कहानी

मगरमच्छ का समोसा

लेखक – दीपक कुमार कंवर

तालाब के किनारे एक मगरमच्छ छोटी सी दुकान चलाता था, जहां वह समोसा व चाय बेचा करता था. वहीं पास के पेड़ पर एक बंदर रहता था. मगरमच्छ जब भी कहीं बाहर जाता तो मौके का फायदा उठाकर बंदर उसकी दुकान से समोसा चुराकर खा जाता था. इससे मगरमच्छ बहुत परेशान रहता था. मगरमच्छ ने सोचा कि कोने में छुपकर बंदर को पकड़ ले, परन्तु बंदर सूंघकर मगरमच्छ का पता कर लेता था और सामने नहीं आता था. मगरमच्छ ने समोसे में नमक मिर्च ज्यादा डाली फिर भी बंदर समोसे खा गया. मगरमच्छ ताला बंद करके बाहर जाने लगा, पर बंदर पत्थर से ताला तोड़ देता था.

एक दिन मगरमच्छ ने पास मे रहने वाले खरगोश को अपनी समस्या बताई. खरगोश ने मगरमच्छ को एक उपाय बताया. योजना के मुताबिक एक दिन मगरमच्छ ने छोटे-छोटे पत्थर डालकर समोसे बनाये. बंदर को बहुत जोर की भूख लगी थी. वह मौका देखकर समोसा लेकर कर पेड़ पर चढ़ गया. जैसे ही उसने समोसा खाया पत्थर से उसके दांत टूट गये. उस दिन से बंदर ने समोसा चुराना बंद कर दिया. मगरमच्छ भी अब सुखपूर्वक रहने लगा।

उपकार

लेखक – दिलकेश मधुकर

एक राजकुमार बड़े दुष्ट स्वभाव का था. एक दिन वह बाढ़ के पानी में बहने लगा. नदी में एक लट्ठा बह रहा था. बाढ़ में फंसे हुए एक साँप और एक चूहे ने उस लट्ठे पर सवारी गाँठ ली. राजकुमार ने वह देखा तो वह भी उसे पकड़ कर तैरने लगा.

नदी के तट पर एक साधु रहता था. उसने लट्ठे पर सवार तीन प्राणियों को बहते देखा तो वह नदी में कूद पड़ा और लट्ठे को घसीट कर किनारे पर ले आया. साधू उन तीनों को अपनी झोपड़ी में ले गया. वे सर्दी से काँप रहे थे. साधू ने आग जलाकर उनकी ठंड दूर की और उन्हें भोजन कराया. उनके स्वस्थ हो जाने पर उन्हें विदा किया.

साँप ने कृतज्ञता व्यक्त की और कहा मैं पास में ही रहूँगा आपके दर्शन करता रहूँगा. मेरे पास कुछ धन है. जब आपको जितनी आवश्यकता होगी उतना देता रहूँगा. चूहे ने हाथ जोडकर कहा – 'मैं आपके लिए ईधन जुटाता रहूँगा. पेड़ों की टहनियाँ काट कर झोपड़ी के पास ढ़ेर लगा दूंगा.' राजकुमार कृतघ्न था. उसने साधू की सहायता पर कृतज्ञता व्यक्त नहीं की. उल्टे उसे बुरा लगा कि साधू ने राजकुमार की भांति उसका सम्मान और सत्कार नहीं किया. उसने वापस जाकर आपने सैनिकों को भेजकर साधु की झोपड़ी उखाड़ कर फिंकवा दी. किसी ने सच ही कहा है कि - 'उपकार भी हर किसी के साथ नहीं करना चाहिए'.

चुनौती

लेखिका - श्रीमती लक्ष्मी मधुकर

एक बार एक किसान परमात्मा से बड़ा नाराज हो गया. कभी बाढ़ आ जाये, कभी सूखा पड़ जाए, कभी धूप बहुत तेज हो जाए तो कभी ओले पड़ जायें. हर बार कुछ ना कुछ कारण से उसकी फसल थोड़ी ख़राब हो जाये.

एक दिन बड़ा तंग आ कर उसने परमात्मा से कहा, देखिये प्रभु, आप परमात्मा हैं, लेकिन लगता है आपको खेती-बाड़ी की ज्यादा जानकारी नहीं है. एक प्रार्थना है कि एक साल मुझे मौका दीजिये, जैसा मै चाहूं वैसा मौसम हो. फिर आप देखना मै कैसे अन्न के भण्डार भर दूंगा. परमात्मा मुस्कुराये और कहा ठीक है, जैसा तुम कहोगे वैसा ही मौसम दूंगा, मै दखल नहीं करूँगा.

किसान ने गेहूं की फ़सल बोई. जब धूप चाही, तब धूप मिली, जब पानी चाहा तब पानी बरसा. तेज धूप, ओले, बाढ़, आंधी तो उसने आने ही नहीं दी. समय के साथ फसल बढ़ी और किसान की ख़ुशी भी, क्योंकि ऐसी फसल तो आज तक नहीं हुई थी !! किसान ने मन ही मन सोचा अब पता चलेगा परमात्मा को. बेकार ही इतने बरस हम किसानो को परेशान करते रहे.

फ़सल काटने का समय भी आया. किसान बड़े गर्व से फ़सल काटने गया. पर यह क्या ? गेहूं की एक भी बाली के अन्दर गेहूं नहीं था. सारी बालियाँ अन्दर से खाली थीं. बड़ा दुखी होकर उसने परमात्मा से कहा - प्रभु ये क्या हुआ ? तब परमात्मा बोले- ये तो होना ही था. तुमने पौधों को संघर्ष का ज़रा सा भी मौका नहीं दिया. ना तेज धूप में उनको तपने दिया, ना आंधी ओलों से जूझने दिया. बाली में गेहूं भरने के लिये प्रकृति की चुनौतियों को झेलना ज़रूरी है. आंधी, तेज बारिश, ओले आदि से संघर्ष करने पर पौधे में बल पैदा होता है. वही उसे शक्ति देता है, ऊर्जा देता है और उसकी जीवटता को उभारता है.

पौधों की तरह यदि इंसान के जीवन में कोई संघर्ष या चुनौती ना हो तो आदमी खोखला ही रह जाता है, उसके अन्दर कोई गुण नहीं आ पाता. चुनौतियाँ ही मनुष्य को सशक्त और प्रखर बनाती हैं. अगर प्रतिभाशाली बनना है तो चुनौतियाँ स्वीकार करनी ही पड़ेंगी, अन्यथा हम खोखले ही रह जायेंगे.

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