जीवन को सीखने का है वैज्ञानिक आधार.
कलाम की दृष्टि का ऐसा मैं सुंदर सलाम हूँ.
दुनिया मुझको याद करे ऐसा मैं नन्हा कलाम हूँ.
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मेरा खेत
रचनाकार- मुकेश कुमार ऋषि वर्मा
प्यारा- न्यारा मेरा खेत,
हरा-भरा सुंदर खेत.
उसमें फसलें लहरातीं,
मेरे मन को बहुत लुभातीं.
महके पीली-पीली सरसों,
फूले अरहर- झूमे अरहर.
बेहद लंबा हुआ बाजरा,
भुट्टा नाचे पहन घाघरा.
उग आए हैं मूली- गाजर,
लाल हुआ है गोल टमाटर.
किसी से कम न गोभी आलू,
बहुत रुलाते प्याज- रतालू.
केला आया ताजा-ताजा,
कलुआ बैंगन बन बैठा राजा.
कद्दू जैसा हुआ ना मोटा,
गन्ना आया मीठा-मीठा.
खरबूज की खुशबू क्या कहने,
बहुत महकता सुंदर धनिया.
भाव खा रही हरी मटर,
सुध-बुध खो गई है ज्वार.
सबको उगाता मेरा खेत,
हरा-भरा सुंदर खेत.
*****
शिशु शिरोमणि
रचनाकार- अशोक कुमार यादव
बच्चे मन के होते सच्चे, होते भोले-भाले.
मन निश्छल, कोमल भाव, होते वे निराले.
जिस साँचे में ढाल दो, वैसे ही ढल जाते हैं.
कुम्हार सरीखे थपकी दो, वैसे ही पक जाते हैं.
खेलखेल में हँसतेगाते, कभी रूठते, कभी मनाते.
बड़ो से जो संस्कार पाते, सहर्ष उन्हें वे अपनाते.
कहते हैं बच्चों में, भगवान का है रूप समाया.
फूलों सा नाजुक वो, पल-पल है मुस्काया.
बच्चे करते धमाचौकड़ी, शोरगुल, शरारत.
बच्चों के शोरगुल में भी, उर आनंद समाया.
हैं शर्मीले, नटखट अंदाज, बच्चे होते प्यारे.
इसीलिये चाचा नेहरू को, बच्चे लगते न्यारे.
फूलों का राजा गुलाब, चाचा नेहरू मन को भाए.
तभी तो अचकन में अपने, सुंदर गुलाब सजाए.
चाचा नेहरू को लगते हैं, बच्चे बहुत ही प्यारे.
बच्चे भी चाचा चाचा कह, नेहरू को पुकारे.
देश की भावी पीढ़ी, होते हैं ये ही बच्चे.
बच्चे भोले-भाले, होते हैं मन के सच्चे.
बच्चों के प्यारे नेहरू, पहले प्रधानमंत्री भारत के.
जनजन के हिय में समाये, लाल हैं ये भारत के.
*****
मंटू मुर्गा
रचनाकार- नरेन्द्र सिंह नीहार
मंटू मुर्गा बैठे-बैठे,
रहा दूर की सोच.
नाच न जाने आँगन टेढ़ा,
आई पाँव में मोच.
मुर्गी झट मरहम ले आई,
पाँव पर बाँधी पट्टी.
आँख नचाकर लगी सुनाने,
कुछ बातें मीठी-खट्टी.
डींग मारता लम्बी-लम्बी,
काम तुझे ना भावे.
एक अजान सुबह की देकर,
दिन भर फिर सुस्तावे.
आसमान में उड़ो नहीं,
कर लो थोड़े काम.
चलना-फिरना बहुत जरूरी,
हर दिन सुबह और शाम.
*****
बच्चों के प्यारे चाचा नेहरू
रचनाकार- महेन्द्र साहू 'खलारीवाला'
बच्चे मन के होते सच्चे, होते भोले-भाले.
मन निश्छल, कोमल भाव, होते वे निराले.
