नंदा मैडम की कक्षा भाग 5

लेखक – सुधीर श्रीवास्‍तव

(पिछले अंक में आपने पढ़ा कि नंदा, सुधा, हरप्रीत और एहसान संख्याओं पर बातचीत कर रहे थे. इस बातचीत में नंदा उनसे पूछती है कि आप गुड़, शहद और बताशे का स्वाद एक दूसरे को कैसे समझाएंगे? अब आगे.)

आज चारों जब स्कूल आए तो माहौल कुछ बदला-बदला सा लग रहा था. एक दूसरे से नमस्कार की औपचारिकता हुई. पर कुछ बात थी जो और दिनों से अलग थी. नंदा इसे महसूस कर रही थी, शायद बाकी सदस्य भी.

नंदा इस चुप्पी को मन ही मन समझने की कोशिश कर रही थी. उसे सबके दिमाग में चल रहे संघर्ष का आभास था. मिठास को लेकर खुद को हुई अनुभूतियां दूसरों को कैसे बताई जाएं, यह सवाल लगता तो छोटा है, पर है बहुत मुश्किल. किसी भी चीज के लिए जो छवि अपने दिमाग में बनी है उसे वैसे का वैसा दूसरे के दिमाग में बना पाना सहज नहीं है. नंदा यह समझ रही थी कि यही सवाल सबके दिमाग को मथ रहा है. उसके दिमाग में भी यह द्वंद चल रहा था कि वह अपनी बात कैसे अपने साथियों के सामने रखे. वह चाहती थी कि सभी इस विचार को समझें और उसकी गंभीरता को महसूस भी करें.

रोज की तरह प्रार्थना के बाद, जब सभी इकट्ठे हुए तो एहसान ने इस चुप्पी को तोड़ते हुए कहा, अरे भाई! मान लिया कि किसी को सवाल का जवाब नहीं मिला तो इसका मतलब यह तो नहीं कि आपस में बात ही ना करें.

उनकी बात के जवाब में सुधा मुस्कुरा उठी, फिर उसने कहा, सर, जानबूझकर किसी ने यह चुप्पी ओढ़ी थोड़ी है. बस बात यह है कि कल का यह सवाल दिमाग में चिपक सा गया है. गुड़ और शहद मीठे तो हैं पर वह मिठास कैसी है, दोनों में फर्क क्या है? मैं तो कल से अभी तक इस प्रश्न से बाहर नहीं निकल पाई हूं.

एहसान ने कहा, तुम बहुत सही कह रही हो सुधा. जब भी किसी सवाल का जवाब सूझ नहीं रहा होता है तो हम ऐसे ही बेचैन होते हैं. अलग-अलग तरीके ढूंढते हैं, आजमाते हैं और तब तक चैन नहीं लेते, जब तक किसी अंजाम तक पहुंच नहीं जाते. ये बेचैनियां बड़ी खूबसूरत दोस्त होती हैं. सही जगह पर पहुंचाए बिना छोड़ती नहीं हैं.

नंदा एहसान की आखिरी बात पर हंस पड़ी. कहा, खूबसूरत दोस्त, बड़ी अच्छी उपमा दी सर आपने. वैसे मैं आपके विचारों से सहमत हूं. मुझे भी लगता है यह बेचैनी, यह छटपटाहट सीखने या कुछ पाने के लिए बहुत जरूरी है.

हरप्रीत जो अभी तक चुप थी, बोल पड़ी, मुझे अब समझ में आया कि क्यों अपनी क्लास में नंदा बच्चों के सामने सवाल पर सवाल छोड़ती जाती है. बहुत कम बार ऐसा होता है कि वह खुद से बता दे. क्यों नंदा, है ना ऐसा ही? हरप्रीत के स्वर में झूठ-मूठ की शिकायत का भाव था.

