भारत को स्वच्छ बनाना है

रचनाकार - मनोज कुमार पाटनवार

आओ स्वच्छता को अपनाना है
भारत को स्वच्छ बनाना है
शौच के बाद एवं भोजन से पहले
साबुन से हाथ धुलाना है
आओ स्वच्छता को अपनाना है
भारत को स्वच्छ बनाना है

खुले में शौच नहीं करना है
एक दूसरे को शपथ दिलाना है
आओ स्वच्छता को अपनाना है
भारत को स्वच्छ बनाना है

घर पर रहे या स्कूल में रहे
शौच के लिए शौचालय में जाना है
आओ स्वच्छता को अपनाना है
भारत को स्वच्छ बनाना है

कूड़े कचरा को नहीं फैलाना है
हर जगह डस्टबिन को अपनाना है
आओ स्वच्छता को अपनाना है
भारत को स्वच्छ बनाना है

नदी तालाब को स्वच्छ बनाना है
वाहित मल को नदी में नहीं बहाना है
आओ स्वच्छता को अपनाना है
भारत को स्वच्छ बनाना है

प्लास्टिक मुक्त देश बनाना है
कपड़े, कागज के थैला अपनाना है
आओ स्वच्छता को अपनाना है
भारत को स्वच्छ बनाना है

मैं नदी हूं

रचनाकार - वसुन्धरा कुर्रे

नदी हूं मैं नदी हूं
हरदम बहती रहती हूं
सुनो बात मेरी अनोखी नदी हूं
पहाड़ों से जन्म लिया
जा सागर में मिल जाती हूं
नदी हूं मैं नदी हूं
हरदम बहती रहती हूं
जहां जन्म लिया कभी न मुड़कर देखा
सृष्टि की ग़ज़ब कहानी हूं
न जाने कैसे राहों में भी
रेत-कंकरीले,चट्टानों से भी
टकराती बह जाती हूं
नदी हूं मैं नदी हूं
हरदम बहती रहती हूं
कई नामों से पुकारा मुझे
ना जाने कितने नाम है मेरे
कहीं गंगा ,कहीं यमुना
कृष्णा ,कावेरी ,गोदावरी और सरस्वती
ना जाने कितने नाम है मेरे
कल -कल करती ,झर- झर करती
चट्टानों से खेला करती
हरदम बहती रहती हूं
नदी हूं मैं नदी हूं
हरदम बहती रहती हूं
मुझसे ही तृप्त हुई यह धरती
हरी-भरी मेरे जल से हो जाती है
मुझसे ही कितने कल-कारखाने
अपना उत्पादन बढ़ाते हैं
हर जीव-जंतु ने मुझसे ही जीवन पाया
नदी हूं मैं नदी हूं
हरदम बहती रहती हूं
मुझसे ही प्यासों ने पानी पाया
पानी से ही सब जीते हैं
न जाने कब से पानी है,तब से यह नदी है
यह नदी की कितनी बड़ी कहानी है
नदी हूं मैं नदी हूं
हरदम बहती रहती हूं

बसेरा

रचनाकार - प्रिया देवांगन प्रियू

देखो माँ मैंने आज अपना बसेरा बनाया,
तिनका- तिनका जोड़कर अपना घर बनाया.
कभी भूखे न रहने देती खाना रोज लाती थी,
तुम नहीं खाती थी माँ हमें रोज खिलाती थी.
ठंडी, गर्मी ,बरसात इन सबसे हमें बचाती थी,
कितनी मेहनत करती थी माँ अब समझ में आया,
देखो माँ मैने आज अपना बसेरा बनाया.
बरसातों में पेड़ो पर छाया तुम लाती थी,
जाड़े के दिनों में हमें ठंड लगने से बचाती थी.
छोटे- छोटे बच्चे थे माँ उड़ना हमें सिखाती थी,
कैसे जीना हमें चाहिए राह नया दिखाती थी.
देखो माँ मैने आज अपना बसेरा बनाया,
कितनी मेहनत करती थी माँ अब समझ में आया.

