कहानियाँ

पंचतंत्र की कथाएँ- खरगोश और शेर

एक जंगल में एक शेर रहता था. वह बड़ा बलवान था. जब उसे भूख लगती, वह जंगल में निकलता और जो भी जानवर दिखाई पड़ता उसे मार डालता. उसे अपनी भूख मिटाने के लिए एक ही जानवर का शिकार करना पर्याप्त था किंतु वह अपने बल के घमंड के कारण जितने प्राणी चाहता उतने मार डालता था.

इस बात से जंगल के सभी सभी जीव - जंतु बहुत भयभीत और दुखी थे. एक दिन सभी ने मिलकर यह विचार किया कि हमें शेर से प्रार्थना करनी चाहिए कि वह ऐसा ना करे. ऐसा निश्चित कर वे सभी उस शेर के पास पहुंचे. जैसे ही शेर ने उन्हें देखा, बड़ी जोर से गरजा और कहा, तुम सब यहां क्यों आए हो?

तब एक बूढ़े सियार ने कहा, महाराज! आप हमारे राजा हैं, और हम सब जंगल के प्राणी आपकी प्रजा हैं. हम आपसे प्रार्थना करने आए हैं कि आप जिस तरह से हम प्राणियों का वध कर रहे हैं उससे वह दिन बहुत जल्दी आएगा जब जंगल में आपके सिवा कोई ना बचेगा. और जब प्रजा ही नहीं होगी तो फिर आप राजा कैसे रहेंगे. फिर आपके खाने के लिए कोई प्राणी भी ना बचेगा.

हम आपसे यह प्रार्थना करने आए हैं कि हम प्रतिदिन आपकी गुफा के पास एक जानवर भेज दिया करेंगे. आप उसे खा कर संतुष्ट हो जाएंगे. तब शेर ने सोचा कि इनकी बात सही है. उसने सियार का प्रस्ताव मान लिया.

उस दिन से प्रतिदिन एक जानवर शेर के पास जाता और शेर उसे खाकर अपनी भूख मिटा लेता. अब जंगल में शांति थी.

एक दिन एक नन्हे खरगोश की बारी आई. खरगोश था तो बहुत छोटा किंतु बहुत बुद्धिमान था. उसने सोचा किसी युक्ति से इस शेर के आतंक से जंगल के सभी प्राणियों को मुक्ति दिलाई जाए.

वह बहुत धीरे - धीरे चलते हुए शेर के पास पहुंचा. शेर का भूख से बुरा हाल था. उसने खरगोश को देखते ही दहाड़ कर पूछा, इतनी देर क्यों लगा दी? यदि तुम लोगों ने ऐसा ही किया तो मैं जंगल के सारे जानवरों को मार डालूंगा.

तब खरगोश ने बहुत ही विनम्र होकर कहा, महाराज मुझे क्षमा करें. मैं जब आपके पास आ रहा था तो रास्ते में मुझे एक दूसरे शेर ने रोक लिया. मैंने उससे बड़ी विनती की और बताया कि मैं अपने राजा के पास जा रहा हूं तो उसने मुझे डांट कर कहा, अब इस जंगल का राजा मैं हूं. जाकर तुम उससे कह दो.

महाराज! मैं आपको यही बताने आया हूं. यदि आपने उसे बिना कोई दंड दिए छोड़ दिया तो वह किसी भी प्राणी को आप तक आने नहीं देगा. ऐसा सुनते ही शेर क्रोध से भर उठा. उसने खरगोश से कहा, चलो बताओ, वह कहां है. मैं अभी उसका काम - तमाम करता हूं. खरगोश शेर को एक कुएं के पास लाया और कहा, महाराज! उस शेर ने मुझे यहीं पर रोका था. हो सकता है आपको देखकर वह इस कुएं में छुप गया हो.

ऐसा सुनते ही शेर ने कुएं में झांक कर देखा. उसे अपनी ही परछाई दिखी. परछाई को ही उसने दूसरा शेर समझ लिया और जोर से दहाड़ा. कुएं के अंदर से उसे अपनी ही आवाज की गूंज सुनाई पड़ी. क्रोध में पागल हुए शेर ने आव देखा ना ताव और कुएं में कूद पड़ा. फिर वह कभी बाहर न निकल सका और मर गया.

खरगोश ने जाकर सारी बातें सभी जानवरों को बताई. सब बहुत आनंदित हुए.

इस तरह एक छोटे से खरगोश ने अपने से कई गुना शक्तिशाली शेर को अपने बुद्धि के बल से समाप्त कर दिया.

