लेख

जीवन कौशल शिक्षा

आज से कुछ वर्ष पूर्व कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालय, पिथौरा में एक बच्ची कु. इंदु निषाद अपनी पढाई कर रही थी . वार्डन मैडम अपनी विद्यार्थियों पर विशेष ध्यान देती थी . मैडम की बेटी उन दिनों मेडिकल के लिए प्रवेश परिक्षा की तैयारी कर थी थी . उसे देखकर इंदु ने भी डाक्टर बनने का सपना देखना शुरू किया . छात्रावास में वह वार्डन श्रीमती सुकांति नायक की बेटी को खूब मेहनत करते देखती और स्वयं भी पूरे जोश से भर जाती . पर उसे मालूम नहीं था कि डाक्टर बनने के लिए क्या करना पड़ता है . तब उसे कैरियर के बारे में छात्रावास में लेक्चर सुनने को मिला .

छात्रावास में ही वार्डन नें एक स्लोगन लिख रखा था – “जो जैसा सोचता है वो वैसा बन जाता है .” यह बात उसने अपने दिमाग में बिठा लिया . उसने इस वाक्य को अपने घर में भी बड़े चार्ट में लिखा और उसके नीचे डॉ. इंदु निषाद के रूप में अपना नाम लिखा और बचपन से ही डाक्टर बनने का लक्ष्य रखकर अपनी पढाई और मेहनत जारी रखी .

इसने कक्षा आठवी उत्तीर्ण होने के बाद कक्षा नवमीं में उसने प्रवेश लिया पर अपने पुराने हास्टल से जुडी रही . नई वार्डन श्रीमती लूनेश्वरी बिसेन से वह अक्सर बायलाजी में शंका समाधान के लिए आती रही . कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालय के शिक्षिकाओं एवं वार्डन सभी ने आवश्यकतानुसार उसकी सहायता की ताकि वह अपनी पढाई जारी रख सके .

आज वह रायपुर के शासकीय मेडिकल कालेज में एम.बी.बी.एस. की छात्रा है. जीवन कौशल में से एक महत्वपूर्ण कौशल है “अपना लक्ष्य निर्धारित करना” इस कौशल के आधार पर आप भी अपने जीवन के लिए लक्ष्य निर्धारित कर सकते हैं . आपने किया कि नहीं ?

एक उड़ान नए पंख की

लेखक - योगेश ध्रुव'भीम'

कुछ करने का जज्बा, मन की उमंग
मुश्किलें कुछ भी हो,आज न हार होगी

इस बात को आज साबित कर दिखाया आदिवासी वनाचल धुर नक्सली क्षेत्र जिला दन्तेवाड़ा विकासखंड कटेकल्याण ग्राम पंचायत बेंगलूर के कक्षा सातवीं के छात्र मद्दा राम कवासी पिता श्री डोमा राम कवासी ने अपने एक अच्छी सोच और पक्के इरादे से आज सबके बधाई के पात्र बन गए है क्योंकि ऐसा होना भी चाहिए मद्दा राम अपने दोनों पैरों से पोलियो के कारण दिब्यांग है, इसे अपनी कमजोरी न मानते हुए वह अपने साथियों के साथ अच्छे से क्रिकेट का खेल खेल लेता है और साथ -साथ वह चौका,छक्का मारने के साथ वह पैरो के बल घसीट कर रन भी लेता है. यह उन सब विद्यार्थियों के लिए भी प्रेरणा स्त्रोत है जो सब कुछ होते हुए भी अपने आप को कमजोर महसूस करते हैं मद्दा राम खुद मीडिया के सामने अपनी आप बीती के माध्यम से कहते हैं मेरे पिता जी एक किसान हैं मैं अपने भाई बहनों में सबसे बड़ा हूँ, खुद के बनाये हुये बल्ले से अपने साथियों के साथ क्रिकेट का खेल खेलते है मेरे सभी साथी खेल खेलने में सहयोग करते है वह रोज स्कूल में अपने साथियों के साथ क्रिकेट का खेल खेलता हैं ,एक दिन उसके शिक्षक ने उनके खेल का वीडियो बनाकर फेशबुक में शेयर कर दिया जैसे वीडियो वाइरल हुआ पूरा वीडीयो को बहुत लाइक मिले साथ ही साथ यह वीडियो हमारे भारत में क्रिकेट के भगवान कहे जाने वाले महान शख्स भारतरत्न सचिन तेंडुलकर को दिनांक 13/01/2020 देखा उन्होंने लाइक करते हुए अपना विचार शेयर किया कि यह अद्भुत वीडियो नए वर्ष में कुछ नया लेकर आया है,जिससे हम सबको प्रेरणा लेनी चाहिए उन्होंने इस विडियो को शेयर किया जिससे मद्दा राम कवासी को एक नयी पहचान मिल गयी छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल ने भी अपना संदेश और बधाई प्रेषित की. शासकीय माध्यमिक शाला बेंगलूर विकासखंड कटेकल्याण, जिला दन्तेवाड़ा के साथ-साथ पूरे गांव के लिए एक मिसाल बन गया,एक अच्छी सोच नेक इरादा में एक नई मंजिल की ओर हमेशा अग्रसर करता है . आज मद्दा राम को मीडिया के माध्यम से एक पहचान मिल गयी उन्होंने साबित भी कर दिखाया यदि मन में कुछ करने का जुनून हो तो कठिन कार्य को भी किया जा सकता है, यह उन विद्यार्थियों के लिए भी प्रेरणा स्रोत है जो सब कुछ होते हुए भी अपने आपको कमजोर महसूस करता है, मद्दा राम के सहयोग के लिए जिला शिक्षाधिकारी ने व्हीलचेयर एवं क्षेत्र के विधायक श्रीमती देहुति कर्माजी ने उन्हें पढ़ाई हेतु गोद भी ले लिया है . मद्दा राम उस समय खुशी से फूला न समाया जब अचानक श्री सचिन तेंदुलकर के द्वारा उपहार स्वरूप क्रिकेट का पूरा किट उनके डाक पते पर पोस्ट के माध्यम से भेजा और साथ मे एक पत्र भी.
पत्र में सचिन जी लिखते है कि,

