बालगीत

ड्रोन कैम

रचनाकार- गौरीशंकर वैश्य विनम्र, लखनऊ

चौकीदार नया भाया है.
ड्रोन कैम घर में आया है.

सीसीटीवी से भी उत्तम
सजग सुरक्षा में रत हरदम
बाहर कहीं घूमने जाएँ
चिंता - भय अब नहीं सताएँ

कोना - कोना नजर में उसकी
चोर न घर में घुस पाया है.

ड्रोन कैमरे की निगरानी
मोबाइल से जुड़ी कहानी
बिजली - इंटेरनेट क्या करना
इसके एप को चालू रखना

कृत्रिम बुद्धि कैमरा रखता
'खिड़की खुली है' बतलाया है.

घर में सुनकर कहीं भी खटपट
ड्यूटी पर वह निकले झटपट
आपको संदेशा पहुँचाए
सारी लाइव फुटेज दिखाए

काम नहीं होता जब कोई
डिवाइस बॉक्स में सुस्ताया है.
ड्रोन कैम घर में आया है.

मामा के घर.

रचनाकार- द्रोण कुमार सार्वा

अबकी बार गर्मियों में हम
फिर जाएंगे मामा के घर
मुन्ना, मुन्नी, बब्बू, डब्बू
मिल जाएंगे मामा के घर
लुका-छिपी, भौरा-बिल्लस
खेल रचाएंगे मामा के घर
नानी के मुंह रोज कहानी
सुन पाएंगे मामा के घर
सैर सपाटे नाना के संग
उधम मचाएंगे मामा के घर
मन में कितने भाव समेटे
सच कर पाएंगे मामा के घर
घर से दूर भी अपनो के संग
जुड़ जाएंगे मामा के घर...

हमारा शासकीय विद्यालय

रचनाकार- विष्णुगिरि गोस्वामी

कितना सुंदर बना हमारा,
शासकीय विद्यालय प्यारा है.
छात्र-छात्राएँ आते-जाते देखो,
पढ़ाई सबसे न्यारी है..

विद्यालय के मैदान में देखो,
विद्यार्थी दौड़ लगाते हैं.
विद्या अध्ययन कर विद्यार्थी,
जीवन में खूब आगे जाते हैं.

छात्र-छात्राएँ यहाँ पर देखो,
ख़ूब मेहनत करते हैं.
कोई शिक्षक पढ़ाते-लिखाते,
कोई चेक उन्हें करते हैं.

अपने-अपने कामों में ये,
हरदम तत्पर रहते हैं.
ठीक समय पर उचित रीति से,
काम यहाँ के होते हैं..

बहुत काम का यह विद्यालय,
लाभ अधिक इसमें भाई.
विद्यार्थियों का ज्ञान बढ़ाता,
यह है हमको सुखदाई.

आओ,प्रण लें हम सब मिलकर,
विद्यालय को सजाना है.
बेटे हो या बेटियाँ,
सबको खूब पढ़ाना है.
सबको खूब पढ़ाना है..

स्कूल

रचनाकार- सपना यदु

सुबह उठकर नित्य कर्म कर.
जाते हैं हम रोज स्कूल..

भले कोई भी मुश्किल आए.
जाते नदी पार करके पुल..

इसकी भूमि है पावन.
विद्या तिलक सा लागे धूल..

हरियाली है चारों ओर.
प्यारे-प्यारे खिले हैं फूल..

लौकी, भिंडी, भटा, टमाटर.
किचन गार्डन में फले हैं खूब..

खाकर यहां स्वादिष्ट भोजन.
बंद बुद्धि जाती है खूल..

यहां आकर हम हैं जाते.
अपने सारे गम को भूल..

खूब मजा यहां पर आता.
हमको प्यारा है स्कूल..

श्यामपट्ट

रचनाकार- सपना यदु

देखो-देखो प्यारे बच्चों मैं हूँ तुम्हारा मित्र सखा.
मैंने तो तुम्हें है सदा, ज्ञान की बातें दी है सीखा..

मेरे रूप हैं अनेक, मैं हूँ काला, हरा, सफेद.
सब बच्चे हैं एक समान, नहीं किसी मे कोई भेद..

अ आ इ ई, १ २ ३ और मैं सिखाऊं A B C.
जैसे ही घंटी बजती है, फिर हो जाती मेरी छुट्टी..

सबका मुंह है मेरी ओर, सबका ध्यान मुझ पर है होता. म
तुम्हारे काम आऊं, सोचकर गर्व मुझको है होता..

लिख -लिख कर जब हो जाती हूँ, देखो बच्चों में पुरानी.
फिर मुझ को सुंदर बनाने, रंग चढ जाती मुझ पर सुहानी..

मम्मी, पापा, दादा, दादी और मुझे जानते हैं तुम्हारे नाना नानी.
है मेरा सबसे पुराना नाता, अब आ गई है तुम्हारी बारी..

मैं तुम्हारा सच्चा दोस्त, मुझ पर करते रहना भरोसा.
गुरु के प्रिय रहोगे सदा, जीवन पथ में आगे बढ़ोगे हमेशा..

हम बच्चे प्यारे-प्यारे

रचनाकार- सपना यदु

हम बच्चे प्यारे- प्यारे हैं.
मां की आंखों के तारे हैं..