बापू की सीख

रचनाकार- नीरज त्यागी `राज`

राजू नवीं कक्षा का छात्र है और घर के पास ही एक सरकारी स्कूल में पढ़ता है. राजू पढ़ने में बहुत अच्छा है लेकिन पता नहीं गणित के अध्यापक के सामने उसे क्या हो जाता है. वह लगातार अपने गणित के अध्यापक से डाँट खाता रहता है और कक्षा से बाहर किया जाता रहता है. अपनी समझ से तो वह सभी सवालों का सही जवाब देता है. लेकिन ना जाने क्यों गणित के अध्यापक उसे डाँटते ही रहते हैं और कक्षा से बाहर निकालते रहते हैं.

गाजियाबाद के सरकारी स्कूल मैं पढ़ रहा राजू बड़ी मेहनत से अपनी पढ़ाई कर रहा था. क्योंकि उसे पता था कि वह अपना भविष्य पढ़कर ही सुधार सकता है. 2 अक्टूबर यानी महात्मा गाँधीजी का जन्मदिन आने वाला था. आज राजू कुछ ज्यादा ही परेशान था. रात को परेशान राजू ने महात्मा गांधी जी की तस्वीर के सामने हाथ जोड़े और प्रार्थना की, बापू मुझे गणित के अध्यापक की डाँट से बचा लो. उसके बाद वो सो गया.

राजू को अभी नींद आयी ही थी कि उसने सपने में देखा, तस्वीर से निकलकर बापू,राजू के सामने खड़े हो गए. उन्होंने राजू से पूछा कि गणित के अध्यापक उसी को इतना क्यों डाँटते हैं?राजू ने बताया कि वह सवालों का सही जवाब देता है फिर भी गणित के अध्यापक सबके सामने उसका मजाक उड़ाकर कक्षा से निकाल देते हैं और सभी छात्र भी उसका मजाक उड़ाते हैं. तब गाँधीजी बोले बेटा, कल से तुम जब अपने अध्यापक के पास जाओ,तो अपनी गणित की कॉपी उन्हें देकर खुद ही मुस्कुराते हुए कक्षा के बाहर आकर खड़े हो जाना और उनसे कहना, कि आप तो मुझे कुछ देर बाद निकाल ही देंगे. उम्मीद है कि इससे तुम्हारी समस्या का समाधान हो जाएगा.

राजू को ये उपाय अच्छा लगा. अगले दिन जब कक्षा में गणित के अध्यापक आए तो उसने उनसे हाथ जोड़कर नमस्ते की और कहा सर थोड़ी देर बाद तो आप मुझे डाँटकर कक्षा से निकालने वाले हैं.

मैं खुद ही कक्षा से बाहर जाकर खड़ा हो जाता हूँ और वह कक्षा से बाहर जाकर खड़ा हो गया. यही घटनाक्रम लगातार पाँच दिनों तक चलता रहा लेकिन इसका गणित के अध्यापक पर कोई असर नहीं पड़ा. बल्कि वह हँसते हुए उसके सामने से रोज निकल जाते.

कल 2 अक्टूबर है. उसने एक बार फिर बापू से पूछा,बापू-अध्यापक पर तो कोई असर नहीं हो रहा है. मैं क्या करूँ,तब बापू ने कहा बेटा कल तुम मेरी फोटो लेकर जाना और यही काम दोहराना. उन्हें गणित की कॉपी के साथ मेरी तस्वीर भी दे देना. अगले दिन राजू ने गणित के अध्यापक को हाथ जोड़कर नमस्ते किया, बापू की तस्वीर उनको दे दी और कक्षा से बाहर आकर खड़ा हो गया.

आज गणित के अध्यापक ने राजू को 500 रुपये के दो नोट दिखाये. जिन पर महात्मा गांधी का फोटो छपा था. उन्होंने राजू से कहा कि कक्षा के सभी विद्यार्थी मुझसे ट्यूशन लेते हैं. एक तुम ही हो,जो मुझसे ट्यूशन नहीं पढ़ते. बापू की बातें तो आज भी सारी सही हैं लेकिन आजकल फोटो वाले गाँधीजी से ज्यादा महत्वपूर्ण नोटों वाले गाँधीजी हैं.

राजू शाम को फिर तस्वीर के सामने हाथ जोड़कर बापू से बोला,अब मैं समझ गया हूँ कि मुझे आगे क्या करना है.

बापू ने सारी घटना सुनकर सोचा कि उनकी बातों को और उन्हें लोगो ने इसीलिए नही भुलाया,क्योंकि उनकी तस्वीर एक ऐसे कागज पर मौजूद है. जिसकी जरूरत बार-बार पड़ती है वरना लोग शायद उन्हें कब का भूल जाते. बापू भारी मन से वापस तस्वीर में चले गए.

