कहानियाँ

पंचतंत्र की कथाएँ- कौए और उल्लू

panchtantra

एक बार वन में हंस, मोर, चातक, शुक, मैना, बगुला, गौरैया, कबूतर आदि सभी पक्षियों की सभा हुई.सभा में वन्य जीवन में होने वाली कठिनाइयों पर चर्चा हुई.सबका विचार था कि उनके राजा वैनतेय गरुड़ अब अपने दायित्व का निर्वाह नहीं कर पा रहे हैं.उनका जीवन अब भगवान वासुदेव की भक्ति में अर्पित है.यद्यपि वे हम सभी से अधिक शक्तिशाली, यशश्वी और समर्थ हैं फिर भी हमारी सहायता के लिए उपस्थित नहीं हो पाते.व्याधों से अपनी रक्षा हमें स्वयं करनी पड़ती है.हमें अपने लिए नए राजा का चुनाव कर लेना चाहिए.

हंस जो सभी पक्षियों में बुद्धिमान था उसने कहा,

“ खगराज वैनतेय को उनके गुणों के आधार पर राजा माना गया है .हममें से कोई भी उनके जैसा नहीं है.और जहाँ तक अपनी रक्षा का प्रश्न है वह तो हमें स्वयं सदा ही सचेत और सावधान रहकर करनी ही होगी, चाहे राजा कोई भी क्यों न हो।'

किंतु हँस के इस कथन को सभी ने अनसुना कर दिया.अंत में सहमति से सभी ने दिवान्ध उल्लू को अपना राजा चुनना निश्चित कर लिया.दिवान्ध को अपना राजा चुनने के पीछे उनका तर्क था कि उसके सुनने की शक्ति बड़ी तेज है, वह रात्रि में देख सकता है.यदि कोई व्याध रात्रि में भी आता है तो दिवान्ध हम पक्षियों को सचेत तो कर सकता है.

दिवान्ध के राज्याभिषेक की तैयारियाँ आरंभ हो गईं.आम के विशाल वृक्ष पर लताओं, पत्रों और पुष्पों से भव्य आसन निर्मित किया गया.रक्तचंचु तोते ने मंत्रोच्चार की तैयारियाँ कर लीं.मोर, चातक, और अन्य पक्षियों ने नृत्य आरम्भ कर दिया.कोयल और पपीहे मधुर गान करने लगे.पूरे वन में उत्सव का वातावरण बन गया.

ऐसे में एक कौआ एकाक्ष कहीं से उड़ता हुआ उस वन में आया.वन में चल रहे उत्सव को देख उसके मन में बड़ा कौतूहल हुआ.वह उस स्थान पर चला आया जहाँ पक्षियों का समूह आनंदमग्न हो अपने काम में संलग्न था.एकाक्ष की उपस्थिति से पक्षियों को आश्चर्य हुआ.बिना बुलाए यह अतिथि यहाँ कैसे आ गया.फिर भी सब ने सुन रखा था कि कौआ बुद्धिमान और कूटनीति में निपुण है.उसके साथ मंत्रणा करना उचित है.यह विचार कर कुछ पक्षी उसके चारों ओर एकत्र हो गए.

एकाक्ष ने पूछा 'यह कैसा उत्सव है?' तब पक्षियों ने सभा में लिए गए निर्णय से उसे अवगत कराया.उलूक को पक्षियों का राजा बनाए जाने की बात सुनकर वह हँस पड़ा और बोला 'यह सर्वथा अनुचित है कि एक राजा के होते हुए किसी और को राजा बनाया जाए.ऐसा होने पर अनेक विसंगतियाँ उत्पन्न होंगी.वन में अलग-अलग समूह बन जाएंगे.जिससे वैमनस्य बढ़ेगा आपस में सब लड़ने लग जाएँगे।जीवन की शांति समाप्त हो जाएगी.और वैसे भी कोई उलूक तो पक्षियों का राजा बनने के लिए किसी प्रकार से भी उपयुक्त नहीं है.स्वभाव से ही क्रूर, कटुभाषी और दुष्ट जो रात्रि में चुपचाप सोते हुए प्राणियों पर घात करे, दिन में जो देख भी न सके.ऐसे राजा से आप सब विचार विमर्श भी कैसे करेंगे.ऐसे अप्रियदर्शी,कुरूप और भयभीत करने वाले पक्षी को आप लोग अपना राजा किस आधार पर चुनना चाहते हैं? मुझे तो आप सब की बुद्धि पर करुणा आती है।'

एकाक्ष के तर्क सुनकर वहाँ उपस्थित सभी पक्षियों को अपना निर्णय अनुचित लगने लगा.वे आपस में धीमे स्वरों में यह बातें भी करने लगे, 'सचमुच दिवांध भला हमारी क्या सहायता कर पाएगा?'