मां के हैं हम लाल.
उसकी आंखों के तारे हैं..

अगर कभी हम रूठ जाएं.
चंदा मामा को बुलाती है..

प्यारे -प्यारे गीत सुना कर.
दूध रोटी खिलाती है..

अगर कभी जब नींद सताए.
लोरी गा के सुलाती है..

अगर कभी जो हम डर जाएं.
हम को गले लगाती है..

उछल कूद करते रहते.
हम बच्चे प्यारे-प्यारे हैं..

जलेबी

रचनाकार- नरेन्द्र सिंह नीहार, नई दिल्ली

चन्दू चाचा बेच रहे हैं,
गरमा गरम जलेबी.
एक पाव,बीस में ले लो,
मीठी मस्त जलेबी..

टेढ़ी-मेढ़ी अन्दर से है
बाहर गोलम गोल.
खाओ और घर ले जाओ,
मीठे हो जाएँ बोल..

नन्नू जी दादी से पूछे,
इनमें कैसे भरता रस.
कड़क कढ़ाई में यह दिखती,
हो जाती कैसे सरस..

नीचे भरी चासनी में यह
मनभावन हो जाती.
चन्दू बातें बहुत बनाता,
यूँ ही बिकती जाती..

चले तोड़ने सीताफल

रचनाकार- राजेन्द्र श्रीवास्तव

कोदू, भीमा और साथ में
दोनों से छोटा मंगल
लिये टोकरी छोटी-छोटी
चले तोड़ने सीताफल

कापी, पेन, किताबों से भी
इन तीनों को प्यार है
विद्यालय नियमित जाते हैं
मगर आज इतवार है
अब तक हर कक्षा में इनका
उत्तम रहा परीक्षाफल

लिये टोकरी छोटी-छोटी
चले तोड़ने सीताफल

कपड़े फट जाते हैं फँसकर
छोटी-बड़ी झाड़ियों में
इसीलिए कम कपड़ों में ही
चले पठार-पहाड़ियों में
घर से ज्यादा दूर नहीं है
मीठे-मीठे सीताफल

लिये टोकरी छोटी-छोटी
चले तोड़ने सीताफल

घंटे-दो घंटे में जितने
सीताफल मिल जाएँगे
सब मित्रों के साथ बैठकर
बड़े मजे से खाएँगे
इनकी गहरी बहुत मित्रता
नहीं कपट मन में न छल

लिये टोकरी छोटी-छोटी
चले तोड़ने सीताफल

शरद ऋतु

रचनाकार- कृष्ण कुमार ध्रुव

बारिश छट गई शरद ऋतु है आई.
ओंस की बूंदों से युक्त, ठंडी है लाई..
सभी ऋतुओं से यह आनंदित लगती है.
घने बादल कोहरा और धुंध से सजती है..
स्वच्छ आसमान नीले दिखाई है देता.
मनु ठंडी दूर करने दिनभर धूप है लेता..
अमरूद, पपीता, संतरा, चीकू अनेक मिलते फल.
सेवन करके उत्तम स्वास्थ्य और मिलता है बल..
पृथ्वी सूर्य से दूरी पर चक्कर लगाती है.
ऋतुएं बदल कर कड़ाके की ठंडी छा जाती है..
पर्वत पहाड़ियों की प्राकृतिक छटा होती है निराली.
बर्फ चादर ओढ़े धरा देख नयन है मतवाली..
सूर्य की लालिमा किरणें ओंस दिखे मानो रंगबिरंगे फूल.
वातावरण को मिला नया रूप पृथक हुए हवा से धूल..
किसान गेंहूँ,चना फसलों को देते नया जीवन.
शरद ऋतु दशहरे, दिवाली से है अद्भुत पावन..
विटामिन से भरपूर हरी सब्जियों की होती है अधिकता.
बैगन, गोभी,धनिया,मूली, लौकी सब है मिलता..
मजबूत पाचन शक्ति सेहत होता है उत्तम.
चमन बहारों में फैली ताजी हवा है मध्धम..

दीपावली

रचनाकार- टेकराम ध्रुव 'दिनेश'

टिम -टिम करते दीप धरा में,
लगते कितने प्यारे.
ऐसा लगता आसमान से,
उतर पड़े सब तारे..
दीपों का यह पर्व दीवाली,
लगती कितनी प्यारी.
धम-धमा-धम की लय से,
गूँजे वसुधा सारी..
बच्चों की ये धमा-चौकड़ी,
कितनी खुशियाँ देती है.
घर की सारी नीरवता को,
पल में ही हर लेती है..
आओ, हम सब मिलकर जग में,
प्यार के दीप जलाएँ.
घृणा-द्वेष के भाव को जलते,
दीपों में जला जाएँ..

समय बहुत बलवान

रचनाकार- शशि पाठक

सब दिन होते ना एक समान,
मंजिल की चाह में हम सब भटकें.
पर राह नहीं है आसान,
होता है समय बहुत बलवान.

मंजिल को जो भूल है जाता,
दर –दर की ठोकर है खाता.
कठिन राह पर चले जो प्राणी,
जीवन में सफल वही हो पाता.
यही है जीवन की पहचान,
होता है समय बहुत बलवान.