जिस साँचे में ढाल दो, वैसे ही ढल जाते हैं.
कुम्हार सरीखे थपकी दो, वैसे ही पक जाते हैं.
खेलखेल में हँसतेगाते, कभी रूठते, कभी मनाते.
बड़ो से जो संस्कार पाते, सहर्ष उन्हें वे अपनाते.
कहते हैं बच्चों में, भगवान का है रूप समाया.
फूलों सा नाजुक वो, पल-पल है मुस्काया.
बच्चे करते धमाचौकड़ी, शोरगुल, शरारत.
बच्चों के शोरगुल में भी, उर आनंद समाया.
हैं शर्मीले, नटखट अंदाज, बच्चे होते प्यारे.
इसीलिये चाचा नेहरू को, बच्चे लगते न्यारे.
फूलों का राजा गुलाब, चाचा नेहरू मन को भाए.
तभी तो अचकन में अपने, सुंदर गुलाब सजाए.
चाचा नेहरू को लगते हैं, बच्चे बहुत ही प्यारे.
बच्चे भी चाचा चाचा कह, नेहरू को पुकारे.
देश की भावी पीढ़ी, होते हैं ये ही बच्चे.
बच्चे भोले-भाले, होते हैं मन के सच्चे.
बच्चों के प्यारे नेहरू, पहले प्रधानमंत्री भारत के.
जनजन के हिय में समाये, लाल हैं ये भारत के.
*****
मुस्कुराता पुष्प
रचनाकार- परवीनबेबी दिवाकर
छोटी-छोटी क्यारियों में,
लगा एक सुंदर पौधा.
हरी-भरी पत्तियों से सजा,
एक सुंदर पौधा.
फिर आई उसमें,
छोटी-छोटी कलियाँ.
फिर एक सुबह देखा तो,
फूल बन गईं थी कलियाँ.
सुंदर रंग-बिरंगे फूलों से,
महक रहा था उपवन.
फूल मानो हँस रहे थे,
हवा के साथ झूम रहे थे.
मेरे कान में कुछ बोल रहे,
मुझ जैसे तुम खुश रहना.
क्योंकि मुस्कान ही तो है,
अपने जीवन का गहना.
*****
प्यारी नानी
रचनाकार- प्रिया देवांगन 'प्रियू'
नानी करती प्यार है, बैठ सभी के साथ.
खेल-खेलती है सदा, और पकड़ती हाथ.
और पकड़ती हाथ हमारे, हँसती गाती.
बच्चे के संग बच्ची बन कर, खुश हो जाती.
खेल-खेल में, हम सब की वह, बनती रानी.
बचपन की वो बात बताती प्यारी नानी.
टोली लेकर साथ में, जाते नानी गाँव.
बड़े मजे से खेलते, बैठ पेड़ की छाँव.
बैठ पेड़ की छाँव सभी जी, सुने कहानी.
पंच तन्त्र की बात बताती, प्यारी नानी.
चुन्नू मुन्नू खुश हो कर के, करे ठिठोली.
बच्चे-बच्चे, बैठा करते, बनकर टोली.
*****
सौर परिवार
रचनाकार- पेशवर यादव
सौर परिवार की कर लो पाठ,
ग्रहों की संख्या होती आठ.
बुध, शुक्र, पृथ्वीं, मंगल, बृहस्पति,
शनि अरुण वरुण ग्रह है सभी.
सूरज है एक तारा,
ऊष्मा प्रकाश का स्रोत है सारा.
ग्रहों में होती सबसे बुध गरम,
अरुण ग्रह है सबसे ठंडा परम.
पृथ्वी को कहते है ग्रह नीला,
ग्रहों में है सबसे शुक्र चमकीला.
सबसे बड़ा ग्रह वृहस्पति,
सभी ग्रहों में होती घूर्णन गति.
शनि वलयों से है घिरा,
इसलिए कहते है सुंदर ग्रह.
सुनो बच्चों एक और बात
जाने कैसी होती है दिन और रात.
