नंदा मैडम की कक्षा – 3

लेखक – सुधीर श्रीवास्‍तव

अगली सुबह नंदा स्टाफ रूम में बैठी उस दिन की कक्षा के लिए योजना बना रही थी, अचानक पीछे से किसी ने उसके कंधे पर हाथ रखा. उसने चौंक कर पीछे देखा, सुधा और हरप्रीत खड़ी थीं. उसने मुस्कराकर पूछा – “अरे सुधा, हरप्रीत तुम !” आज इतनी जल्दी कैसे आ गईं?

'हाँ बस यूँ ही. कई दिनों से हम दोनों तुमसे बात करना चाह रही थीं. तुम दिन भर व्यस्त रहती हो इसलिए आज हम जल्दी आ गईं.' सुधा ने कहा.

“बैठो न. अभी तो क्लास लगने में समय है. कोई ख़ास बात थी?”

सुधा और हरप्रीत दोनों ही नंदा के स्कूल की शिक्षिकाएं हैं. सुधा कक्षा एक और दो को पढ़ाती है. हरप्रीत कक्षा चार की शिक्षिका है. हरप्रीत ने अभी कुछ महीने पहले ही स्कूल ज्वाइन किया है. दोनों ही मेहनती हैं और हमेशा कुछ नया सीखने को लालायित रहती हैं.

“नंदा, पिछले कई दिनों से हम दोनों तुम्हारी कक्षा कोऑब्ज़र्व कर रही हैं. हमारे मन में कुछ सवाल हैं. हम दोनों आपस में उन पर बातें भी कर रही थीं.... लेकिन कुछ बातें अभी भी अनसुलझी हैं, सोचा तुम्हीं से बात करें.”सुधा ने कहा.

“भई वाह ! ये तो बड़ी अच्छी बात है कि हम अपनी कक्षाओं के बारे में बात करें. ये एक खूबसूरत पहल है.” नंदा ने खुश होते हुए कहा.

“नंदा जी, आप जानती हैं मैंने अभी-अभी ही पढ़ाना शुरू किया है मेरे अनुभव में केवल मेरे बचपन की कक्षाएं हैं. मेरे तरीके वही हैं जो मेरे शिक्षकों के थे. मैं आपकी कक्षाओं को कुछ अलग पाती हूँ. देखती हूँ आपके बच्चे बहुत खुश खुश नज़र आते हैं. उनकी आखों में कोई भय नहीं होता. न तो वे आपसे डरते हैं न ही गणित से. सभी के चेहरों पर एक आनंद और मस्ती का भाव होता है. मैं जानना चाहती हूँ आप ऐसा कैसे करती हैं? हरप्रीत ने बहुत धीरे-धीरे सकुचाते हुए पूछा.

नंदा ने मुस्कराकर हरप्रीत के कंधे पर हाथ रखा और बहुत प्यार से उसकी और देखते हुए कहा- 'देखो हरप्रीत, तुम मुझे 'नंदा जी' और 'आप' नहीं कहोगी. ये हमारा स्कूल है, कोई कॉलेज या ऑफिस नहीं और मैं तुम्हारी सीनियर या बॉस नहीं, तुम्हारी दोस्त हूँ. तुम मुझे मेरे नाम से पुकारोगी तो मुझे अच्छा लगेगा. और हाँ, मैं तुम्हे केवल 'प्रीत' कहूँगी, हरप्रीत नहीं. तुम्हें बुरा तो नहीं लगेगा?'

“ओह ! बिलकुल भी नहीं.” हरप्रीत ने खुश होकर कहा.

“अच्छा सुधा, तुम क्या पूछना चाह रही थीं?”

“नंदा, मेरा सवाल यह है कि जब बच्चे सीधे-सादे तरीके से गिनती बोल लेते हैं और लिख भी लेते हैं तो उसे इतना पेचीदा बनाने की जरुरत क्या है? दूसरी बात यह है कि तुम गिनने के लिए बच्चों से तरह-तरह की चीज़ें मंगवाती हो. कल जब बच्चे बड़ी संख्याओं पर काम करेंगे, तब भी क्या कंकड़ पत्थर ही गिनते रहेंगे?” सुधा की आवाज में थोड़ी सी तल्ख़ी आ गई थी.

सुधा ने जिस लहजे में यह बात कही उससे नंदा कुछ पलों के लिए चुप हो गई. उसने खुद को संयत किया फिर थोड़ा सोचते हुए कहा - “तुम दोनों के सवाल बहुत महत्वपूर्ण हैं और बहुत जायज़ भी. कोई और भी मेरे इन तरीकों को देखेगा तो शायद उसे भी झल्लाहट और खीझ हो सकती है. शायद उसे गुस्सा भी आये.”