गुजरा समय नहीं आएगा,
कर्महीन फिर पछताएगा.
समय की फाँस में बंधे हैं सब,
जो ना चले वो छूट जाएगा.
चाहे हो नेता,अफसर या किसान,
होता है समय बहुत बलवान.

राजा रंक, कभी रंक हो राजा,
कर्म की गति कोई टाल ना पाता.
कोई मखमल में भी सो ना पाए,
कोई काँटों पर भी है सो जाता.
जाने क्या-क्या लेख लिखे भगवान,
होता है समय बहुत बलवान.

सोचो क्या और क्या होता है,
सपना कब पूरा होता है.
बुरे समय में भी जो जाए,
मंजिल उसी को मिलती है.
बढ़ चलो समय की कर पहचान,
होता है समय बहुत बलवान.

माँ मुझे स्लेट और बत्ती दे दो

रचनाकार- लुकेश्वर सिंह

मां मुझे स्लेट और बत्ती दे दो.
मैं भी स्कूल पढ़ने जाऊंगा.
पढ़ लिखकर समाज के सभी वर्गों को पढ़ाऊंगा.
शिक्षा पाने का हक सबको है यह बात सभी को बताऊंगा.
हो सकता है मैं भी एक शिक्षक बन जाऊंगा.

मां मुझे स्लेट और बत्ती दे दो.
मैं भी स्कूल पढ़ने जाऊंगा.
इंसान को सही गलत के ज्ञान का बोध कराउंगा.
भेदभाव और छुआछूत की भावना सबके मन से हटाउंगा.
माँ मुझे स्लेट और बत्ती दे दो मैं भी स्कूल पढ़ने जाऊंगा.
शिक्षा है इंसान के जीवन का सबसे बड़ा हथियार यह बात सभी को बताऊंगा.
माँ मुझे स्लेट और बत्ती दे दो.
मैं भी स्कूल पढ़ने जाऊंगा.
शिक्षा के आते ही सबके घरों में उजाला होगा.
घर-घर में एक किरण बेदी और एक कलाम राजदुलारा होगा.
मां मुझे स्लेट और बत्ती दे दो.
मैं भी स्कूल पढ़ने जाऊंगा.
मेरे देश में सभी इंसानों के तन पर कपड़ा होगा.
कोई ना होगा भूखा यहाँ ना कोई होगा बेघर.
देश के कोने कोने से आतंक को मिटाउंगा.

माँ मुझे स्लेट और बत्ती दे दो मैं भी स्कूल पढ़ने जाऊंगा.
जग को नई दिशा दिखाऊंगा.
अपने देश के लिए कुछ अच्छा कर जाऊंगा.

नाज करोगी तुम भी मुझ पर जब मैं देश का लाल कहलाउंगा.

तितली रानी

रचनाकार- लक्ष्मी सोनी

रंग बिरंगी न्यारी-न्यारी,
मेरी प्यारी तितली रानी.

इधर-उधर वह उड़ती रहती,
करती रहती है मनमानी.

मन करता है इनको छू लूँ,
अपने घर में इनको रख लूँ.

पास बिठा के इन्हें खिलाऊँ,
इनकी दुनिया में रँग जाऊँ.

बापू

रचनाकार- वीरेन्द्र कुमार साहू

बापू आपकी कथा निराली,
जीवन प्रेरणा देने वाली.
सत्य-अहिंसा अपनाया,
देश को आजाद कराया.

ज्ञानवान सत्यवान आप थे,
बहु गुणों की खान आप थे. निर्बल का संबल आप थे,
स्वाभिमानी, धैर्यवान आप थे.

निश्छल जीवन, सीधा-सादा,
कातें सूत चरखा लिए सदा.
सब जीवों में राम दिखाया,
सदा प्रेम का पाठ पढ़ाया.

अटल खड़े पेड़

रचनाकार- वसुंधरा कुर्रे

अटल खड़े हैं पेड़ सारे,
अटल खड़े हैं पेड़ सारे,
बहुत सुंदर प्यारे-प्यारे.
यह देते हैं हमको फल- फूल
और देते हैं छांव,
देते हैं हमको जड़ी -बुटियाँ
और देते इमारती लकड़ियाँ
देते पेड़ हमको शुद्ध हवा
और देते हैं वर्षा पानी
अटल खड़े हैं पेड़ सारे.
सोच रहे हैं हम भी घूमेंगे,
इधर-उधर टहलेंगे,
मगर है ये सदियों का सच
पेड़ के पांव कहाँ होते हैं
पेड़ कहाँ चल पाते हैं
पेड़ खड़े हैं अपनी ठाँव
ये तो देते हैं हमको छाँव
अटल खड़े हैं पेड़ सारे
बहुत सुंदर प्यारे-प्यारे.
बहुत सुंदर प्यारे- प्यारे.

मूँगफली

रचनाकार- नरेन्द्र सिंह 'नीहार'

जाड़े का मौसम आते ही,
बिकने लगती गली - गली.
सारे फल लगते पेड़ों पर,
जड़ में आती मूँगफली.
बड़े चाव से खाते सारे,
बच्चों के मन को भाती.
सर्दी में गर्मी पहुँचाए,
रही गरीबों की साथी.
दाँत बिना दादी - दादा को,
रही दूर से ललचाती.
अम्मा गाजर के हलुआ में,
पीस - पीसकर डलवाती.
कभी शाम को लेकर बैठें,
संग मे अपने मूँगफली.
बात बनाते खाते - खाते,
छिलकों की बारात चली..