हरप्रीत के सवाल पर नंदा मुस्कुराई और बड़े प्यार से बोली, नहीं मेरी प्यारी प्रीत, कभी-कभी जब गाड़ी बिल्कुल भी आगे नहीं बढ़ती तो धक्का लगा देती हूं. पर हमेशा इसकी जरूरत नहीं पड़ती. सवालों के जवाब हमारे भीतर ही कहीं छुपे पड़े होते हैं, थोड़ा कुरेदना पड़ता है और इससे ही काम बन जाता है.

इस बातचीत को बीच में रोकते हुए एहसान ने कहा, अब हम सब अपनी-अपनी कक्षाओं में चलें. शाम को बच्चों की छुट्टी होने के बाद थोड़ी देर रुकेंगे. और हां, बताशे की मिठास को समझने की कोशिश भी करेंगे.

उनकी इस बात पर सभी को हंसी आ गई. वातावरण हल्का हो गया था. सभी अपनी-अपनी कक्षाओं में चले गए. शाम को छुट्टी की घंटी बजी. थोड़ी देर में सारे बच्चे चले गए. चारों सदस्य बरामदे में आकर बैठ गए.

हरप्रीत थोड़ी बेचैन लग रही थी. उसने कहा, नंदा, मैं तुम्हारे सवाल का जवाब नहीं ढूंढ पाई. अब मैं इस बारे में और नहीं सोच सकती. प्लीज, अब बता ही दो तुम क्या समझाना चाहती हो.

नंदा ने हरप्रीत की ओर बहुत शांत भाव से देखा, कहा कुछ नहीं. परंतु उसकी आंखें कह रही थी, अभी थकना नहीं है. फिर उसने अपना चेहरा सुधा की तरफ घुमाया.

सुधा ने कहा, नंदा, मैं भी किसी परिणाम तक नहीं पहुंच पायी.

तब नंदा ने एक उम्मीद के साथ एहसान को देखा, शायद उनकी ओर से कोई बात आए. पर उसे वहां भी कोई प्रतिक्रिया दिखाई नहीं पड़ी. उसने एक गहरी सांस ली फिर धीरे से कहना शुरू किया,

मैं अपनी बात दूसरी तरह से रखती हूं. मान लीजिए हमारे पास इत्र बेचने वाला एक व्यक्ति आता है. वह हमें अलग अलग इत्रों से भिगा-भिगा कर रुई के फाहे देता है. हम बारी-बारी से उनकी गंध लेते हैं. अब वह हमसे पूछता है हमें कौन सी खुशबू अच्छी लगी. सोचिए आप उसे क्या कहेंगे? नंदा ने नया सवाल पूछा.

हरप्रीत ने खुश होकर तपाक से कहा, बहुत आसान है , मैं उस फाहे को उठाकर कहूंगी, ये वाली.

हरप्रीत ने यह बात इतनी मासूमियत से कही कि सभी को हंसी आ गई. नंदा ने अपनी हंसी रोकते हुए कहा, अच्छा ठीक है प्रीत, मान लो यह इत्र बेचने वाला तुम्हें एक महीने बाद फिर मिलता है और तुम वही इत्र लेना चाहती हो तो अब क्या कहोगी? ओह नंदा, तुमने तो मुझे फंसा दिया. हरप्रीत ने कहा.

नहीं प्रीत, मैं सीरियस हूं.

हरप्रीत ने कुछ सोचते हुए कहा, मुझे लगता है, मुझे उस इत्र वाले से उस इत्र का नाम जान लेना होगा, जिसकी खुशबू मुझे पसंद आई.

बहुत बढ़िया प्रीत. नंदा ने कहा.

एहसान सर, आप अपनी पसंद वाली खुशबू कैसे चुनेंगे?

मैं कुछ खुशबुओं को उनके फूलों के नाम से पहचानता हूं. यदि कोई पहचानी हुई खुशबू मिली तो उसे उसके नाम से मांग लूंगा और कोई नई खुशबू मिली तो इत्र वाले से उसका नाम पूछ लूंगा.