सुधा को अपनी गलती का एहसास हो गया था. उसने धीरे से कहा - “नंदा , मुझे माफ़ करना. मैंने गलत तरीके से अपनी बात रखी.”

“नहीं सुधा, ऐसा कुछ नहीं है. किसी के लिए भी यह सोचना स्वाभाविक है कि गिनती जैसी चीज के लिए इतना समय क्यों दिया जाना चाहिए. लोगों के पास ऐसा सोचने का आधार भी तो है. प्रायः सभी ने अपने बचपन में बोर्ड पर या किताब में लिखी हुई गिनती को क्रम से बोलकर और दोहरा-दोहरा कर ही तो सीखा है. उनका यह सवाल लाज़िमी है कि उस पर इतना ध्यान क्यों?”

कुछ पलों तक चुप्पी बनी रही. किसी ने कुछ भी नहीं कहा. तीनों सोच रहे थे, शायद कुछ अलग-अलग, शायद कुछ एक जैसा.

इस खामोशी को तोड़ते हुए नंदा ने कहा - “तुम दोनों के सवाल हालाँकि गणित पर ही हैं पर कुछ मायनों में थोड़े से अलग हैं. प्रीत का सवाल कक्षा में काम करने के तरीके को लेकर है जबकि सुधा तुम्हारी बात गणित की अवधारणा पर टिकी है. दोनों ही बातों को किसी शिक्षक के लिए ठीक तरह समझना बहुत जरूरी है.”

“मैं कोई विशेषज्ञ नहीं हूँ. मेरी जो समझ बनी है, प्रायः बच्चों के साथ काम करते हुए बनी है. कुछ बचपन के खट्टे-मीठे अनुभवों ने भी सिखाया है. कई बातें प्रशिक्षण कार्यक्रमों में की गई चर्चाओं से स्पष्ट हुई हैं. कुछ ऐसी भी हैं जिन्हें मैंने अलग-अलग किताबों में पढ़ा है. जो कुछ भी पाया उस पर खूब सोचा और उन्हें कक्षा में बार-बार आज़माया. इन सब से कुछ निष्कर्ष मिले हैं परन्तु आज भी मुझे ज़्यादा कारगर तरीकों की तलाश रहती है. मुझे हमेशा यही लगता है की कोई भी तरीका सबसे बढ़िया या अंतिम नहीं है. बच्चों की जरूरतों और उनकी समझ की अनुसार इनमें लगातार बदलाव की जरूरत बनी रहती है. ”

“हम पहले प्रीत के सवाल को समझने की कोशिश करते हैं. प्रीत ने कहा कि उसके तरीके वही हैं जो उसके शिक्षकों के थे. इस पर मैं इतना ही कहूँगी कि कोई भी तरीका अच्छा, ख़राब, पुराना या नया नहीं होता. महत्वपूर्ण बात यह होती है कि बच्चे सीख पा रहे हैं या नहीं. सीखने में उनकी खुद की भागीदारी हो रही है या नहीं. उनका नया ज्ञान उनके पहले के अनुभवों, जानकारियों और ज्ञान से जुड़ रहा है या नहीं. यह भी देखना जरूरी होता है कि कक्षा में उन्हें सोचने, अपने विचार व्यक्त करने, दूसरे के विचारों को सुनने और नए विचार बनाने के मौके मिल रहे हैं या नहीं. इन सबके अलावा कक्षा का माहौल भी एक ऐसी चीज़ है जो सीखने को बहुत प्रभावित करता है. इसे हम थोड़ा विस्तार से समझते हैं.”

“प्रीत, क्या तुम्हें अपने बचपन की कोई ऐसी बात याद है जो स्कूल में गणित सीखने से जुड़ी हो और अच्छी लगती हो?'

यह सवाल सुनते ही हरप्रीत अतीत में जैसे कुछ ढूंढने लगी. उसके चेहरे पर कई तरह के भाव आ जा रहे थे उसने एक गहरी सांस ली और कहा -

“नंदा, मुझे कई बातें याद आ रही हैं… अपनी शरारतें, टीचर की झिड़कियां, उनकी सज़ाएँ, उनका प्यार, उनकी तारीफें… कई बातें.”