पृथ्वी अपनी अक्ष में घुमा करती,
संग सूरज की परिक्रमा करती.
जहाँ अन्धेरा हो रात कहलाती,
शेष जगह हो दिन कहलाती.
*****
बचपन
रचनाकार- अनिता चन्द्राकर
दुनिया भर की दौड़ लगाते, बन जाते वे छुकछुक रेल.
धूल मिट्टी गलियाँ आँगन में, तरह तरह के खेले खेल.
दुनियादारी से क्या लेना, पल में झगड़ा पल में मेल.
निष्कपट निश्छल बचपन, रखते न मन में कोई मैल.
धूप हो या हो बारिश, वो तो है अपने मन का राजा.
कभी चलाते कागज की कश्ती, कभी बजाते बाजा.
पेड़ों पर चढ़ते, झूला झूलते, तोड़े फल मीठा ताजा.
उनकी टोली धूम मचाती, खोले ख़ुशियों का दरवाजा.
तारों में ढूँढे चोर सिपाही, चाँद में पा लेते वे बुढ़िया.
तितली के पीछे भागते, कभी चढ़ते छत की सीढ़ियाँ.
दादा दादी से सुने कहानी, माँ से सुने मधुर लोरियाँ.
पल भर में आती मीठी नींद, सपनों से भरी अँखियाँ.
*****
बचपन की वे बातें
रचनाकार- सुरेखा नवरत्न
बचपन की वे बातें ही तो, जिंदगी की अनमोल पूंजी है.
छुटपन में खेलते-खेलते, हमनें खुशी-खुशी जो सहेजीं हैं.
मित्रता निभाना, रिश्ते निभाना और सीखा फर्ज निभाना.
पढ़ना सीखा, लिखना सीखा, सीखा मिल बांटकर खाना.
नानी की कहानियाँ और दादी के हसीन मीठी जुबानिया.
महाभारत की कथा हो या, पंचतंत्र की मनोहर कहानियाँ.
सबसे सीखीं हमनें संघर्ष करते-करते आगे बढ़ने के तरीके.
नीति- नियम, शिष्टाचार और जिंदगी जीने के कई सलीके.
बचपन की सीखी बातें ही हमें, जीवन भर याद रह जाते हैं.
जब कभी हम निराश होते हैं, यही हमारे हौसला बढ़ाते हैं.
*****
जाड़ा आई
रचनाकार- जीवन चन्द्राकर 'लाल''
जाड़ा आई,जाड़ा आई.
तन मन में खूब ठिठुरन छाई.
जाड़ा आई.
घास पात में मोती चमके,
चारों तरफ़ धुंध है, छाई.
जाड़ा आई,जाड़ा आई.
जरकिन,स्वेटर निकल गया है,
निकला गया अब शाल, रजाई.
जाड़ा आई,जाड़ा आई.
ठंडे पानी से डर लागे,
नहाने पानी गरम कराई.
जाड़ा आई,जाड़ा आई.
ठंडे चीज नहीं खाएंगे,
लेंगे गरम गरम मिठाई.
जाड़ा आई,जाड़ा आई.
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गाय
रचनाकार- सीमांचल त्रिपाठी
गाय तो है एक सभ्य व पालतू पशु.
जिसे बना दिया है हमने फालतू पशु.
दो सिंग,चार पैर,दो आँखें हैं प्यारी.
यह दुनियाँ जहाँ में,लगती सबसे न्यारी.
मातृत्व हम पर है,सदैव वह लुटाती.
रुखा-सूखा खाकर,आशीष हमें देती.
गाय दूध सेवन से,शक्ति-बुद्धि है बढ़ती.
दूध से बनता घी, और दही भी बनती.
तभी तो गाय कहाती,सारे जग की मात.
दूजा पशु तुझसे ना,कोई जगत विख्यात.
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बन्दर भैया
रचनाकार- महेंद्र कुमार वर्मा
सूट पहन कर बन्दर भैया,
करते हैं जंगल में हैया.