नन्ही सी कली हूँ

रचनाकार - तुलस राम चंद्राकर

नन्ही सी कली हूँ, खिल जाने दो
गर्भ में माँ तेरी, आशाओं की बाँधी डोरी,
रग- रग में बहती, माँ ममता है तेरी.
तेरी ममता भरा मुखड़ा देखने की चाहत,
पूरी कर लेने दो .......

नन्ही सी कली हूँ , मुझे खिल जाने दो
सूनी आँगन,सनसनाती ये गलियाँ,
मेरे इंतजार में ये फूलों की कलियाँ
चाहत भी इनकी, संग मेरे खेलने की,
आँगन में गौरया सी चहकने की चाहत,
पूरी करने दो .....

नन्ही सी कली हूँ , मुझे खिल जाने दो ..
चाहत है पढ़ने की, चाहत है बढ़ने की,
अशिक्षा का ये अंधकार भगाने की,
समाज की बुराइयों से लड़ने की.
किरण सा प्रकाश फैलाने की चाहत,
पूरी कर लेने दो ..

नन्ही सी कली हूँ , मुझे खिल जाने दो ...
नदियों से निरंतरता, आकाश सी ऊँचाई,
हवा सा बहाव, बादलों सी भलाई,
कल्पना सी उड़ान भरने की चाहत,
पूरी कर लेने दो .......
नन्ही सी कली हूँ, मुझे खिल जाने दो ...
रह जाएगा यह संसार अधूरा बिन मेरे,
बेटी,बहन,पत्नी,माँ जैसे,जाने कितने रूप हैं मेरे
सरस्वती, लक्ष्मी, काली, दुर्गा,आदि रूपों में पूजी जाती हूँ.
प्रतिभा सी प्रतिष्ठा पाने की चाहत ,
पूरी कर लेने दो ....
नन्ही सी कली हूँ, मुझे खिल जाने दो ...

मेरी साइकिल

रचनाकार - बलदाऊ राम साहू

मेरी साइकिल बड़ी निराली,
रंग - बिरंगी, नीली - काली.

चलती है वह सरपट, सर-सर,
मैं दौड़ाऊँ इसे सड़क पर.

इससे मेरी मीत पुरानी,
लगती है जानी पहचानी.

मुझको शाला ले जाएगी,
और समय पर पहुँचाएगी.

काँटों से मैं, इसे बचाता,
यह मुझको, मैं इसे घुमाता.

सोच रहा हूँ

रचनाकार - द्रोण साहू

सोच रहा हूँ अपने घर के बाहर,
ध्यान लगाकर पढ़-लिखकर,
खुद का एक चाँद बनाऊँगा.

उस चाँद तक कोई न पहुँचे,
इसीलिए उसके ठीक सामने,
खुद का एक बाँध बनाऊँगा.

जब साथी मुझे लगे चिढ़ाने,
अपने चाँद पर मैं बैठकर,
उनको खूब चिढ़ाऊँगा.

जब टीचर लगे मुझे डाँटने,
उनके स्कूल से भागकर,
अपने चाँद पर चढ़ जाऊँगा.

प्यारे बच्चे

रचनाकार - रचना सोनी

नन्हे-नन्हे प्यारे बच्चे,
मन के होते बड़े ही सच्चे.

ना कोई चिंता ना फिकर,
मिट्टी- से होते हैं कच्चे.

नन्हे-नन्हे फूल से बालक,
पहली बार जब लाते पालक.

बच्चे का रोना चिल्लाना,
कोलाहल स्कूल में मचाना.
नन्हे-नन्हे प्यारे बच्चे ....

जब नव प्रवेश का उत्सव आता,
बच्चों का चेहरा खिल जाता.

रोना-चिल्लाना भूल जाते स्कूल
नन्हे-नन्हे प्यारे बच्चे ....

तोता

रचनाकार - मो.तबरेज आलम

तोता हूँ मैं तोता,
हरे रंग का हूँ मैं होता.
चोंच होती मेरी लाल,
उस पर नुकीला कमाल.
अमरूद,मिर्ची मैं हूँ खाता,
आसमान में फिर उड़ जाता.
टें- टें करके गीत सुनाता,
सबके मन को मैं भाता.
लोग मुझे घरों में रखते,
पिंजरे में वे कैद करते.
पर पिंजरे का जीवन न भाता,
पिंजरे में अपना प्राण है जाता.
काश! लोग मेरी पीड़ा समझते,
पिंजरे में मुझे कैद न करते.

