कहानी

सच्चा मित्र

लेखक - विवेकानंद दिल्लीवार

एक पत्ते एवं एक मिट्टी के ढेले में गहरी मित्रता थी. दोनो एक दूसरे के लिये मर मिटने को तैयार थे. एक दिन खूब बारिश होने लगी. मिट्टी के ढेले ने पत्ते से कहा – ‘‘मित्र अब तो मैं नही बचूंगा. आज के बाद हम दोनों जुदा जो जाएंगे.’’ यह सुनकर पत्ते ने ढ़ांढ़स बंधाते हुए कहा - ‘‘मित्र हम दोनों को कोई अलग नही कर सकता. भले ही मैं पानी मे पड़ा रहूं मगर तुमको मुझसे जुदा नही होने दूंगा. ऐसा कहकर पत्ते ने स्वयं पानी मे भीगते हुए मिट्टी के ढ़ेले को ऊपर से ढ़क लिया. इस प्रकार ढ़ेले की जिंदगी बच गई.

कुछ दिन बाद तेज आंधी आई. पत्ते ने ढेले से कहा - ‘‘मित्र ये आंधी तो मुझे तुमसे दूर ले लाएगी. मेरे दोस्त तुम्हे खोकर मैं जी नहीं सकता. कही गिरकर मर जाउँगा.’’ ढेले ने कहा - ‘‘दोस्त एक दिन पानी से तुमने मेरी जिंदगी बचाई थी. आज मैं तुम्हे’ आंधी तूफान से बचाऊंगा.’’ ऐसा बोलकर ढ़ेला पत्ते के ऊपर बैठ गया और उसने अपने दोस्त को बचा लिया. बच्चो सच्चा मित्र वही है जो मुसीबत में काम आए.

एक प्रयास बदलाव की ओर

लेखिका - श्वेता तिवारी

एक गांव है राजपुर. वहाँ का प्रकृतिक वातावरण बहुत ही निर्मल है. ग्रामीण भी सभी अपने अपने कामो मे व्यस्त रहते थे.

गांव मे जो प्राथमिक सुविधाएं मिलनी चाहिए वे सभी वहां थीं. बच्चों के पढ़ने सीखने के लिए विद्यालय भी था, परन्तु विद्यालय की दशा अच्छी नहीं थी. शिक्षक विद्यालय मे बड़ी लगन एवं मेहनत से शिक्षा देते थे. उन्हीं मे एक शिक्षक थे श्री चंदन व्दिवेदी गुरूजी. वे अपने छात्रों को पुस्तकीय ज्ञान के साथ साथ व्यवहारिक ज्ञान भी देना चाहते थे. उन्होने अपनी यह इच्छा अपने शिक्षक समूह के सामने रखी तो तो सभी कहने लगे कि व्दिवेदी सर आपकी सोच तो बहुत ही बढ़ि‍या है, परंतु हम यह कैसे कर पाएँगे. हमारा पाठ्यक्रम कैसे पूरा हो पाएगा. छात्रों मे हम दक्षता कैसे ला पाएँगे. तब व्दिवेदी गुरूजी ने कहा यह भी हो जाएगा. पुस्तकीय शिक्षा और व्यवहारिक शिक्षा दोनों का हम साथ साथ अभ्यास कराएँगे. बस इतना है कि हमे मेहनत थोड़ी ज्यादा लगेगी. सारे शिक्षक साथी मन बनाकर तैयारी मे जुट गये. विद्यालय की छुट्टी के पश्चात व्दिवेदी गुरूजी गांव के लोगो से चर्चा करने पहुंच गए. अगले दिन बैठक मे जब पालक आये तब उन्हें भी विद्यालय के विभिन्न कार्यो के बारे मे अवगत कराया गया. एक पालक ने कहा कि मै बच्चों को गीत और कविता सिखा सकता हूँ. फिर क्या था अगली सुबह होते ही विद्यालय में बच्चों को सिखाने पढ़ाने का काम आरंभ हो गया. गोविंद काका ने उन्हें पुरानी वस्तुओं से कागज से खिलौने बनाने सिखाये. अब तो बच्चों का मन विद्यालय मे रमने लगा. परंतु कुछ पालको को यह बात अच्छी नहीं लग रही थी. वे अगली बैठक मे विद्यालय पहुंचे और शिक्षकों के ऊपर नाराजगी जाहिर की. व्दिवेदी गुरूजी ने उन्हें समझाते हुए कहा – ‘‘देखिए विद्यालय मे छात्रों को पुस्तकीय ज्ञान के साथ साथ व्यवहारिक शिक्षा देना भी जरूरी है. तभी एक पालक बोल उठे कि हमारा बच्चा अच्छे से नहीं पढ़ेगा तो फिर उसकी नौकरी कैसे लगेगी? तब गुरूजी ने उन्हें समझाते हुए कहा कि मान लो अगर नौकरी नहीं लगती है तो हमारे हाथ मे हमारा हुनर तो है. हम इसी के सहारे आगे बढ़ जाएंगे. अब के समय मे ऐसा नही कि सभी को नौकरी मिल जाए. गुरूजी की इन बातों को सुनकर पालक शांत और आशान्वित होकर विद्यालय के हर कार्यक्रम मे सहयोग देने का निश्चय करके अपने घर लौटे. विद्यालय मे अगले कुछ दिनों मे श्रमदान करने वाले की संख्या बढने लगी. पालकों को यह लगने लगा कि हम अपने बच्चों के स्वस्थ और समृध्द जीवन के लिए यह कार्य कर रहे हैं. गांव मे बुधिया नाम के एक माली काका थे. उन्होने बच्चों को बागवानी सिखाने का प्रस्ताव रखा. विद्यालय के पीछे खाली जमीन पडी थी. उसमे बागवानी शुरू की गई. धीरे धीरे क्यारियाँ तैयार हो गईं और माली काका ने ग्राम पंचायत उद्यान विभाग से पौधे लाकर रोप दिये. बच्चे प्रतिदिन खाद पानी डालते गए और पौधे दिन प्रतिदिन बढते चले गए. कुछ दिनों में फूल खिलने लगे. इसे देखकर बच्चों का मन खुशी से झूम उठा. गाँव के विद्यालय की सुन्दरता बढती चली गई. अब हर रोज बच्चों को विद्यालय के सुन्दर एवं स्वच्छ माहौल मे नित नई शैक्षणिक गतिविधियों के व्दारा शिक्षा दी जाने लगी. बच्चे सतत रुप से रोज विद्यालय आने लगे और शिक्षा के स्तर मे एक अभूतपूर्व परिवर्तन देखने को मिला.

