आमा के चटनी

लेखक - महेन्द्र देवांगन माटी

आमा के चटनी ह अब्बड़ मिठाथे,
दू कंऊरा भात ह जादा खवाथे ।

काँचा काँचा आमा ल लोढहा म कुचरथे,
लसुन धनिया डार के मिरचा ल बुरकथे।

चटनी ल देख के लार ह चुचवाथे,
आमा के चटनी ह अब्बड़ मिठाथे ।

बोरे बासी संग में चाट चाट के खाथे,
बासी ल खा के हिरदय ह जुड़ाथे ।

खाथे जे बासी चटनी अब्बड़ मजा पाथे,
आमा के चटनी ह अब्बड़ मिठाथे ।

बगीचा में फरे हे लट लट ले आमा,
टूरा मन देखत हे धरों कामा कामा ।

छुप छुप के चोराय बर बगीचा में जाथे,
आमा के चटनी ह अब्बड़ मिठाथे ।

दाई ह हमर संगी चटनी सुघ्घर बनाथे,
ओकर हाथ के बनाय ह गजब मिठाथे ।

कुर संग मा भात ह उत्ता धुर्रा खवाथे,
आमा के चटनी ह अब्बड़ मिठाथे ।

जंगल बचाय के करो जतन

लेखक - श्रवण कुमार साहू

जिहाँ जंगल, तिहाँ जिनगी हे।
रुख राई के सुग्घर, फुनगी हे।।
जिहाँ जीव जंतु करे बसेरा।
चिरई-चिरगुन के बोली सुन,
जिहाँ होथे सांझ -सबेरा।।
जंगल हे, तभे तो जल हे।
जल हे तभे तो कल हे।।

बिन जल के दुनियाँ, जल जाही।
बिन जंगल के प्रकृति, का रह पाही?
अपनेच म झन, राहो मगन।
जंगल, जमीन के करो जतन।।

गरमी के दिन आगे

लेखिका - प्रिया देवांगन 'प्रियू'

गरमी के दिन आगे संगी, मचगे हाहाकार ।
तरिया नदियाँ सबो सुखागे, टुटगे पानी धार ।।

चिरई चिरगुन भटकत अब्बड़, खोजत हावय छाँव ।
डारा पाना जम्मो झरगे, काँहा पावँव ठाँव ।।

तीपत अब्बड़ धरती दाई, जरथे चटचट पाँव ।
बिन पनही के कइसे रेंगव, जावँव कइसे गाँव ।।

बूँद बूँद पानी बर तरसे, कइसे बुझही प्यास ।
जगा जगा मा बोर खना के, करदिस सत्यानास ।।

बोर कुवाँ जम्मो सुख गेहे, धर के बइठे माथ ।
तँही बचाबे प्राण सबो के, जय जय भोलेनाथ ।।

पुतरी पुतरा के बिहाव

लेखिका - प्रिया देवांगन 'प्रियू'

पुतरी पुतरा के बिहाव होवत हे, आशीष दे बर आहू जी ।
भेजत हाँवव नेवता सब ला, लाड़ू खा के जाहू जी ।।

छाये हावय मड़वा डारा, बाजा अब्बड़ बाजत हे ।
छोटे बड़े सबो लइका मन, कूद कूद के नाचत हे ।।
तँहू मन हा आके सुघ्घर, भड़ौनी गीत ल गाहू जी ।
भेजत हावँव नेवता सब ला, लाड़ू खा के जाहू जी ।।

तेल हरदी हा चढ़त हावय, मँऊर घलो सौंपावत हे ।
बरा सोंहारी पपची लाड़ू, सेव बूंदी बनावत हे ।।
बइठे हावय पंगत में सब, माई पिल्ला सब आहू जी ।
भेजत हावँव नेवता सब ला, लाड़ू खा के जाहू जी ।।

आये हावय बरतिया मन हा, मेछा ला अटियावत हे ।
खड़े हावय बर चौंरा मा, मिल के सब परघावत हे ।।
नेंग जोग हा पूरा होगे, टीकावन मा आहू जी ।
भेजत हावँव नेवता सब ला, लाड़ू खा के जाहू जी ।।

मजदूर

लेखक - महेन्द्र देवांगन माटी

जांगर टोर मेहनत करथे, माथ पसीना ओगराथे ।
मेहनत ले जे डरे नहीं, उही मजदूर कहाथे ।
बड़े बिहनिया सुत उठके, बासी धर के जाथे ।
दिन भर बुता काम करके, संझा बेरा घर आथे ।
बड़े बड़े वो महल अटारी, दूसर बर बनाथे ।
खुद के घर टूटे फूटे हे, झोपड़ी मा समय बिताथे ।
रात दिन जब एक करथे, तब रोजी वो पाथे ।
मेहनत ले जा डरे नहीं, उही मजदूर कहाथे ।
पानी बरसा घाम पियास, बारो महीना कमाथे ।
धरती दाई के सेवा करके, सुघ्घर हरियर बनाथे ।
पहाड़ पर्वत काट काट के, पथरा मा पानी ओगराथे ।
पानी पसीया पीके संगी, माटी के गुन गाथे ।
मेहनत ले जे डरे नहीं, उही मजदूर कहाथे ।

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