प्यारा बसंत

रचनाकार - टीकेश्वर सिन्हा ' गब्दीवाला '

नन्हें-मुन्नों का प्यारा बसंत.
दुलारा बसंत,न्यारा बसंत.

गुनगुनी धूप और शीतल छाँव,
देता है इन्हें, वो यारा बसंत.

स्वच्छ धरती और नीला अम्बर,
निर्मल,पावन,उजियारा बसंत.

रंग-बिरंगे कुसुम दल लिये,
ख़ुशबू भरा गलियारा बसंत.

सूरज की भीषण गर्मी छाती,
धरती से नौ-दो-ग्यारा बसंत.

मेरी किताब

रचनाकार - एन. देवी हंसलेखा

मेरी किताब बड़ी है प्यारी,
रंग-बिरंगी लगती है न्यारी.

पन्नों में है फूलों की क्यारी,
बातें इसकी बड़ी हैं निराली.

आओ मिल-जुल हम पढ़ें,
जीवन में हम आगे बढ़ें.

मेरी किताब बड़ी है प्यारी,
रंग-बिरंगी लगती है न्यारी.

कुंडलियाँ

रचनाकार - डीजेन्द्र क़ुर्रे “कोहिनूर”

क्रीड़ा (खेल)

क्रीड़ा में गुण हैं बहुत, सदा खेलिये संग
तनमन नित ही स्वस्थ हो, सुरभित हो हर अंग
सुरभित हो हर अंग, योग भी निशदिन करना.
प्रखर बनाकर लक्ष्य, हृदय में धीरज धरना
कह डिजेन्द्र करजोरि, उठाओगे जब बीड़ा
होगा तब ही भान, साधना है यह क्रीड़ा

ऐसा श्रेष्ठ इंसान बनो

मानव का उपकार करो,
प्रेम-स्नेह से बात करो.
करो त्याग ईर्ष्या द्वेष का,
ऐसा श्रेष्ठ इंसान बनो.

मन में लक्ष्य ऊँचा रखो,
कर्म पर ही विश्वास करो.
करो संकट का सामना,
ऐसा श्रेष्ठ इंसान बनो.

दुखियों का दुख हरो,
रोगी की सेवा करो.
जीवन में पुण्य करके,
ऐसा श्रेष्ठ इंसान बनो.

दूसरों का सम्मान करो,
भारत माता को प्रणाम करो.
आत्मविजेता बनकर जी,
ऐसा श्रेष्ठ इंसान बनो.

आया बसंत ऋतुराज

रचनाकार - टेकराम ध्रुव दिनेश'

लेकर हरियाली धरा में,
आया बसंत ऋतुराज.
वन- उपवन में कलियाँ
मुकुलित हो गई.
शुभ्र- ज्योत्स्ना सविता की,
पुलकित हो गई.
वृंत- तरु के झूम रहे,
खुश होकर डार- डार.
खुमारी ले झूम रहा,
होकर समीर मतवार.
सरसों कुसुमीत हो गई,
खेतों में छाई बहार
गूँज रही उपवन में मधुमय,
भौरों की गुंजार
बौराए आम्रतरु,
पुलक उठी अमराई.
मनभावन मौसम पाकर,
कोयल ने कूक लगाई.
खिल उठा कमलदल,
और खिल उठा पलाश
लेकर हरियाली धरा में,
आया बसंत ऋतुराज.

माता - पिता के चरणों में वंदन शत्- शत् बार

रचनाकार - गिरजा शंकर अग्रवाल

माता -पिता के चरणों का वंदन करता है जो हर बार,
जीवन में मिलती खुशियाँ उसको है अपार.

सफलता का मूलमंत्र होता सदा उसके पास,
जो रहता नित चरणों में अपने माता- पिता के पास.