गॉगल पहन, पहन के टोपा,
बन जाते हीरो फिल्मइया.
सब पर अपना रोब जमा के,
समझे सबको भोली गैया.
शेर देख के डर कर छुपते,
छुपे जैसे काली बिलैया.
उछलकूद करके हंगामा,
करते वन में ता-ता थैया.
सर्कस में करतब दिखलाते,
बन के मोटे लाल सिपैया.
जोकर बन के खूब हंसाते,
मन बहलाते बन्दर भैया.
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मेरी नानी
रचनाकार- महेंद्र कुमार वर्मा
मेरी प्यारी-प्यारी नानी,
लगती हो तुम खूब सुहानी.
कौतुक और अचम्भे वाली,
मुझे सुनाती रोज कहानी.
छुक-छुक वाली रेल दिलाती,
और दिलाती गुड़िया धानी.
नुक्कड़ वाली चाट खिलाती,
और खिलाती पूरी पानी.
छत पे संग मेरे वो खेले,
गेंद और बल्ला तूफानी.
मुझसे हरदम प्यार जताती,
सदा बोलती मीठी बानी.
मम्मी जब गुस्सा हो जाती,
मुझे बचाती मेरी नानी.
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छठ पूजा
रचनाकार- प्रिया देवांगन 'प्रियू'
व्रत करती है मिलकर नारी,
लगती हैं सब प्यारी-प्यारी.
सूर्य देव की पूजा करती,
आस्था श्रद्धा मन में भरती.
सूर्योदय नदियों पर जाती,
कलशा में वह जल को लाती.
फल मिष्ठान्न भोग लगाती,
छठ मैया की आशीष पाती.
सुंदर-सुंदर सूप सजाती,
गन्ने फल को भर कर लाती.
दीपदान नदियोंमें करती,
छठ मैया सब दुख को हरती.
सदा सुखी तुम रखना माता,
तुम ही हो जीवन की दाता.
मातायें सब आस लगाती,
रोग-दोष को दूर भगाती.
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छठ-पर्व
रचनाकार- आशा उमेश पान्डेय
शुभ छठ पर्व आया,
खुशियाँ है साथ लाया.
व्रतधारी व्रत करें,
महिमा अपार है.
नदियाँ के घाट पर,
करें पूजा मिलकर.
रवि की अराधना से,
जीवन साकार है.
निर्मल हृदय रख,
करते है जो भी व्रत.
इच्छा सारी पूरी होती,
माता ही आधार है.
जगत कल्याणी माता,
यही तो भाग्यविधाता.
देती वरदान सदा,
माँ पालनहार है.
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लौह पुरुष को सत सत नमन
रचनाकार- लोकेश्वरी कश्यप
जिसने सन् अटठारह सौ संतावन में जन्म लिया गुजरात में,
अपने अधिकारों के विरुद्ध आंदोलन किया शिक्षा काल में,
उन लौह पुरुष को मेरा शत-शत नमन.
जो प्रथम गृह मंत्रीनियुक्त हुए,नेहरू शासनकाल में,
सोमनाथ मंदिर पुनर्निर्माण शामिल है इनके ऐतिहासिक कार्य में,
उन लौह पुरुष को मेरा शत-शत नमन.
जिसने उल्लेखनीय कार्य किया भारत को आजाद कराने में,
भारत को जिसने विशाल और अखंड बनाने की कल्पना की अपने मन में,
उन लौह पुरुष को मेरा शत शत नमन.
संपूर्ण भारत को अखंड बनाया जिसने अपने अथक परिश्रम से,
अपने दूरदर्शिता और अटल निश्चय से लौह पुरुष कहलाए इस जहान में,
उन लौह पुरुष को मेरा शत-शत नमन.
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बरखा
रचनाकार- लोकेश्वरी कश्यप
रिमझिम-रिमझिम बरखाआती.
प्यासी धरती की प्यास बुझाती.
तन है श्याम, बिजली की हँसी.
