घोंसला

रचनाकार- श्वेता तिवारी

एक गाँव में किसान का परिवार रहता था. उनके आँगन में एक आम का पेड़ था. जिसमें चिड़िया ने अपना घोंसला बनाया था. उसने चार अंडे दिए. चिड़िया और चिड़ा रोज सुबह भोजन की तलाश में निकल जाते और शाम को वापस अपने घोंसले में आ जाते. धीरे-धीरे समय गुजरता गया और अंडों से बच्चे निकल आए. वे दिन भर चीं-चीं करते और घोंसले से घास- फूस नीचे गिराते. किसान की पत्नी कनक रोज झाड़ू लगाती और उन चिड़ियों के बच्चों को भला- बुरा कहती. अपने पति किसान से कहती है, कि इन्हें कहीं दूर कर दीजिए. मुझसे रोज की सफाई नहीं होती और बच्चे भी बहुत शोर करते हैं. चिड़िया और उनके बच्चे उदास हो जाते. चिड़िया फिर अपने बच्चों के लिए भोजन की तलाश में निकल जाती है और शाम को घोंसलें में लौट आती, एक शाम को चिड़ी- चिड़ा अपने घोंसलें में बैठे अपने बच्चों को दाना खिला रहे थे तभी किसान अपनी पत्नी कनक से उदास स्वर में कहता है, कि हमारी फसल बर्बाद हो रही है. पत्नीआश्चर्य से पूछती है कैसे जी! किसान कहता है -फसल में इल्लिया लग गई हैं और इसकी संख्या बढ़ती ही जा रही है. मैं उसे नियंत्रण नहीं कर पा रहा हूँ. यही चिंता मुझे सता रही है कि मैं क्या करूं. चिड़िया और चिड़ा दोनों किसान और उसकी पत्नी की बातें सुन रहे थे अगली सुबह चिड़ा अपने बच्चों के साथ खेत में जाकर सारी इल्लियों को मार डालते हैं, नष्ट कर देते हैं और किसान की फसल को बचा लेते हैं. किसान खेत में जाता है तो चिड़िया अपने परिवार के साथ खेत में लगे रहते हैं. इसे देखकर किसान बहुत खुश होता है और अपनी पत्नी को सारी बातें बताता है. कनक को मन ही मन अपने किए गए कार्य पर बहुत ही पछतावा होता है. उसका स्वभाव पहले से बदल जाता है और अब वह चिड़ियों के बच्चों को भला -बुरा नहीं कहती है. अब उन्हें वह प्यार से देखती है और जब बच्चे दाना -तिनका नीचे गिराते तब वह उन्हें झाड़ कर साफ कर देती. वह किसान से कहती है कि अब यह घोंसला कहीं नहीं जाएगा. हमारे आँगन में ही रहेगा

गौरी की होली

रचनाकार- प्रिया देवांगन प्रियू

एक छोटी सी लड़की थी, उसका नाम था गौरी. गौरी बहुत ही सीधी साधी लड़की थी. वह किसी से ज्यादा बात नही करती थी. स्कूल में भी वह अपने पढ़ाई - लिखाई से ही मतलब रखती थी. स्कूल में सभी बच्चे मैदान में खेलते थे, लेकिन वह चुपचाप कक्षा में बैठी रहती थी. वह सहमी रहती थी. क्लास के बच्चे उससे बात करते थे, तभी वह बात करती थी. उसकी कोई सहेली भी नही थी. छुट्टी में बच्चे खेलने के लिये उसको बुलाते थे तो वह जाने से मना कर देती थी. फिर बच्चे भी उसको बुलाना बन्द कर दिये. गौरी अकेले रहना पसंद करती थी.

अचानक गौरी बीमार पड़ गयी. उसके माता - पिता गौरी को अस्पताल ले कर गए. डॉक्टर ने गौरी से पूछा - आपके स्कूल में कितनी सहेलियां है, गौरी चुपचाप थी. फिर उसके माता-पिता बताये, गौरी किसी के साथ खेलती नही है, वह अकेली रहती है।.डॉक्टर ने सलाह दिया कि –गौरी अगर तुम दुसरे बच्चो के साथ खेलोगी तो जल्दी ही ठीक हो जाओगी. तुम्हारा अकेले रहना ही तुम्हारी बीमारी का कारण है.