करते कठिन तपस्या हरदम हमारे सुखद जीवन की ले आस,
पर क्या हम हो पाते उनके? कसौटी पर हरदम पास.

स्वयं पीड़ा सहकर भी जो देते हमें प्रकाश,
आओ मिलकर सब मनायें 'मातृ- पितृ पूजन दिवस' आज खास.

इतना काबिल बनाया मुझको रहूँगा मैं सदा कर्जदार,
ऐसे माता-पिता के चरणों में मेरा वंदन शत्- शत् बार.

रामकली स्कूल चली

रचनाकार - श्रीमति अनुराधा सिंह

छोटा सा है एक गांव जिसमें रहती है एक कली,
है तो वो नन्ही परी पर नाम उसका है रामकली.
आज रामकली लिये है मन में एक उमंग,
क्योंकि बड़ी बहन चन्द्रकली है उसके पास उसके संग.
साथ बहन के पीठ में लिये बस्ता रामकली निकल चली,
रामकली आज से स्कूल चली, स्कूल चली
रामकली देखती माँ को लगाते हमेशा अंगूठा,
पूछती अक्सर माँ से क्या उसके गांव स्कूल नहीं था.
माँ बेचारी हो जाती थी मूक बन निरुत्तर,
नहीं दे पाती थी इस कठिन प्रश्न का उत्तर.
नन्हें मन में घुमती रहती थी हमेशा एक,
स्वाभाविक सी उलझन और बाल-मन जिज्ञासा,
कब पूरी होगी उसकी, पढ़ने-लिखने की अभिलाषा.
हमेशा देखती गांव की दीवारों पर दो लाईनों का नारा.

बेटी पढ़ेगी, आगे बढे़गी
बेटी पढ़ेगी विकास गढ़ेगी.

जिज्ञासा ने बाल-मन में लिया एक उबाल
तुरंत पूछा बड़ी बहन से उसने एक सवाल.
दीदी क्यों ऐसा है इन दीवारों का हाल,
चन्द्रकली बोली परी से क्यों घबराती बहना.
दीवारों में लिखी लाईनों में दिया है सुन्दर सपना,
हमारे गांव में भी है स्कूल जो सच करेगा यह सपना.
आज उसी सपने को सच करने चली,
गांव की परी रामकली, स्कूल चली स्कूल चली.

चिडिया का सन्देश

रचनाकार -धारा यादव

आंगन में एक चिडिया आई,
प्यारा एक संदेशा लाई.
देना थोडा दाना-पानी,
रोज कहूँगी नई कहानी.

फिर डाल पर झूलूँगी,
कभी आसमां को छू लुंगी.
चुन तिनका-तिनका लाऊंगी,
एक प्यारा नीड़ बनाउँगी.

कुछ गीत सुहाने गाऊँगी,
और सबका मन बहलाउंगी.
यदि प्रेम तुम्हारा पाऊँगी,
एक स्नेह बसंत दे जाउंगी.

सुनो पेड़ जी

रचनाकार - मेराज रजा

खड़े-खड़े हरदम रहते हो,
कुछ ना कहते, चुप रहते हो.
नीम, आम, जामुन, बहेड़ जी,
सुनो पेड़ जी, सुनो पेड़ जी.

कभी बैठकर हमसे बोलो,
दही-जलेबी खा खुश हो लो.
ललचाए से खड़े भेड़ जी,
सुनो पेड़ जी, सुनो पेड़ जी.

मिट्टी से तुम जल लेते हो,
मीठे-मीठे फल देते हो.
खाएँ बच्चे और अधेड़ जी,
सुनो पेड़ जी, सुनो पेड़ जी.

करो सुखी जीवन की राहें,
जो भी तुम्हें काटना चाहे.
हम उनको देंगे खदेड़ जी,
सुनो पेड़ जी, सुनो पेड़ जी.

सुन्दर गाँव

रचनाकार - बलदाऊ राम साहू

थके पथिक को देता है
पीपल शीतल छाँव
इसलिए प्यारा है अपना
छोटा सुन्दर गाँव.