“क्या कोई ऐसी बात कभी हुई जो तुम्हें आज भी ख़ुशी देती है?” नंदा ने पूछा. “हाँ नंदा, हमारे एक सर थे. जब भी वो क्लास में आते थे, मुस्कराते हुए आते थे, एकदम जोश और उत्साह से भरे हुए. उन्हें हर बच्चे का नाम याद रहता था. वो सभी को नाम से ही बुलाते थे. गणित के किसी भी सवाल को इतना बढ़िया समझाते थे कि हर बच्चे को लगता था कि वह खुद भी उसे कर सकता है. अक्सर वो सवालों को बोर्ड पर बनाने से पहले हमें खुद बनाने कि लिए कहते थे. एक बार, एक मुश्किल सा सवाल उन्होंने हमें दिया था. उसे कक्षा में केवल मैं हल कर पाई थी. तब उन्होंने मुझे सामने बुलाया, बड़े प्यार से मेरी पीठ थपथपाई, मेरे सिर पर हाथ रखा और मेरी कॉपी पूरी कक्षा को दिखाई. वो पल मुझे आज भी याद हैं और बार-बार उतनी ही ख़ुशी देते हैं जितनी उस दिन कक्षा में मिली थी. यह कहते हुए हरप्रीत का चेहरा ख़ुशी से दमकने लगा था और कहीं उसकी आँख के कोनों में कुछ बूँदें छलक गई थीं.”

कुछ पल ऐसे ही बीते. नंदा उन अनुभूतियों को हरप्रीत को जी लेने देना चाहती थी. उसने धीरे से सुधा से पूछा -

“सुधा, यदि किसी ऐसे टीचर की क्लास में तुम होतीं तो तुम्हें कैसा लगता?” सुधा ने एक गहरी सांस ली और कहा - “बेशक नंदा, मैं भी उन खुशियों को जीवन भर संभाल कर रखती.”

“चलो अब एक दूसरी स्थिति की कल्पना करें. प्रीत, क्या तुम्हें कोई ऐसी बात याद है जिससे तुम्हें तकलीफ हुई थी?”

“हाँ, एक बार ऐसा भी हुआ था जब मैं चौथी कक्षा में थी तब हमें एक ऐसे टीचर पढ़ाते थे जो हमें प्यार तो करते थे मगर बहुत चिड़चिड़े थे. उन्हें कब किस बात पर गुस्सा आ जाएगा, कोई नहीं जानता था. वो जब भी क्लास में आते थे तब जैसे सब की जान गले में आकर अटक जाती थी. कक्षा में पिन ड्रॉप साइलेन्स हो जाता था. एक बार उन्होंने हम सबसे कहा कि अपनी-अपनी किताबें पढ़ो, मन में. मैं सबसे सामने वाली बेंच पर बैठती थी. उस दिन पढ़ते हुए अनायास ही मेरी उंगलियां किताब के कोने पर पन्नों से खेल रही थीं इससे बहुत हलकी सी फर्र-फर्र कि आवाज हो रही थी. मुझे इसका एहसास नहीं था और मैं पढ़ने में मशगूल थी. अचानक उन्होंने कड़कती आवाज़ में कहा- हरप्रीत सामने आओ. मैं सहमी हुई सामने गई. उन्होंने मेरी चोटी पकड़कर जोर से हिलाया, एक तमाचा मेरी गाल पर जमाया और फिर मुझे उठाकर खिड़की से बाहर कर दिया या यूँ कहूँ खिड़की से बाहर फेंक दिया. मुझे हाथ-पैर में चोट तो लगी पर उससे ज्यादा गहरी चोट मेरे मन में लगी. मैं बहुत देर तक वहीँ बैठी रोती रही. न किसी ने मुझे उठाया, न चुप कराया. अपमान और शर्म से कई दिनों तक मैं स्कूल नहीं जा पाई और सच तो यह है कि उसके बाद मैं कभी कक्षा में सहज नहीं हो पाई.” हरप्रीत जब यह कह रही थी तब नंदा और सुधा दोनों की कल्पना में कक्षा का वह दृश्य जीवंत हो रहा था. ये बहुत भावुक कर देने वाले पल थे. थोड़ी देर के लिए वहाँ पर एक ख़ामोशी पसर गई. तीनों अनायास ही अपने बचपन की उन यादों में चले गए जहाँ कुछ पीड़ाएँ, कुछ दुःख और कुछ अपमान की स्मृतियाँ छुपी हुई थीं.