कभी फुहारे बरसा, मन को हर्षाती.
गड़-गड़, गड़-गड़ बादल गरजता.
कड़-कड़, कड़-कड़ बिजली चमकती.
जब कभी यह क्रोधित होती.
अपना प्रलयंकारी रूप दिखाती.
हम सबको देती यह जीवनदान.
सूखी धरती को हरियाली से भर देती
सभी की गर्मी को हर लेती.
सर्दी बसंत को आने का न्योता देती.
छप-छप,छप-छप सारे बच्चे खेलें.
जब यह टिप-टिप पानी बरसाते.
इसे देख मेंढक टर्र-टर्र करते.
मोर खुशी से पंख फैलाकर नाचे.
पपीहा भी बोले पीहू-पीहू.
उमड़-घुमड़ कर जब बरखा आये.
सबके जीवन में खुशियां छाए.
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हस्तलिखित पुस्तिका लेखन
रचनाकार- कामिनी जोशी
हस्तलिखितपुस्तिका का नाम सुनकर, मन में आया विचार.
न जाने शिक्षा जगत में होंगे कितने नवाचार,
जब समझी इसके उपयोग को तो मन हो गया खुश,
अपने विचारों को बच्चे व्यक्त कर सकते है,
फिर वो हो कविता, कहानी, या पहेली बुझ.
अच्छी ये सोच है, अच्छे ये विचार,
नित दिन नए उमंग से बच्चे करेंगे विचार.
छपी किताबों को बहुत निहारे हैं,
अब खुद की किताब बनाएंगे,
रंग-बिरंगों तस्वीरों से रोज इसे सजायेंगे.
सब बच्चों के अंदर कौशल छिपा है.
हस्तलिखित पुस्तिका से साबित करते जाएंगे.
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त्योहारों का अनुभव
रचनाकार- लोकेश्वरी कश्यप
त्यौहारों के अनुभव कुछ खास होते हैं.
त्यौहार तो आकर चले जाते,बस अपने साथ होते हैं.
मिठाइयाँ तो सब होते वही पुराने हैं.
पर इनकी मिठास हर बार नई होती है.
हर तरफ छाई रहती है खुशी,
सबके दिलों में उत्साह होता है.
काम सब ठीक और समय पर हो,
मन में छाया टेंशन भी तो रहता है.
बच्चों की धमा-चौकड़ी देखते ही बनती है.
हर घर में सद्भावों की महफिल भी सजती है.
घर-आँगन में सुन्दर रंगोली बनाई जाती है.
जो उमंगों सहित रंगों से सजाई जाती है.
धनतेरस पे धनवंतरि,कुबेर पूजे जाते हैं.
नरकचौदस नरकासुर वध की याद दिलाती है.
अमावस पे गणेश,सरस्वती सहित श्री पूजी जाती.
अगले दिन हम करते गौ-गोवर्धन की पूजा.
फिर आता प्यारा भाई-दूज का अनोखा दिन.
भाई-बहन का प्रेम अनोखा देखें सारी दुनियाँ.
रस्मों रिवाजों सहित मिलकर करते हम सारी पूजा.
त्यौहारों की उमंग होती है,भाव मन में ना कोई दूजा.
उत्सव आकर चले जाते,उत्साह बना रहता है.
फिर यह उत्सव जल्दी आए अरमान सदा रहता है.
त्यौहारों की थकान कर दे एक तरफ तो,
त्यौहारों का हर अनुभव बड़ा अनमोल रहता है.
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आसमा को जमीन पर लाने वाला चाहिए
रचनाकार- लोकेश्वरी कश्यप
जो आसमां को जमीन पर लाना चाहे,
हौसला उनका बुलंद होना चाहिए.
तिनके की तरह बिखरे ना जिनके हौसले,
बाज की तरह ऊंची उड़ान होना चाहिए.
गिरे जितनी बार उतनी बार उठ कर फिर चले,
अनवरत लक्ष्य की ओर बढ़ने वाला चाहिए.