बाग-बगीचे, नदी, ताल
पर्वत हैं मनोहर
बूढ़ा वट प्यार लुटाता
मनभावन हैं पोखर.

जलचर, नभचर, थलचर
सुख सभी पाते हैं
सुबह-सुबह पंछी गाकर
चित्त बहलाते हैं.

अमरबेल

रचनाकार - पेश्वर राम यादव

चड़ पड़ी अमरबेल पेड़ पर,
डालियों से यूँ लिपटने लगी.
स्वयं का उत्पाद होता नहीं,
पेड़ से रस यूँ ही पीने लगी.

पतली हाल पीली होती,
पेड़ को यूँ ही सुखाने लगी.
फल -फूल न पत्तियां होती,
जीवन भर यूँ ही बंध्या होने लगी.

क्लोरोफिल नहीं होने से,
दूसरों से पोषित होने लगी.
पोषक पौधे का शोषण करती,
अंत में स्वयं का शोषण होने लगी.

पानी

रचनाकार - द्रोण साहू

पानी ने कहा पानी से,
मिले थे हम कैसे,
चल पूछें मछली रानी से.

मछली ने कहा पानी से,
मिले थे तुम कैसे,
पूछो अपनी नानी से.

प्रेरक कविता

रचनाकार - संतोष कुमार कौशिक

पढ़ा-लिखा श्याम ईमानदार लड़का था.
रोजगार की तलाश में वह भटकता था..
श्याम काम की तलाश में शहर की ओर निकला.
सुबह से शाम हो गई लेकिन उसे काम नहीं मिला..
श्याम हार थक कर बैठा, मन में विचार आया.
आज का दिन गुजर गया काम करने का भाव आया..
श्याम झाड़ू उठाया, निःस्वार्थ भाव से दुकान के सामने किया सफाई.
दुकान के सेठ जी सफाई देखकर पूछा? यह कौन किया भाई..
दुकान के नौकर ने कहा- काम की तलाश में वह बैठा हुआ है.
बिना खाए पिए सुबह से काम पर लगा हुआ है..
सेठ जी ने श्याम को बुलाने संदेश भेजवाया.
उसे काम में रखकर ईमानदारी का पाठ पढ़ाया..
श्याम मन लगाकर सुबह से शाम तक काम किया.
सेठ जी को व्यापार में दुगना लाभ हुआ..
सेठ जी श्याम का पगार हर छःमाह में बढ़ाता गया.
श्याम ईमानदारी से मन लगाकर कार्य करता गया..
श्याम का मान सम्मान व आय बढ़ने लगी.
ये बात साथी नौकर के हृदय में चुभने लगी..
श्याम को फंसाने साथी नौकर के मन में विचार जगा.
उनके घर छुपकर उनकी गतिविधि को देखने लगा..
साथी नौकर क्या देखा क्या पाया कुछ समझ ना आया.
दौड़े-दौड़े भाग कर सेठ जी को बात बताया..
सेठजी-सेठजी श्याम चोर है ईमानदारी का ढोंग दिखाता है.
दुकान के पैसे को चुराकर तिजोरी में रखता है..
वह तिजोरी को सुबह-शाम खोल कर देखता है.
नोटों की गड्डी होगा इसीलिए सुबह शाम पूजा करता है..
सेठ जी कुछ सोचा ना समझा नौकर के झांसा में आया.
श्याम के घर पहुंचकर तिजोरी को खुलवाया..
तिजोरी खोला उसमें एक फटी धोती व दो जूता निकला.
नौकर की आंख फटी रह गई,सेठ जी आश्चर्य से बोला..
श्याम यह क्या है इसी का पूजा सुबह शाम करता था.
श्याम कहा-यह फटी धोती व फटी जूता पहनकर शहर आया था..
लोग कहते हैं पैसा व पद आने पर अपनी औकात भूल जाते हैं.
यह फटी धोती फटी जूता मेरी औकात का याद दिलाते हैं..
सेठ जी आपका नमक खाया हूं ईमानदारी से काम करता हूं.
मुझ पर आपका विश्वास नहीं तो अभी घर जाता हूं..
अरे श्याम छुट्टी तुम्हारा नहीं, साथी नौकर का करता हूं.
जो मुझे अपनी जाल में फंसा, सोच अपनी ही नजर से गिरता हूं..
तुम जैसे ईमानदार नौकर आजकल मिलता कहां हैं.
मुनीम का पद देता हूं तुम्हारा दाना पानी लिखा यहां है..
सेठ जी को प्रणाम कर, श्याम अपने पद का फर्ज निभाया.
मुनीम का पद पर कार्य कर व्यापार को आगे बढ़ाया..