नंदा ने तकलीफ से भरी हुई इस खामोशी को तोड़ते हुए कहा- “ये वो क्षण हैं जहाँ हम खड़े हो कर अच्छी तरह महसूस कर सकते हैं कि बच्चों में भी स्वाभिमान का भाव होता है. उन्हें ठेस भी लगती है, और जीवन भर तकलीफ पहुंचाती है. हम, जो उनसे बड़े होते हैं अक्सर इसे नहीं देख पाते, नहीं समझ पाते. हम माता-पिता या शिक्षक के रूप में बच्चों को, एक अधिकारी के रूप में अपने नीचे काम करने वालों को चाहे अनचाहे, जाने अनजाने डांटते हैं, सबके सामने उनकी कमियां निकालते हैं और तारीफ़ तो यह है कि इसे हम अपना हक़ समझते हैं. अक्सर ऐसा कर के खुद को बड़ा महसूस करते हैं. ऐसे लोग बहुत ही कम होते हैं जो अपने से छोटों की गलतियों को देख कर भी उसे महसूस नहीं होने देते और उसे सही रास्ता बता देते हैं. मुझे अपने एक ऐसे प्रोफेसर की हमेशा याद आती है जो अक्सर कहते थे कि किसी को तब पकड़ो जब वो अच्छा काम कर रहा हो. लेकिन ऐसे लोग हमारे बीच बहुत कम होते हैं.”

“प्रीत, तुम्हारे सवाल का जवाब इसी एहसास से जुड़ा हुआ है. जब मैं अपने बच्चों से बात करती हूँ तो चाहती हूँ उनके भीतर उतरकर उन्हें महसूस करूँ. इतना कि वे मुझे अपने सबसे करीब समझने लगें. उन्हें लगने लगे कि वे मुझसे अपनी हर बात कह सकते हैं. हो सकता है कि मेरी ऐसी सोच के लिए मेरा मज़ाक उड़ाया जाए या मुझे पागल कहा जाए.”

ये पल बहुत भावुक थे. प्रीत को समझ में आ रहा था कि यही वो बात है जिसके कारण बच्चे नंदा पर जान छिड़कते हैं. सुधा भी एकदम शांत भाव से कुछ सोच रही थी. शायद यह कि किसी शिक्षक के लिए विषय की समझ ही पर्याप्त नहीं है बल्कि एक अच्छा और संवेदनशील इंसान होना पहले जरूरी है.

नंदा ने अपनी बात जारी रखी. उसने कहा - “मुझे नहीं मालूम तुम दोनों मेरे बारे में क्या सोचोगी या लोग क्या कहेंगे. और मैं भी इसकी बहुत चिंता नहीं करती क्योंकि ऐसा सोचने के पीछे कुछ ठोस वहजें भी हैं.”

“वजह? कैसी वजह नंदा?” सुधा ने पूछा.

“दो बाते हैं सुधा. मुझे लगता है कुछ भी सीखना कुछ नयी रचना करने जैसा है. एक सृजन है और कोई भी सृजन दबाव में, डर में, तनाव में, शायद नहीं हो सकता. सर्जना उन्मुक्त है, स्वतंत्र है, नया रास्ता ढूंढने की तरह है. इसके लिए मस्तिष्क और हृदय दोनों को बंधन मुक्त होना होता है.”

सृजन की कोई भी प्रक्रिया आनंद देने वाली होती है. सृजन कैसा भी हो, कोई गीतकार गीत लिखता हो, कोई संगीतकार कोई धुन बनाता हो, कोई मूर्तिकार कोई शिल्प रचता हो, कोई बच्चा किसी समस्या का हल ढूंढता हो, हर बात ख़ुशी देने वाली होती है. सृजन की पूर्णता की अनुभूति भी अद्भुत होती है. मुझे लगता है जब परिणीति आनंदपूर्ण है तो शुरुआत भी आनंद से क्यों न हो.

दूसरी बात है हम ईंट, पत्थर और मशीनों के साथ काम नहीं करते हम इंसान के बच्चों के साथ काम करते हैं जो खुद भी पूरी तरह संवेदनशील और समझदार इंसान ही हैं. उनके साथ काम करते हुए यदि दुःख और आनंद दोनों ही पैदा किये जा सकते हैं तो हर बार आनंद के विकल्प को क्यों न चुना जाए?

“वाह, वाह, वाह… क्या बात है नंदा तुम तो पूरी तरह दार्शनिक बन गई हो. भई, तुम्हारी बात में बहुत दम है.”

ये थे एहसान मियां जो इस स्कूल के हेड मास्टर हैं. बड़ी देर से ये इनकी बातें सुन रहे थे. एहसान मियां खुद भी एक बहुत अच्छे शिक्षक हैं. इनकी उम्र 55 से ऊपर है किन्तु अभी भी वे पूरी ऊर्जा और जोश के साथ काम करते हैं.