नंदा, मुझे भी अब यह बात समझ में आ रही है जो खुशबू हमें अच्छी लगी उसे उसके नाम से हमें पहचानना होगा. अब चूंकि इत्र वाला सभी खुशबूओं को उसके नाम से पहचानता ही है तो ऐसी स्थिति में यदि कोई कहे, मुझे अमुक खुशबू चाहिए तो नाम बोलते ही उसके दिमाग में उसी खुशबू की स्मृति आएगी. सुधा ने अपने विचार रखे.

वाह सुधा! तुमने बहुत अच्छी बात कही. अब एक कल्पना और करते हैं. मान लें हम सब बहुत सारी खुशबूओं को पहचानने लगे हैं. अब एक खास खुशबू है, जो हम चारों को पसंद है तो जब मैं कहूं कि अमुक खुशबू मंगाई जाए तो ऐसा कहते ही उस खुशबू की एक छवि हम सबके दिमाग में बनेगी. नंदा ने कहा.

नंदा, खुशबुओं की छवि दिमाग में बनने का मतलब समझ में नहीं आया मुझे. एहसान ने अपनी दुविधा रखी.

नंदा एक पल चुप रही. फिर उसने कहा, हम इसे इस तरह समझें, मान लें आप बारी-बारी से एक-एक खुशबू को सूंघ रहे हैं. आपकी नाक में जैसे ही यह खुशबू पड़ी, आप बोल पड़ेंगे, हां, यही है वो खुशबू. आप उसे पहचान लेंगे और उसका नाम तुरंत बता देंगे.

बिल्कुल ठीक. एहसान ने कहा.

तो अब समझिए कि किसी खुशबू या कुछ खुशबूओं को बताने के लिए हमें पहले भी उनका अनुभव, उनकी पहचान उनके एक नाम के साथ करनी होती है. तब फिर उनकी अनुपस्थिति में भी उनके बारे में बात की जा सकती है. नंदा ने कहा.

थोड़ी देर तक सभी चुपचाप इसे समझने की कोशिश करते रहे. एकाएक हरप्रीत ने कहा, क्या यही बात मिठास के साथ भी लागू होगी, यानी यदि हम सभी जान रहे हैं कि यह गुड़ की मिठास है, यह शहद की मिठास है और इसी तरह किसी दूसरी मीठी चीज की. तब केवल नाम लेकर ही सामने वाले को उसकी अनुभूति कराई जा सकती है.

वाह प्रीत! बहुत बढ़िया. यहां तुमने मिठास की भिन्नता को उन नामों से जोड़ लिया जिनसे उनकी छवि या इमेज दिमाग में सुरक्षित रखी जा सकती है. लेकिन यहां भी खुशबू वाले मामले की तरह जरूरी है कि बताने वाले और सुनने वाले दोनों को वे स्वाद पहले से ही मालूम हों. यानी यदि किसी ऐसे व्यक्ति को गुड़ या शहद या किसी दूसरी चीज़ के स्वाद के बारे में बताना हो जो उसे नहीं जानता तो पहले हमें उसे इन चीज़ों का स्वाद चखाना होगा. और तभी हम उससे गुड़, शहद या किसी और दूसरी चीज़ के स्वाद के बारे में बात कर पाएंगे.

सुधा बोल पड़ी, बात थोड़ी पेचीदा है लेकिन समझ में आ रही है.

नंदा ने अपनी बात जारी रखी. उसने कहा, हां हमने स्वाद और खुशबू की तरह अपनी सारी अनुभूतियों को अलग-अलग नाम दे रखे हैं. जैसे-जैसे नयी अनुभूतियों से गुजरते हैं उन्हें उनके नाम के साथ अपनी स्मृतियों में जोड़ते और सहेजते चले जाते हैं. जब कभी दोबारा उनसे आमना- सामना होता है तो तुरंत उन्हें उनके नाम और गुण से याद कर लेते हैं.