आह्वान

रचनाकार - मनोज कुमार पाटनवार

चलो जी संगी, चलो जी साथी(शिक्षक),
सभ्य समाज बनाना है,
वक्त के साथ हमें चलना होगा,
हर घर शिक्षा पहुँचाना होगा,
चलो जी संगी चलो जी साथी,
सभ्य समाज बनाना है.
आलस्य से दूर रहो,
मंजिल तुम्हें बुलाती है,
चलो जी संगी चलो जी साथी,
सभ्य समाज बनाना है.
शिक्षा के उजियारे से,
पिछड़े समाज को उठाना है,
चलो जी संगी चलो जी साथी,
सभ्य समाज बनाना है.
सुंदर भाग्य हमारे हैं,
जो शिक्षक बनकर आए हैं,
चलो जी संगी चलो जी साथी,
सभ्य समाज बनाना है.
ज्ञान की गंगा सागर से,
समाज में अलख जगाना है,
चलो जी संगी चलो जी साथी,
सभ्य समाज बनाना है.
दया प्रेम समभाव से,
ऊँच-नीच के भेदभाव को,
जड़ से हमको मिटाना है,
चलो जी संगी चलो जी साथी,
सभ्य समाज बनाना है.
नशा धूम्रपान को बंद करा कर,
स्वस्थ समाज बनाना है,
चलो जी संगी चलो जी साथी,
सभ्य समाज बनाना है.
बेटियों को शिक्षा दिलाकर,
नारी शक्ति को जगाना है,
चलो जी संगी चलो जी साथी,
सभ्य समाज बनाना है.
पॉलीथिन से मुक्त कराकर,
स्वच्छ गाँव बनाना है,
चलो जी संगी चलो जी साथी,
सभ्य समाज बनाना है.
कर्तव्य पथ पर डटे रहकर,
प्रतिभाओं को जगाना है,
चलो जी संगी चलो जी साथी,
सभ्य समाज बनाना है.

भाव जगाती है

रचनाकार - बलदाऊ राम साहू

जीवन का गुणा-भाग दादी समझाती हैं
गीत, कविता और कथाएँ हमें सुनाती हैं.

हमें सुलाने के लिए वह लोरी गाती हैं
सूरज के आने से पहले हमें जगाती हैं.

होती है बड़ी मनोहर उनकी बोली भाषा
ऊँच-नीच का भेद सदा वह बतलाती हैं.

अकूत ज्ञान का भण्डार है उनके भीतर
जीवन का सार तत्व हमें लिखती हैं.

राष्ट्र धर्म ही सबसे ऊँचा कहती हैं दादी
दया, प्रेम, मानवता का भाव जगाती है.

हर पल खुशी मनाता चल

रचनाकार - श्वेता पाटनवार (कक्षा 10 वीं)

रोना धोना छोड़ दे अब, तू हंसता चल मुस्काता चल.
फूलों से कुछ सीख ले बंदे, हर पल खुशी मनाता चल.
भूल जा उस दुख के पल को, जो तुझको रोज सताता है.
यादों में ले आ उस पल को, जिस पल तू खुशी मनाता है.
दुख के दिन जाएंगे बिसर, तू गीत खुशी के गाता चल.
फूलों से कुछ सीख ले बंदे, हर पल खुशी मनाता चल.

राहों में जो कांटे आये, हिम्मत से दूर भगाना तू .
अगर है मंजिल पाना है साथी, न रुकना चलते जाना तू.
तेरा मेरा छोड के अब तू , सबको गले लगाता चल.
फूलों से कुछ सीख ले बंदे, हर पल खुशी मनाता चल.