एहसान मियां को देखते ही तीनों खड़ी हो गयीं. नंदा ने थोड़ा सकुचाते हुए पूछा - “सर आप कब आए ?”

“बस अभी-अभी आया. नंदा, तुम्हारी बातें सुनकर लगता है की बस सुनते ही रहें. भई, मुझे माफ़ करना मैं बीच में ही टपक पड़ा. दरअसल तुम सब से एक सलाह लेना थी. तुम तो जानते ही हो कि स्कूल के रास्ते में कुम्भकारों का मोहल्ला है. कल शाम मैं वहाँ गया था. वो जिस तरह से चाक पर तरह-तरह की चीजें बना रहे थे, मूर्तियों पर रंग लगा रहे थे उससे मैं बड़ा प्रभावित हुआ. मुझे ऐसा लगा कि हमारे बच्चों को यह सब जरूर देखना चाहिए इससे वे समझ पाएंगे कि हम रोज़ कि ज़िन्दगी में जिन चीजों का इस्तेमाल करते हैं उन्हें बनाने के पीछे लोगों की कितनी मेहनत छिपी होती है. इससे बच्चों में अपनी चीज़ों की कद्र करने का सलीका भी पैदा होगा. शायद वे यह भी महसूस कर पाएं कि सोसाइटी या समाज में हम सब कैसे एक दूसरे पर निर्भर हैं. जब यह बात समझ में आएगी तो वे लोगों कि इज़्ज़त करना भी सीख पाएंगे.”

“अगर तुम सब ठीक समझो तो मैं सभी बच्चों को अपने साथ वहाँ ले जाना चाहता हूँ.' सुधा ने कहा 'सर कितना अच्छा सोच रहे हैं आप, बच्चों को वहाँ जरूर ले जाना चाहिए यदि आप कहें तो हम भी आपके साथ चल सकती हैं.'

एहसान मियां ने हँसते हुए कहा- 'वाह यह तो बहुत अच्छी बात होगी. तुम सब तैयार हो जाओ हम दस मिनट में यहाँ से निकलेंगे.' यह कहकर एहसान मियां अपने कक्ष की ओर चले गए.

नंदा ने कहा 'पर सुधा तुम्हारे सवाल का जवाब तो रह गया.”

सुधा ने नंदा की ओर देखते हुए कहा “नंदा मैं समझती हूँ कि जिस तरह तुमने प्रीत की बात को इतनी गहराई से हमारे सामने रखा वैसे ही तुम मुझे गिनती के बारे में भी बताओगी. मैं चाहती हूँ कि मैं इसे विस्तार से समझूँ. मुझे अभी केवल इतना बता दो क्या ब्लैकबोर्ड पर लिखी हुई गिनती पढ़ना, गिनती सीखना नहीं है?”

“सुधा यह बताओ जब कोई बच्चा गिनती को पढ़ता है वह क्या करता है?'

सुधा ने सोचते हुए कहा - 'वह प्रत्येक संख्या पर ऊँगली रखता हुआ क्रमशः एक दो तीन बोलता हुआ आगे बढ़ता है.

यहाँ दो चीजें होती हैं. बच्चा संख्या का नाम पढ़ रहा होता है और बोर्ड पर लिखी एक विशेष आकृति के साथ उस नाम का सम्बन्ध जोड़ रहा होता है. क्या तुम सहमत हो? ” नंदा ने पूछा.

कुछ सोचते हुए सुधा ने कहा - “हाँ शायद ऐसा ही है.'

'लेकिन सुधा यह सोचो कि गिनती किस चीज की हो रही होती है?”

सुधा सोचती रही, कुछ कह नहीं पाई. उसके दिमाग में 'संख्या का नाम' और 'एक विशेष आकृति ' ये शब्द प्रश्रचिह्न लिए खड़े हो गए थे. उसने केवल इतना ही कहा “नंदा प्लीज़, मुझे ये बातें ठीक से समझाना. कल हम इत्मिनान से इसपर बातें करेंगे.”

नंदा ने 'संख्या का नाम','संख्या की आकृति' के बारे में सुधा और हरप्रीत से क्या बात की, क्या उसने 'संख्या' के बारे में भी कुछ कहा? गिनती सीखने-सिखाने का नंदा का तरीका क्या था? इसके बारे में आप अगले अंक में पढ़ सकेंगे.

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