रिश्तों का मोल

रचनाकार-प्रिया देवांगन 'प्रियू'

एक गाँव मे राजू और रामू दो भाई रहते थे. दोनों सारे समय एक साथ ही रहते,साथ-साथ स्कूल जाते, साथ ही खेलते और घर पर साथ ही पढाई करते थे. समय के साथ दोनों बड़े हो गए. दोनों की उम्र काम करने की हो गयी. दोनों सच्चे व ईमानदार थे. दोनों को एक ही कंपनी में नौकरी मिल गई. उनके माता-पिता बहुत खुश थे कि दोनों भाइयों में कितना प्रेम है. अब भी दोनों साथ-साथ काम पर जाते थे. दोनों की शादी भी हो गयी. राजू कंपनी में ओवरटाइम भी करता था, इसलिये उसके पास ज्यादा पैसे आने लगे. रामू को सिर्फ तनख्वाह ही मिलती थी. धीरे धीरे राजू को पैसे का घमंड होने लगा. रामू को इस बात का अहसास हुआ तो उसने राजू को समझाया कि देखो भाई पैसे का घमंड छोड़ दो और अपने दोस्तों और रिश्तेदारों से अच्छा व्यवहार निभाओ पैसा हमेशा काम नही आता. विपरीत समय में रिश्तेदार और दोस्त ही काम आते हैं. राजू ने रामू से बहस शुरू कर दी. राजू बोला आजकल पैसा ही सब कुछ हैं रामू. तू क्या समझेगा तू तो आज भी गरीब है और देख मैं कितना अमीर हो गया हूँ. धीरे-धीरे राजू, रामू और सभी रिश्तेदारों से दूर होता गया. फिर एक दिन अचानक राजू की तबीयत बिगड़ने लगी. उसको कैंसर हो गया था. इलाज में सभी पैसे खत्म होने लगे थे. तब राजू को रामू की बात याद आई. उसने रामू को फोन कर सारी बात बताई. रामू तुरन्त हॉस्पिटल में आया. दोनों भाई गले मिलकर रोने लगे. अब राजू की समझ में आ गया कि दोस्ती और रिश्तों का मोल क्या होता है. राजू, रामू से माफी माँगते हुए कहने लगा कि यदि मैं तेरी बात उसी समय समझ जाता तो आज मेरी ये हालत नहीं होती. मैं पैसे के मोह में पागल हो गया था. अब मेरे पास सिर्फ तू ही हैं रामू. रामू ने कहा ऐसा मत बोल भाई समय रहते तुझे गलती का एहसास हो गया और क्या चाहिये. फिर दोनों भाई पहले जैसे साथ साथ रहने लगे.

शर्त

रचनाकार- दीपक कँवर

बत्तख रोज की भाँति गाँव के नजदीक तालाब गई, गर्मी के कारण तालाब का पानी बहुत कम हो गया था. तालाब के किनारे रहने वाला कछुआ भी बत्तख के पास आ गया. तालाब का पानी कम होने से दोनों चिंतित हो रहे थे. वे दोनों सोच रहे थे कि ऐसी स्थिति में क्या किया जाए? अंततः दोनो ने दूसरे तालाब में जाने का निश्चय किया और साथ-साथ दूसरे तालाब की ओर चल पड़े.

दूसरे तालाब के किनारे बैठे मेंढक ने उन दोनों को आते हुए देख लिया. जब बत्तख और कछुआ नजदीक पहुँचे तो मेंढक कड़ककर बोला- रुको मैं यहाँ का रखवाला हूँ, मेरी अनुमति के बिना तुम इस तालाब के पानी का उपयोग नहीं कर सकते. बत्तख ने कहा- हमारे तालाब का पानी सूख गया है, हमारे लिए अब इसी तालाब का सहारा है. आप बताइये कि हमें अनुमति के लिए क्या करना होगा? मेंढक ने कहा मेरी एक शर्त पूरी करोगे तभी अनुमति दूँगा. बत्तख ने पूछा- बताइये क्या शर्त है? मेंढक ने कहा- तुम्हें बिना भीगे और बिना तैरे इस तालाब को पार करना होगा.

शर्त सुनकर बत्तख और कछुए ने आपस मे चर्चा की. कछुए ने बत्तख के कान मे फुसफुसाते हुए एक उपाय बताया. फिर मेंढक के पास आकर बत्तख ने कहा- ठीक है हम दोनो को आपकी शर्त मंजूर है पर हम दोनो अलग-अलग तालाब पार करेंगे. मेंढक उनकी बात मान गया

कछुए ने बत्तख को अपनी पीठ पर बिठाकर तालाब पार कर लिया. तालाब के दूसरे छोर पर पहुँचने के बाद लौटते समय कछुआ बत्तख की पीठ पर बैठ गया, और दोनों पहले किनारे पर आ गये. इस तरह दोनो ने शर्त पूरी कर दी. मेंढक उनकी चतुराई देखकर बहुत खुश हुआ. अब तीनो तालाब मे मित्रतापूर्वक रहने लगे.

