कवि रत्नाकर और उनका उध्दव शतक

बाबू जगन्नाथदास रत्नाकर का जन्म संवत 1923 बनारस के शिवाला घाट मोहल्ले में हुआ था. इनके पिता पुरुषोत्तम दास दिल्ली वाले अग्रवाल वैश्य थे और पूर्वज पानीपत के रहने वाले थे, जिनका मुग़ल दरबारों में बड़ा सम्मान था. रत्नाकर जी ने बाल्यावस्था में भारतेंदु हरिश्चंद्र का सत्संग भी किया था. भारतेंदु जी ने कहा भी था कि, 'किसी दिन यह बालक हिन्दी की शोभा वृध्दि करेगा'. काशी के क्वींस कॉलेज से रत्नाकर जी ने बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की, जिसमें अंग्रेज़ी के साथ दूसरी भाषा फ़ारसी भी थी. जगन्नाथदास जी ने जकी उपनाम से फ़ारसी में कविताएँ लिखना प्रारंभ किया. इस सम्बन्ध में इनके उस्ताद मुहम्मद हसन फायज थे. सन 1902 में वे अयोध्या नरेश के निजी सचिव नियुक्त हुए, किन्तु सन 1906 में महाराजा का स्वर्गवास हो गया. लेकिन इनकी सेवाओं से प्रसन्न होकर महारानी जगदंबा देवी ने इन्हें अपना निजी सेक्रेटरी नियुक्त किया तथा मृत्युपर्यंत रत्नाकर जी इस पद पर रहे. महारानी जगदंबा देवी की कृपा से उनकी काव्य कृति 'गंगावतरण' सामने आई. इन्होंने हिन्दी काव्य का अभ्यास प्रारंभ किया और ब्रजभाषा में काव्य रचना की. उनकी सर्वश्रेष्ठ रचना उध्दव शतक है जिसमे उन्होंने एक छोटी से घटना का वर्णन किया है. भगवान कृष्ण उध्दव को अपना संदेश लेकर गोकुल भेजते हैं. उध्दव वहां जाकर गोपियों को ज्ञान का पाठ पढ़ाते हैं परंतु गोपियों के कृष्ण प्रेम से प्रभावित होकर स्वयं भी ज्ञान मार्ग को छोड़कर कृष्ण भक्ति में लीन हो जाते हैं. उध्दव शतक के कुछ मार्मिक कवित्त नीचे दिये गये हैं.

उध्दव प्रारंभ में श्रीकृष्ण को भी बृह्म और ज्ञान की ही शिक्षा दे रहे हैं। कवित्त क्रमांक 15 में देखिये –

पाँचौ तत्व माहिं एक तत्व ही की सत्ता सत्य,
याही तत्त्व-ज्ञान कौ महत्व स्रुति गायौ है ।
तुम तौ बिवेक रतनाकर कहौ क्यों पुनि,
भेद पंचभौतिक के रूप में रचायौ है ॥
गोपिनि मैं, आप मैं बियोग औ’ संयोग हूँ मैं,
एकै भाव चाहिये सचोप ठहरायौ है ।
आपु ही सौं आपु कौ मिलाप औ’ बिछोह कहा,
मोह यह मिथ्या सुख दुख सब ठायौ है ॥15॥

(पांचो तत्व एक बृह्म की ही सत्ता है और यही वेदों में भी लिखा है. आप तो विवेक के भंडार हैं फिर यह संसार आपने पंचभौतिक रूप में क्यों बनाया है. जब सब ही एक है तो फिर स्वयं अपने से ही मिलन और विछोह का क्या तात्पार्य है. यह सुख-दुख सब मिथ्या है.)

कृष्ण इसके उत्तर में केवल इतना ही कहते हैं कि हे उध्दव एक बार गोकुल होकर आओ फिर यही ज्ञान सिखलाना तो हम तुम्हारी सारी बातें मान लेंगे –

प्रेम-नेम निफल निवारि उर-अंतर तैं,
ब्रह्मज्ञान आनंद-निधान भरि लैहैं हम ।
कहै रतनाकर सुधाकर-मुखीन-ध्यान,
आँसुनि सौ धोइ जोति जोइ जरि लैहै हम ॥
आवो एक बार धारि गोकुल-गलि की धूरि,
तब इहिं नीति को प्रतीत धरि लैहैं हम ।
मन सौं, करेजै सौं, स्रवन-सिर आँखिनि सौं,
ऊधव तिहारी सीख भीख करि लैं ह्वैं हम ॥18॥

