लेख

हमारे प्रेरणास्रोत- देशबंधु चित्तरंजन दास

हेलो बच्चो,

आज हम बात करेंगे एक ऐसे एक व्यक्तित्व की जो एक महान स्वतंत्रता सेनानी,राजनीतिज्ञ, कवि व देश के जाने माने वकील थे.उनका नाम चित्तरंजन दास है,जिनको लोग सम्मानपूर्वक देशबंधु भी बुलाते थे.उनका जन्म ५ नवंबर १८७० को कोलकाता में हुआ था.

उनके पिता भुवन मोहन दास भी कोलकाता उच्च न्यायालय में एक जाने माने वकील थे. शायद इस पारिवारिक पृष्ठभूमि के कारण ही वे बी ए की डिग्री पूर्ण करने के बाद वकालत की पढ़ाई करने के लिए इंग्लैंड चले गए.दो साल बाद1892में बैरिस्टर बनकर भारत लौट आए.

इसके तुरंत बाद उन्होंने कलकत्ता हाईकोर्ट में वकालत शुरू की. उन्होंने कई केस लड़े जिन में से एक केस बिहार के क्रांतिकारी और भोजपुरी के कालजई गीतों के रचनाकार का था. मामला ये था की ब्रिटिश सरकार की अर्थव्यवस्था को ध्वस्त करने के उद्देश्य से, इन्होंने और इनके साथियों ने जाली नोट एवं ढलुआ सिक्के बनाने का प्रयास किया. चितरंजन जी ने इनकी सजा बीस साल से घटाकर सात साल करवा दी. एक और भी अहम केस उन्होंने वंदेमातरम के सम्पादक अरविंद घोष के लिए लड़ा था. घोष पर अलीपुर बम कांड में शामिल होने के संदेह में ब्रिटिश सरकार द्वारा राजद्रोह का मुक़दमा चलाया जा रहा था किंतु चित्तरंजन जी की प्रभावपूर्ण प्रस्तुति ने उन्हें बचा लिया. इस मुक़दमे में जिस निःस्वार्थ भाव और तेजस्वितापूर्ण वकालत का उन्होंने परिचय दिया, उसके कारण समस्त भारत वर्ष में राष्ट्रीय वकील के नाम से उनकी ख्याति फैल गयी. इस प्रकार के मुक़दमों में वह पारिश्रमिक भी नहीं लेते थे.

अंग्रेजों द्वारा भारतीयों पर हो रहे अत्याचारों व देश की ग़रीबी और दु:र्दशा ने उन्हें इतना दुखी कर दिया कि वे अपनी जमी हुई वकालत छोड़कर पूर्णतया राजनीति में आ गये. उन्हें भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अध्यक्ष निर्वाचित किया गया. अध्यक्ष की हैसियत से चित्तरंजन दास ने ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध विधानसभाओं में संघर्ष करने और निर्वाचन में भाग लेने का प्रस्ताव रखा. जब कांग्रेस ने चित्तरंजन दास की कौंसिल एंट्री के प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया, तब वे कांग्रेस से अलग हो गए और पंडित मोतीलाल नेहरू के सहयोग से एक नए संगठन स्वराज दल की स्थापना की.

उन्होंने महात्मा गांधी जी के साथ असहयोग आंदोलन में भाग लिया. खुद ही विदेशी कपड़ों को जलाया और खादी पहनने लगे. इस राजनीतिक सफ़र के दौरान वे कई बार जेल भी गए. उन्हें पूरा भरोसा था कि अहिंसा और क़ानूनी विधियों के बल पर भारत को आज़ाद कराया जा सकता है.

अपनी मृत्यु के कुछ समय पहले चित्तरंजन दास ने अपना घर और उसके साथ की ज़मीन को महिलाओं के उत्थान के लिए राष्ट्र के नाम कर दिया था. अब इस परिसर में चित्तरंजन दास राष्ट्रीय कैन्सर संस्थान है. दार्जिलिंग स्थित उनका निवास अब एक मात्र शिशु संरक्षण केंद्र के रूप में राज्य सरकार द्वारा संचालित किया जाता है. इसी तरह दक्षिण दिल्ली स्थित चित्तरंजन पार्क क्षेत्र में ऐसे बहुत सारे लोगों को आवास दिया गया जो बँटवारे के बाद भारत आए थे.

बच्चों इस में आलेख हमने उनके जीवन के बहुत थोड़े से पहलुओं पर बात की किन्तु इतने से ही आपने यह महसूस किया होगा कि उन्होंने अपना पूरा जीवन देश को समर्पित कर दिया. वे चाहते तो एक एश्वर्यपूर्ण व सुखमय जीवन जी सकते थे किन्तु इसे ठुकरा कर उन्होंने देशसेवा के कठिन और चुनौतीपूर्ण रास्ते को चुना.यही कारण है कि आज कृतज्ञ देश उन्हें बहुत श्रृद्धा के साथ याद करता है.