ये बातें धीरे-धीरे साफ होती जा रही थीं. एहसान ने कहा, नंदा तुम्हारी बात समझ में आ रही है लेकिन यह समझ में नहीं आ रहा है कि इन सभी बातों का संख्याओं से क्या संबंध है?

नंदा कुछ गंभीर हो गई. उसने कहा, इस लंबी चर्चा के पीछे मेरा आग्रह है कि हम चीजों को कुछ ज्यादा गंभीरता से देखें, उस पर सोचें. जिन्हें हम बहुत हल्का या साधारण समझते हैं, उसमें थोड़ा गहरे पैठने की कोशिश करें तो उनके नए अर्थ खुलते जाते हैं, इस बात को महसूस करें. अपनी बातचीत में हमने स्वाद और खुशबू के उदाहरणों के जरिए यह समझा कि किसी अनुभूति की व्याख्या शब्दों के माध्यम से करके समझाना कितना कठिन है. इससे आसान है कि जिन्हें हम समझाना चाहते हैं उन्हें भी उन अनुभूतियों से गुजरने दें.

संख्याबोध भी अनुभूतियों की तरह की चीज है. जिस तरह स्वाद और खुशबू को समझने और समझाने के लिए समझने और समझाने वाले को उसे महसूस करना जरूरी है ठीक उसी तरह से संख्याओं को भी समझने और समझाने के लिए इन्हें महसूस करना जरूरी है. इन्हें समझने के लिए भी उनके एहसास से गुजरना होगा. जैसे हम उस संख्या को समझना चाहें जिसका नाम हमने पांच रखा हुआ है तो हमें अलग -अलग चीजों के ऐसे बहुत से समूह रखने होंगे जो पांच होने के गुण को प्रदर्शित करते हों. यहां यह चीजें रंग, रूप, आकार या गुण में एक दूसरे से अलग होंगी लेकिन उनमें एक बात होगी जो कॉमन होगी यानी सब में एक जैसी और वह होगी संख्या पांच को प्रदर्शित करने की विशेषता.

अब इन्हें दिखाते हुए किसी बच्ची से कहें, देखो बेटा, ये पांच फूल हैं, ये पांच कंकड़ हैं, ये पांच बीज हैं और ये पांच किताबें हैं. क्या तुम पांच उंगलियां दिखा सकती हो?

हालांकि इसके पहले उस बच्ची के साथ एक-एक संगतता, क्रम से गिनना, तुलना करना, एक जैसी चीजों को छांटना, मिलान करना जैसे गुणों को विकसित करने का काम भी करना होगा. यह भी हो सकता है कि शुरु के दो चार प्रयासों में बच्ची वैसा ना कर पाए जैसा हम चाहते हैं. हमें प्रतीक्षा करनी होगी और नए प्रयास करने होंगे. एक समय आएगा जब बच्ची उस अदृश्य पांच को समझ लेगी. फिर वह ना केवल पांच चीजें गिनने लगेगी बल्कि अन्य संख्याओं से उसके संबंधों को भी समझने लगेगी. तब पांच केवल एक नाम या आकृति नहीं होगी. बच्ची उसे उसके अर्थ के साथ पहचानने भी लगेगी.'

बहुत अच्छा नंदा, मैंने तो कभी इस तरह सोचा ही नहीं था. हरप्रीत ने कहा.

तुम्हारी बातें मेरी समझ में आ रही हैं नंदा, लेकिन मुझे लगता है इसे और अच्छी तरह समझने में मुझे तुम्हारी और मदद चाहिए होगी. सुधा ने अपनी बात रखी.

एहसान चुप थे. नंदा ने उनसे पूछा, सर, आप क्या सोच रहे हैं?

एहसान ने गहरी सांस ली फिर धीरे से कहा, तुम्हारी बातें अपने अंदर बिठाने की कोशिश कर रहा हूं. पर एक सवाल मेरे अंदर उठ रहा है नंदा, कि अभी तुमने पांच को लिखने की बात नहीं की. वह कब किया जाए और क्या वह संख्या नहीं है?