इसके बाद कवि ने जो चमत्कार उत्पन्न किया है वह देखने लायक है. बृज भुमि पर पैर रखते ही उध्दव का ज्ञान जाने लगा और भक्ति भाव उत्प‍न्न हो गया –

हरैं-हरैं ज्ञान के गुमान घटि जानि लगे,
जोग के विधान ध्यान हूँ तैं टरिबै लगे ।
नैननि मैं नीर सकल शरीर छयौ,
प्रेम-अदभुत-सुख सूक्ति परिबै लगे ॥
गोकुल के गाँव की गली में पग पारत ही,
भूमि कैं प्रभाव भाव औरै भरिबै लगे ।
ज्ञान मारतंड के सुखाये मनु मानस कौं,
सरस सुहाये घनश्याम करिबै लगे ॥२३॥

गोपियों की दशा देखकर तो उध्दव अपना ज्ञान पूरी तरह से भूल जाते हें –

दीन दशा देखि ब्रज-बालनि की उध्दव कौ,
गरिगौ गुमान ज्ञान गौरव गुठाने से ।
कहै रतनाकर न आये मुख बैन नैन,
नीर भरि ल्याए भए सकुचि सिहाने से ॥
सूखे से स्रमे से सकबके से सके से थके,
भूले से भ्रमे से भभरे से भकुवाने से,
हौले से हले से हूल-हूले से हिये मैं हाय,
हारे से हरे से रहे हेरत हिराने से ॥28॥

(गोपियों की दशा देखकर उध्दव का अपने ज्ञान का अभिमान समाप्त हो गया. उनके मुंह से शब्द नहीं निकले और आंखों से आंसुओं की धारा बह निकली. वे गोपियो की दशा देखकर हकबका गये और सब कुछ भूलकर उन्हें देखते ही रह गये. यहां पर अनुप्रास अलंकार का सुंदर प्रयोग भी देखिेये)

उध्दव फिर भी गोपियों को ज्ञान देकर समझाने का प्रयास करते हैं कि सभी में उसी सर्वशक्तिमान परमात्मा की सत्ता हैं इसलिये किसी व्यक्ति के मिथ्या प्रेम में पागल होना उचित नहीं है. हमें संसार को बृह्ममय देखना चाहिये –

पंच तत्त्व मैं जो सच्चिदानन्द की सत्ता सो तौ,
हम तुम उनमैं समान ही समोई है ।
कहै रतनाकर विभूति पंच-भूत हूँ की,
एक ही सी सकल प्रभूतनि मैं पोई है ॥
माया के प्रंपच ही सौं भासत प्रभेद सबै,
काँच-फलकानि ज्यौं अनेक एक सोई है ।
देखौं भ्रम-पटल उघारि ज्ञान आँखिनि सौं,
कान्ह सब ही मैं कान्हा ही में सब कोई है ॥31॥

सोई कान्ह सोई तुम सोई सबही हैं लखौ,
घट-घट-अन्तर अनन्त स्यामघन कौं ।
कहै रतनाकर न भेद-भावना सौं भरौ,
बारिधि और बूँद के बिचारि बिछुरन कौं ॥
अबिचल चाहत मिलाप तौ बिलाप त्यागि,
जोग-जुगती करि जुगावौ ज्ञान-धन कौं ।
जीव आत्मा कौं परमात्मा मैं लीन करौ,
छीन करौं तन कौं न दीन करौ मन कौं ॥32॥

उध्दव का यह ज्ञान का संदेश धरा का धरा रह जाता है जब गोपियां उनसे पूछती हैं –

ऊधो कहौ सूधौ सौ सनेस पहिले तौ यह,
प्यारे परदेश तैं कबै धौ पग पारिहैं ।
कहै रतनाकर तिहारी परि बातनि मैं,
मीड़ि हम कबलौं करेजौ मन मारिहैं ॥
लाइ-लाइ पाती छाती कब लौं सिरेहैं हाय,
धरि-धरि ध्यान धीर कब लगि धारिहैं ।
बैननि उचारिहैं उराहनौं सबै धों कबै,
श्याम कौ सलौनो रूप नैननि निहारिहैं ॥35॥

षटरस-व्यंजन तौ रंजन सदा ही करें,
ऊधौ नवनीत हूँ सप्रीति कहूँ पावै हैं ।
कहै रतनाकर बिरद तौ बखानैं सब,
सांची कहौ केते कहि लालन लड़ावै हैं ॥
रतन सिंहासन बिराजि पाकसासन लौं,
जग चहुँ पासनि तो शासन चलावै हैं ।
जाइ जमुना तट पै कोऊ बट छाँह माहिं,
पांसुरी उमाहि कबौं बाँसुरी बजावै हैं ॥36॥