सफलता की कहानी- फगनी का छात्रावास में नया जीवन

बालिका का नाम- फगनी मंडावी

पिता का नाम- हड़मा मंडावी

माता का नाम- मासे मंडावी

कक्षा - आठवीं

यह कहानी सुकमा ज़िले में जंगलों के बीच घिरे एक छोटे से गाँव चीतलनार की एक 12 वर्षीय लड़की फगनी मंडावी की है. फगनी का परिवार शुरू से ही गरीबी का सामने करता आया है. फगनी के माता-पिता दूसरों के खेतों में काम करके जीवन यापन कर रहे हैं और अपनी बेटी को पढ़ाना चाहते हैं. फगनी का गाँव घने जंगलों के बीच बसा हुआ है जहाँ नक्सलियों का खतरा बना रहता है. नक्सलियों ने गाँव के विद्यालय को भी नष्ट कर दिया जिस कारण बच्चों को पढ़ाई के लिए बाहर जाना पड़ता है. फगनी भी बचपन से अपने घर से दूर रहकर पढ़ाई कर रही है. फगनी ने कक्षा 1 से 5 तक की पढ़ाई घर से 20 किलोमीटर दूर आश्रम शाला पुसपाल में की. 5 वीं तक की पढ़ाई पूरी करने के बाद फगनी ने नए छात्रावास,पोर्टा केबिन छिंदगढ़, जिला–सुकमा में प्रवेश लिया.इस छात्रावास में कक्षा 1 से 10 तक पढ़ने वाली 600 से अधिक बालिकाएँ एक साथ रहकर पढ़ाई करती है.

जब फगनी पोर्टा केबिन में कक्षा 6 में आयी तो वहाँ 600 बालिकाओं को देखकर डर गयी, उसके लिए सारे लोग अनजान थे, वो किसी से ठीक से बातचीत नहीं कर पाती थी और अकेलापन महसुस करने लगी थी. धीरे-धीरे फगनी का डर उस पर हावी होने लगा, उसे घर की, अपने माता पिता की बहुत याद आने लगी लेकिन वो हॉस्टल से घर नहीं जा सकती थी इसलिए फगनी सभी से छिपकर रोया करती थी. फगनी पढ़ाई में कमजोर थी जिसके कारण उसे कक्षा में भी डर लगने लगा था और पढ़ाई से रूचि हटने लगी थी. फगनी सोचती थी कि मैं कमजोर हूँ, मुझे पढ़ना नहीं आता, किसी से बात करना नहीं आता. डर के कारण फगनी न किसी से बात करती थी और न ही किसी गतिविधि में भाग लेती थी. जब कक्षा में कॉपी चेक की जाती तो भी वह सामने नहीं जाती थी. फगनी डर और नकारात्मकता का शिकार हो चुकी थी.

6 महीने बीतने पर भी फगनी के व्यवहार में कोई खास परिवर्तन नहीं आया. इसके बाद फगनी ने जनवरी 2019 से मार्च 2019 तक कक्षा 6 वीं के एवं जुलाई 2019 से फरवरी 2020 तक कक्षा 7 के जीवन कौशल सत्रों में भाग लिया. जीवन कौशल सत्रों के माध्यम से फगनी के जीवन में एक ऐसी रोशनी आई जिसने उसे जीवन में आगे बढ़ने का रास्ता दिखाया. जैसे-जैसे फगनी जीवन कौशल सत्रों में भाग लेने लगी वैसे-वैसे उसका आत्मविश्वास बढ़ने लगा और धीरे-धीरे वह छात्रावास के नए जीवन को समझने लगी. जीवन कौशल के सत्रों से उसने नए वातावरण के अनुसार ढलना, स्वयं से प्यार करना, अपनी बात दृढ़ता से कहना,भावनाओं को समझना और व्यक्त करना सीखा. अपनी सबसे बड़ी कमजोरी पर काम करना शुरू किया और वो था उसका डर.अपने डर को दूर करने के लिए उसने सहपाठियों से दोस्ती की,छात्रावास की बालिकाओं से बातचीत शुरू की धीरे-धीरे वह सभी के साथ मिल-जुल कर रहने लगी और अपनी भावनाओं को अपने दोस्तों के समक्ष रखने लगी, दोस्तों के साथ खेलने लगी, शिक्षिका के सामने अपनी बात रखने लगी. अधीक्षिका ने फगनी के आत्मविश्वास को बढ़ाने के लिए प्रार्थना सभा का नेतृत्व करने का अवसर दिया. उसकी रूचि पढ़ाई में बढ़ने लगी. फगनी ने विद्यालय स्तर पर कबड्डी प्रतियोगिता में भी हिस्सा लिया और ब्लाक स्तर पर मैराथन प्रतियोगिता में हिस्सा लिया. अब फगनी को हार-जीत का डर नही है. उसने यह समझ लिया है कि डरने से कुछ हासिल नहीं होता हमें हर परिस्थिति का सामना हिम्मत से करना चाहिए. अभी फगनी कक्षा 8 वीं में है और पहले से अधिक आत्मविश्वासी है. वह कहती है कि –'अब मुझे छात्रावास में बहुत अच्छा लगता है. मैंने सभी से दोस्ती कर ली है और अपनी सहेलियों के साथ खेलती हूँ, होमवर्क करती हूँ, मदद करती हूँ. पहले मुझे छात्रावास में बहुत डर लगता था लेकिन अब मैं सारी बातें अपनी मैडम को भी बताती हूँ.'