हमारे पौराणिक पात्र- महर्षि वाल्मीकि

संस्कृत के महाकाव्य रामायण के रचयिता महर्षि वाल्मीकि आदिकवि के नाम से प्रसिद्ध हैं. संस्कृत में सर्वप्रथम श्लोक की रचना महर्षि वाल्मीकि ने ही की थी इसलिए उन्हें आदिकवि कहा जाता है.

महर्षि वाल्मीकि का जीवन बेहद प्रेरणादायक है. प्रारंभ में वे डाकू हुआ करते थे, लोगों से धन लूटा करते थे. लेकिन एक घटना से इनका जीवन पूरी तरह बदल गया और वे ऋषि बन गए.

वाल्मीकि का जन्म आश्विन माह की पुर्णिमा के दिन हुआ था हर साल आश्विन माह की पुर्णिमा को वाल्मीकि जयंती मनाई जाती है.

पौराणिक कथा के अनुसार इनका जन्म ब्राह्मण परिवार में हुआ था और इनके पिता और माता का नाम क्रमशःवरुण और चर्षणी था. वरुण महर्षि कश्यप और अदिति के नौवें पुत्र थे. कहा जाता है कि भील समुदाय के लोगों ने शैशवावस्था में इनका अपहरण कर लिया था. जिसके बाद इनका लालन-पालन भील समुदाय में हुआ.

महर्षि वाल्मीकि पहले डाकू रत्नाकर नाम से कुख्यात थे. वे लोगों को बंदी बनाकर उनसे लूट-पाट किया करते थे. उपनिषद की कथा के अनुसार एक बार नारद मुनि जंगल से गुजर रहे थे तभी डाकू रत्नाकर ने उन्हें बंदी बना लिया. बंदी नारद मुनि ने रत्नाकर से पूछा कि तुम यह कार्य क्यों कर रहे हो? रत्नाकर ने उत्तर दिया कि अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए चोरी करते हैं. नारद जी ने रत्नाकर से पूछा कि तुम्हारे पापों का भुगतान तुम्हारे परिवार वालों को भी करना पड़ेगा. क्या तुम चाहते हो कि उन्हें भी तुम्हारे पापों की सजा मिले? रत्नाकर ने इसका उत्तर हाँ में दिया. रत्नाकर के हाँ कहने के बाद नारद ने रत्नाकर से कहा कि अपने परिवार वालों से पूछकर आओ कि क्या वो तुम्हारे पापों का दण्ड भोगने को तैयार हैं?

नारद जी के कहने पर रत्नाकर अपने परिवार वालों के पास गया. प्रश्न का उत्तर देते हुए परिवार वालों ने रत्नाकर के बुरे कर्मों के दण्ड में भागीदार बनने से इनकार कर दिया.

परिवार जनों से ऐसा उतर मिलने के बाद रत्नाकर वापस नारद जी के पास गया और नारद जी को सारा वृत्तांत बताते हुए उनसे अपने लिए सही राह दिखाने का आग्रह किया.

नारद मुनि ने उन्हें राम नाम का जाप करने को कहा. नारद मुनि की बात मानते हुए रत्नाकर एक वन में जाकर राम-राम का जाप करने लगा. कई वर्षों तक कठोर तपस्या में लीन रहा. यहाँ तक कि रत्नाकर के पूरे शरीर पर चींटियों ने बाँबी बना ली. चींटियों की बाँबी के संस्कृत नाम वाल्मीक के कारण इनका नाम वाल्मीकि पड़ गया. इस तरह रत्नाकर एक डाकू से महर्षि वाल्मीकि में बदल गया.

पौराणिक कथा के अनुसार एक शिकारी द्वारा क्रोंच पक्षी की हत्या करने की घटना से व्यथित महर्षि वाल्मीकि ने शिकारी को श्राप दिया था. यह श्राप अकस्मात् उनकी वाणी से श्लोक के रूप में उच्चरित हुआ यह श्लोक इस तरह था


मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः.
यत्क्रौंचमिथुनादेकम् अवधीः काममोहितम्॥

अर्थात्-अरे बहेलिये, तूने काममोहित मैथुनरत सारस पक्षी को मारा है. जा तुझे कभी भी प्रतिष्ठा की प्राप्ति नहीं होगी.