(गोपियां कहती है कि उध्दव यह ज्ञान की बातें तो छोड़ो और यह बताओ कि हमारे प्यारे परदेश से वापस कब आयेंगे. हम कब तक तुम्हारी इन बातों से अपना मन मारती रहेंगीॽ कब तक हम इस पत्र को अपनी छाती से लगाकर धीरज रखेंगी. य‍ह बताओ कि हमें उनसे बात करने और उनका सुंदर सलोना रूप देखने का मौका अब कब मिलेगा. गोपियां आगे कहती हैं कि कृष्ण षडरस व्यंजन तो रोज़ ही खाते होंगे पर क्या उन्हें मक्खन भी खाने को मिलता है. उनकी प्रशंसा तो वहां सभी करते होंगे परन्तु उनसे प्रेम भरी बातें करके लाड़-प्यार भी कोई करता है. रत्नों से जड़े सिंहासन पर बैठकर वे शासन तो अवश्य ही चलाते होंगे परन्तु क्या कभी यमुना के तट पर वट वृक्ष की छांव में बांसुरी बजाने का सुख भी उन्हें मिलता है.)

गोपियां उध्दव के बृह्म ज्ञान का उपहास करती हैं और उन्हें विभिन्न प्रकार से बताती हैं कि बृह्मज्ञान उनके लिये नहीं हैं. वे तो कृष्ण के प्रेम में ही रहना चाहती हैं. यहां तक कि वे यह भी कहती हैं कि –

जोग को रमावै और समाधि को जगावै इहाँ
दुख-सुख साधनि सौं निपट निबेरी हैं ।
कहै रतनाकर न जानैं क्यों इतै धौं आइ
सांसनि की सासना की बासना बखेरी हैं ॥
हम जमराज की धरावतिं जमा न कछू
सुर-पति-संपति की चाहति न हेरी हैं ।
चेरी हैं न ऊधौ ! काहू ब्रह्म के बबा की हम
सूधौ कहे देति एक कान्ह की कमेरी हैं ॥48॥

(यहां कोई जोग रमाने और समाधि लगाने वाला नहीं हैं. हमें तो समझ में नहीं आता कि यहां आकर तुम साधना करने की बातें क्यों कर रहे हो. हम न तो मृत्यु को जीतना चाहती हैं, न ही हमें देवताओं, पति और संतान की चाह है. गोपियां उपहास करके कहती हैं कि हम किसी बृह्म के बाप की दासी नहीं हैं. हम सीधे कह देती हैं कि हम तो केवल कृष्ण की ही सेविका हैं.)

सरग न चाहैं अपबरग न चाहैं सुनो
भुक्ति-मुक्ति दोऊ सौं बिरक्ति उर आनैं हम ।
कहै रतनाकर तिहारे जोग-रोग माहि
तन मन सांसनि की सांसति प्रमानैं हम ॥
एक ब्रजचंद कृपा-मंद-मुसकानि ही मैं
लोक परलोक कौ अनंद जिय जानैं हम ।
जाके या बियोग-दुख हू में सुख ऐसो कछू
जाहि पाइ ब्रह्म-सुख हू मैं दुःख मानैं हम ॥49॥

(हम न तो स्वर्ग चाहती हैं न ही मोक्ष चाहती हैं. हमें भोग और मुक्ति दोनो ही से विरक्ति है. हमें तो तुम्हारा यह योग किसी रोग की तरह लगता है. हम तो केवल कृष्ण की एक मुस्कान को ही लोक और परलोक दोनो का आनंद मानती हैं. उनके वियोग में भी कुछ ऐसा सुख है जिसके आगे बृह्म सुख भी हमें दुख के समान लगता है.)

गोपियां उध्दव से कहती है कि तुम्हें यदि जग सपना दिखता है तो तुम हमे सोते हुए दिखते हो, और सपने में ही स्वयं अपने आप को ज्ञानी मानने लगे हो और इसीलिये सपने में बृह्म–बृह्म बकने लगे हो -

जग सपनौ सौ सब परत दिखाई तुम्हैं
तातैं तुम ऊधौ हमैं सोवत लखात हौ ।
कहै रतनाकर सुनै को बात सोवत की
जोई मुँह आवत सो बिबस बयात हौ ॥
सोवत मैं जागत लखत अपने कौ जिमि
त्यौं हीं तुम आपहीं सुज्ञानी समुझात हौ ।
जोग-जोग कबहूँ न जानै कहा जोहि जकौ
ब्रह्म-ब्रह्म कबहूँ बहकि बररात हौ ॥50॥

