नन्हे हाथो का कमाल

लेखक एवं चित्र - इन्द्रभान सिंह कंवर

इन नन्हे छोटे हाथो से हम
गड्ढे खूब बनायेंगे
इन गड्ढे में अच्छे सुन्दर
पौधे खूब लगायेंगे
खूब करेंगे इनकी सेवा
खूब करेंगे इनका पालना
इनके पालन में ही तो है
हम सभी लोगों का जीवन
इन पौधे के सेवा कर-कर
पौधे से पेड़ बनायेंगे
उन पेड़ों की छाँव में हम
मदमस्त मगन खो जाएंगे

गुब्बारे

लेखिका एवं चित्र – विजयलक्ष्मी राव

रंग बिरंगे ये गुब्बारे
लगते सबको प्यारे-प्यारे
कोई गोरा कोई काला
कोई हरा तो कोई नीला

कोई लम्बा कोई गोल
कोई मोटा जैसे ढ़ोल
गैस भरो तो उड़ जाता है
वापस कभी न फिर आता है

कुठ गुब्बारे मुझे दिला दो
मम्मी मेरा स्कूल सजा दो

छतरी

लेखिका एवं चित्र – आशा उज्जैनी

जब अंबर मे बदली छाती,
तब तो फूली नहीं समाती,
बंद करो तो खुलखुल जाती,
मेरी प्यारी प्यारी छतरी,

टप- टप, टिप- टिप गाना गाए,
खुद भीगे पर मुझे बचाए,
इसीलिए तो मुझको भाए,
मेरी राजकुमारी छतरी.

जब देती गर्मी की खेती,
कड़ी धूप में छाया देती,
कोई नहीं किराया लेती,
मेरी राजदुलारी छतरी।

ऊंट आया

लेखक - संतोष कुमार साहू ( प्रकृति)

देखो देखो ऊंट आया,
ऊंट आया ऊंट आया,
लम्बा चौडा ऊंट आया।।


आंखे उनकी छोटी है,
है छोटे से कान भी ।
पूंछ उनकी छोटी है,
है छोटी सी नाक भी ।।


गर्दन उसकी लम्बी है,
लम्बी उनकी टांग भी।
पीठ उनकी उंची है,
ऊंचा है भई नाम भी।।


रेत में दौड लगाते हैं,
अपनी चाल दिखाते हैं।
जहाज तभी तो प्यारे,
रेगिस्तान में बन जाते हैं।।


जादू उनकी पीठ में हैं,
जल भर कर ढो जाती है ।
जब भी प्यास लगती है,
झट से प्यास बुझाती है।।


तभी तो प्यारा ऊंट,
सबके मन को भाता है ।
बहुत भारी वजन यूं ही,
ढो-ढो कर वह जाता है ।।

करते आराम नहीं

लेखक - सौरभ शुक्ला

दिन हो, रात हो अब युवा हिन्द के करते आराम नहीं
समाज बदल रहा है युवा, व्याकुलता का अब काम नहीं
भारत माता की वेदी पर निज प्राणों का उपहार लाए हैं
शक्ति भुजा में, ज्ञान गौरव जगाने भारत के युवा आये हैं
नित नए प्रयासों से समाज को आगे ले जा रहे हैं
देखो युवा क्या-क्या नये उद्यम ला रहे हैं

बिन्नी के साथ 'फ्लिपकार्ट' आया
देश में नया रोजगार लाया
कुणाल और रोहित की 'स्नैपडील'
कंस्यूमर को हो रहा गुड फील
देश की बेटियां कहां पीछे रहीं
राधिका की 'शॉप-क्लूज़’ आ गयी

हुनर नहीं बर्बाद होता अब तहखानों में
जीवन रागनियां मचल रही नव-गानों में
समझ चुके हैं बिना प्रयास पुरुषार्थ क्षय है
आगे बढ़ चले अब, भारत माता की जय है
तप्त मरु को हरित कर देने की आस लगाये हैं
युवा सुख-सुविधाओं की नए परम्परा लाये है

भाविश का 'ओला’, समय से घर पहुंचता
शशांक का 'प्रैक्टो’ डॉक्टर से मिलवाता
दीपिंदर का 'जोमाटो’ खाना खिलवाता
समर का 'जुगनू’ ऑटोरिक्शा दिलवाता
विजय का 'पेटीऍम’ ट्रांजेक्शन की जान
सौरभ, अलबिंदर का 'ग्रोफर्स’ खरीदारों की शान