इस घटना के बाद ब्रह्माजी ने महर्षि वाल्मीकि को रामायण की रचना करने का कार्य सौंपा. तब महर्षि वाल्मीकि ने पूरी रामायण की रचना संस्कृत के श्लोको के रूप में की. रामायण में लगभग 24000 श्लोक हैं.

रामायण के अनेक श्लोकों से यह स्पष्ट होता है कि महर्षि वाल्मीकि खगोल विद्या और ज्योतिष शास्त्र के प्रकाण्ड विद्वान् थे.

कथाओं के अनुसार अयोध्या छोड़ने के बाद सीता जी महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में ही रही थी और इन्होंने राम और सीता के पुत्रों लव और कुश को शिक्षा दी थी.

महर्षि वाल्मीकि को रामायण के रचयिता और आदिकवि के रूप मे हमेशा याद रखा जाएगा.

पटाखों की दीवाली

रचनाकार- डॉ. मंजरी शुक्ला, पानीपत

पटाखों की दुकान में ढेर सारे पटाखे सजे हुए रखे थे. पटाखे कुछ उदास थे. पटाखों को यह देखकर दुःख होता था कि जब अच्छे कपड़े पहने बच्चेअपने मम्मी पापा के साथ पटाखे लेने आते तो दुकानदार बड़े प्यार से उन्हें पटाखे दिखाता लेकिन जो बच्चे नंगे पैर और पुराने कपड़े पहनकर पटाखों को केवल दूर से ही देखने आते उन्हें दुकान के पास खड़ा भी नहीं होने देता.

पटाखों को दुकानदार पर गुस्सा तो बहुत आ रहा था, पर वे क्या कर सकते थे. दीवाली के दिन, दुकानदार की दोपहर के समय आँख लग गई. पटाखों ने मौका देखकर आपस में तय किया कि हमें यहाँ से चले जाना चाहिए. पर वे जाएँ कैसे ? तभी पास की टोकरी,जो बहुत देर से उनकी बाते सुन रही थी, बोली -'तुम सब मेरे ऊपर बैठ जाओ, मैं तुम लोगो को यहाँ से ले चलती हूँ.'

यह सुनकर सभी पटाखे ख़ुशी से उछल पड़े. टोकरी में बैठते ही वे हवा से बाते करने लगे. तभी उन्हें कुछ बच्चे दिखाई दिए जो उदास और गुमसुम अपनी झोपड़ियो के बाहर बैठे थे.

'देखो,वे बच्चे वहाँ बैठे हैं.' चकरी बोली

'हाँ-हाँ, वे ही हैं.” अनार ने हाँ में हाँ मिलाई.

हमारी सबसे ज्यादा जरूरत यहीं है. हमें यहीं उतार दो. फुलझड़ी ने कहा.

टोकरी भी खुश हो गई और तुरंत नीचे उतर पड़ी.

बच्चे इतने सारे पटाखे देखकर ख़ुशी से उछल पड़े. सबसे पहले उन्होंने चकरी की पूँछ मे आग लगाई. चकरी इठलाती, मटकती हुई गोल गोल थिरकने लगी. बच्चे नाचने लगे. फिर आई साँप की बारी, काली-काली छोटी टिक्कियो को आग लगते ही कई विशाल नाग फन काढ़कर खड़े हो गए.

छोटे बच्चो ने डर के मारे अपनी आँखे बंद कर ली और बड़े बच्चे ठहाका लगाकर हँसने लगे.

यह सब देखकर भीअनार कहाँ पीछे रहने वाला था. वह भी आगे आ गया.

जब बच्चों ने अनार जलाया तो उसमें से हजारों रंग बिरंगे सिक्के गिरने लगे. बच्चों के चेहरे ख़ुशी से दमकने लगे. देखते ही देखते फुलझड़ी,मेहताब और आतिशबाजियो के सतरंगी रंग आसमान में बिखर गए और वहाँ पर कागज के टुकड़े बिखर गए.

टोकरी की आँखें अपने दोस्तों से बिछुड़ने के गम मे नम हो गई पर फिर ख़ुशी से उछलते कूदते बच्चों को देखकर उसके चेहरे पर भी मुस्कान आ गई और वह हँसते हुए वापस उड़ चली अपनी दुकान की ओर.

सुबोध का सपना

रचनाकार- मौसमी प्रसाद

वह लड़का रोज मंदिर के किनारे बैठकर मंदिर में आने जाने वाले भक्तों की चप्पलों की देखभाल करता था. जब लोग मंदिर में दर्शन करके नीचे उतरते तो वह लड़का उनकी चप्पलें उन्हें देता, बदले में लोग उसे 50 पैसे दिया करते थे. वह लड़का सभी को गर्व से सैल्यूट करता था.