प्रिय मद्दा राम
आप जिस तरह इस खेल का आनंद ले रहे हैं उसे देख कर अच्छा लगा . ये आप और आपके दोस्तों के लिए मेरी तरफ से प्यार भरी भेंट, खेलते रहिए .
सचिन तेंदुलकर

इस उपहार को पाकर एक नन्हे पंख में मानो उड़ान की ऊर्जा भर गयी मद्दाराम अपनी शारीरिक अक्षमता को भूलकर उड़ान की तैयारी में आगे पथ पर बढ़ रहे हैं . आप निरतंर इसी तरह आगे बढ़ते रहें और हम सबके प्रेरणा स्त्रोत बने रहो .

लक्ष्य न ओझल होने पाए,
कदम मिला के चल,
कामयाबी कदम चूमेगी,
आज नही तो कल

राष्ट्रभाषा हिंदी

रचनाकार -मनोज कुमार पाटनवार

हिन्दी दिवस प्रत्येक वर्ष 14 सितम्बर को मनाया जाता है. 14 सितम्बर 1949 को संविधान सभा ने एक मत से यह निर्णय लिया कि हिन्दी ही भारत की राजभाषा होगी. इसी महत्वपूर्ण निर्णय के महत्व को प्रतिपादित करने तथा हिन्दी को हर क्षेत्र में प्रसारित करने के लिये राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा के अनुरोध पर वर्ष 1953 से पूरे भारत में 14 सितम्बर को प्रतिवर्ष हिन्दी-दिवस के रूप में मनाया जाता है. एक तथ्य यह भी है कि 14 सितम्बर 1949 को हिन्दी के पुरोधा व्यौहार राजेन्द्र सिंहा का 50-वां जन्मदिन था, जिन्होंने हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए बहुत लंबा संघर्ष किया. स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्थापित करवाने के लिए काका कालेलकर, मैथिलीशरण गुप्त, हजारीप्रसाद द्विवेदी, सेठ गोविन्ददास आदि साहित्यकारों को साथ लेकर व्यौहार राजेन्द्र सिंह ने अथक प्रयास किए.