भोर

रचनाकार- इन्द्राणी साहू 'साँची'

भोर हुई रवि आया अम्बर.
शुभ स्वर्णिम किरणों को लेकर..
तटिनी में छवि आप निहारे.
रक्तिम वर्णि रूप श्रृंगारे..

शीतल पवन चली पुरवाई.
शुभ स्वाध्याय समय ले लाई..
संचेतना विश्रांति पाकर.
प्रज्ञा प्रखर बने तब जाकर..

उपवन में कलियाँ मुस्काईं.
रंग बिरंगी तितली आई..
भ्रमर प्रीत के गीत सुनाते.
फूलों के मन को हर्षाते..

कलकल करता बहता निर्झर.
चिड़िया चहक रही पेडों पर..
मुर्गे ने भी बाँग लगाया.
जाग मुसाफिर शोर मचाया..

आलस छोड़ो अब उठ जाओ.
योगासन का लाभ उठाओ..
स्नान ध्यान कर पूजन अर्चन.
शांत चित्त हो महके जीवन..

ऐसी स्वर्णिम बेला आई.
नस नस में भरती तरुणाई..
प्रात काल मन को अति भाता.
नव ऊर्जा नव जोश जगाता..

यह समय नहीं व्यर्थ गँवाना.
नई सुबह नव कदम बढ़ाना..
कर्म मार्ग में बढ़ते जाओ.
नवल भोर का लाभ उठाओ..

मेरी बेटियाँ

रचनाकार- संतोष कुमार पटेल

शीतल बयार जैसी चलती बेटियाँ,
निर्मल जल जैसी बहती बेटियाँ.
ठंडक दिलाती छांव सी बेटियाँ,
घाव को भरती दवा सी बेटियाँ.
धरती को जन्नत सा बनाती बेटियाँ,
दो कुलों की मर्यादा निभाती बेटियाँ.
कोमल हाथों से घर सजाती बेटियाँ,
दुख सहकर भी मुस्कुराती बेटियाँ.
कभी रसोई में हाथ बटाती हैं बेटियाँ
कभी दुश्मन के छक्के छुड़ाती बेटियाँ.
घर-आँगन को महकाती बेटियाँ,
एवरेस्ट चढ़ फतेह कर जाती बेटियाँ.
राष्ट्रपति बन देश चलाती बेटियाँ,
चाँद पर भी परचम फहराती बेटियाँ.

मेरी टीचर

रचनाकार- प्रियंका सिंह

मेरी टीचर सबसे सुंदर, सबसे न्यारी,
बातें करती हैं वो प्यारी प्यारी.

मुझको रोज पढ़ाती हैं,
साथ हमारे शक्कर सी घुल जाती हैं.

संग हमारे गाना गाती,
जब वो पाठ पढ़ाती हैं.

बड़े प्यार से समझाती हैं,
रोज नई-नई बातें बताती हैं.

प्रेम से रहना सिखाती हैं,
बड़ों का आदर कराती हैं.

ये सब शिष्टाचार की बातें हमें बताती हैं,
मुझको रोज पढ़ाती हैं.

कभी गलतियां नहीं गिनाती हैं,
खूब- लाड़ लड़ाती हैं.

फूलों सी मुस्काती हैं,
हमारी प्यारी परी भी बन जाती हैं.

बिना जादू की छड़ी के जादू दिखलाती है,
अनुशासन की हैं वो बिल्कुल पक्की.

रोज समय पर शाला आ जाती हैं,
हम सबकी सच्ची दोस्त बन जाती हैं.

हमारी हर समस्या सुलझाती हैं,
साथ हमारे खूब खेलती, हमको खूब हंसाती हैं.

हमें खेल खेल में पढ़ाती हैं,
नए नए खिलौने रोज दिलाती हैं.

ना जाने कितना प्यार जताती हैं,
हम सब के लिए नन्ही सी बच्ची भी बन जाती हैं.

नमन

रचनाकार- रीता गिरी

माता- पिता के चरणों में, नमन शत् बार है.
जिनके आशिष से मिला, खुशियों का संसार है.

माता- पिता भगवान का दिया, सबसे अनमोल उपहार है.
इस धरती पर वही,हम सबके पालनहार है.

मेरे लिए माता ज़मीं, तो पिता आसमान है.
उनको सदा खुश रखूं, यही मेरा अरमान है.

माता-पिता के आदर्श और संस्कार, जीवन के आधार है.
माता-पिता की ममता और प्यार, जीवन का सर्वोत्तम उपहार है.

शिक्षा-दीक्षा देकर हम सबको, ज्ञानवान बनाया है.
मानवीय मूल्यों का देकर ज्ञान, जीवन धन्य बनाया है.

माता -पिता के अथक प्रयासों ने, हमें मंजिल तक पहुंचाया है.
नि:स्वार्थ प्रेम और संस्कार देकर, अपना कर्तव्य निभाया है.

हां माता-पिता के रूप में, मैंने पाया भगवान है.
उनसे ही मेरा अस्तित्व, उनसे ही मेरी पहचान है.

माता- पिता के चरणों में, नमन शत् बार है.
जिनके आशिष से मिला, खुशियों का संसार है.

