संस्मरण

जब बच्चे स्वयं ही प्रश्न बनाने लगे

लेखिका - श्रीमती मीरा वर्मा

प्राथमिक शिक्षा में मेरी प्रथम नियुक्ति 1999 में प्रा0वि0 राजाराम चौरिहा पुरवा, अतर्रा में हुई थी. मुझे बच्चों को पढ़ाना अच्छा लगता था और मैं नित नवीन तरीके खोजती रहती थी. संयोग से उस विद्यालय में साहित्यकार और नवाचारी शिक्षक प्रमोद दीक्षित ‘मलय’ पहले से ही कार्यरत थे. मुझे हमेशा उनसे सीखने को मिलता रहा. कुछ साल बाद मेरी प्रोन्नति पू0मा0वि0 गर्गन पुरवा में हो गई. यहाँ सामजिक विषय पढ़ाने की जिम्मेदारी दी गई. मैंने सामाजिक विषय शिक्षण का परम्परात तरीका अपनाया हुआ था जिसमें मैं प्रश्नों के उत्तर लिखा देती थी, साथ ही मानचित्र पर कुछ काम करने का प्रयास किया. बच्चे उन्हें रट लेते थे. क्योंकि कोर्स पूरा करने का मानसिक दबाव होता था. बच्चे प्रश्न पूछने पर वही रटे हुए उत्तर उगल देते थे. यह करते हुए मैंने अनुभव किया कि बच्चों में सामाजिक विषय अन्तर्गत ऐतिहासिक तिथियों, तथ्यों, युद्धों, संधियों, भौगोलिक शब्दों एवं लोकतांत्रिक प्रक्रिया की समझ का अभाव है तथा विषयवस्तु को वे अपने शब्दों मे व्यक्त नहीं कर पा रहे हैं. मैं बच्चों के साथ कैसे काम करूँ कि वे प्रकरण को समझ जायें, यह मेरे दिमाग में चलता रहता था. संयोग से प्रमोद दीक्षित जी ने 2012 में कुछ नवाचारी शिक्षकों के साथ स्कूल बेहतरी के लिए एक समूह ‘शैक्षिक संवाद मंच’ का गठन किया था और मैं उस समूह में आरम्भ से ही जुड़ी हुई थी. एक बैठक में मैंने यह समस्या रखी. जो समाधान मिला उस पर संकल्प के साथ योजना बनाकर काम शुरु किया.