हिंदी प्रशिक्षण को समर्पित

रचनाकार - शिवांगी पशीने

ले चले हम हिंदी प्रशिक्षण साथियों ,
अब तुम्हारे हवाले शिक्षण साथियों..
वर्ण जमती गई, मात्रा थमती गई,
प्रशिक्षण को न हमने रुकने दिया.
रूक गए प्रशिक्षण तो कोई गम नहीं,
भाषा को न हमने रुकने दिया
कक्ष-कक्ष में रहा वर्णपन साथियों.
अब तुम्हारे हवाले शिक्षण साथियों..
ले चले हम हिंदी प्रशिक्षण साथियों,
अब तुम्हारे हवाले शिक्षण साथियों.
मात्राओं के स्थान बहुत हैं मगर,
संयुक्त अक्षर की रुत रोज़ आती नहीं.
मात्रा और वर्ण, दोनों मिलके रहे,
वाक्यों को ये समझाती रही.
आज भाषा बनी है, मन के भाव साथियों,
अब तुम्हारे हवाले शिक्षण साथियों.
ले चले हम हिन्दी प्रशिक्षण साथियों.
अब तुम्हारे हवाले शिक्षण साथियों..

कलश पादप

रचनाकार -पेश्वर राम यादव

कीचड़- दलदल में रहती हूँ ,
कलश जैसी दिखती हूँ.
मुँह में चिपचिपा द्रव लाती हूँ,
कीट -पतंगो को फँसाती हूँ .
नाइट्रोजन तत्व पाती हूँ ,
कलश पादप कहलाती हूँ.

माथे को कुछ सहला दे माँ

रचनाकार:- अशोक शर्मा


माथे को कुछ सहला दे माँ,
दुःख को थोड़ा बहला दे माँ,
जी हल्का हो कुछ बोलूँ मैं,
या फिर थोड़ा-सा रो लूँ मैं,
भागदौड़ में दिन बीता है,
रातें बेहद सर्द हैं माँ,
सर में काफी दर्द है माँ,
सर में काफी दर्द है माँ.

रोज बिछुड़ते हैं कुछ अपने,
खूब दगा देते हैं सपने,
डरकर अक्सर उठ जाता हूँ,
साये से भी घबराता हूँ,
नींदें बंजर हो गईं कबसे,
जीवन जैसे नर्क है माँ.
सर में काफी दर्द है माँ,
सरमें काफी दर्द है माँ.

किसकी आँख यहाँ पर नम है,
हरेक आँख में आँसू कम है,
होड़ लगी है दौड़ रहे सब,
संस्कार को छोड़ रहे सब,
हर चेहरा है एक मुखौटा,
चढ़ा सभी पे वर्क है माँ.
सर में काफी दर्द है माँ,
सर में काफी दर्द है माँ.

किस कंधे पर सर रखते हम,
किसके सर पर बोझ यहाँ कम,
सबका अपना अपना रोना,
खोज रहे सब खोया सोना,
सारे चेहरे एक सरीखे,
कहाँ किसी में फर्क है माँ?
सर में काफी दर्द है माँ,
सर में काफी दर्द है माँ.

तार-तार हैं सारे रिश्ते,
नेकी के अब कहाँ फरिश्ते,
कौन किसी का सगा यहाँ पर,
भाई देगा दगा यहाँ पर,
हर रिश्ते का केंद्र अर्थ है,
बाकी बातें व्यर्थ है माँ
सर में काफी दर्द है माँ,
सर में काफी दर्द है माँ..

रास्ता रोके खड़ा अँधेरा
किस खिड़की से आये सवेरा?
सूरज दुबका पड़ा माँद में,
लगा हुआ है ग्रहण चाँद में,
दूर-दूर तक पसर गई है,
काफी गहरी बर्फ है माँ.
सर में काफी दर्द है माँ,
सर में काफी दर्द है माँ.

चल तुलसी तुझे राम बुलाये,
चल तुलसी तुझे श्याम बुलाये,
नाल गड़ी है जिस आँगन में,
वो गलियाँ वो ग्राम बुलाये,
कहने को हैं आँसू लेकिन,
आँखों से ये अर्घ्य है माँ
सर में काफी दर्द है माँ,
सर में काफी दर्द है माँ.