सितारेउनको गर्दिश में भी राह दिखाएंगे.
जिगर में काम का जुनून उनके होना चाहिए.
आसमां भी जमीन परएक रोज उतर आएगा.
बस आसमां को जमीन पर लाने वाला चाहिए.
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दीप मालिका
रचनाकार- लोकेश्वरी कश्यप
आ गई शुभ घड़ी, भाई और भार्या सहित घर आए मेरे श्री राम.
आओ री सखी मंगल गीत गाओ, प्रज्वलित करो सुंदर दीपमालिका.
चंदन, केसर, कपूर की सुगंधित इत्र का, करो छिड़काव गलियों में.
सुंदर रंगों की सजाओ रंगोली,
फिर उनमें सजाओ दीपमालिका.
पत्रों, पुष्पों की बनाओ सुंदर बंदनवार, मंदिरों में चढ़ाओ सुंदर ध्वजा, पताका.
हर घर में बँटने दो बतासे, बजने दो बधावे,
हर घर में सजाओ सुंदर दीपमालिका.
मन के अपने हराकर आसुरी भावना, हृदय में आह्वान करें श्री सीताराम का.
तिमिर युक्त रजनी को रोशनी से भर दे हम,
हर देहरी में जगमग जलाएं दीपमालिका.
रोली, केसर, अगर, कपूर, चंदन लिए,
आओ कनक थाल सजाएं सब मिलकर.
करें आरती गौरी गणेश सहित लक्ष्मीनारायण का,
इस दीपावली घी के जलाएं दीपमालिका.
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सुखद अनुभव
रचनाकार- लोकेश्वरी कश्यप
ऐ री सखी! आज इस नील गगन की देखो तो जरा सुंदरता.
कितनी मनभावन लग रही है बादलों की यह पंक्तियाँ.
कहीं-कहीं श्याम तो कहीं-कहीं श्वेत धवल.
यह मनाकर्षक मेघ मानों हो फूलों की लड़ियाँ.
कुछ खिली-खिली-सी, कुछ दिखे जरा अधखिली-सी.
जैसे हो राधा-कृष्ण के बाग की कलियाँ.
ए सखी री!मन का मयूरा मेरा आज बांवरा-सा हो रहा.
देखकर अचरज भरी बादलों की यह सुन्दर बगिया.
बचपन की,जवानी की,गांव और मोहल्ले की.
आज आ जाओ दूर-पास की मेरी सारी सखी सहेलियाँ.
स्वच्छंद व उन्मुक्त मन से जरा आज हम भी सखी री.
घूम आएं हम भी यह सुंदर बादलों की गलियाँ.
कहीं-कहीं गुच्छो में भी दिख रही है यह बदलियाँ.
मानो हो यह श्वेत पुष्पों से भरी-भरी डालियाँ.
यह शुभ धवल बादल कतारों में आज ऐसे सजे.
जैसे लगी हों आसमां में बादलों की सुन्दर क्यारियाँ.
ए री सखी! जरा देखो यह धवल चंचल बादल.
इस तरु में उलझ कर, कर रहा कैसी अठखेलियाँ.
हे सखी री! कितना मनमोहक, सुंदर दृश्य है यह.
दुआ करो इस सुखद अनुभव से आल्हादित हो आज सारी दुनिया.
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जीवन के अनुभव
रचनाकार- लोकेश्वरी कश्यप
कभी रोमांच से तन-मन हमारा पुलकित हो जाता.
कभी भावुक हो नयनों से अश्रुओं की झड़ी लगाता.
कभी रिश्तो की चौपाल सजाता, कभी भीड़ में अकेला रह जाता.
होते हैं कितने विचित्र ये जीवन के यह हमारे अनुभव.
यहां कभी खुशियों की बहार ही बहार है.
कभी बीच भंवर में फंसी नैया, बिना पतवार है.
जैसा हो जीवन का अनुभव जाना तो हर हाल में उस पार है.
होते हैं कितने विचित्र ये जीवन के हमारे अनुभव.