मैंने योजनानुसार समाधान खोजने का प्रयास किया और एक नवाचार ‘सुनो, देखो, समझो और बोलो’ पर काम प्रारम्भ किया. सबसे पहले मैंने बच्चों से बात की कि अब सीधे प्रश्न नहीं लिखाऊँगी बल्कि हम लोग पहले आपस में पाठ के सम्बंध में बातें करेंगे और स्वयं अपने प्रश्न बनाकर उत्तर खोजेंगे. मैंने उन्हें एक सप्ताह तक किसी पाठ के किसी हिस्से पर प्रश्न बनाना और उत्तर खोजना सिखाया. यह सीख जाने पर मैंने अपने नवाचार पर काम शुरू किया. सबसे पहले मैं सम्बंधित पाठ को बच्चों के सामने प्रस्तुत करती. उस पर बच्चे खूब प्रश्न करते और मैं उनके उत्तर देती. फिर कक्षा को तीन या चार छोटे समूहों में बाँट कर पाठ के को उतने ही भागों में बाँट कर समूहों को दे देती जिन पर उन्हें प्रश्न बनाकर उनके उत्तर खोजना होता. समूह में पहले पूरा पाठ पढ़ा जाता फिर अपने हिस्से पर काम होता. यह सारा काम वे अपनी कापियों में करते. मैं घूम-घूमकर प्रत्येक समूह का काम देखती रहती और जरूरत पड़ने पर उनका मार्गदर्शन करती रहती. काम करने के बाद हर समूह अपने काम को पूरी कक्षा के सम्मुख प्रस्तुत करता जिस पर मैं और अन्य समूहों के बच्चे प्रश्न करते या सुझाव रखते. मैं भी बच्चों के साथ बैठ जाती हूँ. इस प्रक्रिया में कोई नाटिका, गीत, खेल आदि गतिविधि होती जो बहुत रुचिपूर्ण होती है. हर बच्चे को बोलने का अवसर दिया जाता है. इस नवाचार से बच्चों में समझ बढ़ी है और वे विषयवस्तु को अपने शब्दों में व्यक्त करने लगे हैं. उनमें आत्मविश्वास बढ़ा है और वे स्कूल के अन्य कार्यक्रमों में भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं और अपने विचार व्यक्त करते हैं. मेरे छुट्टी में रहने या कोई घण्टा खाली होने पर वे अपने समूह बनाकर उस घण्टा का विषय पढ़ने लगते हैं. इस नवाचार को समझने के लिए मेरे स्कूल की शिक्षिकाएं भी कई बार मेरी कक्षा में पीछे बैठी हैं और संवाद किया है. इस नवाचार के रुचिपूर्ण होने के कारण स्कूल में बच्चो की उपस्थिति बढ़ी है और वे बच्चे भी स्कूल आने लगे हैं जो घरेलू कामों में लगे रहते थे. बच्चों को विषय को रटने से मुक्ति मिल गई है और उनमें समझ बढ़ी है. बच्चों को गीत सीखने और अभिनय करने की ललक पैदा हुई है. स्कूल का वातावरण लोकतांत्रिक हुआ है क्योंकि बच्चे प्रश्न पूछना सीख गये हैं. सहयोगी शिक्षक भी अपनी कक्षाओं में इसे अपनाने लगे हैं. मुझे बेहद खुशी है कि बच्चे अब स्वयं प्रश्न बनाना और उनके उत्तर खोजना सीख गये है. पहले किसी पाठ पर केवल आठ-दस प्रश्न ही होते थे पर अब प्रश्नों की संख्या पचास से ऊपर हो जाती है. ऐसे ही मैंने मानचित्र, मिट्टी, प्रागैतिहासिक औजार, खनिज संपदा, वन क्षेत्र, नदी-तालाब और जलवायु के प्रकरणों पर बात कर प्रोजेक्ट बनाकर काम किया है. बच्चों के साथ मैं भी सीखती रही हूं.

सम्पर्क: स.अ. पू.मा.वि. गर्गन पुरवा, क्षेत्र- नरैनी, जिला- बाँदा, उ0प्र0

गणित लैब - बालिका शिक्षा के परिप्रेक्ष्य में

लेखिका - प्रज्ञा सिंह

मैं शा. पू. मा. शाला हनोदा, दुर्ग में गणित शिक्षिका हूँ. चूंकि मेरा कार्य क्षेत्र ग्रामीण परिवेश है, जहाँ आज भी शिक्षा के प्रति जागरूकता की कमी है, सही अध्ययन, अध्यापन के लिए शिक्षक के साथ पालकों को जागरूक होना अति आवश्यक है, परंतु इन विद्यार्थियों के साथ इस प्रकार का कोई सहयोग नहीं होता है. इनकी घरेलू परिस्थिति भी अध्ययन के अनुकूल नहीं होती, खासकर बालिकाएं केवल शालेय अवधि में ही अध्ययन कर पाती हैं, घरेलू कामकाज या छोटे भाई बहनों की देखभाल के लिए शाला से भी अनुपस्थित हो जाती हैं. इस परिस्थिति में इनकी अध्ययन की तारतम्यता भंग हो जाती है तथा ये क्षमता होते हुए भी पाठ्य वस्तु को भली भांति नहीं समझ पातीं. इनके लिए गणित, विज्ञान, अंग्रेजी का अध्ययन बहुत कठिन होता है, खासकर गणित विषय का अध्ययन! क्यूंकि अन्य विषय तो ये समझ भी जाती हैं किन्तु गणित के कठिन अवधारणा को समझना इनके लिए एवरेस्ट फतह करने जैसा दुष्कर होता है. और भी अनेक समस्याओं ने मुझे इस विषय को सहज, सरल रूप से समझाने के प्रयास की खोज करने के लिए मजबूर कर दिया. प्रारंभ में मैंने पुस्तक से ही चित्रों, चार्ट व सूत्र के माध्यम से समझाने का प्रयास किया किंतु इस प्रयास की सफलता पर मुझे स्वयं ही संदेह हो रहा था, क्यूंकि बच्चे स्वभाव से ही चंचल होते हैं और कठिनता, बोझिलता के कारण, शाला न आने के कारण वे अध्ययन पर एकाग्र नहीं हो पा रहे थे.