वर्ष 1918 में गांधी जी ने हिन्दी साहित्य सम्मेलन में हिन्दी भाषा को राष्ट्रभाषा बनाने को कहा था. इसे गांधी जी ने जनमानस की भाषा भी कहा था. वर्ष 1949 में स्वतंत्र भारत की राष्ट्रभाषा के प्रश्न पर 14 सितम्बर 1949 को काफी विचार-विमर्श के बाद यह निर्णय लिया गया जो भारतीय संविधान के भाग 17 के अध्याय की अनुच्छेद 343(1) में इस प्रकार वर्णित है –

संघ की राष्ट्रभाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी होगी. संघ के राजकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग होने वाले अंकों का रूप अंतर्राष्ट्रीय रूप होगा. यह निर्णय 14 सितम्बर को लिया गया, इसी दिन हिन्दी के मूर्धन्य साहित्यकार व्यौहार राजेन्द्र सिंहा का 50-वां जन्मदिन था, इस कारण हिन्दी दिवस के लिए इस दिन को श्रेष्ठ माना गया था. हालांकि जब राष्ट्रभाषा के रूप में इसे चुना गया और लागू किया गया तो गैर-हिन्दी भाषी राज्य के लोग इसका विरोध करने लगे और अंग्रेज़ी को भी राजभाषा का दर्जा देना पड़ा. इस कारण हिन्दी में भी अंग्रेज़ी भाषा का प्रभाव पड़ने लगा.

हिन्दी दिवस के दौरान कई कार्यक्रम होते हैं. इस दिन छात्र-छात्राओं को हिन्दी के प्रति सम्मान और दैनिक व्यवहार में हिन्दी के उपयोग करने आदि की शिक्षा दी जाती है, जिसमें हिन्दी निबंध लेखन, वाद-विवाद, हिन्दी टंकण प्रतियोगिता आदि होती है. हिन्दी दिवस पर हिन्दी के प्रति लोगों को प्रेरित करने हेतु भाषा सम्मान की शुरुआत की गई है. यह सम्मान प्रतिवर्ष देश के ऐसे व्यक्तित्व को दिया जाएगा जिसने जन-जन में हिन्दी भाषा के प्रयोग एवं उत्थान के लिए विशेष योगदान दिया है. इसके लिए सम्मान स्वरूप एक लाख एक हजार रुपये दिये जाते हैं. हिन्दी में निबंध लेखन प्रतियोगिता के व्दारा कई जगह पर हिन्दी भाषा के विकास और विस्तार हेतु कई सुझाव भी प्राप्त किए जाते हैं. लेकिन अगले दिन सभी हिन्दी भाषा को भूल जाते हैं. हिन्दी भाषा को कुछ और दिन याद रखें इस कारण राष्ट्रभाषा सप्ताह का भी आयोजन होता है. जिससे यह कम से कम वर्ष में एक सप्ताह के लिए तो रहती ही है.

पढ़ने की संस्कृति पर स्कूली शिक्षा का दबाव

लेखक- प्रमोद दीक्षित ‘मलय’