जनगणना

रचनाकार- विक्रम 'अपना'

जंगल में जनगणना जारी थी.
हैट लगाए चींटीं रजिस्टर लेकर बंदर से प्रश्न पूछ रही थी.
हाथी- एक भी नहीं
जेब्रा- एक भी नहीं
घोड़ा- एक भी नहीं
शेर - एक भी नहीं
बंदर- मैं अकेला ही हूँ. इस जंगल में.
जंगल के मायने बदल चुके थे. चार पेड़ के झुरमुट को अब जंगल कहा जाता था.
यह नज़ारा सन 3001 का था.
अब लगभग सारे जानवरों की प्रजातियां विलुप्त हो चुकी थीं.
केवल एक ही प्राणी चारों और व्याप्त था वह था आदमी.

एक नन्हा सा भालू

रचनाकार- नीरज त्यागी `राज`

एक छोटा, नन्हा सा भालू,
बचपन से था बहुत ही चालू.
दादी माँ का था वो प्यारा,
घूमता पूरे दिन भर आवारा..

पढ़ने-लिखने से था कतराता,
पिता से अपने बहुत घबराता.
मोबाइल का था बहुत शौकीन,
खेलता मोबाइल पर गेम तीन..

लूडो से था बहुत ही प्यार,
पबजी खेलते थे तीन यार.
साँप-सीढ़ी उसको भाता,
खाना खाना वो भूल जाता..

मम्मी उसकी रहती परेशान,
दिनभर वो उन्हें करता था हैरान.
इन खेलो के खिलाफ था राजा,
बैन किये गेम, बजा दिया बाजा..

मम्मी पापा को भा गया उपाय,
लगता बच्चे मोबाइल से दूर हो जाएँ,

मुर्गा बाँग लगाता है

रचनाकार- प्रिया देवांगन प्रियू

उठो प्यारे आँखे खोलो.
सूरज दादा आये है..
लाल लाल किरणों के सँग में.
सब में आश जगाये है..

मेरा मुर्गा है अलबेला.
जल्दी से उठ जाता है..
कुड़कूँ-कूँ आवाज लगा कर.
सबको वह जगाता है..

सुबह-सुबह छत में चढ़ कर.
कुकडू-कूँ चिल्लाता है..
मुर्गी देखकर मुर्गा राजा.
गीत नया वह गाता है..

मुर्गियों का होता है राजा.
वह रोज सैर पर जाता है..
चारे चुगता रहता दिनभर.
सबको सन्देश सुनाता है..

सिर के ऊपर कलगी रखता.
दिन भर वह इठलाता है..
घूम घूम कर इधर उधर.
दाने चुग कर आता है..

चूजों को अपने सँग लेकर.
बड़े मजे से घुमाता है..
सुबह-सुबह जल्दी उठ कर.
मुर्गा बाँग लगाता है..

एकता का राज

रचनाकार- ईश्वर साहू

मैं चला जा रहा था,
अचानक मधुर स्वर सुनाई पड़ा,
देखा नजारा अच्छा लग रहा था.
चमेली नाच रही थी,
गुलाब गाना गा रहा था.
वैजयंती स्वर में स्वर मिला रही थी,
गेंदा बाजा बजा रहा था.
रहा न गया पूछ बैठा मै,
क्यों? क्या बात है ?
अलग-अलग जाति के होकर
स्वर में स्वर मिला रहे हो?
इतना सुनकर गुलाब और लाल हो गया
बोला तुम कौन हो ?
कहाँ से आए हो?
अनेकता में एकता का राज,
मालूम नहीं है.
तू भारत देश का निवासी नहीं है.
तू भारत देश का निवासी नहीं है.

क्यों?

रचनाकार- ईश्वर साहू

कहते हो, पेड़ हमारा जीवन है,
तो क्यों नाश कर रहे हो ?
पर्यावरण को प्रदूषण और
अंधेरे में धकेल रहे हो?
आज मानव इतने भयानक हो गए हैं,
कि जानवर भी उनके डर से भाग रहे,
वाह रे तू क्यों भूल गया?
याद करो वो दिन,
जब बिना कपड़ों के घूमते थे.
जानवर को जानवर नहीं,
अपनी बिरादरी का समझते थे.
पेड़ ही तुम्हारे इज्जत को ढकते थे.
तो क्यों आज पर्यावरण के कपड़े उतार रहे हो?
प्रकृति को अलग क्यों समझते हो?
अपना नहीं सौतेला सा व्यवहार करते हो?
ठीक आज भौतिकवाद की,
लहर में दौड़ रहे हो.
अपने अस्तित्व को भूल गए,
अभी भी समय है जाग जाओ
इनको मित्र और संबंधी बनाओ
जितना हो सके अधिक से अधिक पेड़ लगाओ.
अपना जीवन आगे खुशहाल बनाओ.

वर्षा ऋतु प्यारी है

रचनाकार- उषा साहू

वर्षा ऋतु प्यारी है
आह कितनी न्यारी है
सुंदर सजी क्यारी है
लगती बड़ी मनोहारी है..
वर्षा ऋतु प्यारी है
पानी की बूंद पड़ी तो
सुगन्धित हुई धरती न्यारी
कोयल की गूँजी किलकारी है...
वर्षा ऋतु प्यारी है
वर्षा की बौछार पड़ी तो
मोर ने फैला दी अपनी
रंगीनी पँखो को निराली है.
वर्षा ऋतु प्यारी है
चारो ओर फैली हरियाली है
चहुओर छाई खुशियाली है
धरती लगती बड़ी सुहानी है..