किताबें

रचनाकार:- भूमिका राय

चंद अच्छी किताबें,
सेल्फ से झाँकती है,
और हम उन्हें देखकर,
मन ही मन इतराते है.

हम स्वयं हैं दुनिया की,
सबसे अच्छी किताब,
बस स्वयं को ही हम
पढ़ने से कतराते है..!

मेरा सरकारी स्कूल

रचनाकार:- संतोष पटेल

मेरा सरकारी स्कूल लगता,
मेरे बच्चों को कूल.
खुद करके सीखते सभी यहाँ,
नही करते कोई भूल.
मेरा सरकारी स्कूल लगता,
मेरे बच्चों को कूल.
खेल- खेल में पढ़ना सब सीखते,
रटने का नही यहाँ कोई रूल
मेरा सरकारी स्कूल लगता,
मेरे बच्चों को कूल
सभी विषय खुशियों से पढ़ते,
खुद की अपनी भाषा गढ़ते.
व्यर्थ में नहीं जाता समय कूल,
मेरा सरकारी स्कूल लगता,
मेरे बच्चों को कूल..

परीक्षा

रचनाकार:- रोहित शर्मा 'राही'

लो आ गयी परीक्षा,
है प्रभु की इच्छा.

साल भर कुछ पढ़ा नहीं,
ज्ञान मन में गढ़ा नहीं.
चिंता भयंकर छायी है
परीक्षा की बेला आयी है.

वर्ष भर मैंने बिता दी
मस्ती और मौज उड़ा ली
टीवी क्रिकेट और खेल
साल बीता इसी रेलमपेल.

आज मन सिसक रहा
तन बहुत झुलस रहा.
सुन परीक्षा की खबर
सर चढ़ गया ज्वर.

पढ़ लेता अगर साल भर
सुन लेता शिक्षको की पल भर.
आज यह दिन न देखता
आँसुओ से मन न पिघलता.

आज प्रभु से है दुआ
पार लगा दे किसी तरहा.
अगले बार ऐसा न करूँगा
मन लगाके पूरे साल पढूंगा.

बस्तर की अनोखी छटा

रचनाकार:- ‌ रमेश कुमार टंडन

चित्रकूट की छटा देखो,
पहाड़ों से निकलती घटा देखो.
कितनी मनोरम है छटा,
यहां की सांस्कृतिक कला देखो..

कुटुम्बसर की गुफा देखो,
अंधी मछली की कुआं देखो.
केशकाल घाटी है निराली,
तीरथगढ़ की चित्रकला देखो..

पहाड़ों की है झुंड देखो,
नदियां की है गुंज देखो.
मधुर गीत सुनाती है झरने,
दुनिया की जन्नत है..

साल सागोन की बाग है देखो,
आम महुआ तेंदु चार है देखो.
बांस की यहां घरोंदा है,
बोली की कितनी मिठास है देखो..

बस्तर की माड़ निराली है देखो,
अनसुलझी अबुझ कहानी है देखो.
प्रकृति की धरोहर है बस्तर,
भारत की यह निशानी है देखो..

तीर कमान की चाल को देखो,
करते कैसे शिकार को देखो.
दिल को छू लेती है बस्तर,
कितनी सभ्यता पुरानी है देखो..

बस्तर की हर जगह देखो.
चित्रकूट की छटा देखो................

मेरा परिवार

मेरी नानी, बड़ी सयानी
सुनाती हैं, एक से एक कहानी

मेरी मम्मी बड़ी निपुण
बतलाती है, गणित के गुण

मेरे पापा के मीठे बोल
मुझे कहते हैं तू अनमोल

मेरा भाई दिखे है भीम
कोई मुझसे लड़े तो दिखा दे जिम

मेरी बुआ देती है दुआ
मुझे खिलाती है मालपुआ

मेरे नाना खाते खाना
गुनगुनाते हैं मीठा गाना

मेरे दादा करे दुलार
देते आशीर्वाद बार बार

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