धीरे-धीरे सभी पक्षी वहाँ से एक-एक कर चले गए.राजमुकुट पहनने की अभिलाषा लिए दिवांध अपनी मित्र कृकालिका के साथ शेष रह गया.उसने कृकालिका से पूछा, 'एकाएक यह परिवर्तन कैसे हुआ।' तब कृकालिका ने उसे एकाक्ष का वृत्तांत सुना दिया।

यह सुनते ही क्रोधित हो दिवांध ने एकाक्ष को सम्बोधित कर कहा 'अरे दुष्ट कुरुप कौए! मैंने तेरा क्या अहित किया था जो तूने मेरे साथ यह अन्याय किया .स्मरण रख तेरे इस कृत्य का परिणाम भविष्य में तेरी पीढ़ियां भोगेंगी.उन्हें मेरी शत्रुता अनवरत झेलनी होगी।'

एकाक्ष सोचने लगा, 'ओह! मैंने किसी दूसरे के कार्य में अकारण हस्तक्षेप करके अच्छा नहीं किया।'

पर अब पश्चाताप के अतिरिक्त कुछ भी न किया जा सकता था.कहते हैं तभी से कौए और उल्लुओं की शत्रुता चली आ रही है।

समस्या का हल

टीकेश्वर सिन्हा

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अंतर्संकुल स्तरीय शालेय क्रीडा प्रतियोगिता आयोजित थी. शिक्षक व बच्चे मैदान में व्यस्त थे. सभी बड़े खुश थे. शिक्षक अपने उत्तरदायित्व के प्रति सजग थे और बच्चे अपने खेल के प्रति. मैदान के एक किनारे मंच बना था. मंच के पास ही एक बुढ़िया खाई-खजानी का पसरा लगा कर बैठी थी. निर्धारित समय पर प्रतियोगिता शुरू हुई.

खेलते हुए बच्चों को खूब मजा आ रहा था, साथ ही वे खाई-खजानी का भी आनंद उठा रहे थे. मंच के पास बैठी बुढ़िया के पसरे के पास बच्चे कुछ भी खरीदने नहीं आ रहे थे. चुपचाप बैठी थी बेचारी. अपनी ओर बच्चों को आते देख वह खुश हो जाती पर बच्चों द्वारा कुछ नहीं खरीदने पर उदास हो जाती. क्या करती, मुफ्त में तो नहीं बाँट सकती थी. वह बहुत गरीब थी. घर चलाने का जिम्मा था उस पर. तभी एक बालक बुढ़िया के पसरा के पास आया. फलेस नाम था उसका. कक्षा चौथी में पढ़ता था. उसने पसरे पर रखे खउवा, चना-मुर्रा, मिक्सचर, नड्डा, चाकलेट्स व लालीपाॅप पर नजर दौड़ाई. इमली की खट्टी-मीठी लालीपॉप देख कर उसका मन ललचा गया. उसका स्वाद वह पहले से जानता था. वह खरीदना तो चाहता था पर जेब में एक पैसा भी नहीं था. बुढ़िया ने फलेस से कहा- 'काय लेबे बाबू. देखा, के पइसा धरे हस.' फलेस बिना कुछ बोले मन मसोस कर जेब में हाथ डालते हुए वहाँ से चला गया.

प्रतियोगिता में व्यस्त शिक्षक प्रभात ठाकुर जी को बुढ़िया के खउवा-पसरा के पास बालक फलेस का बार-बार आने-जाने का माजरा समझ आ गया. बुढ़िया के पास गये. बोले - 'कतेक खाई-खजानी बेच डारेस दाई...तोर दुकान बने नइ चलत हे का?

'हाव गुरुजी, काय करबे एक पइसा के नइ बेचे हँव. कोन्हों नइ आवत हे तुँहर लइका मन हा. कुछुच नइ बेचाय हे गुरुजी, बड़ा समसिया हे, बोहनी तक नइ होय हे.' बुढ़िया ने कहा. फिर ठाकुर जी ने देखा कि पसरे के पास फलेस आकर खड़ा हो गया. उन्होंने फलेस से पूछा- 'का चाहिए जी फलेस?'

'कुछू नहीं जी.' फलेस ने झिझकते हुए कहा.

'बताओ न...कुछ खाओगे क्या? चलो मैं खिलाता हूँ तुम्हें.' ठाकुर जी ने फलेस की पीठ पर हाथ फेरते हुए कहा.