दो दिन बाद होली का त्यौहार था. सभी बच्चे मोहल्ले में होली खेल रहे थे. गौरी खिड़की से बच्चों को होली खेलते, पिचकारी चलाते देख रही थी तो उसका भी मन हुआ कि मैं भी होली खेलूंगी. लेकिन गौरी को किसी से कहने की हिम्मत नही हुई. और वह चुपचाप देखती रही.

बच्चे होली खेलते - खेलते खिड़की के पास आये फिर गौरी से कहने लगे कि आओ गौरी तुम भी हम लोगों के साथ होली खेलो बहुत मजा आएगा. अब से तुम हमारे साथ रहना. ऐसे कहकर गौरी के चेहरे में रंग - गुलाल लगाए. गौरी भी खुश हो कर सबके चेहरे में रंग लगाई. और उस दिन से गौरी सब बच्चों के साथ मिल - जुल कर रहने लगी. ये होली उसकी यादगार होली बन गयी.

नाई की समझदारी

रचनाकार- श्वेता तिवारी

किसी समय एक राज्य में राजा राज्य करते थे. उनके अनेक सैनिक थी. जिस समय राजा को हजामत बनवाने होती थी उस दिन सुबह-सुबह नगर के 8 से 10 नाई अपने औजारों के साथ महल में उपस्थित होते थे. जब राजा हजामत बनवाने आते तब उनके साथ महामंत्री सेनापति और कुछ सैनिक भी रहते. पलटन को देख बेचारे ना इयो को तो वैसे ही पसीना छूटता था क्योंकि थोड़ी गलती हुई नहीं कि कोड़े पड़नी शुरू. राजा भी कम ना थे. ना जाने उन्हें क्या मजा आता कि एक नाई से सामने के बाल तो दूसरे से बाएं के तीसरे से दाएं के बाल कटवाते थे परंतु चौथे से पीछे के बाल कटवाते तो उस बेचारे नाई की शामत आ जाती. एक बार ऐसा हुआ कि नाई नया-नया ही उनके राज्य में आया था. उसे राजा की हजामत के बारे में कुछ भी जानकारी नहीं थी.

संयोग से राजा ने उसे पीछे के बाल काटने को कहा नया नाई बड़ी उलझन में फंस गया उसने बड़ी हिम्मत करके नम्रता के साथ कहा महाराज मुझे आपके सर के पीछे के बाल काटने हैं तो जरा ,जरा क्या थोड़ा हुजूर अरे हुजूर क्या थोड़ा हुजूर सर झुका लीजिए. क्या कहा राजा ने लाल-लाल आंखें दिखाते हुए कहा मेरा सर और उस पर तेरा अधिकार बेवकूफ राजा तू है कि मैं एक तरफ तो तू मुझे महाराजा कहता है और दूसरी तरफ सर झुकाने के लिए भी कहता है. सेनापति इस बदतमीज को 25 कोड़े मारे जाएं 25 कोड़े की मार के डर से नाई भाग खड़ा हुआ. आगे आगे नाई उसके पीछे पीछे राजा. राजा के पीछे महामंत्री महामंत्री के पीछे सैनिक. नगर वासी यह अनोखा नजारा देख हंसने लगे. किसी तरह नाई को पकड़ा गया उसने राजा के बाल बनाएं उसके बाद राजा ने बड़े प्रेम से उसे 25 कोड़े लगाने के लिए एक सैनिक से कहा. 25 कोड़े के मार के बाद वह नाई कराहते हुए जोर जोर से रोने लगा. राजा भी आश्चर्यचकित होकर बोले आज तक कोई भी 25 कोड़े की सजा के बाद तो इतना नहीं रोया जितना तू चिल्ला रहा है. महाराज आपने तो इस सैनिक को हल्के से कोड़े मारने के लिए कहा था लेकिन यह तो जोर-जोर से कोड़े मारकर अपनी जाति दुश्मनी निकाल रहा है. कैसी जाति दुश्मनी महाराज कुछ दिन पहले इसकी बकरी मेरे बाड़ी की सारी सब्जी खा गई थी मैंने उसकी बकरी की पिटाई की और आज उसका बदला इस तरह निकाल रहा है. सेनापति इसे सैनिक विधि के अनुसार जो लोगों को इस तरह से पीटा जाएगा तो कल को मेरे राज्य में कोई भी नहीं रहेगा. महामंत्री नाई को 5 रजत मुद्रा और एक स्वर्ण मुद्रा दे दी जाए. जो आज्ञा महाराज महामंत्री ने कहा महाराज मेरी समझ में नहीं आता कि सजा के साथ ये इनाम कैसा? राजा बोले तू मेरे राज्य में नया नया आया है. तूने अपने राजा का सर झुकाया इसलिए तुझे इसकी सजा तो मिलनी ही चाहिए . यह सजा तो यहां हमेशा दी जाती है. मूर्ख मैं नहीं जानता था कि इतने कोड़े खाने के बाद कुछ दिन तू काम करने योग्य ना रहेगा. मैं तेरा राजा हूं प्रजा पालक हूं. मैं जब सजा दे सकता हूं तो इनाम भी दे सकता हूं. फिर मेरे कारण तेरे बाल बच्चे क्यों भूखे मरे इसलिए आर्थिक सहायता के रूप में तुझे इनाम भी दिया जा रहा है. सैनिक इसे उठाकर राजकीय दवाखाने ले जाओ और इस तरह चतुर नाई को सजा के साथ इनाम भी मिल गया.