कभी जरा सी हवा चली तो बिखर जाता है सपनों का महल.
कभी नकारात्मक विचारों में फंसकर दिल जाता है दहल.
कभी कमर कसके आशाओं का दामन थाम करता है नई पहल.
होते हैं कितने विचित्र ये जीवन के हमारे अनुभव.
कभी कोई बड़ा सबक सिखाता, दिन में तारे हमें दिखाता.
मोह माया के मृग मरीचिका में फंसा, हमारा मन भरमाता.
कभी हंसाता, कभी रुलाता,जाने क्या-क्या ये खेल दिखाता.
होते हैं कितने विचित्र ये जीवन के हमारे अनुभव.
कभी आशा, कभी निराशा में जीवन उलझकर रह जाता.
कभी अतीत की यादों में, कभी भविष्य के ख्वाबों में खो जाता.
कभी सुनहरे अवसर को खोकर, हाथ मलता और पछताता.
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प्रेरणा
रचनाकार- सीमा यादव
1. सूरज और चन्द्रमा से कर्तव्य पथ के प्रति समर्पित होना सीखिए.
2. फलों से लदे हुए वृक्ष से विनम्रता का गुण सीखिए.
3. नदी, झरनों के जल की धारा से निरंतर आगे बढ़ते रहना सीखिए.
4. बेजुबान पशु-पक्षियों से मेहनत करना सीखिए.
5. फूलों से हँसते हुए परमार्थ का भाव सीखिए.
6. माँ धरती सी सरलता और सहनशीलता सीखिए.
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ट्रेन
रचनाकार- सीमांचल त्रिपाठी
छुक-छुक करती, स्टेशन आई ट्रेन.
इंजन संग डिब्बे, भी धर लाई ट्रेन.
ट्रेन के आते ही, चढते हैं भाग.
स्टेशन में मचे है, भागम-भाग.
कुन्नू-मुन्नू और, सीता-गीता भी.
दादा-दादी संग, चढ़ बैठे वे भी.
सीटी बजते ही, चल पड़ती ट्रेन.
सवारी संग माल, ले चलती है ट्रेन.
स्टेशन-स्टेशन रुकते है जाती.
सवारी उतारती, बिठा लेती जाती.
छुक छुक करती, चलती जाती ट्रेन.
अनेकता मे एकता का संदेश देती ट्रेन.
संदेश देती ट्रेन, संदेश देती ट्रेन.
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चींटी रानी
रचनाकार- सीमांचल त्रिपाठी
चींटी रानी, बड़ी सयानी.
मेहनत में, ना है परेशानी.
छोटी काया, बड़े काम.
करती हरदम, सुबह से शाम.
एकता की है, देती मिशाल.
मिलजुल है, वे मालामाल.
अपनों की वे, सदा साथ रहती.
हर कोई काम, मिलजुल करती.
जग में ना है, इनका सानी.
सदा जुटाती, वह दाना पानी.
देती सदा है, वह तो शिक्षा.
ना मांगे कोई, कभी भिक्षा.
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छठ पूजा
रचनाकार- सीमांचल त्रिपाठी
भारत माता तेरा, वैभवशाली रूप.
दिव्य सूर्य को माने, सदा देव स्वरूप.
सूर्य षष्ठी का पूजन, सत्यनिष्ठा का पर्व.
श्रद्धा विश्वास धर, मनाते हम यह पर्व.
पुरातन यह पर्व है, करते सब सम्मान.
एक घाट जा मिलते, राजा रंक समान.
मनभावन पूजन, दीर्घजीवी सभ्यता.
पवित्र पूजन की, पुरातन सभ्यता.
कार्तिकी छठ दे, मनोवांछित फल.
इस व्रत से होता, मंगलकारी कल.
आज दिन दर्शन, करें उदियमान सूर्य.
जल साधना अर्घ्य, देते अस्ताचल सूर्य.
संतान रक्षण की, पौराणिक मान्यता.
आज पुत्रेष्ठि यज्ञ, करते ले मानता.
