संस्मरण - कांच का टुकडा

लेखक - संतोष कुमार साहू (प्रकृति)

मैं शासकीय प्राथमिक शाला लफंदी के भारत माता बाग में बैठा था. तभी कक्षा पहली की एक छात्रा कुमारी लोकेश्वरी साहू मेरे पास आयी और बोली – ‘‘गुरजी ये क्या है?’’ मैं उसके हाथ में कांच का टुकडा देखकर डर गया कि कहीं उसे चोट न लग जाये. मैंने कहा - ‘‘ये तो कांच का टुकडा है.’’ वह बोली - ‘‘इसका क्या करूं?’’ मैने कहा - ‘‘इसे कहीं दुर फेंक दो.’’ उसने मेरे चेहरे को गौर से देखा और बोली - ‘‘गुरूजी इसको फेंकेंगे तो किसी के पैर में चुभ जायेगा.’’

मैं कुछ देर अवाक रह गया !! कुछ सोचकर मैं बोला – ‘‘लाओ मुझे दो. मैं उचित स्थान पर रख दूंगा.’’ उसने मुझे फिर कहा - ‘‘गुरुजी इसे कहीं फेंकना मत देना नहीं तो किसी के पैर में चुभ सकता है’’ मैने कहा ठीक है, और उस कांच के टुकडे को लेकर कक्षा में गया और सबको यह बात बताई. उसकी तारीफ कर सब बच्चों से ताली बजवाई. यह संदेश पूरी कक्षा में बताया कि कोई भी कांच का टुकड़ा यहां-वहां नहीं फेंकना चाहिए. हम सब की आदत होती है किसी भी अनुपयोगी वस्तु को कहीं भी फेक देंते हैं. पर इस प्रकार कहीं भी फेंक देन से अन्यय लोगों को नुकसान को सकता है. कांच का टुकड़ा किसी के पैर में लगने पर घाव, दर्द, पीड़ा और आघात पहुँचा सकता है. यह बात बच्चों को संदेश के रूप में समझाई.

उस छोटी सी छात्रा की सोच कितनी सकारात्मीक है. मुझे भी इसने बहुत कुछ सि‍खा दिया. कभी -कभी हमारे जीवन में हमसे छोटे भी हमें बड़ी बात सि‍खा देते हैं.

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