आज का श्रवण कुमार

रचनाकार- नीरज त्यागी

पापा मैं ये बीस कंबल पुल के नीचे सो रहे गरीब लोगो को बाँट कर आता हूँ. इस बार बहुत सर्दी पड़ रही है. श्रवण अपने पिता से ये कहकर घर से निकल गया.

इस बार की सर्दी हर साल से वाकई कुछ ज्यादा ही थी. श्रवण उन कंबलों को लेकर पुल के नीचे सो रहे लोगो के पास पहुँचा. वहाँ सभी लोगों को उसने अपने हाथों से कम्बल उड़ा दिया.

हर साल की तरह इस बार भी एक आदर्श व्यक्ति की तरह कम्बल बाँटकर वह अपने घर वापस आया और बिना अपने पिता की और ध्यान दिये अपने कमरे में घुस गया. श्रवण के पिता 70 साल के एक बुजुर्ग व्यक्ति हैं और अपने शरीर के दर्द के कारण उन्हें चलने फिरने में बहुत दर्द होता है. बेटे के वापस आने के बाद पिता ने उसे अपने पास बुलाया.

किन्तु रोज की तरह श्रवण अपने पिता को बोला-'आप बस बिस्तर पर पड़े पड़े कुछ -ना- कुछ काम बताते ही रहते हैं, परेशान कर रखा है'. और अपने कमरे में चला गया.

रोज की तरह अपने पैर के दर्द से परेशान श्रवण के पिता ने जैसे तैसे दूसरे कमरे से अपने लिए कम्बल लिया और रोज की तरह ही नम आँखों के साथ अपने दुखों को कम्बल में ढक कर सो गए.

कहानी का सार :- आजकल लोगों की मनोस्थिति कुछ ऐसी हो गयी है कि वो बहुत से काम तो लोगों की देखा देखी ही करने लगे हैं. अपने आप को अत्यधिक सामाजिक दिखाने की जिज्ञासा की होड़ में दिन - रात लगे रहना और अपने ही घर में बात-बात पर अपने बड़े बुजुर्गों को अपमानित करना एक आम बात हो गयी है. आजकल गरीब लोगों की सहायता करना लोगों के लिये एक दिखावे का सामान हो गया है. थोड़ी बहुत सहायता करने के उपरांत उसका अत्यधिक बखान करना एक आम बात है. बच्चों भूलकर आप कभी ऐसे मत बनना. एक नेक, समझदार और संवेदनशील इंसान बनना.

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