अन्ततः अथक चिंतन के बाद मैंने कुछ ऐसा करने का संकल्प लिया कि कुछ नया कार्य करना है, तब मैंने गणित के लिए मॉडल और टी एल एम बनाने की दिशा में काम करने की शुरुआत की और इसके लिए मैंने कुछ बालिकाओं को अपने साथ जोड़ा, और हम सब रोज लैब बनाने की दिशा में कार्यरत हो गए. शुरुआत में तो जो बालिकाएं मेधावी थीं वही मेरे साथ आती थीं, किंतु उस दिन मैं सुखद आश्चर्य से भर उठी जब मानसिक रूप से कमजोर बच्चियाँ ज्योति, कविता और खेमिन को भी इसमें जुड़ने के लिए उत्सुक देखा. फिर क्या था 2 सालों के अथक प्रयास के बाद आज हमारा मैथ्स लैब एक वृहद् रूप में समक्ष है. जिसमें 200 से अधिक टी एल एम का समावेश है.

इस यात्रा के दौरान बहुत कठिनाइयों का सामना भी करना पड़ा. पहली समस्याल कक्ष की थी. इस समस्याक को सुलढाने के लिये उस कक्ष को साफ किया जिसमें पहले शाला का कबाड़ भरा हुआ था. रोशनदान को प्लास्टिक शीट से बंद कराया. पेंटिंग कराई, पंखे लगवाए. इसके लिए मुझे कोई भी शासकीय सहायता नहीं मिली थी, टी एल एम बनाने के लिए यथोचित सामग्री का वहन भी मैंने स्वयं किया. दूसरी समस्या समय की थी. क्यूँकि मुझे 4 कालखंड पढ़ाना भी था. इस समस्याी से निपटने के लिये मैंने अपने कालखंड पूर्वान्ह् में लगातार रखवाये. मध्यान्ह भोजन के बाद हम ने काम करना शुरू किया. कई बार घर लेजाकर भी, छुट्टियों में भी काम करने के बाद आज मेरा मैथ्स लैब प्रदेश में पहचान बना पाया है. इस लैब को देखने हमारे शिक्षा विभाग के सभी बड़े अधिकारी आ चुके हैं, डी पी आई (शिक्षा संचालक) श्री एस प्रकाश सर विशेष रूप से लैब का भ्रमण कर चुके हैं.

उजाले की चाह में अविराम बढ़ता रहा

प्रमोद दीक्षित ‘मलय’

बुंदेलखंड के बांदा जिले के एक पिछडे़ गांव ‘बल्लान’ में 1973 में जन्म हुआ और 1998 में प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में सहायक अध्यापक के रूप में जुड़ना हुआ. एक शिक्षक के रूप में काम करते हुए पूरे बीस साल हो गये हैं. अपनी पढ़ाई, शिक्षक बनने की प्रक्रिया, शिक्षक रूप में अनुभव और इस दौरान मिली बाधाएं एवं चुनौतियां, समाधान के रास्ते और उपलब्धियों की ओर देखता हूं तो कुछ ऐसा चित्र उभरता है.