अधीक्षिका लक्ष्मी वेक्को मरकाम जी का कहना है कि- 'फगनी अब सबसे बातें करने लगी है शिक्षकों के पास जाकर भी अपनी बात रखती है सभी बच्चों से घुल मिलकर रहती है जीवन कौशल और स्कूल की गतिविधियों में भाग लेने लगी है.अब फगनी पढ़ाई में भी पहले से बेहतर प्रदर्शन कर रही है. वह पहले से ज्यादा खुश दिखती है.

फगनी बड़ी होकर पूलिस बनना चाहती है ताकि अपने गाँव के लिए कुछ अच्छा कर सके.'

दीपावली मनाने की परंपरा

रचनाकार- टीकेश्वर सिन्हा ' गब्दीवाला '

यह त्रेतायुग की बात है. सरयु नदी के किनारे अयोध्या नामक राज्य था,दशरथ वहाँ के राजा थे. महाराज दशरथ बड़े प्रतापी व वीर राजा थे. उनकी तीन रानियाँ थी. बड़ी रानी का नाम कौशल्या, मँझली का नाम कैकेयी और सबसे छोटी रानी थी सुमित्रा. तीनों रानियों की कोई संतान नहीं थी. इससे राजा दुखी थे. प्रजा भी अपने राज्य के भविष्य को लेकर चिंतित थी. महाराज दशरथ को अपने बुढ़ापे में संतान होने की कोई उम्मीद नहीं थी. फिर भी उन्होंने ऋषि-मुनियों की सलाह पर संतान प्राप्ति के लिए यज्ञ करवाया. यज्ञ के हवन कुंड से अग्निदेव थाल में खीर लेकर प्रकट हुए. खीर देते हुए राजा से कहा कि इसे आप तीनों रानियों में बाँट दो. राजा की मनोकामना पूर्ण होने की बात कहकर अग्निदेव अदृश्य हो गए. अग्निदेव के कहे अनुसार महाराज दशरथ ने तीनों रानियों को खीर बाँट दी.

समय बीतने पर तीनों रानियाँ गर्भवती हुईं. कौशल्या से राम, कैकेयी से भरत का जन्म हुआ और सुमित्रा ने लक्ष्मण और शत्रुघ्न को जन्म दिया. पुत्रों के जन्म से रानियाँ और महाराज फूले नहीं समाए. राजकुमारों के जन्म के समाचार से प्रजा भी प्रसन्न हुई.

राजकुमारों की शिक्षा-दीक्षा शुरु हुई. राम विद्या व सभी कलाओं में पारंगत थे.

समय बीता, राजकुमार युवा हो गए. अब अयोध्या को उत्तराधिकारी की जरूरत थी. महाराज दशरथ ही नहीं,प्रजा भी चाहती थी कि युवराज राम ही अयोध्या के राजा बनें, परन्तु रानी कैकेयी को राम का राजा बनना पसंद नहीं था. वह अपने पुत्र भरत को अयोध्या के राजसिंहासन पर देखना चाहती थी. महारानी कैकेयी ने महाराज दशरथ को उनके दिए वरदान का स्मरण कराते हुए उनसे अपने दोनों वरदान, भरत को राजसिंहासन और राम को चौदह वर्ष का वनवास की माँग कर दी. राजा के बहुत समझाने पर भी रानी ने अपनी जिद नहीं छोड़ी. अंततः भरत को राजसिंहासन और राम को चौदह वर्ष का वनवास हो गया. राम के साथ उनकी भार्या सीता व अनुज लक्ष्मण भी वन चले गए.