नदी हूँ नदी हूँ

रचनाकार- द्रोण कुमार सार्वा

नदी हूँ नदी हूँ
पहाड़ो की बिटियाँ
प्रपातों में खेली
उछलकर हवाओं
से आंख मिचौली
कही शांत निर्जन
कही भीड़ भारी
हरे खेत खलिहान
बनकर खुशहाली
मैदान तट पर मैं
आगे बढ़ी हुँ...
नदी हूँ, नदी हुँ..

कितने अड़ंगे
रुकावट है भारी
बने राह रोड़ा
मेरी इस सवारी
मगर मैं उलझन
से भिड़कर बढ़ी हूँ
खुशहाल जन -मन
मैं करती चली हुँ
नदी हुँ, नदी हुँ...

वो गन्दा सा नाला
वो नन्ही सी नदियां
बाँधे सरोवर
कही ताल,तरिया
छोटा, बड़ा न
कोई भेद इनसे
सब है सहायक
सुख-दुख के संगी
सागर के राहों में
ज्यों-ज्यों बढ़ी हुँ..
नदी हूँ, नदी हूँ...

समय के फलक पर
जो इतिहास बीता
कोई युद्ध हारा
किसी ने है जीता
संस्कृति अनेकों
सभ्यता समेटे
मेरे तट की घटना
वो विस्मृत अवशेषें
समेटे मैं चुपचाप
साक्षी बनी हुँ....
नदी हूँ, नदी हुँ...

मेरे गाँव की शाम

रचनाकार- द्रोण कुमार सार्वा

गया क्षितिज से दूर उजाला,
सूरज करने चला आराम
फैल रही चहुँओर लालिमा,
मेरे गांव की शाम...

ऊँचे नभ पर झुंड -झुंड में,
लौट रही पूरब से चिड़िया.
थक हारकर लगा हो जैसे,
सबसे प्यारी अपनी दुनिया.

बिखर रहे गोधुल गाँवो में,
गौठानों से लौटे गइया.
रम्भाते नन्हे बछडों ने,
आहट दी मैय्या-मैय्या.

अपनों के सब संग साथ हो,
पहुँच रहे है अपने धाम.
बड़ी अनोखी मन को भाये,
मेरे गाँव की शाम...

नदी तीर के कुँए पर
मटकी ले पनिहारिन पहुँचे
दूर खेत खलिहानों से सब
लौटे श्रम की आरत करके

अम्मा ने कंडो को लेकर
भोजन को है आग सुलगाई
नई बहुरिया दिया बाती कर
बड़े जतन से चली रसोई

मंदिर की घण्टी टन-टन
सजी पूजा की थाल
बड़ी अनोखी मन को भाये
मेरे गांव की शाम...

शिक्षा

रचनाकार- हितेंद्र कोंडागंया

चलो शिक्षा पर
कुछ लिखने की
कोशिश की जाए
एवरेस्ट पर चढ़ने का
प्रयास किया जाए.

इसी बहाने मित्रों का
सहयोग प्राप्त किया जाए
चलो शिक्षा पर
लिखने अभिनव कार्य
सफल किया जाए.

क्या यह संभव है
एक अदना सा
सहायक शिक्षक
शिक्षा पर कुछ
लिख पाएगा
कुछ कर भी पाएगा.

कोशिश करने में
क्या गुरेज है
हार मानने से
तो यह बेहतर है
अतएव एक जोर
लगाया जाए.

कम से कम
आजमाईश तो
किया जाए.
शिक्षा का महत्व तो
कह लिया जाए.

स्वर्गीय मा जो
एक सहायक शिक्षक
रही अपने जीवन के
अंतिम क्षण तक.
मुझे सौंप गई
कर्तव्य निर्वाह के
शेष उत्तरदायित्व.

ताकि कम से कम
उनका दिया हुआ
ऋण से उंचय तो
हो सकूं. वर्ना
दबा रहता उनके
दिए गए शिक्षा के
ऋण तले आजीवन..

नदियाँ

रचनाकार- सपना यदु

कल -कल छल- छल बहती नदियाँ.
मधुर गीत सुनाती नदियाँ..

बच्चे इसमें खूब नहाए.
क्या बूढ़े और क्या जवान..

तेरे ही इस शीतल जल से.
खेती करते हैं किसान..

तू है पावन और तू सदा पवित्र कहाए.
कार्तिक मास में प्रातः काल, दीपक तुझमें लोग बहाए..

गंगा, यमुना, सरस्वती तेरे हैं अनेकों नाम.
तेरे जल में डुबकी लगाकर, तीर्थयात्री करें प्रणाम..

तेरा दृश्य है सुंदर और तू है सबको भाती.
बहते बहते तू अंत में सागर में जाकर मिल जाती..