'वो लालीपॉप खाहूँ जी.' फलेस ने मासूमियत से कहा.

'तो तुम क्यों नहीं खरीद रहे हो?' ठाकुर जी पूछ बैठे.

'पइसा नइ हे.' फलेस का जवाब आया.

अब ठाकुर जी को बुढ़िया व फलेस दोनों की समस्या समझ आ गयी. तुरन्त उन्होंने चना-मुर्रा, मिक्सचर, नड्डा, चाकलेट्स व लालीपॉप का एक-एक पैकेट खरीदा; और सबसे पहले बालक फलेस को दिया. फिर सबको बच्चों में बाँट दिया.

ठाकुर जी ने उस खजानी वाली बुढ़िया व बालक फलेस की समस्या का हल कर दिया था.

राम भरोसे

रचनाकार- अभिषेक शुक्ला

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बचपन से हम कई बातें, मुहावरे और शब्द सुनते और बोलते हुये बड़े होते हैं. बहुत समय बाद कोई ऐसी बात हमारे सामने आ जाती है जिसे कालांतर मे हम भूल चुके होते हैं.

ऐसा ही अभी मेरे साथ हुआ, जब एक दिन मैने समाचार पत्र मे हैडलाईन पढ़ी कि 'स्वास्थ्य सेवाएँ राम भरोसे.' मुझे अचानक अपने बचपन के दिन याद आ गए. जब मैं जूनियर कक्षा मे अध्ययनरत था, तब परीक्षाओं के उपरांत हम सब साथी किसी विषय के प्रश्न पत्र के बारे मे बात करते तो एक-दूसरे से कहते थे कि पेपर तो कर आये अब अच्छे अंक मिलना और पास होना 'राम भरोसे' ही है.

आज समाचार पत्र मे पढ़ने के बाद यह 'राम भरोसे' की बात पुन: मानस पटल पर जीवन्त हो गयी.

'राम भरोसे' का शायद यह अर्थ है कि आपके पास जो है आप उससे संतुष्ट रहो. जब आप उससे ज्यादा किसी चीज़,मेहनत या प्रयास की आवश्कता नही समझते. जब यह भावना आ जाये कि जो होगा ठीक होगा या जो भी होगा देखा जायेगा. रामभरोसे को परिणामों के प्रति निडर, लापरवाह या विश्वास के रूप मे भी परिभाषित किया जा सकता है.

जब राम भरोसे के साथ विश्वास जुड़ जाता है तो यह बात साधारण न होकर अध्यात्मिक रूप ग्रहण कर लेती है. तब राम भरोसे का तात्पर्य प्रभू राम के भरोसे हो जाता है. जिस कार्य मे श्रीराम का सहारा हो, वह कार्य निश्चित ही सफल होता है. लेकिन ऐसा नही है कि आप हाथ पर हाथ रखकर बैठ जाएँ और कहें कि अब प्रभु ही जानें. यह संसार कर्म प्रधान है. इसलिये हर व्यक्ति को अपने कर्त्तव्य का पालन पूर्ण मनोयोग से करना चाहिए.

गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है,

'कर्म प्रधान विश्व रचि राखा.
जो जस करहि सो तस फल चाखा..'

इसलिये व्यक्ति,संस्था या सरकार, सबको यह बात समझ लेनी चाहिए कि अपने दायित्व का निर्वहन पूर्ण निष्ठा से करें साथ ही भविष्य और आपातकाल हेतु उचित प्रबंध भी करें.अपनी कमियों और बुराईयों को छिपाने के लिये राम भरोसे की चादर ओढ़ लेना पूर्णरूपेण अनुचित है.

जीवन की प्रारम्भिक शिक्षा का शुभारंभ प्रभु श्रीराम की बाल लीलाओं को सुनकर और देखकर होता है. विचित्र किन्तु सत्य है कि एक साधारण व्यक्ति का पूरा जीवन राम भरोसे ही व्यतीत होता है और अन्त मे 'राम नाम सत्य है' के साथ जीवन लीला समाप्त होती है. इसी नाम के साथ वैतरणी को पार कर मोक्ष की प्राप्ति होती है.

इसलिये यह बात समझ लेनी चाहिये कि राम भरोसे शब्द अपने आप मे पूर्ण और सार्थक है, इसका अनुचित प्रयोग सिर्फ़ लोगो की संकीर्ण मानसिकता व अज्ञानता को दर्शाता है. पत्रकारिता और लेखन क्षेत्र मे शब्दों के चयन और उनके उचित प्रयोग पर विशेष ध्यान देना चाहिये अन्यथा सारी व्यवस्था राम भरोसे ही हो जाती है.

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