लेख

हमारे पौराणिक पात्र-माता शबरी

माता शबरी का जिक्र आपने रामायण में सुना ही होगा आइए आज उनके बारे में विस्तार से जानते हैं.

शबरी का असली नाम श्रमणा था. वह भील समुदाय की शबर जाति से संबंध रखती थीं. इसी कारण कालांतर में उनका नाम शबरी पड़ा.

उनके पिता भीलों के मुखिया थे. श्रमणा का विवाह एक भील कुमार से तय हुआ था, विवाह से पहले कई सौ पशु बलि के लिए लाए गए. जिन्हें देख श्रमणा बड़ी आहत हुई.... यह कैसी परंपरा? इतने सारे निर्दोष जानवरों की हत्या की जाएगी... इस कारण शबरी विवाह से एक दिन पूर्व ही घर छोड़ कर चली गई और दंडकारण्य वन पहुँच गई.

दंडकारण्य में मतंग ऋषि तपस्या किया करते थे, श्रमणा उनकी सेवा करना चाहती थी पर वह भील जाति की थीं. इसलिए उन्हें सेवा का अवसर न मिलने का अंदेशा था. शबरी सुबह-सुबह ऋषियों के उठने से पहले उनके आश्रम से नदी तक का रास्ता साफ़ कर देती थीं, काँटे चुनकर रास्ते में साफ बालू बिछा देती थीं.यह सब वे ऐसे करती थीं कि किसी को पता भी नहीं चलता था.

एक दिन ऋषि श्रेष्ठ को शबरी दिख गई, उनके सेवाभाव से अति प्रसन्न होकर ॠषि ने शबरी को अपने आश्रम में शरण दे दी. जब ऋषि का अंत समय आया तो उन्होंने शबरी से कहा कि वे अपने आश्रम में ही भगवान राम की प्रतीक्षा करें, वे उनसे मिलने जरूर आएँगे.

मतंग ऋषि की मृत्यु के पश्चात् शबरी का समय भगवान राम की प्रतीक्षा में बीतने लगा.वे अपने आश्रम को एकदम स्वच्छ रखती थीं. रोज राम के लिए मीठे बेर तोड़कर लाती थीं. बेर में कीड़े न हों और वह खट्टा न हो इस लिए वह एक-एक बेर चखकर तोड़ती थी. ऐसा करते-करते कई साल बीत गए.

एक दिन शबरी को पता चला कि दो सुंदर युवक उन्हें ढूँढ रहे हैं, वे समझ गईं कि उनके प्रभु राम आ गए हैं.... उस समय तक वह वृद्ध हो चली थीं, लेकिन राम के आने की खबर सुनते ही उसमें स्फूर्ति आ गई और वह भागती हुई राम के पास पहुँचीं और उन्हें अपने साथ घर लेकर आई और उनके पाँव धोकर बिठाया.

अपने तोड़े हुए मीठे बेर राम को दिए राम ने बड़े प्रेम से वे बेर खाए और लक्ष्मण को भी बेर खाने को कहा. लक्ष्मण को जूठे बेर खाने में संकोच हो रहा था.राम का मन रखने के लिए उन्होंने बेर उठा तो लिए लेकिन खाए नहीं और बग़ल में फेंक दिए.मान्यता है कि राम-रावण युद्ध में जब शक्ति बाण का प्रयोग किया गया तो लक्ष्मण मूर्छित हो गए थें, तब इन्हीं बेर की बनी हुई संजीवनी बूटी उनके काम आयी थी.

माता शबरी ने पशुओं के जीवन को बचाने के लिए अपने सामाजिक जीवन का त्याग किया और सारा जीवन सेवा-भाव के साथ व्यतीत किया.परिणाम स्वरुप भगवान श्री राम ने न सिर्फ़ उन्हें दर्शन दिए अपितु माता कह कर उन्हें पुकारा. उनके जूठे बेर खा के उनकी श्रद्धा को स्वीकारा. आज भी कहीं भी राम कथा पढ़ी जाती है तो माता शबरी को श्रद्धा भक्ति के साथ याद किया जाता है.