बेटियाँ

रचनाकार- सपना यदु

आँगन को गुलाबों सा महकाती हैं, बेटियाँ!
पापा के लिए आसमान की परी हैं, बेटियाँ!
भाई के सूनी कलाइयों की मान हैं, बेटियाँ!
घरौंदे के पिटारों में संस्कारों की खदान हैं, बेटियाँ!
अपने ही बाबुल के घर में मेहमान हैं, बेटियाँ !
उस घर की पहचान बन जाती हैं, जिस घर से अनजान हैं, बेटियाँ!
लड़के अगर 'आज' हैं तो आने वाला कल हैं,बेटियाँ !बेटों का शौक पूरा हो,
पर टूटी फूटी चीजों को जोड़कर शौक पूरा कर लेती हैं, बेटियाँ !
बेटा तो एक कुल का है, पर दो-दो कुलों की लाज रखती हैं, बेटियाँ !
घर की आन-बान और साक्षात लक्ष्मी का स्वरूप हैं, बेटियाँ !
आंगन की रंगोली और हाथों की मेहंदी है, बेटियाँ !
डॉक्टर, नर्स, पुलिस और आर्मी हर जगह हैं, बेटियाँ !
बेटों को टक्कर दे कदम से कदम मिला रही हैं, बेटियाँ !
बेटा ना हो जिस वंश में तो क्या, आज अर्थी भी उठा रही हैं, बेटियाँ!
अरे, दुनिया वालों जिसे कहते हो,आगे तुम्हें चूल्हा ही फूंकना है,
जरा सोचो__
जिस धरती पर खड़ा होकर, आसमान को निहारते हो,
उस चांद तक भी पहुंच गई हैं, बेटियाँ!
यह जानते हैं सभी बहन, माँ और पत्नी का किरदार जिसके बिना अधूरा है,
फिर भी बेकसूर बेबस लाचार गर्भ में मार ही मार दी जाती हैं, बेटियाँ!

कोहिनूर की आभा (महात्मा गाँधी)

रचनाकार- डिजेन्द्र कुर्रे 'कोहिनूर'

सत्य धरम की राह पर, चलकर हुए महान.
भारत आज स्वतंत्र है, पा जिनका अवदान..
परम अहिंसा धर्म का, बनकर नित ही भक्त.
राग द्वेष छल दंभ का, बने नही आशक्त..
जीवन में पहने सदा, खादी का परिधान.
मान स्वदेशी को दिया, रच दी परम विधान..
जीवन भर करते रहे, अपनों पर उपकार.
परिस्थिति जो भी मिली, नहीं मनाया हार..
जिनकी पावन सोच थी, स्वच्छ रहे परिवेश.
कोहिनूर सुरभित हुआ, राष्ट्रपिता से देश..

बापू के बन्दर

रचनाकार- प्रिया देवांगन 'प्रियू'

बापू बन्दर तीन, बहुत ही धूम मचाते.
उछले कूदे रोज, नाच को सभी नचाते..

बुरा न देखो आप, सदा सबको बतलाते.
कैसे बढ़े समाज, हमें वे राह दिखाते..

सुन लो बच्चों बात, झूठ तुम कभी न कहना.
बुरा कभी ना सोंच, सभी से मिलकर रहना..

बुरा न बोलो आप, सभी को यही सिखाते.
बापू बन्दर तीन, सदा ही राह दिखाते..

बुरा कभी ना बोल, हमेशा यही सिखाते.
मानो मिलकर बात, सभी को बात बताते..

बाढ़े अत्याचार, देश को कौन बचाये.
बेटी हुई निराश, कौन अब इसे मनाये..

बापू बन्दर मौन, रोज चलती अब आँधी.
बुरे यहाँ हालात, सिसक कर रोये गाँधी..

मनु बंदर

रचनाकार- टीकेश्वर सिन्हा 'गब्दीवाला'

स्कूल पहुँचा मनु बंदर,
खोल कर स्कूल गेट.
भालू सर ने पूछा,
आज फिर कैसे लेट?
मनु बंदर ने दिया जवाब,
मैं आ रहा था स्कूल.
अचानक मुझे याद आया,
लंच बॉक्स गया भूल.
भालू ने मुस्करा कर,
फिर पूछा एक बार.
अपने लंच में तू,
क्या लाया इस बार.
मनु हँसकर बोला,
सर उठा कर थोड़ा.
सर जी! मैं लाया आज,
गरम-गरम पकौड़ा.

नई इबारत लिख जाना

रचनाकार- रजनी शर्मा

कल थामा था जहाँ हमारा हाथ,
माउस, कीबोर्ड के संग हो लेना.
मॉनिटर में चमकते अक्षरों के साथ,
आँखों की स्लेट में सपने लिख लेना.
बदलते वक़्त की अब मानकर बात,
नवप्रयास की अगुआई तुम ही कर लेना.
जब कभी शिखरों पर जब हो तुम्हारी चढ़ान,
नींव के पत्थरों को भी याद जरा कर लेना.
मन आकुल, व्याकुल होकर जब जाये थक,
दे आवाज़ सधिकार हमें पुकार ही लेना.
साहस के बस्ते में ज्ञान के साथ,
भविष्य की नई इबारत लिख जाना.

इंतजार

रचनाकार- प्रिया देवांगन 'प्रियू'

नयन ताकती राह को, इंतजार हर बार.
कब आओगे साजना, बना रही हूँ हार..

सुई और धागा लिये, बैठी घर के द्वार.
बैठे बैठे बित गया, नही गयी उस पार..