आगे गोपियां के प्रेम की पराकष्ठा देखिये. यहां पर कितनी दृढ़ता से गोपियां कह रही हैं कि कृष्ण तो हमारे ही हैं और हम उनकी ही हैं –

सुनीं गुनीं समझी तिहारी चतुराई जिती
कान्ह की पढ़ाई कविताई कुबरी की हैं ।
कहै रतनाकर त्रिकाल हूँ त्रिलोक हूँ मैं
आनैं हम नैकु ना त्रिवेद की कही की हैं ॥
कहहि प्रतीति प्रीति नीति हूँ त्रिबाचा बांधि
ऊधौ सांच मन की हिये की अरु जी की हैं ।
वे तो हैं हमारे ही हमारे ही हमारे ही औ
हम उनहीं की उनहीं की उनहीं की हैं ॥60॥

आगे गोपियां कहती हैं कि कुछ भी हो जाये कृष्ण के प्रति उनका प्रेम कम नहीं हो सकता. यह प्रेम ऐसा समुद्र नहीं है जिसे अगसत्य ऋषि ने सोख लिया था, यह तो गोपियों के प्रेम का प्रवाह है जो कभी कम नहीं हो सकता –

चाव सौं चले हौ जोग-चरचा चलाइबै कौं
चपल चितौनी तैं चुचात चित-चाह है ।
कहै रतनाकर पै पार न बसैहै कछु
हेरत हिरैहैं भरयौ जो उर उछाह है ॥
अंडे लौं टिटहरी के जहै जू बिबेक बहि
फेरि लहिबै की ताके तनक न राह है ।
यह वह सिंधु नाहिं सोखि जो अगस्त्य लियौ
ऊधौ यह गोपिन के प्रेम कौ प्रबाइ है ॥66॥

वे उध्दव से कहती हें कि कृष्ण के जाने के बाद से बृज में दीवाली जैसे त्योहार भी नहीं मनाए जाते –

आवति दीवारी बिलखाइ ब्रज-वारी कहैं
अबकै हमारै गाँव गोधन पुजैहै को ।
कहै रतनाकर विविध पकवान चाहि
चाह सौं सराहि चख चंचल चलैहै को ॥
निपट निहोरे जोरि हाथ निज साथ ऊधौ
दमकति दिव्य दीपमालिका दिखैहै को ।
कूबरी के कूबर तैं उबारि न पावैं कान्ह
इंद्र-कोप-लोपक गुबर्धन उठैहै को ॥86॥

अंत में गोपियां कृष्ण के लिये संदेश देती हैं –

ऊधौ यहै सूधौ सौ संदेश कहि दीजौ एक
जानति अनेक न विवेक ब्रज-बारी हैं ।
कहै रतनाकर असीम रावरी तौ क्षमा
क्षमता कहाँ लौं अपराध की हमारी हैं ॥
दीजै और ताडन सबै जो मन भावै पर
कीजै न दरस-रस बंचित बिचारी हैं ।
भली हैं बुरी हैं और सलज्ज निरलज्ज हू हैं
को कहै सौ हैं पै परिचारिका तिहारी हैं ॥96॥

(हे उध्दव कृष्ण से हमारा सह संदेश कह देना कि हम बृज की रहने वाली विवेक तो नहीं जानती. हमने तुम्हें प्रेम करने का जो अपराध किया है उसके लिये क्षमा करना, हमारी अपराध करने की बहुत अधिक क्षमता भी कहां है. जो तुम्हारे मन में आये वह सज़ा हमें देना पर अपने दर्शन से तो हमें वंचित मत करो. हम जैसी भी अच्छी-बुरी, सल्लज-निर्लज्ज हैं पर तुम्हारी सेविका ही हैं.)

इस प्रकार ज्ञान और भक्ति के तर्क-वितर्क में जीत भक्ति की ही होती है और उध्दव स्वंय भी भक्ति में लीन हो जाते हैं –

भाठी के वियोग जोग-जटिल-लुकाठी लाइ
लाग सौं सुहाग के अदाग पिघलाए हैं
कहै रत्नाकर सुवृत्त प्रेम सांचे मांहि
काँचे नेम संजम निवृति के ढराए हैं
अब परि बीच खीचि विरह-मरीचि-बिंब
देत लव लाग की गुविंद-उर लाए हैं
गोपी-ताप - तरून-तरनि-किरनावलि के
ऊधव नितांत कांत मनि बनि आए है

रत्नाहकर जी के उध्दव शतक पर डा. कुमार विश्वास का यह प्रस्तुतीकरण यू-ट्यूब पर देखें –

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