शिरीष आपटे की जल प्रणाली देश के काम आ रही
बीएस मुकुंद की 'रीन्यूइट’ सस्ते कंप्यूटर बना रही
बिनालक्ष्मी नेप्रम 'वुमेन गन सर्वाइवर नेटवर्क' चला रहीं
सची सिंह रेलवे स्टेशन पर लावारिसों को राह दिखा रहीं
प्रीति गांधी की मोबाइल लाइब्रेरी सबको ज्ञान बांट रही
डॉ. बोडवाला की 'वन-चाइल्ड-वन-लाइट' जीवन में जान डाल रही

जादव पायेंग “फॉरेस्ट मॅन ऑफ इंडिया” जूझा अकेला
आज १३६० एकड़ में ‘मोलाई’ का जंगल फैला
तरक्की की कलम से भाग्य लिखते जा रहे हैं
नव पथ पर निशां बनते जा रहे हैं
नित नए नाम जुड़ते जा रहे हैं
युवा समाज बदलते जा रहे हैं

गरमी आई

लेखक - बलदाऊ राम साहू

इस बरस जब गरमी आई
सूखे सब ताल-तलैया।
बूँद-बूँद पानी को तरसे
नाच नचाया ताता-थैया।

ऐसा लू का पड़ा थपेड़ा
मुश्किल हो गया जीना।
पंखे, कूलर हार गए सब
तर-तर चूआ पसीना।

सूरज अंगारे बरसाता है
जैसे बादल बरसाता पानी
झुलस-झुलस कर हारे सब जन
करके खुद नादानी.

अपने पैरों मार कुल्हाड़ी
जीवन भर हम पछतायें
कल को सुखद बनाना है तो
आओ, फिर से पेड़ लगायें.

बेटी

लेखिका – श्रध्दा श्रीवास्तव

घर में जब से बेटी आई है
घर परिवार में मानो बजती शहनाई है

धूप में छांव की तरह
दर्द में दवाओं की तरह
बेटियां आती हैं खुशियों में
खूबसूरत फिजाओं की तरह

मौसन में भी तो अंगड़ाई है
घर परिवार में मानो बजती शहनाई है

दो कुलों का दीपक है बेटियां
दो जहां हें रोशन जिनसे
फूलों से भी सुंदर मुसकान लायी हैं
घर परिवार में मानो बजती शहनाई है

मैं मजदूर हूँ

रचनाकार - श्रवण कुमार साहू'प्रखर'

मैं मजदूर हूँ,
जी हां मैं मजदूर हूँ ।
इन चमचमाती सड़कों से लेकर,
उन गगनचुंबी इमारतों का निर्माण
मैंने ही अपने हाथों से किया है।
आदिम युग से लेकर आज तक,
विकास को दिशा मैंने ही दिया है,
फिर भी अपने हक से,
आज भी कोसों दूर हूँ,
क्योंकि मैं मजदूर हूँ।

मैंने उन तथाकथित,
उच्च लोग के लिए,
क्या से क्या नहीं किया ।
उन्हें अमृत देकर स्वयं,
उपेक्षा का जहर पिया,
अपनी कर्मशीलता के लिए,
मैं आज भी मशहूर हूँ,
क्योंकि मैं मजदूर हूँ।।

उनके हिस्से में सुख है,
मेरे हिस्से में दुःख है।
उनके हिस्से में छांव है,
मेरे हिस्से में धूप है।
मैं इतना क्यूँ मजबूर हूँ,
सिर्फ़ इसीलिए,
क्योंकि मैं मजदूर हूँ।।

कोई क्यूँ यह नहीं समझता,
कि मेरे भी ख्वाब है,
मेरे भी कुछ अरमान है,
दुःख और अभाव से ग्रस्त,
मेरे मासूम बच्चों का भी,
अपना कोई जहान है।
फिर दुनियाँ की हर खुशियों से,
मैं ही क्यों मरहूम हूँ,
सिर्फ इसीलिए,
क्योंकि मैं मजदूर हूँ।।

माँ-बाप की पुकार

लेखक - तबरेज आलम

कहाँ गया ओ बच्चा मेरा जिसे बड़े नाज़ों से पाला था
रात हो या दिन जिसके लिए हमने चाहा उजाला था।
रातों को जग कर जिनके लिए नींद गवाई थी
गोद को बिस्तर हाथों को तकिया बनायी थी।।
कहाँ गया ओ बच्चा मेरा जिसे बड़े नाज़ों से पाला था
रात हो या दिन .....