सूर्य देव को अर्पण, बाँस-टोकरी और सूप.
अर्घ्य महिमा से हमें, ना लगे भूख और धूप.
खीर परसादी लेकर, करते उपवास आरंभ.
क्षीर-नीर अर्पण कर, करते पूजन का अंत.
आदित्य देव रक्षा करें, जगमग किरणें प्रसार.
बाल स्वरूप दर्शन पा, प्रगट करें हम आभार.
*****
बच्चे
रचनाकार- सीमा यादव
बच्चे घर की शान हैं,
माँ-बाप की जान हैं.
बच्चे सभी होते हैं बड़े ही गजब,
दिखाते हैं अजब अनोखे करतब.
बच्चे हरपल -हरदम रहते हैं खुश.
नहीं कभी करते हैं किसी को नाखुश.
बच्चे कल का होते हैं भविष्य.
उन्हें सद्मार्ग की शिक्षा देना अवश्य.
*****
रेल चली
रचनाकार- जयंती खमारी 'रूही'
रेल चली भई रेल चली,
छुक-छुक, छुक-छुक रेल चली.
पहुँची हलवाई की गली.
हम हैं मिठाई प्यारे-प्यारे,
नाम सुनाओ न्यारे-न्यारे.
लड्डू जलेबी दो थे भाई,
दोनों में फिर हुई लड़ाई.
देख-देख हम ललचाएँ,
मुँह बना कर हमें चिढ़ाएँ.
रेल चली भई रेल चली,
छुक-छुक, छुक-छुक रेल चली.
पहुँची हलवाई की गली.
चीनी दूध और मलाई,
सँग हो लें बनी मिठाई.
सात समंदर पार से आई,
रसगुल्ला गुलाब मेवा भाई.
जामुन के संग मिलकर गाते,
गुलाब जामुन हैं कहलाते.
रेल चली भाई रेल चली,
छुक-छुक, छुक-छुक रेल चली.
पहुँची हलवाई की गली.
*****
प्रकृति से सामंजस्य करें
रचनाकार- रामावतार ‘निश्छल’
वहाँ शिखर पर, यहाँ सतह पर,
सिंधु तल में जहाँ-तहाँ.
गगन, क्षितिज, सरिता, पोखर में,
मत पूछो है कहाँ-कहाँ.
वन, उपवन में, तुहिन, श्वेद में,
बादल, निर्झर, घर-बाहर.
बंद करें मन की मुट्ठी में,
मिल जाए वह जहाँ-जहाँ.
मन की आँखों से ही देखें,
ओ मन से ही बात करें.
चलो आज ढूँढे प्रकृति से,
कैसे हम संवाद करें?
उसके रंगों को सहलाएँ,
उलझें उसके ढंगों में.
प्रकृति की प्रकृति को समझें,
उससे सामंजस्य करें.
मरुस्थली में, सिंधु किनारे,
रेत बिछी है यहाँ-वहाँ.
अँजलि में भर कर बाँधें तो,
जीवन रेत टिकी कहाँ?
जीवन की क्षणभंगुरी में,
प्रकृति तो अमरत्व भरे.
जन्म उसी से, जीवन उससे,
प्रकृति है सर्वत्र यहाँ.
बंद करें मन की मुट्ठी में,
मिल जाए वह जहाँ-जहाँ.
*****
ठंडी आई
रचनाकार- जीवन चन्द्राकर 'लाल''
ठंडी आई ठंडी आई,
तन-मन में ठिठुरन छाई.
ठंडी आई.
घास पात में मोती चमके,
चारों तरफ़ धुंध है छाई.
ठंडी आई.
जरकिन, स्वेटर निकल गया है,
निकला गई अब शाल-रजाई.
ठंडी आई.
ठंडे पानी से डर लगता,
आग तापें लोग-लुगाई
ठंडी आई.
ठंडी चीज नहीं खाएँगे,
लेंगे गर्मागर्म मिठाई.
ठंडी आई.
*****