पढ़ने के साथ लिखना भी प्राथमिक कक्षाओं में रहते हुए ही शुरु हो गया था। हालांकि तब यह बिल्कुल नहीं मालूम था कि पढ़ना-लिखना क्या है? लेकिन स्कूली किताबों के अलावा जो कुछ भी पढ़ पाया उसने मुझे एक बेहतर नागरिक बनने या होने में मेरी भरपूर मदद की. एक शिक्षक के रूप में अपने स्कूल में आज जो भी नया कर पा रहा हूं उसमें बालपन से अब तक पढ़ी गई किताबों से उपजी साझी समझ का बहुत बड़ा योगदान है. पढ़ने ने मुझे शब्द-सम्पदा का धनी बनाया, लेखन में एक अपनी शैली विकसित करने में सहारा दिया और चीजों को समझने की दृष्टि भी भेंट की. मेरा भाषा और गणित का आरम्भ एक साथ हुआ बल्कि यह कहना कहीं अधिक ठीक रहेगा कि दोनों प्रत्येक व्यक्ति के शुरुआती सीखने में साथ-साथ चलते हैं. शब्द राह दिखाते हैं, अक्षर लुकाछिपी का खेल खेलते-खेलते नये शब्द रचवा लेते हैं. आज जब पीछे मुड़कर देखता और विचार करता हूं कि पढ़ने-लिखने की शुरुआत कब, कैसे, कहां हुई तो तीन छोर नजर आते हैं. तो अभी मैं एक छोर पकड़ कर आपको ले चलता हूं अपने गांव बल्लान. बल्लान, जिला मुख्यालय बांदा से यही कोई चालीस किमी दूर पूरब की ओर बसा मिश्रित आबादी का मेरा गांव जहां मैंने अपनी आंखें खोलीं और जीवन की किताब का पहला पन्ना भी. घर के चारों ओर खेतों में भैंसलोट, परसन, तुलसी भोग, लोचई, महाचिन्नावर धान की पसरी खुशबू मन मोह लेती। पत्तियों और घास पर पड़ी ओस की बूंदें चमकतीं और 3-4 वर्ष का मैं उनके मोहपाश में बंधा गिन-गिन कर हथेली में भर लेना चाहता. पर हर बार मेरे हाथ रिक्त होते और आंखें भरी। दादी टोकतीं, ‘तुमने ज्यादा ले लिया ना, दूसरे बच्चे का हिस्सा भी. इसीलिए मोती टूट गये, समझे.’’ और फिर गिनकर चार-पांच मोती मेरी हथेली पर रख देतीं, एक के बाद एक. बहुत बाद में जान पाया कि दादी ने तो गणित का जोड़-घटाव ही नहीं पढ़ा दिया था बल्कि सामाजिक उत्तरदायित्व का सूत्र भी अन्तर्मन में कहीं गहरे उतार दिया था कि प्रकृति से थोड़ा और अपने हिस्से का ही लो.