माताओं के साथ एक कदम

रचनाकार-श्वेता तिवारी

बेलगहना आदिवासी बाहुल्य वनांचल क्षेत्र है. वहाँ के शासकीय प्राथमिक विद्यालय में मैं पदस्थ हूँ. आज भी यहाँ शिक्षा के प्रति जागरूकता की कमी है. अध्यापन कार्य में विद्यार्थियों एवं पालकों के सहयोग के साथ में अपने विद्यालय में काम कर रही हूँ. विद्यालय कार्य के पूर्व में या विद्यालय कार्य के पश्चात मैं लगातार पालकों से संपर्क करती रही हूँ, विशेषकर माताओं के साथ. बच्चे विद्यालय में तो मन लगाकर पढ़ते हैं और कक्षा कार्य भी करके दिखाते हैं. समस्या तब आने लगी जब वही बच्चे गृह कार्य करके नहीं लाते. तब मैंने बच्चों के घर जाकर संपर्क करना आरंभ किया. पता चला कि उन्हें घर में पढ़ाई का माहौल नहीं मिल पाता है या कुछ बच्चों को गृह कार्य समझ में नहीं आता है और पालक उनका सहयोग नहीं कर पाते हैं क्योंकि वे स्वयं नहीं समझ पाते कि उन्हें बच्चों को क्या और कैसे पढ़ाना है. मैंने बच्चों की समस्या समझी. चार पाँच माताओं के समूह से बारी बारी संपर्क करने लगी. माताओं को घर में बच्चों को पढ़ाने के तरीके समझाने लगी. माताओं को विद्यालय से जोड़ने लगी. माताएँ धीरे-धीरे बच्चों की पढ़ाई के प्रति जागरूक हो रही हैं. अब की स्थिति में कुछ माताएँ बच्चों की समस्याओं से फोन पर मुझे अवगत कराती हैं. मैं उन्हें हल करने का हर संभव प्रयास करती हूँ. मोहल्ला कक्षा में बैठकर उनके साथ चर्चा करती हूँ. इसका बड़ा सकारात्मक परिणाम मुझे प्राप्त हो रहा है.शत प्रतिशत बच्चे पढ़ाई से जुड़ रहे हैं. मेरे विद्यालय की कक्षा पहली एवं दूसरी के बच्चे अँग्रेजी हिंदी शब्द पढ़ना सीख गए हैं और कई बच्चे पुस्तक पढ़ना आरंभ कर चुके हैं. यह प्रयास जारी है. माताओं का भरपूर सहयोग मिल रहा है. कोरोना काल के समय मोहल्ला क्लास में बच्चों के साथ माताएँ भी जुड़ गई हैं और बैठकर पढ़ती समझती हैं जिससे घर में भी अपने बच्चों के साथ साथ आस पड़ोस के बच्चों को भी पढ़ा रही हैं. कहानी, भजन, जनउला खेल के माध्यम से कक्षा संचालित कर रही हूँ. माताएँ बेझिझक विद्यालय की ओर कदम बढ़ा रही हैं और जो भी समस्या आती है उसपर मिलकर चर्चा करती हैं और बच्चों की पढ़ाई के प्रति जागरूक होकर बच्चों को प्रतिदिन विद्यालय (मोहल्ला क्लास) की ओर भेज रही हैं.

हमारे प्रेरणास्रोत-रासबिहारी बोस

आओ बच्चो, आज हम चलते हैं अतीत के उस खंड में जब भारत की धरती पर चारों ओर लोगों में ब्रिटिश सरकार के खिलाफ गुस्सा चरम सीमा पर था. यह साल था १९०५ का जब ब्रिटिश सरकार के वायसराय लार्ड कर्जन ने राजनीतिक उद्देश्य की पूर्ति के लिए बंगाल राज्य का विभाजन कर उसे दो हिस्सों में बाँटने का निर्णय लिया. बंगाल क्षेत्रफल और जनसँख्या दोनों ही दृष्टि से बहुत बड़ा राज्य था. पूर्वी बंगाल के कुछ प्रांतों को (जहाँ मुस्लिम आबादी ज्यादा थी) ब्रिटिश सरकार ने असम में शामिल करने का निर्णय लिया. सरकार के इस फैसले से पूरे बंगाल में गुस्से की लहर थी.

इसी समय बंगाल की धरती पर एक नौजवान क्रांतिकारी बड़ा हो रहा था जिनका नाम था रासबिहारी बोस. उनके दिल में भारत की आजादी का जूनून सवार था.

ब्रिटिश सरकार के इस फैसले से नाराज रासबिहारी बोस ने युगांतर नाम की एक संस्था का गठन किया. इस संस्था में बंगाल के मशहूर क्रन्तिकारी जतिन मुखर्जी, खुदीराम बोस, प्रफुल्ल चाकी जैसे कई जवान शामिल हुए.