तेरे बचपन से जवानी तक हमने सुख दुख उठाया था
तेरी ख़ुशी ने हमें आपस में लड़ाया था।।

तुम्हें डांटा तुमसे प्यार भी जताया था
तुम्हें सही राह दिखाने यह कदम भी उठाया था।
तुम्हारी हर ख्वाहिश पूरी हो ये जिमेदारी भी निभायी थी
हमने अपने हिस्से की ख़ुशी भी तुझ पर लुटायी थी।।
जिस बच्चे पर फख्र था,और गर्व से सिर उठाया था
आज उसी की बेरुखी ने हमारा सिर झुकाया था।।

बरसों के स्नेह-प्यार को एक पल में भुला दिया
जो आँखे खुशियां देखनी चाहती थी,उसे ही रुला दिया।।
कहाँ गया ओ बच्चा मेरा जिसे बड़े नाज़ों से पाला था
रात हो या दिन जिसके लिए हमने चाहा उजाला था।।

हँसते और मुस्काते पेड़

लेखक - बलदाऊ राम साहू

सर उठाए, सीना ताने,
सैनिक-सा इतराते पेड़।

धूप सहकर , छाया देते
पथिकों को बुलाते पेड़।

पुरवाई की मधुर थाप पर
संगीत नया सुनाते पेड़।

सर्दी,गर्मी हर मौसम में
मीठे फल दे जाते पेड़।

हम सब को खुशियाँ देने
दुख को गले लगाते पेड़।

कितने जुल्म सहे हैं लेकिन
हँसते और मुस्काते पेड़।

धरती का सौंदर्य बढ़ाने
दयादृष्टि दिखलाते पेड़।

माँ की पूजा (सार छंद)

लेखक - महेन्द्र देवांगन 'माटी'

मंदिर में तू पूजा करके, छप्पन भोग लगाये ।
घर की माँ भूखी बैठी है, उसको कौन खिलाये ।।

कैसे तू नालायक है रे, बात समझ ना पाये ।
माँ को भूखा छोड़ यहाँ पर, दर्शन करने जाये ।।

भूखी प्यासी बैठी है माँ, दिनभर कुछ ना खाये ।
मांगे जब वह पानी तो फिर, क्यों उसपर झल्लाये ।।

करे दिखावा कितना देखो, मंदिर चुनर चढ़ाये ।
घर की माई साड़ी मांगे, उसको तू धमकाये ।।

पाल पोसकर बड़ा किया जो, उस पर तरस न खाये ।
भूल गये संस्कारों को सब, लज्जा भी ना आये ।।

कैसे होगी खुश अब माता, अपने दिल से बोलो ।
पछताओगे तुम भी बेटा, आँखें अब तो खोलो ।।

सरस्वती वंदना

लेखिका - पद्यमनी साहू

ब्रम्हा जी के जल सिंचन से
प्रगटी माँ वागेश्वरी।
चतुर्भुजी रूप अनोखा
सोमयरूपा करुणेश्वरी।।

वीणापाणी ले वेद हस्त
शुभ स्फटिक माल ।
हरने को जन जन
का मोह जाल।।

कर हंस की सवारी
माँ श्वेत वस्त्र धारिणी।
पुष्प माल से शोभित
छवि मंगलकरिणी।।

माँ ने जब छेड़ी
वीणा की मधुर तान।
जलचर थलचर सारे
जीवों में आ गई जान।।

चली पवन सरसर सरसर
जल कलकल छलछल।
चंचरीक के मधुर कलरव से
चारो ओर मच गई हलचल।।

सुर मुनि शेष नारद शारद
माँ की करे स्तुति गान।
मातु भारती हंस वाहिनी
ब्रम्हाणी स्वीकारो सम्मान।।

अष्ट सिद्धि नव निधि
सकल कलाओं की दाता।
हर लो माँ अज्ञान हमारा
मेरी भाग्य विधाता।।

सच्ची कहानी

लेखक - नेमीचंद साहू गुल्लू

भूखे को भोजन
प्यासे को पानी
भटके को राह
बस यही है कहानी

रोगी को दवाई
बहन को भाई
दुखी की भलाई
प्रेम में गहराई
यार को यारी
निराश को वाणी
राही को छाया
बस यही है कहानी

धान को बाली
बहार को हरियाली
आकाश को लाली
मन को खुशहाली
हाथ को काम
देश को कुर्बानी
बडो़ं को सम्मान
बस यही है कहानी

अनाथ को नाथ
गरीब को साथ
बूढों को दो बात
जीवों को बरसात
पक्षी को आकाश
जग को प्रकाश
भूमि को पानी
बस यही है कहानी

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