वह मंदिर मेरे ऑफिस जाने के रास्ते में था, मैं भी मंदिर रोज ही जाया करती थीं. दर्शन के लिए जाती और लौटते समय वह लड़का मेरी चप्पलें मुझे देता. मैं खुशी से उसे पैसे दे दिया करती थी. वह मुझे भी सैल्यूट करता. वह बड़े स्नेह से मुझे देखता, मुझे भी उससे लगाव सा हो गया था. एक आदत सी बन गई थी उसे देखने की. उसके सैल्यूट करने का तरीका मुझे बहुत पसंद था. पैसे देते समय उसके सैल्यूट का इंतजार रहने लगा था.

एक दिन मेरी तबीयत ठीक नहीं थी. मैंने सोचा आज ऑफिस नहीं जाऊँगी. सर में दर्द था. थोड़ी थकान थी और मैं घर पर ही आराम करना चाह रही थी. पर जैसे ही लेटी वैसे ही लगा कि मन मंदिर जाने को आतुर होने लगा था. उस बच्चे को देखने के लिए आज वह है या नहीं. उसका ख्याल मन मे आने लगा. मैंने मंदिर जाने का निर्णय लिया और निकल पड़ी. मंदिर जाने में देर तो हो ही गयी थी. जैसे ही मंदिर पहुँची तो देखा कि वह लड़का रोज की तरह ही बैठा हुआ है और खुशी से अपना काम कर रहा है. मुझे देखते ही बोला दीदी! आज आपको आने में देर क्यों हो गई? फिर बोला- आप जाइए भगवान आपका इंतजार कर रहे हैं. मुझे हँसी आ गई,भला ईश्वर मेरा इंतजार क्यो करने लगे?मैं मंदिर गई भगवान के दर्शन किए और वापस आकर उस बच्चे से मैंने उसका नाम पूछा. वह बोला मेरा नाम सुबोध है. फिर मैंने पूछा तुम स्कूल नहीं जाते हो? वह बोला जाता हूँ न!रोज जाता हूँ. मुझे पढ़ना लिखना पसंद है दीदी. मैं बोली कब जाते हो?स्कूल के समय तो रोज तुम यहाँ रहते हो.

थोड़ी देर बिल्कुल चुप रहने के बाद वह बोला,दीदी मैं नाइट स्कूल जाता हूँ. दिन में स्कूल नहीं जा सकता न. दिन में मैं मंदिर में रहता हूँ, जिससे मुझे कुछ कमाई हो जाती है. मैं यह पैसे माँ को देता हूं माँ को थोड़ी सहायता मिल जाती है. मेरे पिताजी को पिछले साल लकवा मार गया था उसके बाद से वे बिस्तर से उठ नहीं सकते. इसलिए मैं काम करता हूँ. माँ बाहर काम करने नहीं जा सकती क्योंकि उन्हें पिताजी का ध्यान रखना पड़ता है और घर में दो छोटी बहनें भी हैं. मैं जो कमाता हूँ उसी से घर का खर्च चलता है. मैं मां के काम में भी मदद कर देता हूँ. मेरी दोनों बहनें मुझे बहुत प्यारी है. यह कहकर वह हँसने लगा.

यह सुनकर कुछ देर के लिए मै स्तब्ध रह गयी. फिर मैंने उससे पूछा तुम बड़े होकर क्या बनना चाहते हो ?

वह बड़े गर्व से बोला- दीदी मैं पुलिस इंस्पेक्टर बनना चाहता हूँ.

मुझे सुनकर अच्छा लगा मैं सोचने लगी इसलिए यह लड़का सैल्यूट करते समय गर्व महसूस करता है. मैने ईश्वर से प्रार्थना की कि हे प्रभु इस बच्चे को पुलिस इंस्पेक्टर ही बनाना. मैंने प्यार से उसके सर पर हाथ फेरा. जब इतना छोटा बच्चा अपने बचपन से समझौता करते हुए अपने सपनों को साकार करने की भी कोशिश करता है और अपने परिवार की भी सहायता करता है. उस बच्चे का सपना जरूर साकार होना चाहिए. सुबोध अपनी परिस्थितियों से हारा नहीं है, न मायूस हुआ है बल्कि उसने विषम परिस्थितियों में भी अपने सपने को साकार करने का रास्ता चुना है. अपने माँ-बाप का सहयोग कर रहा है. उसे पता है कि उसकी मंजिल क्या है. जब इस छोटे से पवित्र मन की भावना इतनी पवित्र है तो उसे अपनी मंजिल जरूर मिलेगी.