रासबिहारी बोस ने दिल्ली में तत्कालीन वायसराय लार्ड हार्डिंग पर बम फेंकने की योजना बनाई. २३ दिसम्बर १९१२ को जब दिल्ली में लार्ड हार्डिंग की सवारी चाँदनी चौक से निकाली जा रही थी तभी रासबिहारी के एक साथी बसंत कुमार विश्वास ने हार्डिंग की बग्घी पर बम फेंक दिया. हार्डिंग तो बच गया पर इस धमाके में उसके एक सेवक की मौत हो गयी. बसंत पकड़े गए. पुलिस से बचने के लिए रासबिहारी बोस रातों-रात रेलगाड़ी से देहरादून चले गए. अंग्रेजी प्रशासन को उन पर शक न हो इसलिए अगले दिन कार्यालय में इस तरह कार्य करने लगे मानो कुछ हुआ ही न हो. वे देहरादून के वन अनुसन्धान केद्र में क्लर्क के पद पर कार्यरत थे. उस पद पर रहते हुए क्रन्तिकारी गतिविधियों को संचालित भी करते थे जिससे अंग्रेजी प्रशासन को उन पर शक न हो.

वायसराय के क़त्ल की योजना तो नाकाम हो गयी लेकिन इस घटना से ब्रिटिश शासन पूरी तरह हिल गया. अँग्रेज़ समझ गए थे कि अब भारत की जनता को ज्यादा दिनों तक गुमराह नहीं किया जा सकता.

बच्चो! यह प्रथम विश्वयुद्ध का समय था. इस युद्ध में पहली बार बड़े पैमाने पर अस्त्र-शस्त्रों का प्रयोग किया गया. युद्ध में एक ओर जर्मनी, आस्ट्रिया, हंगरी तथा दूसरी ओर रूस एवं फ्रांस के सैनिक थे. इस युद्ध में बहुत बड़ी संख्या में मानव बल का भी प्रयोग हुआ. इस विश्वयुद्ध के दौरान ब्रिटिश सरकार फ्रांस और रूस का सहयोग कर रही थी. इसलिए ब्रिटिश सेना में शामिल भारतीय सैनिक बड़ी संख्या में इस विश्वयुद्ध में शामिल थे.

देश में ब्रिटिश सरकार के सैनिकों की कमी को देखते हुए रासबिहारी बोस ने सोचा कि ब्रिटिश सरकार को इस समय हराना आसान होगा. उन्होंने क्रांतिकारियों के साथ मिलकर सशस्त्र क्रांति की योजना बनाई. देश में ब्रिटिश शासन को समाप्त करने का यह पहला व्यापक और विशाल क्रन्तिकारी प्रयत्न था. दुर्भाग्य से यह सफल नहीं हो सका. परिणाम विपरीत हुआ. कई क्रांतिकारियों को गिरफ्तार कर लिया गया.

इस घटना के बाद ब्रिटिस सरकार की वांटेड लिस्ट में रासबिहारी का नाम सबसे ऊपर आ गया. उनके खिलाफ गिरफ़्तारी वारंट जारी कर दिया गया. गिरफ्तारी से बचे रहने पर ही संघर्ष जारी रखा जा सकता था. इसलिए जून १९१५ में गुप्त नाम से रासबिहारी जापान पहुँच गए. वहां पहुँचकर वे जापानी क्रांतिकारी मित्रों के साथ भारत की आजादी के लिए कार्य करने लगे..

रासबिहारी बोस ने सन १९१६ में जापान में ही एक रेस्तरां के मालिक और एशियाई समर्थक दंपति सोमा एजू और सोमा कोत्सुकी की बेटी से विवाह कर लिया. १९२३ में बोस को जापान की नागरिकता मिल गयी. उन्होंने जापानी अधिकारियों को भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन और राष्ट्रवादियों के पक्ष में खड़ा करने और भारत की आजादी की लड़ाई में उनका सक्रिय समर्थन दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. जापान में उन्होंने अंग्रेजी अध्यापन, लेखन और पत्रकारिता का कार्य किया. उन्होंने रामायण का अनुवाद भी जापानी भाषा में किया.

सन १९४२ में जापान में मलय और बर्मा के साथ युद्ध हो रहे थे. उसी दौरान कई भारतीयों को युद्धबंदी के रूप में पकड़ा गया था. इन युद्धबंदियों को सैनिक बनने के लिए प्रोत्साहित किया गया. रासबिहारी ने १९४२ में इंडियन नेशनल लीग की स्थापना की. आजादी के आन्दोलन को आगे सक्रिय रखने के लिए बाद में रासबिहारी ने सुभाष चन्द्र बोस को इसका अध्यक्ष बनाया.