लेख की शुरुआत मैं मनोशिक्षाविद् विलियम हॉल के एक वाक्य से करता हूँ, जिसमें वह कहते हैं कि यदि हम बच्चों को बोलना सिखाते होते तो वे शायद कभी बोलना नहीं सीख पाते. इस वाक्य के एक सिरे को पकड़ कर यदि हम स्कूलों में बड़ों द्वारा सिखाये जा रहे ‘पढ़ना’ का संदर्भ ग्रहण करें तो पाते हैं कि ‘पढ़ना’ अपने मूल अर्थबोध के प्रकटीकरण से इतर केवल छपी सामग्री के वाचन तक सीमित कर दिया गया है. जबकि पढ़ना केवल स्कूली शिक्षा की पाठ्यपुस्तकें पढ़ पाने के सीमित अर्थ के दायरे से बाहर किसी व्यक्ति के अस्तित्व की पहचान है, स्व की यात्रा है. पढ़ना बंधनों से मुक्ति का मार्ग है, आनन्द की पीयूष धारा में आत्मा का अवगाहन है. लक्ष्य का संधान है तो नवल ऊर्जा का अनुसंधान भी. क्रान्ति का ज्वार है तो लोक का रागात्मक प्यार भी. पढ़ना स्वयं को गढ़ना है और मानवता का उत्तुंग शिखर चढ़ना भी.
स्कूलों में पढ़ना सिखाना दरअसल एक पीड़ादायक अनुभव है जो उबाऊ, यांत्रिक, अर्थहीन एवं परंपरागत खांचे में सिमटी एक अंतहीन जटिल प्रक्रिया है. वास्तव में स्कूल पढ़ने की संस्कृति के प्रवाह में एक बड़ी बाधा के रूप में खड़े नजर आते हैं. हमारी विद्यालयी एवं सामाजिक व्यवस्था; स्कूली ढांचा, परीक्षा प्रणाली और अभिभावकों के सपनों के इर्दगिर्द घूमती, बच्चों में परम्परागत ‘रटना’ प्रणाली को बढ़ावा देने वाली है, जो पाठ्यपुस्तकों के तथ्यों, सिद्धांतों, संदर्भों को रटने और परीक्षा में ज्यों -का- त्यों उगल देने की हिमायती है. असल में बच्चों द्वारा पढ़ने से उपजे उनके मौलिक विचारों, अनुभवों, कौशलों, दृष्टिकोण एवं उनके स्थानीय ज्ञान और कल्पना के लिए स्कूल में कोई जगह नहीं बचती है..स्कूल जो बच्चों के सीखने, नया रचने-गुनने एवं गढ़ने और जीवन में आगे बढ़ने का एक प्रेरणा स्थल होना चाहिए था बजाय उसके वह एक कैदखाने के रूप में पहचाना जा रहा है. फलतः बच्चे साहित्य की पुस्तकों की विराट दुनिया से परिचित ही नहीं हो पाते और पाठ्यपुस्तकों को ही सर्वोपरि मान केवल किताबी कीट बन कर रह जाते है. यही कारण है कि बच्चे स्कूलों में खुश नहीं हैं . उनके चेहरों पर बाल सुलभ हँसी और उनके जीवन से चंचलता गायब है. वे पढ़ने के आनन्द से वंचित सदैव तनाव की चादर ओढ़े गुमसुम एक यंत्रमानव की भांति व्यवहार कर रहे हैं. क्योंकि पढ़ना न केवल विचार देता है, बल्कि दृष्टि और जारूकता भी देता है साथ ही पाठक को लगातार अद्यतन भी करता रहता है. इसीलिए कहा गया है कि कोई व्यक्ति नागरिक के रूप में संवैधानिक अधिकारों एवं कर्तव्यों का पालन भली-भांति तभी कर सकेगा जब वह पढ़ सकने में समर्थ होगा. पढ़ने का आशय केवल वाचन से नहीं है अपितु शब्दों के अर्थबोध के जुड़ने से है. बच्चे अपने आसपास की दुनिया में देखे-सुने जाने वाले शब्दों से अपने मतलब के अर्थ तलाशने में कुशल होते हैं. पढ़ना किसी शब्द के अर्थ का विस्तृत प्रकटीकरण है, आनंद का उत्साह है परंतु दुर्भाग्य से स्कूली शिक्षा में बच्चों के आनंद की चाह की अनदेखी की जाती है.
स्कूल भूल रहे हैं कि हर बच्चा अलग और विशेष है. उसकी रुचियाँ, उसकी दृष्टि, उसकी कल्पना और उसका सौंदर्यबोध दूसरे से अलग है. शिक्षकों का बच्चों के प्रति पूर्वाग्रह, धारणा, व्यंग्य और उलाहना के तीर उसे अंदर तक वेध देते हैं. उसके अंदर नित प्रवाहित सृजन की रसवती धारा की- एक-एक बूँद निचोड़ कर उसे सूख जाने को विवश कर देते हैं. कक्षा का हिंसक माहौल उसे न केवल भयभीत करता है बल्कि नवल सृजन के कपाट भी बंद करता है. तब बच्चे न तो पढ़ने का आनंद प्राप्त कर पाते हैं और न ही ज्ञान का सृजन ही. रही सही कसर अभिभावकों के सपनों ने पूरी कर दी है. आज के सभी अभिभावकों के लिए बच्चों के पढ़ने का एकमात्र उद्देश्य परीक्षा में सर्वाधिक अंक लाकर एक अदद नौकरी प्राप्त करना रह गया