सबसे ताकतवर

रचनाकार- श्वेता तिवारी

पहले कुत्ते पालतू नहीं होते थे. पर कुत्तों को जीने का यह तरीका पसंद नहीं आया. उन्हें भोजन की खोज में भटकना पड़ता था और शक्तिशाली जानवरों से डर कर रहना पड़ता था. कुत्ते ने सोचा कि इससे अच्छा यह होगा कि इस धरती के सबसे शक्तिशाली जीव को अपना मालिक बना लिया जाए. ऐसा सोचकर वह अपने मालिक की खोज में निकल पड़ा. रास्ते में उसे एक बड़ा और ताकतवर भेड़िया मिला. भेड़िये ने कुत्ते से पूछा तुम कहाँ जा रहे हो? कुत्ते ने कहा- मैं अपने लिए एक मालिक ढूँढने जा रहा हूँ. क्या आप मेरे मालिक बनेंगे? भेडिया तैयार हो गया. दोनों आगे बढ़े थोड़ी दूर चलने पर भेड़िए ने कुत्ते से कहा चलो भागो यहाँ से. कुत्ते को आश्चर्य हुआ उसने पूछा क्या हुआ, आप किस चीज से डर गए? भेडिया बोला देख नहीं रहे, सामने से भालू आ रहा है,वह हम दोनों को मारकर खा सकता है. कुत्ता समझ गया कि भेड़िए से अधिक बलवान भालू है.

उसने भालू का सेवक बनने का निर्णय किया. भालू के पास जाकर बोला क्या आप मेरा मालिक बनना स्वीकार करेंगे. भालू तैयार हो गया. भालू ने कहा चलो एक हिरण ढूँढते हैं, मैं उसे मारूँगा और फिर हम दोनों भोजन करेंगे. दोनों हिरण ढूँढने चले. थोड़ी दूर चलने पर उन्हें हिरणों का झुंड दिखाई दिया. जब वे उनकी ओर बढ़ने लगे तो उन्होंने देखा कि हिरण अचानक इधर-उधर भागने लगे. भालू भी भागने लगा. कुत्ते ने भालू से पूछा आप क्यों भाग आए? भालू ने जवाब दिया वहाँ मैंने शेर को देखा था, उसी के डर से मैं भाग आया हूँ. कुत्ते ने भालू को नमस्कार किया और शेर के पास चला गया उसने शेर से कहा कि वह उसका मालिक बन जाए. शेर ने कुत्ते को अपना सेवक बना लिया. दोनों बहुत दिनों तक साथ-साथ रहे. कुत्ते को अब लगने लगा कि उसका मालिक धरती पर सबसे शक्तिशाली है. एक दिन दोनों जंगल में घूम रहे थे. अचानक शेर रुका और पीछे मुड़कर तेजी से भागने लगा. कुत्ते ने आश्चर्य से पूछा, क्या बात है मालिक? शेर ने जवाब दिया मुझे सामने से एक आदमी की गंध आ रही है. आदमी हमें जाल में फँसा सकता है. भलाई इसी में है कि यहाँ से भाग लिया जाए. कुत्ते ने कहा फिर तो मैं आपको भी नमस्कार करूँगा. मुझे धरती के सबसे ताकतवर जीव का सेवक बनना है. फिर कुत्ता आदमी के पास चला गया. उसका विश्वासपात्र बनकर रहने लगा. यह सिलसिला आज तक चल रहा है. कुत्ते ने फिर किसी और को अपना मालिक बनाने के बारे में सोचा भी नहीं. तब से इंसान ही कुत्ते का मालिक है.

घोंदू और जंपी

रचनाकार- डॉ. मंजरी शुक्ला, पानीपत

'दिन भर उछल कूद करते रहते हो. थोड़ी देर शांत नहीं बैठ सकते.' पीहू चिड़िया ने पानी से भीगे हुए पँख फड़फड़ाते हुए कहा.

जंपी मेंढक से पहले ही घोंदू मगरमच्छ बोला-'इसके उछलने कूदने से मैं परेशान हो चुका हूँ. कल तो मेरी आँख फूटने से बची थी.'

जंपी सकपकाता हुआ बोला-'तुम तो सारे समय आँखें बंद करके मिट्टी में पड़े रहते हो, पता ही नहीं चलता कि...'

जंपी की बात पूरी होने से पहले ही घोंदू चिल्लाते हुए बोला-'चुप रहो, क्या तुम्हारे कूदने के कारण मैं आँखें खोलकर सोऊँ!'

तब बेकी बगुला बोला-'और ये जो धपधप धपधप करते हुए इधर- उधर कूदा करते हो ना इस कारण मछलियाँ भाग जाती है मेरी...'

जंपी सबकी डाँट सुनते हुए रुँआसा हो गया.

तभी पानी से सुनहरी मछली निकली और बोली-'जंपी, तुम जी भरकर कूदा करो,इस बेकी को खड़े रहने दिया करो दिनभर एक टाँग पर...'