वनवास व्यतीत हो रहा था कि एक दिन राम-लक्ष्मण की अनुपस्थिति में पंचवटी से रावण ने सीता का हरण कर लिया. सीता का हरण हो जाने से दोनों भाइयों को बड़ा दुख हुआ. वे सीता को ढूँढ़ने निकल पड़े,वन में एक वीर वानर हनुमान से उनकी भेण्ट हुई. हनुमान ने राम-लक्ष्मण को किष्किंधा पर्वत पर ले जाकर कपिराज सुग्रीव से मित्रता कराई. राम से मिलकर सुग्रीव बहुत प्रसन्न हुए. फिर राम ने सुग्रीव को आप-बीती सुनाई. राम की दशा देखकर सुग्रीव को बड़ा दुख हुआ. सुग्रीव ने राम को ढाँढस बँधाया और सीता की खोज के लिए सहायता की बात कही. फिर वानरराज सुग्रीव की आज्ञा से पवनकुमार हनुमान सीता की खोज में निकल पड़े. पता चला कि लंका के राजा रावण ने सीता को अपनी अशोकवाटिका में रखा है. समझौते के लिए राम ने रावण से सीता को वापस करने की बात कही, रावण नहीं माने. आखिर युद्ध तय हो गया.

राम और रावण के बीच भयंकर युद्ध हुआ. यह युद्ध धर्म और अधर्म, सत्य और असत्य, न्याय और अन्याय के बीच का युद्ध था. पाप और अधर्म का प्रतीक रावण एक-एक करके सपरिवार काल कवलित हो गया. सत्य और धर्म के प्रतीक राम की जीत हुई. इस प्रकार लंकापति रावण की मृत्यु के साथ बुराई के साम्राज्य का अंत हुआ. फिर राम व सीता का मिलन हुआ. राम ने विभीषण को लंका का राज्य सौंपकर अयोध्या के लिए प्रस्थान किया.

राम के अयोध्या वापस आने पर अयोध्यानगरी को दुल्हन की तरह सजाया गया. अयोध्यावासियों ने अपनी प्रसन्ता व्यक्त करते हए अपने घरों में दीये जलाए. पूरी अयोध्यानगरी प्रकाशमय हो गई. उस दिन से लेकर आज तक पूरे भारतवर्ष में घरों में दीये जलाने की परम्परा चल पड़ी. इस परम्परा को जीवंत बनाये रखने के लिए हम प्रतिवर्ष दीपावली का त्योहार बड़े धूमधाम से मनाते हैं. प्रकाशपर्व दीपावली हमें मानवता का संदेश देता है.

अफ्रिका में कुली बैरिस्टर गांधी

रचनाकार- रजनी शर्मा

कोरोना काल में जहाँ एक ओर स्कूलों में शैक्षणिक व सांस्कृतिक गतिविधियों का संचालन सुचारू रूप से नहीं हो पा रहा है, वहीं मायाराम सुरजन शासकीय कन्या उच्चतर माध्यमिक विद्यालय चौबे कालोनी रायपुर की छात्राओं द्वारा गाँधीजी की जयंती के अवसर पर श्रीमती रजनी शर्मा द्वारा लिखित एवं निर्देशित लघु नाटिका 'अफ्रीका में कुली बैरिस्टर गाँधी' का मंचन सीमित संसाधनों का उपयोग कर किया जा रहा है.

इस नाटक के मंचन में चुनौतियाँ बहुत थीं. सबसे पहले नाटक के लिए ऑडियो रिकार्ड किया गया, पार्श्व ध्वनियाँ डाली गईं. संवादों के उतार चढ़ाव को समझाने हेतु संवाद उदाहरण के लिए रिकार्ड किया गया. ऑनलाइन माध्यम से बच्चों को अभिनय के लिए प्रोत्साहित करना बहुत ही दुरुह कार्य था. अब इसके बाद समस्या थी मंच की, तो घर की छत को मंच और दीवार को नाट्य पटल बनाया गया. पुरानी साईकिल के चक्के को चरखा बनाया गया.

आसपास के पालक, बच्चों के सामने इसका अभ्यास वर्ग प्रदर्शन किया गया. इसमें गायत्री, भुवनेश्वरी सम्मिलित हुईं. ऑडियो दवारा सुदूर बस्तर के तेतरखूटी की छात्राओं और जबलपुर के बच्चों ने भी इस ऑडियो को सुना और मंचन के लिए प्रोत्साहित हुए. इस नाटिका में कुली शब्द के खिलाफ बैरिस्टर गाँधीजी के लंबे संघर्ष की बानगी है

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