बच्चो! रासबिहारीबोस एक प्रख्यात क्रान्तिकारी और आजाद हिन्द फ़ौज के संस्थापक थे. उन्होंने देश की आजादी का सपना देखा पर भारत की आजादी से पहले ही २१ जनवरी १९४५ को जापान के टोक्यो शहर में उनका निधन हो गया. इस तरह वे पहले भारत में रहकर फिर बाद में विदेश से देश की आजादी के लिए लड़ते रहे. उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन भारत को आजादी दिलाने के प्रयासों में लगा दिया. भारत के स्वाधीनता आन्दोलन के इतिहास में इनका नाम सदैव स्वर्णाक्षरों में अंकित रहेगा.

सफलता की कहानी-सकारात्मक परिवर्तन

शिक्षिका का नाम-बृजभान टंडन

विद्यालय का नाम -कस्तूरबा गाँधी बालिका आवासीय विद्यालय

जीवन कौशल की शिक्षा न केवल बालिकाओं के लिए बल्कि उन सभी लोगों के लिए आवश्यक है जो जीवन जीने की कला सीखना चाहते हैं. यह हमारे दैनिक जीवन से जुड़ा हुआ है. इसलिए बालिकाओं के साथ सत्र संचालित करने से पहले हमें यह जानना आवश्यक है कि यह कितना महत्वपूर्ण है, तभी यह सत्र बालिकाओं के लिए फलदाई होगा.क्योंकि मानव स्वयं के अनुभवों से ज्यादा अच्छी तरह सीख पता है.

मैं बृजभान टंडन के.जी.बी.वी. कोडगार (गौरेला पेंड्रा मारवाही) आवासीय विद्यालय की अधीक्षिका हूँ. मैं आप सभी के साथ अपना अनुभव साझा करना चाहती हूँ कि किस प्रकार जीवन कौशल के प्रशिक्षण ने मेरी सोच और जीवन को नया मोड़ दिया हैं. कहते हैं न कि कहीं पहुँचने के लिए कहीं से निकलना जरुरी हैं.पहले मेरी मानसिकता थी कि जिंदगी ऐसी ही है और हमें इसी तरह जीना हैं. एक महिला होने के नाते मुझे महिलाओं के सारे काम आने चाहिए. परन्तु ये काम मुझे आगे बढ़ने से रोकते थे क्योंकि घर के सारे कामों की जिम्मेदारी मुझपर होती. मेरे अंदर काफी चिड़चिड़ापन आने लगा और धीरे-धीरे यह चिड़चिड़ापन मेरी आदत बन गया. क्योंकि कोई मुझे काम का महत्व नहीं समझाता बल्कि यह कहा जाता कि मैं लड़की हूँ इसलिए मुझे ये काम करने होंगे.यह सुनकर मुझे काफी गुस्सा आता और यह गुस्सा मुझे और मेरे काम को बुरी तरह प्रभावित करता.

जब मैने जीवन कौशल का पहला प्रशिक्षण प्राप्त किया तो मुझे पता चला कि अपने गुस्से व अपनी भावनाओं को कैसे नियंत्रित किया जाता है व अपनी बात कैसे दृढ़तापूर्वक लोगों के सामने कही जाती है. संवाद करने का सही तरीका मैंने जीवन कौशल के प्रशिक्षण से सीखा है. खास बात तो यह कि मुझे जेंडर के बारे में जानने का अवसर मिला और मेरी यह समझ विकसित हुई कि जिन बातों ने मुझे परेशान किया है उन बातों की बुनियाद ही हम हैं. यदि हम बिना समझे जेंडर आधारित सोच को बढ़ावा देते हैं तो यह हमारे साथ-साथ आने वाली पीढ़ी को भी प्रभावित करेगा. हमें इस बारे में बात करनी चाहिए और लोगों को सोचने के लिए प्रेरित करना चाहिए. जेंडर आधारित सोच व्यक्ति की पहचान व खूबियों को ख़त्म करने में कोई कसर नहीं छोड़ती है. मैंने जीवन कौशल की मदद से यह समझ हासिल की, कि कोई काम या वस्तु लड़कों या लड़कियों के लिए नहीं है वह उनकी इच्छा और आवश्यकता के अनुसार बदलती है.

यह बताते हुए मुझे गर्व हो रहा है कि मैं अपनी संस्था की सारी बालिकाओं वह सारे मौके देती हूँ जिससे वे अपने लिए बेहतर कल का विकास कर सकें. अपनी इच्छा और दृढ़-विश्वास से अपना लक्ष्य हासिल करें.

अपनी सोच और व्यवहार में इस सकारात्मक परिवर्तन का श्रेय मैं 'जीवन कौशल सत्र' को देना चाहूँगी.

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