जंपी ने सुनहरी की ओर देखा और वहाँ से उछलता हुआ चला गया.

अगले दिन नदी किनारे जंपी का कहीं अता-पता नहीं था. किसी को भी उसके नहीं होने का कोई दुःख नहीं हुआ.

बेकी,पीहू और घोंदू नदी किनारे बैठकर धूप सेंक रहे थे.

बेकी बोला-'मुझे लगता है कि जंपी जंगल छोड़कर ही चला गया.'

घोंदू एक आँख खोलकर बोला-'अरे वाह, तब तो मज़ा आ गया. सारे समय मुझे अपने अंधे होने की चिंता लगी रहती थी.'

'जंपी इस जंगल में लौटकर ही न आए तो बहुत अच्छा हो.' पीहू आँखें मूंदते हुए बोली.

सभी खिलखिलाकर हँस पड़े.

दो दिन बाद जंगल में अफ़रा तफ़री मची हुई थी.

खोखो बन्दर ने शिकारी को जंगल में घूमते देखा था.

सभी पशु पक्षी बहुत डरे हुए थे और छुपने की जगह ढूँढ रहे थे.

दिन भर तो शिकारी का कहीं पता नहीं चला पर शाम होते ही वह नदी किनारे आकर बैठ गया.

बेकी और पीहू धूप सेंकने के बाद जा चुके थे पर घोंदू आँखें बंद किये हुए, मिट्टी में लिपटा हुआ आराम से लेटा हुआ था.

शिकारी बुदबुदाया-'कोई मगरमच्छ दिख नहीं रहा. एक मगरमच्छ भी मिल जाये तो उसकी खाल से अच्छे पैसे मिल जाएँगे.'

यह सुनते ही घोंदू ने अपनी एक आँख खोली और सामने ही शिकारी को बैठे देखा.

डर के मारे घोंदू के हाथ पैर काँपने लगे. वह भाग कर नदी में भी नहीं जा सकता था, शिकारी उसे गोली मार देता.

उसने सोचा कि शिकारी के जाते ही वह नदी मैं चला जाएगा.

पर शिकारी भी अपनी पूरी तैयारी के साथ आया था. उसने कुछ सूखी लकड़ियाँ इकट्ठा करके आग जलाई,अपने बैग से कुछ बर्तन निकाले, फिर अपनी टोपी एक ओर रखकर बंदूक पकड़कर बैठ गया.

'अभी नदी का पानी अगर ऊपर आ गया तो मेरे ऊपर से मिट्टी हट जायेगी और फ़िर मैं नहीं बचूँगा.' सोचते हुए घोंदू की आँखों से आँसूं बह निकले.

तभी घोंदू ने देखा कि शिकारी अचानक उछलकर खड़ा हो गया और जोर से चीखने लगा.

हड़बड़ाहट में उसके हाथ से बन्दूक गिर गई और घोंदू के पास ही आकर गिरी.

'अब मुझे इस दुनिया में कोई नहीं बचा सकता.' घोंदू ने सोचा.

'मेरी टोपी उछलते हुए भाग रही है...हे भगवान मैं ये क्या देख रहा हूँ. शिकारी डर के मारे थर थर काँपते हुए बड़बड़ाया और फ़िर अचानक उसने भूत भूत चिल्लाते हुए दौड़ लगा दी. वह इतनी तेजी से भागा कि कुछ ही देर में आँखों से ओझल हो गया.

घोंदू आँखें फाड़े उछलती टोपी को देख रहा था.

तभी टोपी रुकी और उसमें से हँसता हुआ जंपी बाहर निकला और बोला-'दोस्तों बाहर आ जाओ. शिकारी भाग गया.

जंपी की आवाज़ सुनकर बर्तनों में से मेंढक बाहर निकल आये और हँसने लगे.

'चलो, अब वह शिकारी यहाँ कभी नहीं आएगा.' कहते हुए जंपी जाने को हुआ.

तभी घोंदू रोते हुए बोला-'क्या अपने दोस्त को माफ़ नहीं करोगे जंपी?'

जंपी उछलता हुआ उसके पास आया और बोला-'मैं तुमसे नाराज़ थोड़े ही हूँ.'

'तो मेरी पीठ पर कूदो.' घोंदू अपने आँसूं पोंछते हुआ बोला

'अरे पर...' जंपी सकुचाता हुआ बोला

'कूदो, वरना मैं समझूँगा कि तुम मुझसे नाराज़ हो.'

और थोड़ी देर बाद जंपी अपने दोस्तों के साथ घोंदू की पीठ पर कूद रहा था और घोंदू शिकारी के भागने की याद करते हुए हँसता जा रहा था.

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