इसी बीच व्दिवेदी सर का स्थापनांनतरण दूसरे विद्यालय मे हो गया. बच्चे और पालक समुदाय सभी की इच्छा थी की गुरूजी उन्हें और उनके विद्यालय को छोड़कर ना जाएँ. सभी के आँखों से आँसू बहने लगे. गुरूजी ने उन्हें समझाया कि आप सब लोग समय समय पर अपना अमूल्य सहयोग विद्यालय को देते रहें. मै आप सभी से मिलने समय समय पर आऊँगा. यह वादा करके गुरूजी दूसरे विद्यालय की ओर जाने की तैयारी करने में लग गए.

बेटी

लेखक – अजय कुमार कोशले

एक छोटा सा कसबा था. वहां एक व्यापारी अपनी पत्नी और पांच बेटियों के साथ रहता था. एक बार व्यापारी की पत्नी फिर से गर्भवती थी. व्यपारी ने अपनी पत्नी से कड़े और उदासी भरे शब्दों में कहा – ‘इस बार मुझे बेटा चाहिए. यदि इस बार बेटा नही हुआ तो मैं बच्चे को बाहर फेंक आउंगा.’ यह बात सुनकर उसकी पत्नी रोने लगी. समय बीता और उसकी पत्नी ने एक सुंदर बेटी को जन्म दिया. बेटी के जन्म से व्यापारी को कोई खुशी नहीं हुई. उसने उस नवजात बच्ची को बाहर ले जाकर फुटपाथ पर छोड़ दिया और वापस घर आ गया.

अगली सुबह व्यापारी उस यह देखने उस स्थान पर फिर से गया कि कोई उस बच्ची को ले गया अथवा नहीं. बच्ची वहीं पड़ी थी. व्यापारी उसे घर ले आया और दूध पिलाकर वापस वहीं छोड़ आया. ऐसा उसने कई दिनो तक किया, पर जब बच्ची को कोई नहीं ले गया तो व्यापारी उसे अपने ही घर पर रखने को मजबूर हो गया.

इस बीच व्यापारी की पत्नी पुन: गर्भवती हुई और इस बार उसने लड़के को जन्म दिया. परन्तु लड़के के जन्म: के साथ ही व्यापारी की बड़ी बेटी की मृत्यु हो गई. समय चक्र चलता रहा. व्यापारी के एक के बाद एक लड़के होते गए, पर हर लड़के के जन्म के साथ एक बेटी की मृत्यु हो जाती थी. इस तरह व्यापारी के पांच लड़के हो गए और पांच लड़कियों की मृत्यु हो गई. अब केवल छठवीं लड़की बची थी, जिसे व्यापारी ने बाहर फेंकने की बहुत कोशिश की थी पर कामयाब नहीं हुआ था.

समय बीतता गया. व्यापारी बूढ़ा हो गया. उसने अपने सभी बेटों की शादी कर दी. सब अपनी गृहस्थी में व्यस्त हो गए और अपने माता-पिता को छोड़ कर अन्य स्थानों पर रहने लगे. एक दिन व्यापारी बीमार पड़ गया तो उसकी लड़की ने ही उसकी सेवा की जिससे वह ठीक हो गया. बेटी की सेवा को देख कर व्यापारी की आंखों में आंसू आ गए. वह बोला – ‘मैं भी कितना पापी हूं. तुम्हें बुरा समझकर मैं बचपन में तुम्हें फेंकने चला था. मुझे माफ कर दो बेटी.’

व्यापारी की बेटी ने उत्तर दिया – ‘बाबा मैं तो बहुत छोटी थी. मुझे तो कुछ याद नहीं. तुम भी बुरा सपना समझकर इसे भूल जाओ. मैं तो तुम्हारी लाड़ली बेटी हूं.’

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