है. इसलिए अभिभावकों का पूरा ध्यान, श्रम, समय बच्चों के अधिकाधिक अंक प्राप्त करने तक सीमित रह गया है, ताकि बच्चे कैरियर के अच्छे व्यावसायिक कोर्सेज में प्रवेश पा सकें. अंकों की यह दौड़ पाठ्यपुस्तकों से इतर साहित्य, कला, संगीत, पर्यावरण पर उपलब्ध पुस्तकें पढ़ने का बिल्कुल अवसर नहीं देती है. यदि कोई बच्चा पाठ्यपुस्तक से इतर कोई किताब पढ़ता दिख जाता है तो उसके अभिभावकों को वह समय खराब करना लगता है. फलतः बच्चे न तो स्वयं को समझ पाते न ही बाहरी दुनिया को . वे एक रोबोट की भांति विकसित होते चले जाते हैं. उनमें न तो संवेदना होती न करुणा, ममता और न ही समाज के प्रति अपनापन और उत्तरदायित्व का बोध. सांचे में ढले हुए बच्चे अपने रूठे और नीरस व्यवहार से केवल अलगाव, अशांति, मनभेद, आक्रोश एवं कुंठा ही व्यक्त करते हैं. यहाँ मुझे पाउलो फ्रेरे का कथन याद आता है कि जब मैं पढ़ता हूँ तब दुनिया को समझ रहा होता हूँ और जब दुनिया को समझ रहा होता हूँ तो खुद को भी समझ रहा होता हूँ.
पढ़ने की आदत का बीजारोपण -बचपन में ही कर देना श्रेयस्कर होता है. स्कूल और परिवार इस आदत को विकसित करने की दिशा में अपनी बड़ी भूमिका निभा सकते हैं. इसके लिए जरूरी है कि स्कूलों के पुस्तकालयों में कैद किताबों को अलमारियों से मुक्त कर बच्चों के हाथों तक पहुँचने दिया जाए. फटने एवं खोने के डर से स्कूल किताबों को बच्चों को दूर रखते हैं जो पढ़ना सीखने की दिशा में एक बड़े बाधक के रूप में उपस्थित होता है. कक्षा कक्ष में भी एक अलमारी में कुछ किताबें रखी जा सकती हैं. डोरियों में उन्हें लटकाया जा सकता है जिन्हें देखकर बच्चों में उन तक पहुँचने और छूने की ललक पैदा हो सके. पढ़ने की रुचि पैदा करने के लिए पुस्तकालय संचालन की जिम्मेदारी बच्चों की टोली को दी जा सकती है जो पुस्तकों के रखरखाव के साथ ही बच्चों को किताबें निर्गत और जमा कर सकें. इसके साथ ही बच्चों द्वारा पढ़ी जा रही पुस्तकों पर उनके बीच परिचर्चा हो सकती है. उनके अनुभव प्रार्थना स्थल में या अन्य किसी बड़े समूह में सुने जा सकते हैं. उनसे संक्षिप्त समीक्षाएँ लिखवाई जा सकती हैं और यदि स्कूल में दीवार पत्रिका पर काम किया जा रहा हो तो उनके अनुभवों को स्थान दिया जा सकता है. इससे बच्चों में पढ़ने की ललक, उत्साह तो पनपेगा ही साथ ही उत्तरदायित्व, सामूहिकता, सुनने एवं अभिव्यक्ति का कौशल भी विकसित होगा जो उन्हें एक बेहतर नागरिक के रूप में विकसित होने में मदद करेगा. परिवारों में प्रायः जन्मदिन एवं अन्य छोटे-मोटे उत्सव खूब मनाए जाते हैं जिनमें उपहार आदि भेंट किए जाते हैं. विचार करें कि क्या बच्चों को केक, मिठाई, खिलौने, कपड़ों के साथ ही उपहार में पुस्तकें नहीं दी जा सकतीं? घरों में अखबार के साथ ही नियमित रूप से कोई पत्रिका मँगवाई जा सकती है. पुस्तक मेलों में बच्चों को लेकर जाया जा सकता है, जहाँ वे पुस्तकों की एक बड़ी दुनिया से रूबरू हो पढ़ने की संस्कृति का हिस्सा बन सकें. इस तरह धीरे-धीरे बच्चों में पढ़ने की आदत विकसित होगी और वे पढ़ने को दैनिक जीवन का अंग बना सकेंगे. इसके साथ ही सरकारों को भी चाहिए की ग्राम पंचायत स्तर पर लघु पुस्तकालय विकसित करने की दिशा में पहल करें. इसमें नव साक्षरों के साथ ही युवाओं, महिलाओं और प्रतियोगिता संबंधित साहित्य रखा जा सकता है जहाँ से सहजता के साथ ग्रामवासी पढ़ते हुए पढ़ने की संस्कृति में छाये संकट का समाधान खोज सकें.
[ सम्प्रति: प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में गुणात्मक बदलावों, आनन्ददायी शिक्षण एवं नवाचारी मुद्दों पर सतत् लेखन एवं प्रयोग. संस्थापक - ‘शैक्षिक संवाद मंच’ (शिक्षकों का राज्य स्तरीय रचनात्मक स्वैच्छिक मैत्री समूह). बांदा, उ0प्र0 ]

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