सर, अभी हमने बच्ची के सामने अलग-अलग वस्तुओं को रखने का उदाहरण दिया था. अब इनके लिए जब हम पांच बोलते हैं तो अपनी उस विशेष अनुभूति को नाम दे रहे होते हैं जो उन समूहों में वस्तुओं की संख्या को देखकर हमारे अंदर पैदा हुई हैं. यह बात कुछ ऐसी ही है जैसे हम सभी ने किसी फूल को 'गेंदा' नाम दिया. यहां गेंदा शब्द एक नाम है वह खुद फूल नहीं है. ठीक ऐसे ही पांच शब्द संख्या विशेष का नाम है, खुद संख्या नहीं है. वह उसे प्रकट करने के लिए एक प्रतीक भर है. इसी तरह जब हम कागज पर इसे एक विशेष आकृति बनाकर प्रदर्शित करते हैं तब वह भी उस संख्या का प्रतीकात्मक प्रदर्शन ही होता है. आपने एक बात और पूछी है, इन प्रतीकों को जिन्हें हम संख्यांक कहते हैं, लिखा कब जाए. मुझे ऐसा लगता है यह काम थोड़ा ठहर कर, बाद में किया जाए तो बच्चों को सीखने में आसानी होगी.

हरप्रीत ने कहा, एक सवाल मेरे मन में भी उठ रहा है नंदा, इन बातों को शिक्षक जान लें तो इससे बच्चों के सीखने पर क्या फर्क पड़ेगा?

प्रीत यह सवाल तो मैं तुमसे पूछूंगी. इन बातों को समझने के बाद कक्षा में संख्याओं पर काम करने के तुम्हारे तरीके में क्या कोई बदलाव आ सकता है? नंदा, तुम्हारे विचार, तुम्हारे तरीके मैं एकदम से तो आत्मसात नहीं कर सकती पर चाहती हूं कि तुम्हारी मदद से मैं अपनी कक्षा को बेहतर सीखने वाली कक्षा बनाऊं. इसलिए पूछ रही हूं कि मुझे किन-किन चीजों पर काम करने की जरूरत पड़ेगी. हरप्रीत ने पूछा.

हां नंदा, मैं भी हरप्रीत से सहमत हूं. जो तुम समझ रही हो वह हमें भी बताओ न. सुधा की बात में कुछ और जानने की अकुलाहट थी.

नंदा हंस पड़ी. बोली, देखो मेरी भोली-भाली, प्यारी सहेलियों, मैं हमेशा तुम्हारे साथ ही हूं. हम मिलकर ही काम करेंगे. वैसे हमें संख्याओं पर काम शुरू करने के पहले कुछ और क्षमताएं बच्चों में विकसित करनी चाहिए. इनके बारे में मैं पहले जिक्र कर चुकी हूं. फिर गिनने की शुरुआत की जा सकती है. और हां, संख्याओं को संख्यांकों के रूप में लिखना सिखाने के पहले संख्या पद्धति को ठीक तरह से समझ लेना चाहिए. संख्या पद्धति याने क्या नंदा? फिर कोई नई चीज़, है ना? हरप्रीत थोड़ी परेशान हो गई.

नहीं मेरी प्रीतो, कुछ भी नया नहीं. पर हां, इस पर भी कभी बात करेंगे.

एहसान जो काफी देर से चुप थे, उन्होंने कहा, नंदा, आज जो बातें हुई उसे कक्षा में आजमाने में तुम्हें मदद करनी होगी.

जरूर सर, कल हम कक्षा एक में इस पर काम करेंगे.

क्या ये सैद्धांतिक बातचीत कक्षा में व्यावहारिक रूप में परिणित हो पाई? इसे जानने के लिए अगला अंक पढ़ें.

Visitor No. : 6721010
Site Developed and Hosted by Alok Shukla