हरे रंग साड़ी पहन, हुई आज तैयार.
जल्दी आओ साजना, करती तुमको प्यार..

चूनकर लाई बाग से, हुई भक्ति में लीन.
हाथो में गजरा लिये, बना रही पल छीन..

साजन आये द्वार पर, जागी मन में आस.
झूम खुशी से मन उठा, आये मेरे पास..

वसुधा है परिवार

रचनाकार- प्रमोद दीक्षित मलय

हम एक नया संसार बनायें.
न ढलें अश्रु नयनों से, स्वप्न पलें.
सुख-दुख में शामिल, बन दीप जलें.
मानव-मन के सब कष्ट मिटाकर,
जीवन में हर पल हंसें-हंसायें.
हम एक नया संसार बनायें..

हर मानव को भोजन वस्त्र मिले.
काम हाथ को, मुख- मुस्कान खिले.
भेदभाव से ऊपर उठकर हम,
वंचित- शोषित को गले लगायें.
हम एक नया संसार बनायें..

जियें प्रकृति सह शुभ धरा बचायें.
गिरि, कानन, मरु, सागर, सरितायें.
वसुधा ही है परिवार हमारा,
ध्वज मानवता का हम फहरायें.
हम एक नया संसार बनायें.

रक्तदान

रचनाकार- वीरेन्द्र कुमार साहू

हर जीवन को जरूरी है शरीर में रक्त हो
मानवता को जरूरी है मन में भाव हो

जो करता भला जीवन के कर्मो को
सवारता वह अपने कई जन्मो को
दान ही जीवन का सर्वोत्तम गुण है
रक्तदान कर बचा सकता जीवन को.

रक्तदान ही होता महादान है
रक्त से दूसरों की बचती जान है
बहुत बड़ा पुण्य का यह काम है
करना अवश्य चाहिए रक्त का दान है..

1 अक्टूबर को यह दिवस मनाया जाता
स्वस्थ करें दान यह समझाया जाता
करके दान किसी का भला कीजिए
दुआएँ पाइए जीवन सफल कीजिए..

दीप जलाना दीवाली में

रचनाकार- महेंद्र कुमार वर्मा

दीप जलाना दीवाली में,
ख़ुशी मनाना दीवाली में.

नए नए परिधान पहन के,
तुम इठलाना दीवाली में.

रॉकेट चकरी फुलझड़ी से,
घर दमकाना दीवाली में.

धूम मचाते दीप पर्व का,
गीत सुनाना दीवाली में.

मिष्ठानों से थाल सजा के,
मीत बुलाना दीवाली में.

ख़ुशी ख़ुशी त्यौहार मना के,
प्रीत बढ़ाना दीवाली में.

नवरात्रि

रचनाकार- प्रिया देवांगन 'प्रियू'

सजता सुंदर द्वार है, स्वागत करते लोग.
माता रानी आती हैं, सभी लगाते भोग..
सभी लगाते भोग, भक्त जन करते सेवा.
लेते आशीर्वाद, सभी पाते हैं मेवा..
सभी जलाते दीप, द्वार सुंदर है लगता.
आती माता रोज, घरों में दीपक सजता..

आई सबके द्वार में, माता रानी आज.
शीश झुकाते लोग हैं, बनते बिगड़े काज..
बनते बिगड़े काज, कामना पूरा करतीं.
खुश होते हैं लोग, खुशी जीवन में भरती..
दीप जलाते लोग, दिलों में खुशियाँ छाई.
सभी भक्त के साथ, द्वार में माता आई..

अधरों पर मुस्कान खिली

रचनाकार- प्रमोद दीक्षित मलय

उपवन की शोभा बढ़ती जब,
खिलते पाटल और लिली हैं.
स्नेह-भाव पाकर अपनों का,
अधरों पर मुस्कान खिली है.

प्रेम लुटाया करते हैं जो,
भेदभाव से ऊपर उठकर.
गिरि-शीश झुकाया करते वे,
जो बढते जाते गिर-गिरकर.

बाधाओं को मीत बना ले,
वह साधक है, बहुत बली है.
स्नेह-भाव पाकर अपनों का,
अधरों पर मुस्कान खिली है..

कल से सीख-समझ लेते हैं,
बीत गया जो न उस पर रोते.
वर्तमान में श्रम सीकर से,
स्वर्णिम कल के सपने बोते.

सदा सुवासित श्रम श्वेद से,
खलिहान, खेत, द्वार, गली है.
स्नेह भाव पाकर अपनों का,
अधरों पर मुस्कान खिली है..

छोटा-सा है मेरा परिवार

रचनाकार- दिलकेश मधुकर 'सूर्य'

छोटा - सा है मेरा परिवार,
जिसमें बसती खुशियाँ अपार.

मेरे दादा हैं जानकार,
कहते हैं कहानी हजार.

दादी मेरी भोली-भाली,
खीर खिलाती भर-भर थाली.

ज्ञानवान है पापा मेरे,
हरदम काम से रहते घिरे.

अम्मा की मैं करूँ गुणवान,
रोज बनाए नए पकवान.

बहना छोटी, बड़ी सयानी,
नृत्य कला की है दिवानी.

होकर बड़ कुछ काम करूँगा,
शिक्षक बनकर नाम करूँगा.

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