दूसरा छोर, मेरी माता जी श्रीमती रामबाई, जिन्हें हम सब भाई बहन अम्मा कह के बुलाते हैं, ने दादी की सिखावन की कड़ी को आगे बढ़ाया. कहीं से मिल गई फटी ‘हिन्दी बाल पोथी’ के अक्षर और तरह-तरह के चित्रों से प्रथम परिचय अम्मा ने ही करवाया. नहला-धुला के बखरी में बैठा पोथी पकड़ा देतीं और स्वयं वहीं घर के काम करती जातीं. जांत में गेहूं पीसना हो, आंगन में सूखने के लिए धान फैलाना, कोनइता में धान दरकर बगरी बनाना या फिर ‘कांणी’ में बगरी कूटना. महीनों मैंने केवल वर्णमाला सिखाने वाले उन अनगढ़ चित्रों को ही देखने में बिताया. अम्मा चित्रों को पहचान कर उनके नाम उच्चारण करतीं और मैं दुहराता रहता. ऐसा करते वे मुझे याद हो गये. घर के सामने की धूल भरी धरती मेरी पाटी बनी और अम्मा ने मेरी उंगली को कलम बनाकर मुझे पहला अक्षर ‘क’ बनाना सिखाया था. जाडे के मौसम में दरवाजे के पार उगी दूब ओस से नहाई होती और मैं दूसरे बच्चों के साथ अपनी उंगली से वर्णमाला का कोई अक्षर या चित्र बना रहा होता था. तीसरा छोर मेरी औपचारिक शिक्षा के आरम्भ होने से जुड़ा है. 6 साल का होते-होते मैं गांव की पगडण्डी छोड़ अध्यापक पिता श्री बाबूलाल दीक्षित साहित्याचार्य के साथ अतर्रा कस्बे मे आ गया था. मेरी पढ़ने की औपचारिक शुरुआत यहीं से हुई. ब्रह्म विज्ञान शिशु सदन में मेरी पाटी पूजा हुई और पक्के एक में नाम लिखा गया. यहां पढ़ने एवं सीखने का विस्तृत फलक मिला. मुझे अच्छी तरह से याद है कि स्कूल में होने वाली बाल सभा में मैं गीत-कहानी सुनाया करता था. घर में कोई साहित्यिक माहौल तो नहीं था पर पिताजी ‘धर्मयुग’ और कुछ अन्य पत्रिकाएं नियमित लाया करते थे, जिसे मैं चोरी-चोरी पढ़ लिया करता था. घर में लोहे का एक पुराना बड़ा संदूक था जिसमें किताबें भरी रहा करतीं थीं. बरसात बाद पिताजी किताबों को धूप दिखाते थे. ये किताबें मुझे अपने पास बुलातीं, मेरा मन खींचतीं थीं. मैं जानने को उत्सुक था कि उनमें क्या है. सन् 1981 की गर्मियों के अलस भरे लम्बी छुट्टी के दिन, कक्षा छह उत्तीर्ण करने के कारण कुछ विषयगत पढ़ने को था नहीं. कुछ न कुछ पढ़ने की आदत बन जाने के कारण मन में जिज्ञासा हुई कि संदूक मे से कुछ निकाला जाये, पर पिताजी की डांट-डपट का डर. मन संदूक में रम गया था और एक दिन धीरे से एक मोटी किताब निकाल ली. संयोग से वह कथा सम्राट प्रेमचन्द्र का उपन्यास ‘गोदान’ था. तो घर के सामने लगे बरगद की छांव तले सात दोपहर में चोरी-चोरी ‘‘गोदान’’ पढ़ा. ‘गोदान’ में वर्णित तत्कालीन परिस्थितियों ने बाल मन पर गहरा असर डाला और सामाजिक ताने-बाने को समझने की एक दृष्टि भी दी. तब अंकुरित हुए सामाजिक समरसता, समानता, सहिष्णुता, करुणा, न्याय एवं बन्धुत्वभाव आज विकसित होकर विस्तृत फलक को अपने में समेट लिए हैं. अगली पुस्तक जो हाथ लगी वह थी देवकी नन्दन खत्री का उपन्यास ‘चन्द्रकान्ता’. गोदान के यथार्थ धरातल से बिल्कुल उलट कल्पना की दुनिया की भावभूमि में बुने ‘चन्द्रकान्ता‘ ने मन को बांध लिया था. वृन्दावनलाल वर्मा की ‘मृगनयनी‘ को कैसे भूल सकता हूं, ऐतिहासिक सन्दर्भों को कल्पना के धागे में पिरोकर पाठक के चित्त को चुरा लेने की कला का दर्शन भी तभी कर लिया था. और हां, चन्द्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ की कहानी ‘उसने कहा था’ भी पढ़ी थी जो किसी अखबार के रविवासरीय पन्ने में छपी थी और आज भी जिसकी कटिंग मेरे पास सुरक्षित है. तमाम व्यस्तता के बावजूद मैं पढने-लिखने का मौका ढूंढ लेता हूं और किसी दिन यदि कुछ पढ़-लिख नहीं पाया तो खालीपन महसूस करता हूं. नई-नई किताबों कों पढ़ने की भूख और नया सीख पाने की ललक बहुत बढ़ गई है. इतना सब पढ़ने के बाद भी पढ़ने और लिखने से मन नहीं भरा. तो मेरी प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा प्राप्त करने में मुझे कोई परेशानी नहीं हुई. नियमित अखबार और पत्रिकाएं पढ़ने के कारण मेरा सामान्य ज्ञान अन्य हमउम्र बच्चों से कहीं अधिक बेहतर और समृध्द था जिसका मुझे आगे बहुत लाभ मिला.

लेखक पर्यावरण, महिला, लोक संस्कृति, इतिहास एवं शिक्षा के मुद्दों पर दो दशक से शोध एवं काम कर रहे हैं। मोबा - 09452085234

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